राजस्थान की प्रृष्ठभूमि पुरातनकाल से ही समृद्ध रही है. यहाँ की सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराएँ देखते ही बनती है. इस भूमि को वीरप्रसविनी भी कहा जाता है. यहाँ के रणबाकुँरों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए हंसते –हंसते अपने प्राणॊ का उत्सर्ग किया है. यहाँ के समाज में अनेक व्रत एवं पर्वोत्सव प्रचलित है, जिसमें गणगौर-महोत्सव का महत्वपूर्ण स्थान है. वसन्त-ऋतु की वासन्ती बयार डोलने पर फ़ागुन के सरस एवं मधुर होली-गीतों का अवसान भी नहीं हो पाता कि पूर्णिमा के पश्चात नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में गणगौर व्रत रखने वाली सुकुमारियां एवं सधवा युवतियां के कण्ठों से गणगौर के मधुर गीतों की सरिता बहने लगती है, जिसमें श्रद्धा एवं प्रेम के साथ गणगौर पूजन का सुन्दर आव्हान उनके द्वारा किया जाता है.
खोल ए गणगौर माता, खोल ए किंवाडी बारै ऊभी थारी पूजन हाली राई सी भौजाई दे कान कँवर सो वीरो. नवयौवनाएँ इस गीत में अपने लिए श्रीकृष्ण जैसा सुन्दर, सलोना, वीर भाई तथा स्नेहिल भौजाई पाने की कामना करती हैं. कुमारियाँ नगर एवं ग्राम के बाहर स्थित मदिरों में विराजमान गण (ईश्वर-शिव) तथा गौर (माता पार्वती) की पूजा करती हैं और कामदेव-सा सुन्दर मनभावन वर पाने की कामना करती है.
कुमारियों एवं नवविवाहिताएँ फ़ाल्गुन पूर्णिमा के पश्चात चैत्र कृष्णपक्षभर-शुक्लपक्ष प्रतिपदा या तृतीया तक पन्द्रह दिन व्रती रहकर शिव-पार्वती का प्रतिदिन पूजन करती हैं. इस व्रत में होली की राख से पिण्ड भी बनाए जाते हैं तथा जौ के अंकुरों के साथ इसका विधिवत पूजन होता है. कुमारियाँ फ़ूलों एवं दूर्वापत्रों से कलश सजाकर मधुर गीत गाती हुई अपने घर ले जाती हैं. इस अवसर पर इन गीतों के माध्यम से उनके द्वारा चूडा और चूँदडी की अक्षयता अथवा सौभाग्यसूचक श्रृंगार पाने की कामना की जाती है. इस अवसर पर वे गा उठती हैं-
“गणगौरिया लाखा री बधाई ढोला मै मोया जी म्हारी कुण मनावै गणगौर .. माथा ने भवर गढाओ जी, रखडी रतन जडाओ जी गणगौरिया लाखा री बधाई ढोला मै मोया जी म्हारी कुण मनावै गणगौर..”
पावन प्रातः-वेला में पूजनस्थल पर कुमारियाँ, सौभाग्यवती युवतियाँ पूजा सामग्री सहित सिर पर तीन या सात पुष्पसज्जित कलश लिए हुए जब गणगौर का पूजन करने के लिए जाती हैं तो उनके कण्ठ से यह मधुर गीत मुखरित होने लगता है.
गौर-गौर गणपति ईसर पूजे पार्वती पार्वती का आला गीला, गौर का सोने का टीका. टीका टमका दे, राजा-रानी बरत करे करता-करता आस आयो, मास आयो खेरे खारे लाडु लायो लाडु मनै बीरा को दियो बीरा न चूँदड दीनी, चूँदड मनै गौर को उढाई, गौर ने म्ही सुहाग दियो.......
सामान्यतः गणगौर व्रत एवं शिव-पार्वती के रुप में ईसरजी और ईसरीजी की प्रतिमाओं के पूजन द्वारा सम्पन्न होता है. राजस्थान में ऎसी मान्यता है कि इस उत्सव का आरम्भ पार्वतीजी के गौने या पिता के घर पुनः लौटने और उनकी सखियों द्वारा स्वागत-गान को लेकर आनन्दावस्था में हुआ था. इसी स्मृति में आज भी गणगौर की काष्ठप्रतिमाएँ सजाकर मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ किसी जलाशय पर ले जायी जाती है और घूमर-जैसे नृत्य तथा लोकगीतों की मधुर ध्वनि से मिट्टी की प्रतिमाओं का विसर्जन कर काष्ठप्रतिमाओं को लाकर पुनः पूजार्थ प्रतिष्ठित किया जाता है.
यह व्रत-उत्सव आज भी जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, कोटा आदि संभागों में बडी धूमधाम से कुमारियों एवं सधवा युवतियों द्वारा मनाया जाता है, जिसमें स्वयं राज्य के राजा तथा राज्याधिकारी कर्मचारी सवारी के साथ सम्मिलित हुआ करते थे. कोटा में तो अनेक जातियों की स्त्रियाँ भी इसमें शामिल होती थीं तथा राजप्रासाद के प्रांगण में आकर घूमर नृत्य किया करती थीं. उदयपुर में मनाए जाने वाले गणगौर-पर्व पर सवारी का कर्नल टाड ने बडा ही रोचक वर्णन किया है, जिसमें सभी जाति की स्त्रियाँ, बच्चे और पुरुष रंग-रंगीले वस्त्राभूषणॊं से सज्जित होकर अट्टालिकाओं पर बैठकर गणगौर की सवारी देखते थे. यह सवारी तोप के धमाके से और नगाडॆ की ध्वनि से राजप्रासाद से आरम्भ होकर पिछौला झील के गणगौर-घाट तक बडी धूमधाम से पहुँचती थी तथा नौकाविहार एवं आतिशबाजी के प्रदर्शन के पश्चात समाप्त होती थी.
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