अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दानुजवनकृशानुं ज्ञानिनामाग्रगण्यम सकलगुणनिधानं वानरानामधीशं,रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामी
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अतिबलशाली,पर्वताकारदेह, दानव-वन को ध्वंस करने वाले, ज्ञानियों में अग्रणी, सकलगुणों के धाम,,वानरॊं के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त,पवनसुत श्री हनुमानजी को मैं प्रणाम करता हूँ बडा ही रोचक प्रसंग है.भगवान सूर्य के वरदान से जिसका स्वरुप सुवर्णमय हो गया है,ऎसा एक सुमेरु नाम से प्रसिद्ध पर्वत है,जहाँ श्री केसरी राज्य करते हैं. उनकी अंजना नाम से सुविख्यात प्रियतमा पत्नि के गर्भ से श्री हनुमानजी का जन्म हुआ.
सूर्यदत्तवरस्वर्णः सुमेरुर्नाम पर्वतः*यत्र राज्यं प्रशास्त्यस्य केसरी नाम वै पिता तस्य भार्या बभूवेष्टा अजंनेति परिश्रुता*जनयामास तस्यां वायुरात्मजमुत्तमम (वाल्मिक.रा.उत्तर.पंचत्रिशंसर्ग.श्लोक.१९-२०)
एक दिन माता अजंना फ़ल लाने के लिए आश्रम से निकलीं और गहन वन में चली गयीं. बालक हनुमान को भूख लगी. तभी उन्हें जपाकुसुम के समान लाल रंगवाले सूर्यदेव उदित होते दिखायी दिये. उन्होंने उसे कोई फ़ल समझा और वे झूले से फ़ल के लोभ में उछल पडॆ. उसी दिन राहु सूर्यदेव पर ग्रहण लगाना चाहता था. हनुमानजी ने सूर्य के रथ के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो राहु वहां से भाग खडा हुआ और इन्द्र से जाकर शिकायत करने लगा. हनुमानजी ने सूर्य को निगल लिया. संपूर्ण संसार में अन्धकार का साम्राज्य छा गया. क्रोधित इन्द्र ने अपने वज्र से हनुमान पर प्रहार किया. इन्द्र के व्रज के प्रहार से अचेत हनुमान नीचे की ओर गिरने लगे. पिता पवनदेव ने उन्हें संभाला और घर ले आए. क्रोधित पवनदेव ने अपनी गति समेट ली, जिससे समस्त प्राणियों की साँसे बंद होने लगी. देखते ही देखते सारे संसार का चक्र बिगड गया. घबराए इन्द्र ने ब्रह्माजी की शरण ली और इससे बचने का उपाय खोजने की प्रार्थना की.
तत्पश्चात चतुर्मुख ब्रह्माजी ने समस्त देवत्ताओं, गन्धर्वों, ॠषियों, यक्षों सहित वहाँ पहुँचकर वायुदेवता के गोद में सोये हुए पुत्र को देखा और शिशु पर हाथ फ़ेरा. तत्काल बालक के शरीर में हलचल होने लगी. उन्होंने उस बालक से अनुरोध किया कि वह अपना मुख खोलकर सूर्यदेव को छॊड दें. बालक के मुँह खुलते ही सूर्यदेव आकाशमण्डल पर फ़िर चमचमाने लगे. संसार फ़िर अपनी गति पर चलने लगा. फ़िर ब्रह्माजी ने समस्त देवताओं से कहा;_ “ इस बालक के द्वारा भविष्य में आप लोगों के बहुत-से कार्य सिद्ध होंगे, अतःवायुदेवता की प्रसन्न्ता के लिए आप इसे वर दें.
इन्द्र ने अपने गले में पडी कमल के फ़ूलों की माला डालते हुए कहा:- मेरे हाथ से छूटॆ हुए व्रज के द्वारा इस बालक की “हनु” (ठुड्डी) टूट गयी थी, इसलिए इस कपिश्रेष्ठ का नाम “हनुमान” होगा. इसके अलावा मैं दूसरा वर यह देता हूँ कि आज से यह मेरे वज्र के द्वारा भी नहीं मारा जा सकेगा.
सूर्यदेव ने वर देते हुए कहा:-“मैं इसे अपने तेज का सौवाँ भाग देता हूँ. इसके अलावा जब इसमें शास्त्राध्ययन करने की शक्ति आ जायगी, तब मैं इसे शास्तों का ज्ञान प्रदान करुँगा, जिससे यह अच्छा वक्ता होगा. शास्त्रज्ञान में कोई भी इसकी समानता करने वाला न होगा.”
वरुण देवता ने वर देते हुए कहा:-“दस लाख वर्षॊं की आयु हो जाने पर भी मेरे पाश और जल से इस बालक की मृत्यु नहीं होगी”.
यमराज ने वर देते हुए कहा;-“ यह मेरे दण्ड से अवध्य और नीरोग होगा.”.
कुबेर ने वर देते हुए कहा:-“मैं संतुष्ट होकर यह वर देता हूँ कि युद्ध में कभी इसे विषाद नहीं होगा तथा मेरी यह गदा संग्राम में इसका वध न कर सकेगी”.
भगवान शंकर ने वर देते हुए कहा:_” यह मेरे और मेरे आयुधों के द्वारा भी अवध्य रहेगा. शिल्पियों में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान विश्वकर्मा ने बालसूर्य के समान अरुण कान्तिवाले उस शिशु को वर दिया “मेरे बनाए हुए जितने भी दिव्य अस्त्र-शस्त्र हैं,उनसे अवध्य होकर यह बालक चिरंजीवी होगा.”
चतुर्मुख ब्रह्मा ने वर देते हुए कहा:-“यह दीर्घायु, महात्मा तथा सब प्रकार से ब्रहदण्डॊं से अवध्य होगा तथा शत्रुओं के लिए भयंकर और मित्रों के लिए अभयदाता होगा. युद्ध में कोई इसे जीत नहीं सकेगा. यह इच्छानुसार रूप धारण कर सकेगा, जहाँ जाना चाहे जा सकेगा. इसकी गति इच्छा के अनुसार तीव्र या मन्द होगी तथा वह कहीं भी रुक नहीं सकेगी. यह कपिश्रेष्ठ बडा यशस्वी होगा. यह युद्धस्थल में रावण का संहार करने और भगवान श्रीरामचन्द्रजी के प्रसन्न्ता का सम्पादन करने वाले अनेक अद्भुत एवं रोमांचकारी कर्म करेगा. ( वाल्मिक रामा.श्लोक ११ से २५)
इस् प्रकार से हनुमानजी बहुत-से वर पाकर वरदानजनित शक्ति से सम्पन्न और निर्भय हो ऋषि-मुनियों के आश्रमों में जाकर उपद्रव करने लगे. कभी वे यज्ञोपयोगी पात्र फ़ोड देते, उनके वत्कलों को चीर-फ़ाड देते. इनकी शक्ति से परिचित ऋषिगण चुपचाप सारे अपराध सह लेते. भृगु और अंगिरा के वंश से उत्पन्न हुए महर्षि कुपित हो उठे और उन्हें शाप दिया कि वे अपनी समस्त शक्तियाँ भूल जाएंगे और जब कोई उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण दिलाएंगे, तभी इसका बल बढेगा.
समुद्रतट पर नल- नील- अंगद, गज, गवाक्ष, गवय,शरभ, गन्धमादन, मैन्द, द्विविद, सुषेण और जाम्बवान बैठे विचार कर रहे थे कि इस सौ योजन समुद्र को कैसे पार किया जाए?. सभी अपनी-अपनी सीमित शक्तियों का बखान कर रहे थे और समुद्र से उस पार जाने में अपने आपको असमर्थ बतला रहे थे. इस समय हनुमान एक दूरी बनाकर चुपचाप बैठे थे. तब वानरों और भालूओं के वीर यूथपति जाम्बवान ने वानरश्रेष्ठ हनुमानजी से कहा कि वे दूर तक की छलांग लगाने में सर्वश्रेष्ठ हैं. उन्होंने विस्तार के साथ पिछली सारी घटनाओं की जानकारी उन्हें दी. अपनी शक्तियों का स्मरण आते ही वीर उठ खडॆ हुए और अपने साथियों को आश्वस्त किया कि वे सीताजी का पता लगाकर निश्चय ही लौटेंगे.
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एवमुक्तवा तु हनुमान वानरो वानरोत्तमः उत्पपाताथ वेगेन वेगवानविचारयन सुपर्णमिव चात्मानं मेने स कपिकुंजरः (वाल्मीक रामा.सुन्दरकाण्ड सर्ग १-४३-४४) ऎसा कहकर वेगशाली वानरप्रवर श्री हनुमानजी ने किसी भी विघ्नबाधाओं का ध्यान न करके, बडॆ वेग से छलांग मारी और आकाश में उड चले.
सभी इस बात से भली-भांति परिचित ही हैं कि श्री हनुमानजी ने किस तरह रास्ते में पडने वाली समस्त बाधाओं को अपने बल और बुद्धि के बल पर पार किया और लंका जा पहुँचे. वहाँ उन्होंने कौन-कौन से अद्भुत पराक्रम किए, इसे सभी पाठक भली-भांति जानते हैं .ग्यारवें रुद्र श्री हनुमानजी को माँ सीताजी ने अमरता का वरदान देते हुए कहा था...
अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता* अस वर दिन्ह जानकी माता. वे अष्ट सिद्धियाँ और नौ निधियाँ क्या हैं,इसके बारे में संक्षिप्त में जानकारियाँ लेते चलें
अष्ट सिद्धियाँ इस प्रकार हैं---अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशिता तथा वशिता.
अणिमा सिद्धि= इससे सिद्धपुरुष छोटे-से छोटा रुप धारण कर सकता है
लघिमा सिद्धि= साधक अपने शरीर का चाहे जितना विस्तार कर सकता है.
महिमा सिद्धी= कोई भी कठिन काम आसानी से कर सकता है
गरिमा= = इस सिद्धि में गुरुत्व की प्राप्ति होती है.साधक जितना चाहे वजन बढा सकता है.
प्राप्ति= हर कार्य को अकेला ही कर सकता है..
प्राकाम्य= इसमें साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.
वशित्व= साधक सभी को अपने वश में कर सकता है.
इशित्व साधक को ऎश्वर्य और ईश्वरत्व प्राप्त होता है. हनुमानजी को ऎश्वर्य और ईश्वरत्व प्राप्त है, यही वजह है कि छोटे से छोटे गाँव से लेकर महानगरों तक उनके मन्दिर देखे जा सकते हैं.जहाँ असंख्य संख्या में भक्तगण श्री हनुमानजी की पूजा-अर्चना करते हैं और अपने कष्टॊं के निवारण के प्रार्थना करते हैं और दुःखों से छुटकारा पाते हैं
नौ निधियाँ= शंख, मकर, कच्छ, मुकुंद, कुंद, नील, पद्म और महापद्म
महर्षि वाल्मिक ने श्रीरामभक्त हनुमान के बल और पराक्रम को लेकर सुन्दरकाण्ड की रचना की. इन्होंने अडसठ सर्गों तथा जिसमें दो हजार आठ सौ बासठ श्लोकों हैं
भक्त शिरोमणी श्री तुलसीदासजी ने सुन्दरकाण्ड मे एक श्लोक,,साठ दोहे,तिहत्तर चौपाइयां और छः छंदॊ की रचना की. सुन्दरकाण्ड अन्य काण्डॊं से सुन्दर इसलिए कहा गया है कि इसमें वीर शिरोमणी श्री हनुमानजी के अतुलित पराक्रम, शौर्य, बुद्धिमता आदि का बडा ही रोचक वर्णन किया गया है. संत श्री तुलसीदासजी ने निम्न लिखित ग्रंथॊं की रचनाएँ की. वे इस प्रकार हैं. श्रीरामचरितमानस/रामललानहछू/वैराग्यसंदीपनी/बरवैरामायण/पार्वतीमंगल/जानकीमंगल/रामाज्ञाप्रश्न/दोहावली/कवितावली/गीतावली/श्रीकृष्ण-गीतावली/विनय-पत्रिका/सतसई/छंदावली रामायण/विनय पत्रिका//सतसई/छंदावली रामायण/कुंडलिया रामायण/राम शलाका/संकट मोचन/करवा रामायण/रोला रामायण/झूलना/छप्पय रामायण/कवित्त रामायण/कलिधर्माधर्म निरूपण तथा हनुमान चालीसा आदि ग्रंथॊ की रचनाकर श्रीरामजी सहित हनुमानजी की अमरगाथा को जन-जन तक पहुँचाया.
हम सभी भली-भांति जानते हैं कि किस तरह अपनी पत्नि का उलाहना सुनकर तुलसीदास जी श्रीराम के दास बने और उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन उन्हें समर्पित कर दिया. काशी में रहते हुए उनके भीतर कवित्व-शक्ति का प्रस्फ़ुरण हुआ और वे संस्कृत में काव्य-रचना करने लगे वे जो भी रचना लिखते रात्रि में सब लुप्त हो जाती थी. यह क्रम सात दिनों तक चलता रहा. आठवें दिन स्वयं भगवान शिवजी –पार्वतीजी के सहित आकर तुलसीदासजी के स्वपन में आदेश दिया कि तुम अयोध्या में जाकर रहॊ और अपनी भाषा में काव्य रचना करो. मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फ़लवती होगी. शायद आप लोगॊ ने अनुभव किया अथवा नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन इतना दावे के साथ तो कह ही सकता हूँ कि रामायण की अनेक चौपाइयाँ, हनुमान चालीसा की अनेक पंक्तियाँ शाबर मंत्रों की तरह चमत्कारी है तथा इनके विधिविधान से जाप करने पर तत्काल फ़ल की प्राप्ति होती है,क्योंकि श्री हनुमानजी एकमात्र ऎसे देवता हैं जो अपने भक्तों पर सहित ही प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी सभी कामनाओं कॊ पूरा करते हैं. यदि किसी को भूत-पिशाच का डर सताता हो तो वह * भूत पिशाच निकट नहीं आवै* महाबीर जब नाम सुनावै“”,रोगों से मुक्ति पाने के लिए “नासै रोग हरै सब पीरा* जपत निंतर हनुमत बीरा, संकट से उबरने के लिए “संकट ते हनुमान छुडावै*मन क्रम बचन ध्यान जो लावै””संकट कटै मिटै सब पीरा*जो सुमिरै हनुमत बलबीरा, “कौन सो संकट मोर गरीब को,*जो तुमसों नहिं जात है टारो*बेगि हरो हनुमान महाप्रभु,जो कछु संकट होय हमारो”,भूत प्रेत पिशाच निशाचर*अग्नि बेताल काल मारी मर*इन्हें मारु तोहि शपथ राम की*राखु नाथ मरजाद नाम की”, आदि-आदि
इसी तरह श्रीरामशलाका प्रश्नावली के अनुसार आप अपने मन में उमड-घुमड रही शंकाओं का तत्काल निदान सकते हैं. वैसे तो संपूर्ण रामायण ही अद्भुत है, इसकी हर चौपाई शाबर मंत्रों की तरह काम करती हैं तथा तत्काल सारे सकल मनोरथ पूर्ण करने करती है. यही कारण है कि भारत के घर-घर में नित्य रामायण का पाठ होता है, किन्ही-किन्ही घरों में अखण्ड पाठ भी चलता रहता है.
श्रीरामचन्द्रजी से प्रथम भेंट के बाद से लेकर रामराज्य की स्थापना और बाद के अनेकानेक प्रसंगों को पढ-सुनकर हृदय में अपार प्रसन्नता तो होती ही है, साथ में हमें सदकर्मों को करने की प्रेरणा भी मिलती है. श्रीमदहनुमानजी की जितनी भी स्तुति की जाए, कम ही प्रतीत होती है. श्री हनुमानजी के व्यक्तित्व को पहचानने के लिए यह भी आवश्यक है कि हम उनके चरित्र की मानवी भूमिका के महत्व को समझें. यदि हम यह विश्वास करते हों कि श्रीराम के रुप में स्वयं भगवान श्री विष्णु और मरुत्पुत्र के रुप में स्वयं शिव अवतारित हुए थे, तब भी हमको यह समझना चाहिए कि दैवी-शक्तियाँ दो उद्देश्य से अवतरित होती हैं. इन उद्देश्यों की सूचना गीता द्वारा भी हमें प्राप्त होती है. इन उद्देश्यों मे पहला उद्देश्य है-धर्मसंस्थापना और दूसरा है दुष्टसंहार. इनमें भी ध्यान देने की बात यह है कि दूष्टसंहार को पहला स्थान प्राप्त नहीं है. पहला स्थान धर्मसंस्थापन को दिया गया है. धर्मसंस्थापन के लिए जब भगवान और देवता मनुष्य समाज में अवतरित होते हैं, तब ठीक वैसा ही आचरण करते हैं,जो धर्माकूल और मनुष्यों जैसा ही हो. भगवान श्रीराम और रामसेवक हनुमान यावज्जीवन संहारकर्म के ही व्यस्त नहीं रहें. वे समाज के धर्म संस्थापन के कार्य में अग्रणी बनकर, जीवन भर उसका नेतृत्व करते रहे और जब आवश्यक हो गया, तभी उन्होंने शस्त्रों का उपयोग किया. इसलिए यह आवश्यक है कि हम हनुमच्चरित्र की मानवीय भूमिका को अपने जीवन में उतारें और युग-युग में व्याप्त धर्मसंस्थाना के कार्यों में सहयोगी बनें एवं भारत का नाम रौशन करें.