मैं और मेरी तन्हाइयाँ
मैं और मेरी तन्हाइयाँ
श्रीमती का जाना एक ऐसे समय में हुआ था, जब मुझे उनके साथ की जरुरत थी.लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? कौन कितना जिएगा, कितने समय तक जिएगा ?,कोई नहीं जान पाता. उनके जाने के पश्चात मेरे जीवन में एक महाशून्य उपस्थित हो गया था. उस शून्य को किस तरह भरा जा सकता था, एक यक्ष प्रश्न मेरे समक्ष उपस्थित हो गया था. उदासी भरे दिनों में मैंने एक कविता लिखी-
जीवन के शुन्य
जीवन के ये शुन्य-/क्या कभी भर पायेगें / रिसते घावों के जख्म- /क्या कभी भर पायेगें? / ये आँसू कुछ ऎसे आँसू हैं / / जो निस दिन बहते ही जायेगें /दर्दॊं से मेरा कुछ-/रिश्ता ही ऎसा है / ये बहते और बहते ही जायेगे.//जीवन के ये शुन्य /क्या कभी भर पायेगें ? / रिसते घावों के जख्म / क्या कभी भर पायेगें ?
आशाएं केवल-/ स्वपन जगाती हैं / पलकों की सीपियों से / वक्त-बेवक्त / लुढक जाया करती है / सपनों के राजमहल खण्डहर ही होते हैं / पल भर में बन जाया करते हैं / और पलभर में ढह जाया करते हैं / आशाएं क्या कभी /सभी पूरी हो पाती हैं / सपने सजीले सभी / क्या कभी सच हो पाते हैं ?
विश्वास / सोने का मृग है /आगे-पीछे,पीछे-आगे /दौडाय़ा करता है /जीवन भर भटकाया करता है /अशोक की छाया तो होती है / फिर भी / शोकाकुल कर जाता है / जीवन का यह विश्वास / क्या कभी जी पाता है ? जीवन के शुन्य /क्या कभी भर पाते हैं ?
धन-माया / सब मरीचिकाएं हैं / प्यास दर प्यास / बढाया करती हैं / रात तो रात / दिन में भी / स्वपन दिखा जाती हैं // न राम ही मिल पाते हैं / न माया ही मिल पाती है / धन-दौलत-वैभव / क्या सभी को रास आते हैं? / जीवन के ये शुन्य क्या कभी भर पाते हैं ?
फ़ूल खिलेगें / गुलशन-गुलशन / क्या कभी फ़ल लग पायेगें ? / जीवन केवल ऊसर भूमि है / शूल ही लग पायेगें / पावों के तलुओं को केवल / हँसते जख्म ही मिल पायेगें / शूल कभी क्या / फ़ूल बन खिल पायेगें ? / जीवन की उजाड बस्ती में / क्या कभी वसंत बौरा पायेगा ?
जीवन एक लालसा है / वरना कब का मर जाता / जीवन जीने वाला / मर-मर कर आखिर जीने वाला / मर ही जाता है // पर, औरों के खातिर जीनेवाला / न जाने कितने जीवन जी जाता है / और अपना आलोक अखिल / कितने ही शुन्यों में भर जाता है / वरना ये शून्य, / शून्य ही रह जाते / ये रीते थे,रीते ही रह जाते / जीवन के ये शून्य /कभी-कभी ही भर पाते है / पावों के हंसते जख्म / कभी-कभी ही भर पाते हैं.
एक बड़ी ही जीवंत कहावत है -“जब तक जीना है. तब तक सीना है. मेरे जीवन में पसरे इस महाशून्य के चलते अक्सर गहरी उदासी घेर लेती. सोचने समझने की बुद्धि कुंद होने लगी थी. लिखना-पढ़ना सहसा रुक-सा गया था. परिवार में बेटी-बेटे, नाती, पोते सब हैं. बावजूद इसके उस शून्य को भर पाना मुझे आसान नहीं लग रहा था. साथ तो उनका भरपूर मिल रहा था, लेकिन दिन के दस बजने के साथ ही पूरा घर खाली हो जाता है. बहुएँ अपनी-अपनी नौकारियों के निकल जाती हैं.बेटे अपने दफ़्तर के लिए निकल जाते हैं और पोता-पोतिया-नाती अपने-अपने स्कूल के लिए चल देते हैं. दस बजे के बाद फ़िर रिक्तता घेरने लगती. शाम के छः-सात के बाद घर में चहल-पहल बढ़ जाती, लेकिन दस बजे से शाम के सात बजे तक नितांत अकेला रहना पड़ता था.
ऊब से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता शेष था कि मुझे अब अपने लेखन-कर्म से जुड़ जाना चाहिए. इस क्रांतिकारी विचार से मेरे जीवन में आमूल-चूल पारिवर्तन आया. अब मैं होता हूँ. मेरा कम्प्युटर होता है मेरी किताबे होती हैं और एफ़.एम. होता है. एफ़.एम पर एक से बढ़कर एक गीत आते, जो मेरे मन को गुदगुदा जाते. लेखनी चल पड़ी. यह मेरे लिए सुखद संयोग था.
रामचरित मानस तो मैं अकसर पढ़ता ही रहता था. मानस में आए एक प्रसंग ने मेरी चूलें हिला दी. प्रसंग था कि माता कैकेई को ऐसा क्या सूझा कि उन्होंने श्रीरामजी को चौदह वर्षों के लिए वनवास पर भेज दिया, जबकि प्रातःकाल उनका राज्याभिषेक होने वाला था. एक साथ कई-कई प्रश्नों ने मुझे घेर लिया था. मैं समझ नहीं पा रहा था आखिर उन्होंने इतना अप्रिय निर्णय क्यों कर लिया? क्या वे नहीं जानती थीं कि राम के वन जाते ही, महाराज दशरथ अपने प्राण त्याग देंगे. उनके प्राणांत के बाद वे केवल अकेली नहीं, बल्कि उनके साथ-साथ महारानी कौसल्या सहित सुमित्रा जी भी विधवा हो जाएगी?. एक सधवा आखिर स्वयं होकर विधवा क्यों कर होना चाहती थीं? क्या उनके मन में कोई ऐसी अभिलाषा घर कर गई थी कि अयोध्या की पूरी सत्ता को वे हथियाना चाहती थी?. क्या वे नहीं जानती थीं कि राम को वन में भेजने के बाद अयोध्या में तूफ़ान उठ खड़ा होगा. लोग उनके नाम पर थू-थू करेंगे?. लोग-बाग उनके नाम को सुनकर घृणा करने लगेंगे?. पूरी अयोध्या में जहाँ मंगलगीत गाए जा रहे थे, मातम का संगीत बजने लगेगा?. आखिर वे क्यों खलनायिका बनने पर उतारु हो गयीं थीं. उनका अपना बेटा उन्हें फ़िर माँ कहकर नहीं पूकारेगा?. अनेकों प्रश्न बर्र-मक्खी की तरह दंश करने लगे थे. कोई कारगर उत्तर मुझे ढूँढे नहीं मिल रहे थे. इन ज्वलंत प्रश्नों ने मेरा दिन का चैन और रातों की नींद छीन ली थी.
मेरा मन उपरोक्त बातों को मानने से साफ़ अस्वीकार कर रहा था. मैं यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं था कि वे सत्ता के लोभ में इतना नीचे गिर सकती थीं. उनका जन्म तो राजघराने में हुआ था,बचपन से ही वे सत्ता का उपभोग कर रही थीं. फ़िर वे क्यों कर अयोध्या के राजघराने को अपने आधिपपत्य में लेना चाहेंगी?.क्या वे भूल गयीं थीं कि महाराज स्वयं उनसे अगाध प्रेम करते हैं. वे उनके सौंदर्य के जाल में इस तरह बिंध चुके हैं कि हर छोटी-मोटी बातों में उनकी सलाह लिए बगैर कोई काम नहीं करते. सत्ता की चाभी तो उन्हें वैसे ही मिल चुकी थी, फ़िर क्यों वे सत्ता के केंद्र में बनी रहना चाहती होंगी?. सत्ता तो उनको उस समय भी अपने आप मिल जाती,जब महाराज दशरथजी और बाली के बीच हुए भीषण युद्ध में महाराज मरणासंन्न स्थिति में पहुँच गए थे, वे उनकी सेवा श्रुषुसा नहीं करतीं तो महाराज का प्राणांत हो जाता. सत्ता ही पानी होती तो वे महाराज के प्राणों की रक्षा नहीं करतीं. इंद्र के अनुरोध को स्वीकार महाराज दानवों से युद्ध कर रहे थे, तब अचानक रथ के पहिए की कील निकल गयी थी. उन्होंने स्वयं होकर अपनी अंगुली उस कील के स्थान पर लगाकर अनियंत्रित होते रथ को नहीं बचाया, बल्कि महाराज के प्राणों की रक्षा भी की थी. मुझे कहीं से भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिल रहे थे और मन था कि उन्हें दोषी करार ही कर पा रहा था.
अबूझ प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए मैंने वालमीकि रामायण की खरीद की. इसी क्रम में आनंद रामायण, कम्बन की रामायण, अद्भुत रामायण आदि जितनी भी प्रकार की हो सकती थीं, खरीद करने के लिए पुस्तक-विकेता के दूकानों के चक्कर काटे. कुछ को गूगल का सहारा लेते हुए डाऊनलोड किया. प्रायः सभी रामायणॊं मे वही बातें पढ़ने को मिली कि माता कैकेई ने अपने बेटे के लिए राज्य और राम के लिए चौदह वर्षों के लिए बनवास मांगा. किसी भी रामायण में इसका कारण नहीं बताया गया कि माता कैकेई ने दो वर मांग कर अयोध्या में भूचाल ला दिया और रात्रि की समस्त कालीमा को स्वयं अपने हाथॊं से चेहरे पर मल लिया और सदा-सदा के लिए बदनाम हो गय़ीं.
उम्र के 77 वें पड़ाव पर आकर रामकथा पर मेरा पहला उपन्यास-“वनगमन” प्रकाशित हुआ. इस खंड को दिल्ली के लिटरेचर लैंड ने प्रकाशित किया है. इस उपन्यास में मैंने माता कैकेई को पूर्णतः दोषमुक्त करने का प्रयास किया है. उपन्यास “वनगमन” पर भोपाल के डा. राजेश श्रीवास्तव ( निदेशक रामायण केन्द्र भोपाल/ मुख्य कार्यपालन अधिकारी / मध्यप्रदेश तीर्थ मेला प्राधिकरण / अध्यात्म मंत्रालय) ने एवं दिल्ली से डा. दीपक पाण्डॆय ( सहायक निदेशक / केंद्रीय हिंदी निदेशालय/ शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) ने लिखी है. डा.श्री श्रीयुत श्रीवास्तवजी ने “ राम का वनगमन एक अद्भुत घटना “ के नाम से तथा डा.दीपक पाण्डॆयजी ने-“सर्व जन हिताय का शुभारंभ-वनगमन” नामक शीर्षक से भूमिका लिखी है. वनगमन के इस प्रथम खंड पर भोपाल के तीन राम प्रेमी मित्रों ने यथा- श्री लक्ष्मीकांत जवणे जी ने एवं श्री प्रदीप श्रीवास्तव जी ने एवं प्रेमचंद गुप्ता जी समीक्षाएं लिखी हैं.
उम्र के 78 वें पड़ाव पर रामकथा पर दूसरा खंड- “ दण्डकारण्य़ की ओर” प्रकासित हुआ. दूसरा खंड भी लिटरेचर लैंड दिल्ली ने प्रकाशित किया. इस दूसरे खंड पर मारीशस के मेरे अनन्य मित्र श्री रामदेव धुरंधरजी ने-“ श्री राम के एक समर्थ उन्नायक: गोवर्धन यादव” शीर्षक से तथा साहित्य अकादमी मे निदेशम मान.डा. विकास दवे जी ने “ दीप स्तंभ का दिग्दर्शक-दण्डकारण्य़ की ओर”शीर्षक से भूमिका लिखी है.
उम्र के 79 वें पड़ाव पर उपन्यास का तीसरा खंड-“ लंका की ओर” पर रामरसिक श्री मनोज श्रीवास्तव जी ( प्रख्यात साहित्यकार एवं चिंतक / पूर्व अपर मुख्य सचिव मध्यप्रदेश शासन / राम-रज,3-पालिका फ़ेज-2,चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल) ने एवं डा.श्रीनारायण तिवारी (पूर्व प्राचार्य जनता इंटर कालेज, अमदही (गोण्डा) उत्तरप्रदेश ने “लंका की ओर- सनातनधर्मियों द्वारा पठनीय” शीर्षक से, तथा डा. लक्ष्मीकांत चंदेला ( सहायक प्राध्यापक हिन्दी / शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय छिन्दवाड़ा) ने “ लंका की ओर व्याख्यान नहीं आख्यान” नामक शीर्षक से भूमिका लिखी है.
उम्र के 80 वें पड़ाव पर उपन्यास का चौथा और अन्तिम खण्ड-युद्ध और राज्याभिषेक प्रकाशित हुआ. इस चौथे खंड की भूमिका मान.श्री रघुनन्दन जी शर्मा ( पूर्व सांसद / कार्याध्यक्ष तुलसी मानस प्रतिष्ठान, श्याला हिल्स भोपाल) ने “नीति और नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना” नामक शीर्षक से भूमिका लिखी है.
आप सभी विद्वतजनों एवं राम प्रेमियों के प्रति मेरा विनीत प्रणाम. आत्मीय आभार. रामकाज में सहयोग देकर आप सभी ने मेरा मान बढ़ाया है. पुनः आप सभी के प्रति कोटि-कोटि अभिनन्दन.
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