हिन्दी भाषा की तुलना मैं किसी बेल से कर रहा हूँ तो यह प्रकल्पित नहीं है, बल्कि हकीकत है. हमारी हिन्दी, ठीक उस बेल अथवा बेला की तरह है, जिसकी जड़ें और तना तो हिन्दूस्थान में दिखाई देता है, लेकिन उसकी शाखा-प्रशाखाएँ पूरे विश्व में फ़ैल कर पुष्पित हो रही है. उसमें एक नहीं बल्कि कई तरह के रंग-बिरंगे पुष्प खिल रहे हैं जो आमजन को अपने सम्मोहन से सम्मोहित कर रहे है.
यह लिखते हुए मुझे डा.सर्वादानंद द्विवेदी जी की काव्य-पंक्तियाँ याद आ रही है. वे लिखते हैं-
ज्ञान-समुद्र कबीर-रहीम का पीती अगस्त हथेली है हिंदी. मीरा की प्रेम-तरंगिनी-अंग के रंगन संग में खेली है हिंदी.. अनुराग-तड़ाग में फूली-फली विकसी जग-राम कहानी है हिंदी. देश-प्रदेशन साथ चली, अब विश्व के मंच की वाणी है हिंदी..
आज भले ही वह देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई हो (राजनैतिक कारणॊं से) लेकिन साधु-संतों की यह भाषा- संपर्क भाषा, राजभाषा के सोपानों को पार करती हुई, विश्व भाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो चुकी है. अब यह एक देशीय भाषा नहीं रही, बल्कि बहुदेशीय भाषा बन गई है. मारीशस, सुरीनाम, गुयाना, फ़ीजी, ट्रिनीडाड जैसे देश जहाँ भारतीय मूल के लोग बहुतायत में हैं, के लिए तो हिंदी आज उनके अस्तित्व की भाषा बन गई है. गिरमिटिया मजदूर के रुप में भारत से जाते हुए लोग इसे अपने साथ ले गए. इन सभी देशों में यह फलती-फूलती तो रही, साथ ही उन देशों की सीमाओं में भी प्रवेश करते हुए फल-फूल रही है, जहाँ अंग्रेजी अपना साम्राज्य फ़ैलाये हुए थी. अतः यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं कि बोलने-समझने वालों की दृष्टि में आज हिन्दी भाषा विश्व की सबसे बड़ी भाषा बनकर उभरी है. कभी दूसरे स्थान पर अंग्रेजी अपना स्थान बनाए हुए थी और मन्दारिन पहला. इसने अंग्रेजी को पीछे धकलते हुए दूसरा स्थान बना लिया है.
कहा जाता है कि हिन्दी का जन्म संस्कृत भाषा से हुआ है. अतः यह संस्कारवान है और व्याकरणीय भी. हिन्दी के देवनागरी लिपि विश्व की सर्वोत्तम वैज्ञानिक लिपि है. इसमें शब्दों का अपरिमित भण्डार है. इसका अपना बेजोड़ साहित्य है. साहित्य की लगभग सभी विधाओं में, न केवल भारतीय बल्कि विदेशी मूल के रचनाकार भी हिन्दी में ही अपनी लेखनी कर रहे हैं. फ़िर हिन्दी का अपना एक अनोखा आकर्षण है जिसकी ओर विदेशी विद्वान लेखक भी हिन्दी को ही अपनी लेखनी का माध्यम बनाए हुए हैं. हिन्दी की अपनी खास विशेषताएँ भी है, जिसके बल पर वह संपूर्ण विश्व को अपने में समाहित किए हुए चल रही है.
इसकी खास विशेषताएँ.
(०) वर्तमान में यह संस्कृत, पाली, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिंधी, कश्मीरी, नेपाली,बोडॊ,मैथिली आदि भाषाओं की लिपि है.(०) उर्दू के अनेक साहित्यकार भी उर्दू लिखने के लिए अब देवनागरी लिपि का प्रयोग कर रहे हैं.(०) इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है. (०) यह एक ध्वन्यात्मक ( फ़ोनेटिक या फ़ोनेमिक) लिपि है, जो प्रचलित लिपियों ( रोमन,अरबी,चीनी) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है.(०) इसमें कुल 52 अक्षर हैं, जिसमें 14 स्वर और 38 व्यंजन हैं.(०) अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक हैं. (०) स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक-अन्तस्थ-ऊष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं.(०) इस लिपि में विश्व की समस्त भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता है.(०) वही वह लिपि है जिससे संसार की किसी भी भाषा को रुपांतरित किया जा सकता है. (0) भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग है, पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान है. इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यंतरित किया जा सकता है (०) यह बाएँ से दाएँ की तरफ़ लिखी जाती है.(०) देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौंदर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है (०) एक ध्वनि-एक सांकेतिक चिन्ह.(०) एक सांकेतिक चिन्ह-एक ध्वनि (०)स्वर और व्यंजन में तर्क संगत एवं वैज्ञानिक क्रमविन्यास (०) वर्णॊं की पूर्णता एवं संपन्नता (52-वर्ण, न बहुत अधिक और न बहुत कम) (०) उच्चारण और लेखन में एकरुपता.(०)उच्चारण में स्पष्टतता ( कहीं कोई संदेह नहीं). (०) लेखन और मुद्रण में एकरुपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी में हस्तलिखित और मुद्रित रुप अलग-अलग है.).(०) देवनागरी लिपि सर्वाधिक चिन्हों को व्यक्त करती है.(०) लिपि चिन्हों के नाम और ध्वनि में कोई अन्तर नहीं ( जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” //मात्राओं का प्रयोग-अर्ध अक्षरों के रुप की सुगमता.
मित्रों,
इतनी सारी विशेषताओं./ खूबियों के कारण हिन्दी हमारी आन-बान-शान की भाषा है. हमारी अस्मिता की भाषा है. हमारी सांस्कृतिक पहचान की भाषा है. राष्ट्रहित की बात हो या फ़िर जनहित की, इसके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता. इसकी अमोघ शक्ति के बारे में पूरा विश्व भली-भांति परिचित है. यह उस आंधी का नाम है कि जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ों को उखाड़ फ़ेंका. जैसा कि कभी यह कहा जाता था कि उसका सूरज कभी अस्त नहीं होगा. उसने अपनी शक्ति से विश्व को परिचित करवा दिया है.
अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा है, यह कहते हुए अंग्रेजीदां कहते नहीं थकते है, जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत है. विश्व में सबसे ज्यादा चीनी भाषा "मन्दारिन" बोली जाती है और दूसरा क्रमांक हिन्दी का है. जबकि रुसी, स्पेनिज, पोर्तुगीच और डच आदि ग्यारह भाषाऒं में अंग्रेजी बारहवें पादान पर है. विश्व की चार प्रतिशत आबादी ही अंग्रेजी बोलती- लिखती और समझती है. सवाल उठना लाजमी है कि यह कैसी विश्वभाषा है? हमारी हिन्दी वैज्ञानिक भाषा है, जबकि अंग्रेजी अवैज्ञानिक है. यह बिना लगाम की घोड़ी के समान है. इंगलैण्ड के जंगली लोगों ने जब इसे बोलना शुरु किया तो इसे अंग्रेजी जुबान का नाम मिला, जबकि इससे पूर्व वहाँ लैटिन भाषा प्रचलन में थी. हिन्दी के पास अपने मौलिक शब्दों की संख्या साठ लाख है, जबकि अंग्रेजी के पास लगभग देढ़ लाख शब्द हैं, और वे भी इधर-उधर से उधार लिए गए हैं.
आइए जानते हैं कि हिन्दी भाषा की विशेषताएं और आकर्षण के बारे में-
1-संस्कृत की दुहिता होने के कारण हिन्दी बहुसंख्य लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है. (2)-.इसका साहित्यिक झान विभिन्न भाषाओं में विस्तृत तथा उच्च कोटि का है. (3)-.इसका शब्द भंडार तथा विचार क्षेत्र व्यापक है.( 4.)- इसका व्याकरण सरल और प्रामाणिक है. (5-). इसकी ग्राहय शक्ति शक्तिशाली है, जिससे वह आवश्यकतानुसार देशी-विदेशी भाषाओं के शब्दों को सरलता से अपने में आत्मसात कर लेती है. (6)-इसकी लिपि सरल है. (7) जैसा लिखा जाता है वैसा पढ़ा जाता है. (8)- इसमें भावात्मक एकता स्थापित करने की पूरी सामर्थता है. इन्हीं सारी विशेषताओं को देखते हुए देश के विभिन्न भाषा-भाषियों, उदारचेतना से संपन्न बुद्धिजीवियों और राष्ट्र हितैषियों ने अपने विचार प्रकट करते हुए हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया था.
अर्थ-शक्तिभारत, परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र भारत, संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शन भारत,एवं संसार के सबसे बडॆ बाजारों में एक भारत से निकटता बढाने के लिए विश्व का हर देश ललायित है. यही कारण है कि विश्व के अनेक देश अपने यहाँ हिन्दी शिक्षण की उच्चस्तरीय व्यवस्था कर रहे हैं. इस देशों में अमरीका, रुस, इंगलैण्ड, फ़्रांस, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे विश्व के प्रभावशाली देश भी शामिल हैं. इतना ही नहीं प्रवासी भारतीयों ने अपनी संस्कृति के रक्षा के लिए हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था विश्व में बडॆ व्यापक स्तर पर की है. वे हिन्दी की सुरक्षा, प्रतिष्ठा एवं प्रचार के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं.
संसार में कुल मिलाकर लगभग २८०० भाषाएं हैं. इनमे १३ ऎसी भाषाएं हैं,जिनके बोलने वालों कीसंख्या ८ करोड से अधिक है. ताजा अंकड़ों के अनुसार संसार की भाषाओं में, हिन्दी भाषा को द्वितीय स्थान प्राप्त है. भारत के बाहर वर्मा, श्रीलंका, फ़ीजी, मलाया, दक्षिण और पूर्वी अफ़्रीका में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या ज्यादा है. एशिया महादेश की भाषाओं में हिन्दी ही एक ऎसी भाषा है, जो अपने देश के बाहर भी बोली और लिखी जाती है,क्योंकि यह एक जीवित और सशक्त भाषा है.
ताजा आंकडॊं के अनुसार भारत में हिन्दी जानने वालों की संख्या सौ करोड़ है. भारत के बाहर पाकिस्थान, इजराइल, ओमान, इक्वाडोर, फ़िजी, इराक, बांगलादेश, ग्रीस, ग्वालेमाटा,म्यांमार, यमन, त्रिनीदाद, सउदी अरब, पेरु, रुस, कतर,, मारीशस, सूरीनाम, गुयाना, इंग्लैण्ड आदि में बोली जाती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा की मान्यता मिलने जा रही है. वर्तमान में अंग्रेजी, फ़्रेंच,चीनी,रुसी एवं स्पेनिस भाषाओं को राष्ट्रसंघ की मान्यता प्राप्त है.
संसार में हिन्दी ही एक ऎसी भाषा है,जिसे विदेशियों ने सर्वप्रथम विश्वपटल पर रखा. हिन्दी के शोधार्थी डा.जुइजिपियोतैस्सी तोरी ने फ़्लोरेंस विश्वविद्धयालय इटली में रामचरितमानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन 1911 में शुभारंभ किया. भारत की संस्कृति ने उन पर इतना असर डाला कि स्वदेश “इटली” छोड़कर जीवनपर्यंत बीकानेर में रहे. साम्यवादी देशों में तुलसीकृत रामचरित मानस की लोकप्रियता देख, स्टालिन ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अकादमीशियन अलकसई वरान्निकोव द्वारा रुसी भाषा में पद्दानुवाद कराया, जिसमें साढ़े दस वर्ष लगे. तुलसीभक्त वेल्जियम में जन्में फ़ादर रेवरेण्ड कामिल बुल्के,जिन्होंने हिन्दी के कारण भारत की नागरिकता ली. तुलसी की काव्यकृति हनुमानचालीसा का रोमानियन भाषा में, बुकारेस्ट में प्रो. जार्ज अंका ने डा. यतीन्द्र तिवारी के सहयोग से अनुवाद किया.
अमेरिका के कई विश्वविद्दालयों में हिन्दी पढाई जाती है. यथा- पेनस्टेटयेल, लायोला, शिकागो, वाशिंगटन, ड्यूक, आयोवा, ओरेगान, मिशिगन, कोलंबिया, हवाई इलिनाय, अलवामा, युनिवर्सिटी आफ़ बर्जिनिया, युनि.आफ़ मीनेसोटा, फ़्लोरिडा, वैदिक वि.वि.सिराक्यूज, केलिफ़ोर्निया वि.वि., वर्कले युनिवर्सिटी आफ़ टेक्सास, रटगर्स, एमरी, नार्थ केरोलाइना स्टेट,एन.वाय.यू.इन्डियाना, यूसीएलए, मेनीटावा,लाट्रोव तथा केलगेरी विश्वविद्धालय आदि जहाँ हिन्दी की शिक्षा दी जाती है.
आधुनिक चीन में हिन्दी की विधिवत शुरुआत सन 1942 में यूनान प्रांत पूर्वी भाषा और साहित्य कालेज में हिन्दी विभाग की स्थापना के साथ हुई. यह वह समय था जब सारा संसार द्वितीय विश्वयुद्ध की चपेट में था. ऎसी स्थिति में अपनी सुरक्षा के लिए हिन्दी विभाग एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होता रहा. तीन वर्षों बाद सन 1945 में हिन्दी विभाग यूनान प्रांत से स्थान्तरित होकर छॊंगछिन में आ गया और साल भर बाद हिन्दी चीन की राजधानी में स्थित पीकिंग वि.वि. के विदेशी भाषापीठ में आसीन हुई और तबसे यहीं फ़ूलती-फ़लती रही. यहाँ हिन्दी के अलावा संस्कृत, पालि, और उर्दू भाषा साहित्य का अध्ययन-अध्यापन होता है. 1949 से 1959 तक का समय विकास की दृष्टि से बेहतरीन रहा. बाद के वर्षों में काफ़ी शिथिल पडा.. 1960-1971 तक का समय चीनी जनता और समाज के कठिनाइयों भरे दिन थे, हिन्दी विभाग सिकुडकर छोटा हो गया.1980-1999 का यह दौर परिवर्तन का दौर रहा. हिन्दी की मशाल को प्रज्जवलित करने में तीन प्राध्यापकों का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता. वे हैं प्रो.यीनह्युवैन, प्रो.लियो आनवू और प्रो. चिनतिंनहान. इन तीनो विद्वानों ने अपनी लगन ,कर्मठता और आदर्श के बल पर हिन्दी के लिए जितना कार्य किया वह प्रेरणादायक है.
जापान में विदेशी भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन के दो प्रमुख केन्द्र हैं. तोक्यो युनि. आफ़ फ़ारेन स्टडीज एवं ओसाका युनि.आफ़ फ़ारेन स्टडीज. इन दोनों ही वि.वि. में सन 1011-1021 से ही हिन्दुस्थानी भाषा के रुप में हिन्दी-उर्दू की पढाई का सिलसिला प्रारंभ हो गया था. इसकी नींव डालने वाले विद्वान श्री.प्रो.रेइची गामो तथा प्रो.एइजो सावा हैं. 1911 में डिग्रीकोर्स आफ़ हिन्दुस्तानी एण्ड तमिल शुरु हो गया था. सन 1909 से 1914 के मध्य प्रसिद्ध सेनानी मोहम्मद बरकतउल्ला इस विश्वविद्धालय में “हिन्दुस्थानी भाषा” के विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रुप में नियुक्त किए गए. ये दोनो वि.वि. सरकारी विश्वविद्धयालय हैं, जहाँ 4 वर्षीय पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं. आरम्भ में प्रो. देई ने तोक्यो में तथा प्रो.एइजो स्ववा ने ओकासा में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की नींव डाली. ये विद्वान प्रोफ़ेसर हिन्दी के साथ ही उर्दू भी पढाते थे. सन 2003 में सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रो. तोसियो तनाका का “विश्व हिन्दी सम्मान” से सम्मानित किया गया
तोकियो और ओसाका के राष्ट्रीय वि.वि. के अतिरिक्त अन्य कई गैर सरकारी वि.वि. और शिक्षा संस्थान भी हैं, जहाँ वैकल्पिक विषय के रुप में प्रारंभिक और माध्यमिक कक्षाओं तक हिन्दी पढने-पढ़ाने की व्यवस्था है. ताकुशोक वि.वि. के प्रो. हेदेआकि इशिदा, सोनोदा वीमेन्स युनिवर्सीटी के प्रो. उचिदा अराकि और ताइगेन हशिमोतो, तोमाया कोकुसाई वि.वि. के प्रो. शिगोओ अराकि और मिताका शहर में स्थित एशिया-अफ़्रीका भाषा के प्रो. योइचि युकिशिता का नाम अत्यंत प्रसिध्द है.
मारिशस में भारतीय मजदूरों के आगमन के साथ ही इस भूमि पर हिन्दी का प्रवेश हुआ. जिन मजदूरों को भारत के भोजपुर इलाके से यहाँ लाए गए थे “गिरमिटिया” कहलाए. वे अपने साथ झोली में रामचरित मानस, हनुमान चालिसा, महाभारत जैसे पवित्र ग्रंथ लेकर आए. इन्हें विरासत में समृद्ध साहित्य, धर्म, और संस्कृति का ज्ञान था. अपनी जमीन से उजड़े-उखड़े इन मजदूरों को नयी जमीन, यातना शिविर में अपने को जीवित रखने, स्थापित करने और अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए भोजपुरी और हिन्दी का सहारा ही सबसे बडा अवलंबन था. मजदूरी की क्रूर नियति से दुःखी और हताश ये मजदूर, कभी विरहा, कभी कजरी तो कभी हनुमानचालीसा की पंक्तियों से अपनी आंतरिक शक्ति बचा रखने और रात में रामचरितमानस का पाठ उनकी थकान मिटाकर हौसला बढ़ाते. कई अवरोधों के बावजूद बैठकें चलती और भाषा के साथ संस्कृति और धर्म को गति देते रहे. हिन्दू महासभा, आर्यसभा, हिन्दी प्रचरिणी सभा तथा अन्य संस्थानों के सहयोग तथा पण्डित विष्णुदयाल और डा. शिवसागर रामगुलाम के नेतृत्व में भारतीय संस्कृति और इसकी वाहक हिन्दी अपनी उत्कृष्टता पाने में सफ़ल हुई. आज महात्मा गांधी संस्थान और इन्दिरा गांधी सांस्कृतिक केन्द्र, भाषा प्रचार और सांस्कृतिक गतिविधियों को विस्तार दे रहे हैं. भारत सरकार के सहयोग से अब हिन्दी स्पीकिंग यूनियन तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर संस्थान भी इस सांस्कृतिक अभियान में जुड़ गए हैं, तथा हिन्दी सचिवालय की स्थापना में नया आयाम मिला है.
थाईलैण्ड में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन का कार्यक्रम सबसे पहले थाई-भारत सांस्कृतिक आश्रम से शुरु हुआ जिसकी स्थापना सन 1943 में स्वामी सत्यानन्दपुरीजी ने की थी. आचार्य डा. करुणा कुसलासायजी पहले थाई विद्वान थे, जो हिन्दी पढने भारत आए थे. महात्मा गांधी से सारनाथ में मिले और जब वे लौटे तो थाई-भारत सांस्कृतिक आश्रम में ही हिन्दी पढाना शुरु किया और बैंकाक के भारतीय दूतावास में नौकरी शुरु की.
सन 1989 में सिल्पाकोव वि.वि. के पुरातत्व विज्ञान संकाय के प्राच्य भाषा विभाग मे एम.ए.संस्कृत पाठ्यक्रम बनाया गया. उस समय आचार्य डा. चमलोडां शारफ़ेदनूक हिन्दी शिक्षक थे. सन 1966 में शिलपाकोन वि.वि. के पुरातत्व विज्ञान संकाय के प्राच्य भाषा विभाग के संस्कृत अध्यापन केन्द्र की, भारतीय आगन्तुक डा. सत्यव्रत शास्त्री के द्वारा स्थापना की गई. 1993 में थमसात वि.वि. में थाईलैण्ड के भारतीय व्यापारियों के सहयोग से भारत अध्ययन केन्द्र की स्थापना हुई. डा. करुणा कुशलासाय, डा. चिरफ़द प्राकन्विध्या एवं आचार्य डा. चम्लोंग शरफ़दनूक तीनों ने हिन्दी कक्षाएं चलायी.
अंत में-
बहुत ही कम समय में हिंदी ने, अपनी सहजता-सरलता और तरलता से समूचे विश्व को अपने सम्मोहन में बांध लिया है. आज वह जन-जन के कंठ में बसती है. मेरा ऐसा मानना है कि अन्य भाषा-भाषाएँ इतने अल्प समय में इतनी उन्नति नहीं कर पायी, जितना की हिंदी ने यह कारनामा कर दिखाया है.