वनांचल में प्रभु श्रीराम
वनांचल में प्रभु श्रीराम
वनांचल में प्रभु श्रीराम
राम का चरित्र भारतीय जनमानस को इतना करीब से क्यों छूता है?. धर्मग्रंथों में देवता तो बहुत हैं-पर काव्य निर्मित इस देवता में ऐसा क्या है कि वह जातीय-चेतना की गहराइयों में उतर गया है, वह अलौकिक तो नहीं है, मर्यादा भी नहीं. कहीं कुछ और है और वही राम है.-वही वह चीज है, जिसे लोक ने अपने भीतर धारण कर रखा है.
प्रभु श्रीराम वनांचल में किस तरह जीवन यापन करते थे? वे किस प्रकार वे जंगल में मंगल मनाते थे? उनके दिन भर के क्रिया-कलाप होते थे?. आदि आदि विषय पर चर्चा करने से पूर्व, हमें सर्वप्रथम अयोध्या की उस पृष्ठभूमि पर चर्चा करना ज्यादा श्रेयस्कर होगा,जिसके कारण उन्हें वनवास भोगना पड़ा.
अयोध्या में इस समय आनंद का सागर लहलहा रहा था. अयोध्या के नर-नारी ही नहीं अपितु जीव-जंतु भी आनन्दमगन होकर राज्याभिषेक की तैयारी में जुटे हुए थे. चारों ओर उत्सव का-सा माहौल था. महाराज दशरथ जी के पैर जैसे जमीन पर ही नहीं टिक रहे थे. ठीक ऐसे समय में, अपने अन्तःपुर में छाए घुप्प अंधेरे कक्ष में बैठी कैकेयी, आकाश की ओर खुलने वाले गवाक्ष के समक्ष बैठी सितारों पर नजरें गड़ाए बैठी. अचानक एक तारा टूट कर गिरता है, फ़िर एक-के-बाद एक कई तारे टूटकर पृथ्वी पर गिरते रहे.. तारों को इस तरह से टूटकर बिखरता देख कैकेयी हतप्रभ थीं, ज्योतिष विज्ञान में निष्नात कैकेयी समय की आहाट को सुन ही नहीं रही थीं बल्कि गणना भी करने लगी थीं.
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब, राम होहिं जुबराजु.
गणना करने के पश्चात वे इस निष्कर्ष पर पहुँची कि राज्याभिषेक के शोधित यह तिथि मेरे राम के लिए बिल्कुल भी योग्य नहीं है. राजपुरोहित वसिष्ठ ने भले ही महाराज श्री से कह दिया कि वही दिन शुभ और मंगलकारी है, जब राम युवराज हो जाँए. उन्होंने जो कहा वह उनका सच था. एक राजपुरोहित तो चाहता ही है कि राज्य में कोई बड़ा आयोजन हो, जिससे उसे अधिक से अधिक आर्थिक लाभ मिले. वे एक राजपुरोहित होने के अलावा भी ज्योतिष शास्त्र में निष्नात थे, वे जानते थे कि राम का राज्याभिषेक न होकर उन्हें बनवास पर जाना होगा. इतना सब जानने के बाद भी वे असल बात छिपा गए ताकि महाराज की प्रसन्नता अभी यथावत बनी रहे.
माता कैकेयी भली-भांति जानती और समझती थीं कि राम यदि अयोध्या का अधिपति बन जाएगा, तो फ़िर दुष्ट रावण का वध होना असंभव हो जाएगा. वे जानती थीं कि राम का व्यक्तित्व संघर्षशील है, वह शौर्य और पराक्रम में अद्वितीय है. वे राम के व्यक्तित्व को संसार से परिचित करवाना चाहती थीं. वे यह भी जानती थीं कि राम ने अल्पकाल में ही सारी विद्याएं प्राप्त कर ली थीं. ज्ञान तो उन्हें मिल गया था, लेकिन व्यक्तित्व नहीं बन पाया था. अतः वे चाहती थीं कि राम राजमहलों से बाहर निकलकर प्रकृति के खुले आसमान के नीचे, बरसात में भींगते हुए, बरसात की बूंदों का आधात सहते हुए, वनों में मिलने वाले अभावों और कष्टों को सहकर, अथक परिश्रम करते हुए वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण करे.
वे श्रम के महत्व को जानती थीं. जानती थीं कि श्रम वन्दनीय है, अभिनंदनीय है. अतः व्यक्तित्व को गढ़ने का प्राकृतिक नियम है.- प्रकृति के बीच जाकर, संघर्ष करके ही उसे गढ़ा जा सकता है. वे राम के व्यक्तित्व को गढ़ना चाहती थीं. वे यह भी जानती थीं कि अयोध्या से बाहर निकलकर ही राम के व्यक्तित्व में अधिक निखार आएगा.
माता कैकेयी जी को इस बात का पता था कि राम ही रावण का वध करने में सक्षम हैं. यही वह कारण था कि उन्होंने चौदह वर्ष का वनवास मांगा. वरदान मांगने से पूर्व वे यह भी जानती थी कि राम के लिए चौदह वर्ष का बनवास मांगते ही अयोध्या में भूचाल आ जाएगा. महाराज जीवित नहीं बचेंगे. वे केवल अकेली विधवा नहीं होंगी, बल्कि महारानी कौसल्या और सुमित्रा को भी वैधव्य का दारूण दुःख उठाना पड़ेगा. लोग उसकी न जाने कितनी भर्त्सना करेंगे.कितना भला-बुरा कहेंगे. वे अपने सगे बेटे भरत को भी खो देंगी और जीवन भर के लिए कलंकित हो जाएगी. वे गहराई में उतरकर सोचने लगी थीं कि यदि इस डर को ओढ़कर वह बैठी रहेगी, तो रक्ष संस्कृति कभी भी नष्ट नहीं होने पाएगी और सनातन धर्म रसातल में चला जाएगा. अतः उसे अपने देश की संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए वन जाना अत्यन्त ही आवश्यक है. वे जानती थी कि अगर कोई व्यक्ति, युवावस्था में पांच ज्ञानेन्दियों, पांच कर्मेन्दियों तथा मन, बुद्धि,चित्त, और अहंकार (कुल मिलाकर चौदह.) को वनवास-काल में रखेगा, वही रावण को मार पाएगा. वे यह भी जानती थीं कि रावण की आयु में सिर्फ़ चौदह वर्ष ही बचे हैं. फ़िर महाराज अनरण्य के उस शाप का समय पूर्ण होने चौदह वर्ष ही शेष थे, जो शाप
श्रीराम को 14 वर्ष का वनवान हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया। रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।
जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में...
पहला पड़ाव...केवट प्रसंग :
राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।
'सिंगरौर' : इलाहाबाद से 22 मील (लगभग 35.2 किमी) उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित 'सिंगरौर' नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे 'तीर्थस्थल' कहा गया है।
'कुरई' : इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।
दूसरा पड़ाव....चित्रकूट के घाट पर :
कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।
अद्वितीय सिद्धा पहाड़ :
सतना जिले के बिरसिंहपुर क्षेत्र स्थित सिद्धा पहा़ड़। यहाँ पर भगवान श्रीराम ने निशाचरों का नाश करने पहली बार प्रतिज्ञा ली थी। आज समाज इसे भले ही मानने से इनकार कर रहा है, लेकिन यह वहीं पहाड़ है, जिसका वर्णन रामायण में किया गया है।
चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।
तीसरा पड़ाव; अत्रि ऋषि का आश्रम :
चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियां, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम पहुंच गए घने जंगलों में...
चौथा पड़ाव, दंडकारण्य :
अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। 'अत्रि-आश्रम' से 'दंडकारण्य' आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।
स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।
पांचवा पड़ाव; पंचवटी में राम :
दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।
छठा पड़ाव.. सीताहरण का स्थान 'सर्वतीर्थ' :
नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।
सातवां पड़ाव;सीता की खोज :
सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।
आठवां पड़ाव...शबरी का आश्रम :
तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।
नवम पड़ाव; हनुमान से भेंट :
मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है।
कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।
सुग्रीव गुफा
सुग्रीव अपने भाई बाली से डरकर जिस कंदरा में रहता था, उसे सुग्रीव गुफा के नाम से जाना जाता है। यह ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित थी।
ग्यारहवां पड़ाव... रामेश्वरम :
रामेश्वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।
रामसेतु
रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है, भारत (तमिलनाडु) के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य चूना पत्थर से बनी एक श्रृंखला है। भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। यह पुल करीब 18 मील (30 किलोमीटर) लंबा है।
बारहवां पड़ाव... धनुषकोडी :
वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्नार से करीब 18 मील पश्चिम में है।
तेरहवां पड़ाव...'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला :
वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।