विश्व कविता दिवस
विश्व कविता दिवस
हर साल 21 मार्च को मनाया जाने वाला विश्व कविता दिवस साहित्य प्रेमियों और कवियों के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर होता है. यह दिन कविता की शक्ति, भाषाई विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है. कविता सिर्फ शब्दों का मेल नहीं, बल्कि भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक अद्भुत माध्यम है, जो समाज में बदलाव लाने और संवाद स्थापित करने में सहायक होती है.
आइए- विश्व के कुछ चुनिंदा कवियों और स्थानीय कवियों की कविताओं के बीच चलते हैं.
०००००
कविता का लोक :: लोक की कविता.
हम कविता के लोक में प्रवेश करें, इससे पूर्व मुझे लगता है कि हमें “लोक” के बारे में विस्तार से जान लेना आवश्यक होगा. आखिर लोक क्या है?. जहाँ तक हमारी दृष्टि जितना कुछ देख पाती है, वह सब लोक है. अंग्रेजी या फ़िर पश्चिम के फ़ोक से हमारा लोक बिल्कुल ही भिन्न है. लोक यानि जो हमेशा सतर्क रहता है, जो निरन्तर बना रहता है, जो गतिशील है..वह हमारा लोक है. फ़ोक का सीधा-सादा अर्थ जो निकलता है, वह है बीता हुआ..एकदम.... पिछड़ा हुआ . हमारा लोक बीता हुआ लोक नहीं है..बल्कि वह निरन्तर अपनी परंपरा को नवीनीकृत करते हुए, अपने अनुभव से एक नया मूल्य सृजित करता हुआ, हर समय को अपने से जोड़ता हुआ, जीवन को आगे बढ़ाता है, वह हमारा लोक है.
पुराणॊं में धरती से ऊपर सात लोक और धरती से नीचे भी सात लोक होने की बात कही है. वे इस प्रकार हैं-.पृथ्वी के ऊपर- सतलोक, तपोलोक, जनलोक, महलोक, ध्रुवलोक, सिद्धलोक तथा पृथ्वीलोक हैं. ठीक इसी तरह धरती के नीचे भी सात लोक बताये गए हैं. वे इस प्रकार से हैं- अतललोक, वितललोक, सुतललोक, तलातललोक, महातललोक, रसातललोक तथा पाताललोक. पृथ्वी को छोड़कर अन्य लोक तो हमें दिखाई नहीं देते, बल्कि वह हिस्सा भी हमें दिखाई नहीं देता, तो अंधकार में आच्छादित रहता है. क्या वह लोक की श्रेणी में नहीं आता? भले ही हम उन्हें आँखों से नहीं देख पाते, लेकिन वे सारे-की-सारे लोक इसके अन्तरगत ही आते हैं. अगर इसमें कुछ संदेह बना होता/रहता तो फ़िर हम यूंहि नहीं गाते-- चौदह लोक में फ़िरे गणपति..तीन भुवन में राज्य करें. पाताललोक तक श्री हनुमान जी का जाना हम नितप्रति रामायण में पढ़ते ही हैं.
लोक-साहित्य पढ़ने-लिखने में एक शब्द है, पर वह वस्तुतः यह दो गहरे भावों का गठबंधन है. “लोक” और “साहित्य” एक दूसरे के संपूरक, एक दूसरे में संश्लिष्ट. जहाँ लोक होगा, वहाँ उसकी संस्कृति और साहित्य होगा. विश्व में कोई भी ऎसा स्थान नहीं है, जहाँ लोक हो और वहाँ उसकी संस्कृति न हो.
मानव मन के उद्गारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियॊं का सजीव चित्रण यदि कहीं मिलता है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है. यदि हम लोकसाहित्य को जीवन का दर्पण कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कि लोककथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी. लोक साहित्य मे कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा, लोकजीवन का यथार्थ सहज ही देखने में मिलता है.
लोक-साहित्य हम धरतीवासियों का साहित्य है, क्योंकि हम सदैव ही अपनी मिट्टी, जलवायु तथा सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े रहते हैं. अतः हमें जो भी उपलब्ध होता है वह गहन अनुभूतियों तथा अभावॊं के कटु सत्यों पर आधारित होता है, जिसकी छाया में वह पलता और विकसित होता है. इसीलिए लोक साहित्य हमारी सभ्यता का संरक्षक भी है.
साहित्य का केन्द्र लोकमंगल है. इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा है. किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता. जहाँ अनिष्ठ की कामना है, वहाँ साहित्य हो नहीं हो सकता. वह तो प्रकृति की तरह ही सर्वजन-हिताय की भावना से आगे बढ़ता है.
संत शिरोमणि तुलसीदास की ये पंक्तियां- “कीरत भनित भूरिमल सोई-सुरसरि के सम सब कह हित होई” अमरत्व लिए हुए है. गंगा की तरह ही साहित्य भी सभी का हित सोचता है. वह गंगा की तरह पवित्र और प्रवाहमय है, वह धरती को जीवन देता है...श्रृंगार देता है और सार्थकता भी. प्रकृति साहित्य की आत्मा है. वह अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी साहित्य की अनिवार्यता समझता है. मिट्टी में सारे रचनाकर्म का “अमृतवास”´ रहता है. रचनाकर उसे नए-नए रुप देकर रुपायित करता है. गुरु-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानॊं के नजदीक ले आती है. यहाँ कबीर का कथन प्रासंगिक है-´गुरु कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-गढ़ी काठै खोट- अन्तर हाथ सहार दे, बाहर वाहे खोट” . संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी प्रकार के दोषॊं-खोटॊं से मुक्त रहता है. इसमें लोकहित की भावना समाहित है. मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं- “मलुका सोई पीर है, जो जाने पर पीर / जो पर पीर न जानई / सो काफ़िर बेपीर.” दूसरों की पीड़ा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता. वनस्पति के प्रति मैत्री का वह विस्तार साहित्य ही तो है.
लोक चेतना तो संस्कृति और साहित्य की परिचालक शक्ति मानी जाती है. किन्तु वर्तमान मशीनी और कम्प्युटरी समाज से लोक चेतना शून्य होती जा रही है. आज जरुरी है कि साहित्य का मूल्यांकन, लोकजीवन तथा लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए. जो लोकसाहित्य लोकजीवन से जुड़ा होगा, वही जीवन्त होगा. माना भूमिः प्रयोग है “पृथीव्याः” अथर्ववेद कि ऋचा का महाप्राण है. लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतिनिधित्व युगों से करता आ रहा है. यही लोक साहित्य की आधारशिला है. लोकसाहित्य परम्परा पर आधारित होता है. अतः अपनी प्रकृति मे विकाशशील है. इसमें नित्यप्रति परिवर्तन की संभावना बनी रहती है. इसका सृजन युगपीड़ा एवं सामाजिक दवाब को भी निरन्तर महसूस करता रहता है.
लोकसाहित्य में लोककथा-लोकनाटक तथा लोकगीतों को रखा जा सकता है, जिसमें जनपदीय भाषाओं का रसपूर्ण-कोमल भावनाओं से युक्त साहित्य होता है. भारतीय लोक साहित्य के मर्मज्ञ आर.सी टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य की साहित्यिक दृष्टिकोण से विवेचना करना, उसी सीमा तक करना उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे. यदि लोक साहित्य की वैज्ञानिक विवेचना की जाती है, तो मूल विषय नीरस और बेजान हो जाएगा. लोक के हर पहलू में संस्कृति के दिव्य दर्शन होते हैं. जरुरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरल सोच की. लोक साहित्य के उद्भट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भंडार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था- “मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियाँ भरकर मोती लाया”.
परलोक की धारणाएँ भी इन्हीं से जुडी है. सभी कर्मकाण्ड, पूजा-अनुष्ठान तथा उन्नत सांस्कृतिक समाज में मनुष्य के आचरण का निर्धारण इसी लोक में होता है. लोक हमारी सामाजिकता की गंगोत्री है और सभ्यता का प्रवेश द्वार भी. भारतीय जनमानस को श्रीमद भगवद्गीता ने जितना प्रभावित किया, उतना शायद किसी अन्य पुस्तक ने नहीं किया.
साहित्य की लोकचेतना उतनी ही प्राचीन है जितना कि आदि मानव. रागात्मक पक्षधरता उसे मजबूत बनाता है. ग्रामीणों के पर्व, त्योहार आचार-विचार, रिश्ते, जीवनमूल्य आदि को उन्हीं की बोली में अभिव्यक्ति मिलती है. उनके भाव और भाषा में अपनी मिट्टी की सुगन्ध आती है. उसमें मन की जड़ता को दूर करने की अपूर्व क्षमता होती है. वह बौद्धिक वजन का साहित्य नहीं है. वह मौखिक और जीवंत परंपरा का हिस्सा है. वह, असल में एक अमुक व्यक्ति की भावाभिव्यक्ति नहीं है, वरन् लोक की भावाभिव्यक्ति का आईना हैं. वह समाज की धरोहर हैं. पूराने समाज की घड़कन और स्पन्दन उसको सप्राण बनाती हैं. सामाजिक, पारिवारिक मूल्य ही उसकी जैव खाद है. लोक साहित्य मानवीय रिश्तों को मधुर बनाता है. ‘बहुजन सुखाय बहुजन हिताय’ के लक्ष्य की पूर्ति करता है. तुलसी दास की उक्ति ‘गावहि मंजुल बानी, सुनि कलरव मंगल बानी’ में उसका सन्देश निहित है. लोक जीवन में जितनी भी अवस्थाएं और परिस्तिथियाँ आती-जाती हैं, वे सब रामकथा में विस्तार से समाहित हैं. पारिवारिक जीवन का मोह-ममत्व, ईर्षा (irshya) -द्वेश,, प्यार, सौंदर्य का बोध, करुणा-दया, विश्वास, छल-प्रपंच, विवशतायें, उलझनें, आन्तरिक भावनाओं के द्वन्द्व, संघर्ष, विक्षोभ, धैर्य, चातुर्य, शील, निष्ठा, विश्वास, समर्पण, दृढ़ता, वत्सलता, सुकुमारता, कर्कशता, त्याग एवं सहनशीलता, रामकथा की जीवन धारा में लहरों की भांति प्रवाहित और तरंगित होते रहते हैं. युगचेता तुलसी दास जी ने जिस कौशल से संस्कारों और परम्पराओं का वर्णन किया है, जिसकी मिसाल और कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलती. इन सब बातों को लेकर किसी विद्वत सज्जन का कथन मैंने कहीं पढ़ा था. वे कहते हैं कि रामायण को गाने की बजाए पढ़ा जाना चाहिए और गीता को गाया जाना चाहिए, ताकि उसका प्रभाव हमारे मन-मस्तिस्क पर असर डाल सके और हम उससे शिक्षा ग्रहण कर सकें. हमारे आचरण में जो दिन प्रति दिन गिरावट आ रही है तथा जैसे-जैसे हम अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं,... लोक से दूर जाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे हम अमंगल की ओर बढ़ते जा रहे हैं.
हमें मालुम होना चाहिए कि लोकगीत, लोककथा, लोकपर्व, लोकोक्तियां, लोकनाटक, लोककलाएं, लोक भाषाएं, लोक-संगीत, लोक परंपराएं, लोक कहावतें, लोकगाथाएं तथा पहेलियां आदि सभी लोकसाहित्य के ही अंग-प्रत्यंग हैं. ग्रामीण लोग अपने नीरस और उबाऊ जीवन को रसपूर्ण बनाने के लिए जहां एक ओर विभिन्न-विभिन्न बोलियों में लोकगीत गाकर अपना मनोरंजन करते है, वहीं लोककथाओं के माध्यम से आनन्दित होते हैं. कभी नाटकों में अभिनय कर एक नया क्षितिज तैयार करते हैं, तो कहीं वे लोकोक्तियों और पहेलियों के माध्यम से अपनी दक्षता और बुद्धिकौशल का प्रदर्शन करते हैं. लोक कहावतों को सामाजिक न्याय की चलती फ़िरती अदालतें भी कहीं जाती हैं. बड़े-से-बड़े विवाद का कम-से-कम समय और शब्दों में अचूक निर्णय देने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है. शुरु से ही लोक जीवन, और लोकसाहित्य की समृद्ध परंपरा ग्रामीण अंचलों में बहुत ही समृद्ध एवं सुसंस्कृत रही है.
आइये...अब हम कविता के लोक में प्रवेश करते हैं. हम जब भी बात करते हैं कविता के लोक की या फ़िर लोक की कविता की, वस्तुतः हम लोक-साहित्य की ही बात कर रहे होते हैं.
विश्व के श्रेष्ठतम और प्रथम कवि होने का दर्जा यदि किसी को जाता है तो वह प्रातः वन्दनीय महर्षि वाल्मीकि जी को जाता है. आज से हजारों साल पहले श्री रामजी का जन्म त्रेतायुग में हुआ था. महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम जी के समकालीन थे. एक डकैत का-सा जीवन जीवन जीने वाले वाल्मीकि जी ने तमसा नदी के तट पर एक व्याध के हाथों मैथुनरत क्रौंच पक्षी के वध को देखा. करुणा के महासागर वाल्मीकि जी का दृदय इतना दृवित हो उठा कि उनके मुख से अचानक एक श्लोक फ़ूट पड़ा-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।। ( b )बाल्मिकी,रामायण –बालकांड-श्लोक 15)
वाल्मीकि जी का पटु शिष्य साथ ही था. वह आश्चर्यचकित हुआ कि अचानक यह श्लोक उनके मुख से कैसे फ़ूट पड़ा. उसने इस प्रश्न को पूछा तो वाल्मीकि जी ने उससे कहा-“ यह श्लोक जो मेरे शोकाकुल हृद्य से फ़ूट पड़ा है, उसके चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमे मानो तंत्री की-सी लय गूंज रही है. इसके अलावा और मैं कुछ नहीं जानता.
पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।। (…..श्लोक-18)
करुणा के इस महासागर से “काव्य” का उदय हो चुका था, जो वैदिक काव्य की शैली, भाषा और भाव से एकदम अलग था.... नया था. शिष्य के साथ वे आश्रम में पहुँचे, परंतु उनका ध्यान इस श्लोक की ओर ही लगा रहा. इतने में आखिल विश्व की सृष्टि करने वाले, सर्वसमर्थ, महातेजस्वी चतुर्मुख ब्रह्माजी, मुनिवर वालमीकि जी से मिलने के लिए स्वयं उनके आश्रम पर आये.
आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयं प्रभु चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुंगम (वाल.रामायण,श्लोक- 23)
वाल्मीकि जी को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि तुमने जो काव्य रचा है, तुम आदि कवि हो, अपनी इसी श्लोक शैली में तुम रामकथा लिखना, जो तब तक दुनियां में रहेगी जब तक पहाड़ और नदियां रहेंगी.
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति।। (वाल..रामा.श्लोक-36)
ब्रह्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त वाल्मीकिजी ने रघुवंशविभूषण श्रीराम जी के चरित्रविषयक रामायण काव्य का निर्माण किया. इतना ही नहीं उन्होंने श्रीरामजी के दोंनो पुत्र-लव और कुश, जिनका जन्म वाल्मिकि जी की कुटिया में ही हुआ था, इस महाकाव्य को पढ़ने और गाने में मधुर, द्रुत, मध्यम और विलम्बित-इन तीनो गतियों से अन्वित, षड़ज आदि सातों स्वरों से युक्त वीणा बजाकर, स्वर और ताल के साथ गाने योग्य तथा श्रृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक तथा वीर आदि सभी रसों से अनुप्राणित है, दोनों भाई को उस महाकाव्य को पढ़ाकर उसका गायन सिखाया.
पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम // जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तन्त्रीलयसमन्वितम रसैः श्रृंगारकरुणहास्य रौद्रभयानकैः // वीरादिभी रसैर्तुक्तं काव्यमेतदगायताम ( बालकांड-श्लोक-9.चतुर्थ सर्गः)
रघुवंशविभूषण श्रीराम जी के चरित्रविषयक रामायण को अपनी जनपदीय बोली में संतकवि तुलसीदास जी ने संवत 1631 में रामनवमी के दिन रचना प्रारम्भ की. दो वर्ष, सात महिने, छब्बीस दिन में इस ग्रंथ की समाप्ति हुई. संवत 1633 के मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष में राम विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए थे. इतनी निशद काव्य रचना जो बोलने-सुनने में सहज है, जिसे अनेकों सुरों में सरलता से गाया भी जा सकता है, व्याकरण के हर पैमाने पर खरी उतरने वाला यह अद्भुत ग्रंथ, इससे पहले कभी नहीं लिखी गया था और शायद ही कभी लिखा जा सकेगा, ऐसा मेरा अपना मत है.
बालकाण्ड के श्लोक 7 में तुलसीदास जी ने लिखा है-
नाना पुराणनिगमागमसम्मतं यद रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि. स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति ( श्लोक-7)
अनेक पुराणों, वेदों तथा शास्त्रों से सम्मत एवं जो श्री वाल्मीकि कृत और अध्यात्म रामायण में वर्णन है, उनके आधार पर तथा कुछ अन्यत्त्र से भी प्राप्त हुई श्रीराम कथा को अपने आन्तरिक सुख के लिए अत्यंत मनोहारिणी भाषा में रचकर, तुलसीदास विस्तार करता है.
युगों-युगों से अविरल धारा के रूप में प्रवाहित होने वाली इस काव्य-गंगा ने न जाने कितने लोकों की निर्मिति की है, जिनका सहज ही अंदाज लगाना संभव नहीं है.
कविता का लोक
सृष्टि की सबसे उत्कृष्ट कविता- “जब कोई स्वर कंठ से फ़ूटता है तो उसे कविता कहते हैं, आँखों से झरता है तो आँसू, और जब एकतारे से फ़ूटता है तो संगीत और जब वही सत्य बनकर होंठों से फ़ूटता है तो उसे मुस्कान भी कहते हैं.
ऊपर वर्णित जितने भी लोकों का मैंने उल्लेख किया है, इन सबका निर्माता और कोई नहीं, बल्कि वह सरस्वती पुत्र है, वह कवि है, वह साहित्यकार है. जिसने प्रकृति को आराध्य मानकर हृद्य में तरंगित होते हुए शब्दों को गूंथ-गूंथकर माँ भारती के लिए गलहार बनाये है. जिस प्रकार सारी सृष्टि का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव ने किया है, उसी प्रकार कलम के धनी कवियों ने भी अनेकानेक लोकों का निर्माण किया है. उसे दूसरा ब्रह्म यूंहि नहीं कहा गया है. निर्मल चित्त धारंण कर, जो भी प्रकृति की उपासना करता है, वह एक से बढ़कर एक गीत, एक से बढ़कर एक कविता की निर्मिति करता है. गीतों के बेताज सम्राट कहे जाने वाले स्व. गोपालदास नीरज को भला कौन नहीं जानता?. उन्होंने लिखा है- फ़ूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज पाति..जैसे अनेकानेक गीत लिखे, जो लोगों के, न सिर्फ़ कंठ्हार बने, बल्कि इनके गीतों को फ़िल्मों में भी शामिल किया है. स्व.हरिवंश राय बच्चन जी (मधुशाला), सुमित्रानंदन पंत, डा.शिवमंगलसिंह सुमन, डा.हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राष्ट्रीय ऊर्जा के कवि रामधारी सिंह “दिनकर”,जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, गोपाल सिंह नेपाली, भारत भूषण, गिरिजा कुमार माथुर, निर्मल वर्मा आदि सहित वर्तमान समय में भी कविताएं रचीं और पढ़ी जा रही है. इनमे कुछ प्रमुख नाम- कृष्ण शर्मा “सरल” चन्द्रसेन विराट आदि से लेकर केदारनाथ सिंह, अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, भगवत रावत, विष्णु नागर, देवीप्रसाद, आदि (फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी है) के नाम गिनाए जा सकते हैं. इनके अलावा वर्तमान समय में भी अनेकानेक कवि सुन्दर-सुन्दर गीत/कविताएं लिख रहे हैं. भारतमूल की लेखिका सुश्री शैल अग्रवाल जी “यू.के”. से “लेखनी” पत्रिका का, केनेड़ा से सुश्री सुधा ओम ढिंगरा जी “हिन्दी चेतना पत्रिका” का, दुबई से सुश्री पूर्णिमा वर्मन “अभिव्यक्ति” पत्रिका का, अमेरिका से सुश्री सरोज शर्मा जी “प्रवासी दुनिया” पत्रिका का, न सिर्फ़ संपादन कर रही हैं, बल्कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका का निर्वहन भी कर रही हैं. इनकी पत्रिकाओं में बड़ी संख्या में हिन्दी कविताएं प्रकाशित की जाती हैं. इस तरह हम पाते हैं कि इन कवियों की कविताओं में वे सारे लोक भी कहीं न कहीं शामिल होते रहे है और शामिल होता रहा है वह “आदमी” जो साहित्य का केन्द्र बिंदु है.
कविता के केंद्र में आदमी का होना जरुरी है. आदमी है तो उसका घर-परिवार, रिश्ते, पैसों का अभाव, अनिश्चिंताएं, अपूर्णताएं. अनिर्णय, दुनियादारी की जरुरतें, साहस, विफ़लताएं, स्वप्न-प्रेम, आत्मग्लानियां, हताशाएं, छिपे हुए संकल्प, दैनिक जीवन के दबाबों की प्रत्यक्षता, उसकी छायाएं, सुख-दुख आदि कविता के आवश्यक टूल्स हैं. तब जाकर एक मुकम्मल कविता बनती है. स्टिरियो टाईप लिखी गई कविताएं ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहती. ऐसा मेरा अपना मानना है
हमारे पुरोधा भारतीय कवि.
रवीन्द्रनाथ टैगोर.
गुरुदेव की काव्यरचना गीतांजलि के लिए ही उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था।
मेरा शीश नवा दो अपनी चरण-धूल के तल में / देव ! डुबो दो अहंकार सब / मेरे आँसू-जल में / अपने को गौरव देने को / अपमानित करता अपने को / घेर स्वयं को घूम-घूम कर / मरता हूँ पल-पल में / देव ! डुबो दो अहंकार सब / मेरे आँसू-जल में / अपने कामों में न करुं मैं / आत्म-प्रचार प्रभोः / अपनी ही इच्छा मेरे /. जीवन में पूर्ण करो / मुझको अपनी चरम शांति दो / प्राणॊं में परम कांति हो / आप खड़े हो मुझे ओट दें. / हृदय-कमल के दल में / देव ! डुबा दो अहंकार सब / मेरे आँसू-जल में.
सुब्रमण्यम भारती
चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है / जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है / नदी हमारी ही है गंगा प्लावित करती मधुरस धारा / बहती है कहीं और भी ऎसी पावन कल-कल धारा ? / सम्मानित हो सकल विश्व में महिमा जिनकी बहुत रही है / अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है / गाएँगे यश हम सब इसका / यह है स्वर्णिम देश
माखनलाल चतुर्वेदी.
पत्थर के फ़र्श, कगारो में / सीसों की कठिन कतारों में / खंभों के द्वारा में / इन तारों में दीवारों में / कुंडी, ताले, संतरियों में / इन पहरों की हुंकारों में / गोली की इन बौझारों में / इन वज्र बरसती मारों में / इन सुर शर मीले गुण, गरवीले / कष्ट सहीले वीरों में / जिस ओर लखूँ तुम ही तुम हो.
(२) नर हो न निराश करो मन को / कुछ काम करो, कुछ काम करो / जग में रहकर कुछ काम करो / यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो! / समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो / कुछ तो उपयुक्त करो तन को / नर हो न निराश करो मन को /
मैथिलीशरण गुप्त
माता का मन्दिर / यह समता का संवाद जहाँ. सबका शिव कल्याण यहाँ है पावे सभी प्रसाद यहाँ / जाति-धर्म या संप्रदाय का /. नहीं भेद-व्यवधान यहाँ, सबका स्वागत सबका आदर सबका सम सम्मान यहाँ / राम,रहीम बुद्ध,ईसा का, सुलभ एक सा ध्यान यहाँ /, भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के गुण गौरव का ज्ञान यहाँ / नहीं चाहिए बुद्धि बैर की भला प्रेम का उन्माद यहाँ / सबका शिव कल्याण यहाँ है, पावैं सभी प्रसाद यहाँ./ सब तीर्थों का एक तीर्थ यह हृदय पवित्र बना लें हम / आओ यहाँ अजातशत्रु बन, सबको मित्र बना ले हम
कवि प्रदीप ( रामचन्द्र द्विवेदी.)
आज हिमाचल की चोटी से फ़िर हम ने ललकरा है / दूर हटो ऎ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है. / जहाँ हमारा ताजमहल है और कुतुब-मीनारा है / जहां हमारे मन्दिर मस्जिद सिखों का गुरुद्वारा है / इस धरती पर कदम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है / शुरु हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठॊ हिन्दुस्तानी / तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी / आज सभी के लिए हमारा यही कौमी नारा है.
सुभद्रा कुमारी चौहान.
आ रही हिमालय से पुकार / है उदधि गरजता बार बार / प्राची पश्चिम भू नभ अपार / सब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त / वीरों का कैसा हो वसंत / फ़ूली सरसों ने दिया रंग / मधु लेकर आ पहुंचा अनंग / वधु वसुधा पुलकित अंग अंग / है वीर देश में किन्तु कंत / वीरों का कैसा हो वसंत / भर रही कोकिला इधर तान ./ मारु बाजे पर उधर गान / है रंग और रण का विधान / मिलने को आए आदि अंत / वीरों का कैसा हो वसंत / गलबाहें हों या कृपाण / चलचितवन हो या धनुषबाण / हो रसविलास या दलितत्राण / अब यही समस्या है दुरंत / वीरों का कैसा हो वसंत
रामधारीसिंह “दिनकर” ( लंबी कविता का एक अंश.)
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा / तैतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो / अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है / तैतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो / आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख / मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? / देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे / देवता मिलेंगे खेतों में , खलिहानों में / फ़ावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं / धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है / दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो / सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
हरिवंशराय बच्चन --साकी बनकर मुरली आई / सात लिए कर में प्याला / जिनमें वह छलकाती लाई /.अधर-सुधा-रस की हाला / योगिराज कर संगत उसकी /नटवर नागर कहलाए / देखो कैसों-कैसों को है /नाच नचाती मघुशाला /२/ बनी राहे अंगूर लताएँ / जिनसे मिलती है हाला / बनी रहे वह मिट्टी जिससे/बनता है मधु का प्याला/ बनी रहे वह मदिर पिपासा/ तृप्त न हो जो होना जाने/बने रहे ये पीने वाले/ बनी रहे यह मधुशाला.
मेरे प्रिय रहे कवि.
छिन्दवाड़ा जिले की काव्य परंपरा में स्व.संपतराव धरणीधर, गीतकार स्व. पं.राजकुमार शर्मा तथा देश की सीमाओं से पार कविताओं को पहुँचाने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो स्व.श्री विष्णु खरे को जाता है. हम उनके इस महान योगदान को कैसे विस्मृत कर सकते है. हमारे समय की कविता क्या हो सकती है?.जब यह प्रश्न उनसे पूछा गया तो उन्होंने उत्तर में कहा-“यह उस सीमा की खोज है, जिसके एक ओर अर्थहीन शोर है और दूसरी तरफ़ जड़ खामोशियां. कविता इन दोंनो स्तिथियों के बीच इतिहास की तमाम विडम्बनाओं और त्रासदियों के से गुजरते हुए, तमाम तरह के धोकों, फ़रेबों, प्रपंचों और बदकारियों का सामना करती हुई, भरोसे का एक निदान चाहती हैं और इस बुनियादी सवाल को उठाती है कि यह सब क्यों?”
विष्णू खरे
तुम जहाँ हो / तुम हो नहीं,/ जहाँ तुम पहुँचते हो, / वहाँ कोई और मौजूद होता है,/ जहाँ समझा जाता था कि तुम होगे,/ वहाँ कोई बैठा था,/ पत्थर गिनता हुआ // जहाँ तुम हो आए हो / वहाँ तुम कभी नहीं थे / जहाँ तुम पहुँचे थे / तुम पहले ही उस देश की / विस्तृत यात्रा कर चुके थे / जहाँ से तुम जा चुके थे / वहाँ तुम तभी उतरे थे // जहाँ सुख का / बसेरा था वहाँ कोई सुख नहीं था / जब तुम पिता थे / तुम निःसंतान रहे / तुमने ठंढ में कदम रखा / वसंत,शुरु ही हुआ था // विस्तीर्ण मैदानों के आरपार / सपने देखते हैं गुमशुदा / सुदूर होती हैं स्वापनातीत वस्तुएँ भेस बदलकर / दुनिया भागती है, खुद से //
स्व.संपतराव धरणीधर
घर आंगन सुनसान हुआ है./ हर पावन रिश्ता मेंहदी का / भर सावन बदनाम हुआ है. / क्यों मौसम बेइमान हुआ है.(२)क्या तुमने इस पर सोचा है/ कि रोटी के पहाड़ पर बैठकर भी / आदमी क्यों भूखा है (लंबी कविता का एक अंश)
स्व.रामकुमार शर्मा
(प्यार बांटने आया हूँ)
(लंबी कविता का एक अंश)
जीवन की सहमी सांसों का अधिकार आंकने आया हूँ/मैं गली-गली और द्वार-द्वार पर प्यार बांटने आया हूँ//पलने से लेकर चलने तक जो गीत प्यार के गा न सका/ धरती पर खेला मिट्टी की रंगत को कब पहचान सका/जो रो- रोकर आंसू से नित धड़कन का तापन करते थे / मैं कफ़न उठा उनकी लाशों की मुस्कान पहचान सका/ पलकों के साये में पलती संध्या की नीरव शामलता./ मैं उन नयनों में हँसता-सा भुनसार आंजने आया हूँ
स्व.केशरी चन्देल "अक्षत"
(शांति की राह में)
आओ हम प्यार की राहों पर चलकर देखें/ नफ़ारतों के अंधेरे दर से निकलकर देखें/ आओ हम चीख-चीखकर सरे बाजार कहें/ खून की खाद से अच्छी फ़सल नहीं होती/ जंग मसलों का हल नहीं होती.
२.गाँव मेरा-
चाँदनी-सी चमक वाला/, दामिनी-सी दमक वाला/ अजनवी मुस्कान वाला/, एक अद्भुत शान वाला/हँस रहा आठों पहर है/ एक अपनी लहर वाला/ नित नये जीवन की खुशबू / नित नयी पहचान वाला /मधुमयी मुस्कान वाला/. गाँव मेरा/गाँव मेरा
स्व.नईम-
आज महाजन के पिंजरे से कैद सुआ है, अभिशापित मनुआँ बेचारा,/ काम न आई दवा-दुआ है/ टूटी खाट जनम से अपनी/अपलक रात जागती रहती / इन खेतों से उन मेड़ों तक/ एड़ीं उठा भागती रहती/ भ्रष्ट व्यवस्था का आदम की / गर्दन पर खुरदुरा जुवाँ है.
स्व.डा.हुकुमपाल सिंह "विकल"
( माँ जब जब सहलाती माथा.)
माँ ऐसा शब्द धरा पर/ जिसका पार नहीं/ जिसके अर्थों का कोई भी पारावार नहीं/ माँ को पा सुख हो जाता है/ हर आता दुखड़ा// माँ है रामचरित मानस की चौपाई ऐसी/ उपमानों में बांध न पाए/ तुलसी तक जैसी/हुआ सार्थक जीवन उसका/जिसने उसे पढ़ा
स्व.चन्द्रकांत देवताले
(माँ पर नहीं लिख सकता कविता.)
माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता/ अमर चिऊँटियों का दस्ता/ मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है/ माँ वहाँ हर रोज चुटकी-दो चुटकी आटा डाल देती है.///मैंने धरती पर कविता लिखी है/चन्द्रमा को गिटार में बदला है/समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया./ सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा / माँ पर नहीं लिख सकता कविता.
स्व.श्री चन्द्रसेन विराट
(कहाँ लाया गया देश को)
दिशाएँ हँस नहीं पातीं जहाँ ऋतु ही रुआँसी है / जहाँ कुछ खास शक्लें छोड़ सब पर उदासी है/ पसीना बो रहे हैं जो उन्हीं का दुःख नहीं घटता/ उगलती स्वर्ण जो धरती बराबर में नहीं बँटता/ जिन्हें है कब्ज दौलत का उन्हीं पर धन बरसता है/ जिसे सच्ची जरुरत है वही भूखा तरसता है/ विडंबना ही विडंबना है विपर्यय ही विपर्यय है./कहाँ लाया गया है देश को विक्षोभ-विस्मय है.
स्व.सूरज पूरी
(वासंती एक शाम.)
पोर-पोर, सांस-सांस, उतर गई आज शाम/ वासंती एक शाम/. चढ़ी धूप उतर गई, सीढ़ी पर ताल के/ दियने कुछ थिरक उठे, लहरों की चाल पे/ मंदिर के कलशों से उतर गई आज शाम/ वासंती एक शाम/वासंती एक शाम
स्व.श्रीमती शकुन्तला यादव.
( दीप गीत )
सखी री......../ .एक दीप बारना तुम / उस दीप के नाम / जिस दीप के सहारे / हम सारे दीप जरे हैं
सखी री..../ सखी री./दूजो दीप बारियो तुम/.उस दीप के नाम / जिस दीप के सहारे/हम जग देखती हैं
सखी री...../ ...सखी री../..तीजॊ दीप बारियो तुम /उस माटी के नाम /जिस माटी से/बनो है ये दींप
सखी री..../..सखी री../...चौथो दीप बारियो तुम/उन दीपों के नाम/जो तूफ़ानों से टकरा गये थे/और ‘ बुझकर भी/भर गये जग में/अनगिनत दीपों का उजयारा/सखी री........
(२) (समाजवाद मंथन)
देव और दानवों ने/ मथा सागर / व्यर्थ ही पिसता रहा वासुकि/ मिला क्या ?/ शांति-शांति की-/ चलती रही चख-चख/ फ़ायदा उठाया शेषशायी ने/अपना और देवगण का कराया/आज इसी क्रम में हो रहा समाजवाद मंथन/ मस्का निश्चित ही/ वरिष्ठ पायेंगें/ कुछ चमचे चाट जायेगें/ मठा, समाज के नाम चढ़ाकर
वर्तमान समय के कवि.
श्री एनलाल जैन "स्वदेशी"
(वीणा के तार.)
ये लहर से हवा की छिड़ी बात है / लो वो इठला गई. मुझ पर आघात है / धार ने कूल से कुछ कहा कान में / कूल बहने लगा धार की तान में / नाव मेरी ही मुझसे जो रूठी प्रिये / फ़िर बताओ भँवर क्यूँ न घेरे प्रिये / हर लहर पर मैं अपनी पतवार बदलता हूँ / हर तार को हर गीत पर, हर बार बदलता हूँ.
श्री विष्णु मंगरुलकर."तरल"
(शरद के चाँद का शृँगार )
चाँद-चंदनियों संग नैन लड़ाना/ खेल अनवरत चला हुआ है/ किरणों को साकी बाला बनके/ मन सबका हत किया हुआ है/चंचल चितवन फ़िजां में यौवन/.चाँद ऐसे यूँ घोले हुआ है, ऐ.!..शरद निशा जल्दी ना सराना/ जग बेगाना बना हुआ है/शृंगार चाँद ने आज किया है.
ओमप्रकाश सोनवंशी "नयन"
( तीली )
वक्त ने मेरी जिन्दगी के/ सीने पर/ एक ऐसी तीली/ रख दी है/ जिसे सुलगा लेना/ मेरी अनिवार्यता बन गई है/ क्योंकि, इस तीली का आलोक/ कर सकता है दूर/ मन की घाटियों का अँधेरा.
डा. आशीष कंधवे
(एक जीवन और )
मैंने / एक सफेद गुलाब / उगाया है फरबरी में / एक सच्चे दोस्त के लिए / जो अपना / ईमानदार हाथ / मेरे हांथो में दे दे / मेरी क्रूरता ले ले / और मेरे आंसुओं को / संभाल ले / उस दिल के साथ / मैं रहूँ और / मेरे साथ वो दिल / ताकि, / मुस्कुराते हुए / एक जीवन और / गुज़र जाए ...
(शिव की तरह जीना आता हैं ) ( एक लंबी कविता का एक अंश )
हम हिमालय के धवल पंछी / केसर के खेतों में बिचरने वाले / कौन लोकतंत्र का चेहरा बिगाड़ रहा है / कौन विषधर, नज़र भारत को लगा रहा है / कायरों के कोलाहल से क्यों आसमान बेचैन है / पहचान लो,पहचान लो देश का दुश्मन कौन है / लोकतंत्र का करके आखेट / जो बढ़ाने की सोंच रहे अपना वोट बैंक / बांट रहा है कौन देश के संविधान को / नकार रहा है कौन देश के विधान को /कौन कर रहा है कुठाराघात / हमारी अस्मिता और हमारे अरमान को / पहचान लो पहचान लो देश के दुश्मन कौन हैं
हस्तीमल हस्ती
कितनी मुश्किल / कौन धूप सा / दानिशमंदों के झगड़े / सच के हक में /
सबकी सुनना अंजुमन में-/ उससे मिल आए हो / सबका यही खयाल / काम करेगी उसकी धार / जुगनू बन या तारा बन / टूट जाने तलक / सच कहना और पत्थर खाना / सच का कद / सरहदें नहीं होतीं
2. प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है / नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है
जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था / लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है
गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी / लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है /
हम ने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन / गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है
जयप्रकाश मानस
कविते/ कुछ फ़रेब करना सिखाओ / कुछ चुप रहना /वरना तुम्हारे कदमों पर चलने वाला कवि / मार दिया जाएगा खामखां / महत्वपूर्ण यह भी नहीं कि / तुम उसे जीवन देती हो / अमरत्व / पर मरने के बाद / कविता / फ़िलहाल उसे / तुम जरा-सा झूठ दे दो / ताकि वह किसी तरह बच जाए / जब बचा ही नहीं रहेगा कवि / तो कविता के साथ कौन जाना पसंद करेगा.
(२) कविता में महक उठता वसंत / पुतलियों से झांकने लगता /. सूर्ख सूरज / पंखरियों में बिखर गया जीवन / हत्या से लौटा हुआ मन / तलशता वनांचल का आदिम राग / क्यों करते पृथ्वी में स्वर्ग की तलाश / मिल गई होती काश / उसकी एकाध चिठ्ठी.
सुरेन्द्र वर्मा.
(मेरा जीवन).
केवल/मुठ्ठी भर/उजाला ही तो मेरे पास है/यदि वह मैं तुम्हें दे दूँ/तो मैं कहीं का नही रहूँगा/नहीं.. नहीं, -/यह क्दापि नहीं हो सकता/कभी नहीं हो सकता/उसके एक-एक शब्द /मुझे अक्षरतः याद है/प्रतिशोध की ज्वाला/मुझे बार-बार उकसाती है कि/मैं उसका मुँह नोच लूं/पर मैं उसका कुछ भी-
बिगाड नहीं पाता हूँ/क्योंकि/उसकी बंद मुठ्ठी में/सिसक रहा होता है/मेरा जीवन
गोवर्धन यादव
1.बस अपना एक मुस्कुराना है
पवन / कह दो हर कली से / कि वह तैयार रहे/ घोर घमण्ड कर तूफ़ान आने वाला है /गगन में घोर काले बादल घिरेगें / कौन जाने कब,दामिनी-कामिनी का होगा नर्तन / कडक-कडक कर,चमक-चमक कर वे / भरना चाहेगीं डर नस-नस में / पर इससे तुझे क्या ? / आती तो रहेगीं हरदम घड़ियाँ तम की / और कभी मिलेगा मिलिन्द आसक्त रक्त का / खिल सर कंटकों के बीच मुस्कुराना है / जिन्दगी में अपना बस,एक मुस्कुराना है
2.कपसीले बादल
कांधो पर विवशताओं का बोझ /हथेली से चिपकी/ बेहिसाब बदनाम डिग्रियाँ /दिल पर आशंकाओं-कुशंकाओं के/ रेंगते जहरीले नाग/निस्तेज निगाहें/ पीले पके आम की तरह लटकी सूरतें / और सूखी हड्डियों के ढाचों के /गमलों मे बोई गईं/ आशाओं की नयी-नयी कलमें/और पाँच हाथ के/कच्चे धागे मे लटके-झूलते/ कपसीले बादल/जो आश्वासनों की बौझार कर/तालियों की गड़गड़ाहट के बाद/फिर एक लंबे अरसे के लिये/गायब हो जाते हैं/ और कल्पनाओं का कल्पतरु /फ़लने-फ़ूलने के पहले ही/ ठूंठ होकर रह जाता है.
डा.सुधीर शर्मा "समग्र"
( घर लौटी चिड़िया )
बहुत छोटा होता है, चिड़ियों का घर/ दो बच्चे और एक वह./कैसे समाते हैं/ इस नन्हें घर में/ चिड़ियों का घर/ पूरा आकाश होता है/ पेड़-पौधे, खेत-खलिहान/ दूसरों के घरों के आसपास की जगह/ छत से लगा लोहे का कुंड/ न जाने और कुछ-कुछ/ सब चिड़ियों का ही तो घर है/ छोटा हमारा घर होता है/ मेहमान आते ही/ तंग हो जाते हैं हाल/ बड़े बेडरूम और ड्राइंगरूम भी/ चिड़िया अपने घर के भीतर/ बड़ा दिल रखती है/ हम बड़े घर में/ नहीं बचा पाते/ चिड़ियों के लिए घर.
गिरीश पंकज
( आज का दिन बहुत अच्छा बीता )
आज का दिन बहुत अच्छा बीता/ किसी लड़की से नहीं हुआ बलात्कार/ नहीं छॆड़ी गई कोई युवती/ किसी चौराहे पर/ फ़ब्तियां भी नहीं कसी गयीं किसी पर/ नहीं बनाया किसी ने किसी का "एसएमएस"/ नहीं मारा पुलिस के किसी औरत को थप्पड़/ नहीं हुए सड़कों पर प्रदर्शन/ आज का दिन बहुत ही अच्छा बीता/ पकड़े गए रिश्वतखोर अफ़सर/ रंगरेलियां मनाते नेता/ ब्ल्यू फ़िल्म देखते साधु/ कमाल का रहा आज का दिन./ कि एकाएक घट गयी महंगाई/ आदमी ने चैन की रोटी खाई/ नहीं हुई कोई सड़क दुर्घटना/ एक बच्चा पार कर गया सड़क/ बिल्कुल साबूत? कुछ नहीं हुआ उसको/ आज का दिन बहुत अच्छा बीता/ आज मैंने देखा/ बहुत अच्छा सपना देखा/ आज का दिन बहुत अच्छा बीता.
मंजु पाण्डॆय "उदिता"
"एक हक़ीकत,एक ख़्वाब...!"
तेरी यादों के एक-एक फंदे/ उंगलियो की पोर-पोर गिनते हुए/ उलझाती सुलझाती रही/ बुनती रही खूबसूरत गलीचा/ अपनी जिंदगी का.../ बालिश्त-भर बुनने की / खुशी का एहसास/ मुस्कान बन अधरों तक / आते -आते छूट गया एक सिरा../ दो सिरों के बीच / समेटने के लिए ये जिन्दगी/ तेरा साथ भी तो जरूरी है न!/ वर्ना उधड़ने लगता है/ एक पल में जिंदगी का / इस क़दर खूबसूरत गलीचा
(२) एक काली स्याह चादर/
सिमट गई एक पल में ही / सारी सुखद अनुभूतियाँ / सारे दायरे एक-एक कर/ भोर की किरण जगा गई / उम्मीद की एक नई लौ / सूरज के चढ़ने के साथ/ चढ़ने लगी परवान मेरी आशाएं/ मेरा विश्वास / ये अरुणिम रश्मियाँ / दिखाएंगी नयी राह / ले जायेंगी मुझे / उस क्षितिज तक/ जहाँ पीछे छूट जाएगा / मेरा अतीत/ मेरा दुःख / तिरोहित हो जाएगा / क्षोभ और करुणा का अथाह खारा सागर।
पीदयाल श्रीवास्तव
"नदी कंधे पर"
अगर हमारे बस में होता/ नदी उठाकर घर ले आते।/ अपने घर के ठीक सामने/ उसको हम हर रोज बहाते/ कूद-कूद कर उछल-उछलकर,/ हम मित्रों के साथ नहाते/ कभी तैरते, कभी डूबते,/ इतराते गाते मस्ताते/ नदी आई है' आओ नहाने,/ आमंत्रित सबको करवाते/ सभी उपस्थित भद्र जनों का/ नदिया से परिचय करवाते/ यदि हमारे मन में आता,/ झटपट नदी पार कर जाते/ खड़े-खड़े उस पार नदी के/ मम्मी-मम्मी हम चिल्लाते/ शाम ढले फिर नदी उठाकर/ अपने कंधे पर रखवाते / लाए जहां से थे हम उसको / जाकर उसे वहीं रख आते
इंदिरा किसलय
बर्बरता के अणु
प्रकृति परिवर्तन लाएगी /कालक्रम में कुछ ऐसा होगा/ मनुष्य की चोंच निकल आएगी /तुम ऐसी ही किसी/ संभावित व्याख्या से खुश हो / तुम्हें लगता है/ कुर्सियां अनाज उगाएंगी ?/ कुर्सियां अनाज में तब्दील हो जाएंगी?/ कुर्सी खाकर तुम्हारा/ गुजारा हो जाएगा / शायद तुम थाली में/ मशीनें खाने के लिये भी तैयार हो /प्रयोगशाला में ऐसा कोई/ कैप्सूल तो नहीं/ बनवा रहे हो / जिसे खाकर अन्न और अन्नदाता के/ मोहताज नहीं रहोगे / तुममें बर्बरता के अणु/ यूं ही नहीं/ उपजे/ उर्वरक का पता है हमें / विचार करो/ करो या मरो/ आजादी की लड़ाई में/ सुना गया था/ क्या होगा अगर/ खेतों में बंदूकें उगने लगें/ और आसमान से/ बारिश की जगह/ बरसने लगें/गोलियां ??????.
कविता का लोक काफ़ी विस्तारित है. कविता सिर्फ़ भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में लिखी-पढ़ी जा रही है और अनुवादित होकर समुचे विश्व में भ्रमण भी करती है. “दुनिया की कविता” शीर्षक से हम कविता के लोक की विस्तार से चर्चा करेंगे.
लोक की कविता.-
बीसवीं सदी की कविता का स्वर दुनियां की हलचलों, संघर्षों, विश्व युद्धों की विभीषिकाऒं और मनुष्य की विश्व उपलब्धियों की टकराहटों का अनुगूंज ही रहा है, जिसकी रोशनी चीन, जापान, वियतनाम से होती हुई यूरोप से दक्षिण अफ़्रीकी तक जाती है. पहले जिसे कविता माना जाता था, रेम्बों ने उसमें आमूल-चूल परिवर्तन कर दिखाया. रेम्बो से रूसी कवयित्री निका तुर्बीना तक जाने वाली बीसवीं सदी की विश्व कविता ने अपने समाजों के अन्तर्विरोधों, जनसंघर्षॊं और प्रतिरोध को स्वर दिया. यह सदी विश्व के महानतम कवियों की सदी भी रही है, जिसमें दुनियां की श्रेष्ठतम कविताएं रची गईं. विश्व कविता की समृद्ध धरोहर एजरा माउंड, टी.एस.इलियट, पैसोआ, बोर्खेज, रिल्के, कवाफ़ी, लुई, अरागों, पाब्ला नेरुदा, नाजिक हिकमत, बर्टोल्ट ब्रेख्त, शिम्बोर्स्का, लोर्का, फ़ेरेत्स यूहास, लू शुन, हो ची-मिन्ह, गिंसवर्ग, मयाकोव्स्की, तो हू, डेनिस ब्रूटंस, रोबेर्तो हवारोंस, आन्द्रे ब्रेतो अख्मातोवा, कार्ल सैण्डबर्ग, और उन जैसे दूसरे महान कवियों की सृजन परंपरा है, जो आज की विश्व कविता के व्यापक फ़लक की आधार भूमि है. अंग्रेजी, फ़्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, रूसी, यूनानी, पोलिश, हंगरी, बुल्गारी, जापानी, हिब्रू, वियेतनामी, पोर्चुगीज, अरबी आदि भाषाओं में रची गई महानतम कविताओं ने ही आधुनिक विश्व कविता के फ़लक को समृद्ध बनाया और कविता की गूंज को मानव अन्तर्मन के परिष्कार व बदलाव का माध्यम भी. इन तमाम भाषाओं के विद्वान अनुवादकों को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इनका समय-समय पर हिन्दी में अनुवाद कर, हमें विश्व कविता के फ़लक से परिचित कराया और हिन्दी के खजाने को समृद्ध बनाया.
जब हम लोक की बात करते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी भूःलोक में वे सारे देश भी आते हैं जहाँ कविताएँ लिखी और पढ़ी जा रही है. इन कविताओं का सृजन फ़लक इतना व्यापक और जीवन दर्शन वाला विजन लिए हुए है, कि वह अनन्तकाल तक मनुष्य जीवन के बीहड़ को आलोकित करता रहेगा.
हंगरी कवि -अत्तिला योजेफ़ (1905-1937) ( अनुवादक-सुरेश सलिल)
लोग मुझे चाहेंगे. - अच्छे और बुरे को लेकर मैं मथापच्ची नहीं करता / काम करता हूं और खटता हूं, बस / बनाता हूं मैं पंखे से चलने वाली नावें, चीनी मिट्टी के प्याले-प्लेटें / बुरे वाक्तों में बुरी तरह, औसत वक्तों में अच्छी तरह / अनगिनत हैं मेरे कारखाने, सिर्फ़ मेरी प्यारी / उनकी फ़िक्रमंदी करती है, उनका हिसाब-किताब रखती है. / मेरी प्यारी ही उस सबका हिसाब-किताब करती है / उसमें विश्वास है, लेकिन पंथ और सौगंध के सम्मुख वह चुप रहती है./ मुझे दरख्त बनाओ, यकीनन कौआ, तभी मुझ पर घोंसला डालेगा / जब आसपास और कोई दरख्त न हो
फ़िनिश कवि -आउलिक्की ओकसानेन ( सईद शेख )
दूसरा पल --कहीं है दूसरा पल, / दूसरी तरह की जलवायु, / दूसरा समुद्र, दूसरा द्वीपसमूह / कुछ ऎसा, जिसे जीते हुए अनुभव किया जाता है / जब गहराइयों का पानी परावर्तित होता है / तरंगों में गोता लगा गए शुष्क मेघ / कहीं है दूसरा भ्रमण / अज्ञात पक्षियों की दुनियां / हल्का सा सरकंडे का पुल ग्रीष्मों और पक्षियों के घोंसलों के ऊपर से, / शांत आकाश, सुखद संध्या, / देश जहाँ गीत सो रहे हैं / नक्षत्रों के किनारों पर, अप्रत्याशित से भयभीत हुए बिना.
फ़िनिश कवि ( कवि-२ ) - किर्सी कुन्नास ( अनुवाद:सईद शेख)
पेड़ ढोते हैं प्रकाश--- पेड़ ढोते हैं प्रकाश / लेकिन मौन एक हल्का सा पक्षी / उड़ता है पानी के ऊपर से / पेड़ ढोते हैं प्रकाश / लेकिन धूसर पंख उठता है पानी और आकाश से / मौन, हल्का सा पक्षी / बैठ जाता है पेड़ों पर और सुलगा देता है अपना घोंसला, / आग के रूप में प्रकाश उठता है आकाश की ओर / न ही ढो सकता है कोई भी अपने हृदय को हल्केपन से / क्योंकि प्रेम होता है पीड़ामय / ठीक जैसे पक्षी का एकमात्र गीत.
कोरिया कवि.--रा.हीदुक ( Ra Heeduk) (अनुवाद-दिविक रमेश)
एक और पत्ता.
अपना दर्द छिपाने को / तोड़ती रही हूं पत्ते / इसीलिए नंगे हैं वृक्ष / और इसीलिए इतना थोड़ा पक्षी-गीत / पर कैसे छिपा सकती हूं सूखे पत्ते से / सीमेंट के फ़र्श का भद्दापन ? / कैसे खत्म कर सकती हूं कोलाहल / पक्षी-गीत से भरी गली का ? तब भी नहीं थमेंगे मेरे होंठ हिलने से / सो करती हूं इकठ्ठा पत्ते और पक्षी गीत / एक और पत्ता गिरता है मेरे पैर पर / उड़ जाता है वह पक्षी जिसकी आवाज खो गई थी.
यूनान कवि.- कंस्तान्तिन कवाफ़ी (अनुवाद-अनिल जनविजय)
दिसम्बर 1903 ….. जब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की / तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आंखों की, दिलदार की / तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी / तेरी आवाज गूंजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी / सितम्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में / मेरी जुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है / रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में / कहना चाहूं जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है.
फ़्रांस कवि - लुई आरागों. ( अनुवाद हेमन्त जोशी )
पूर्वाग्रह…… मैं चमत्कारों के बीच नाचता हूं / हजारों सूर्य रंगते हैं आकाश / हजार दोस्त, हजार आंखें या एक चश्म / अपनी निगाहों से मुझे देते हैं आकार / राहों पर जैसे रोया हो तेल / सायबान के बाद से खोया है खून / ऎसे मैं कूदता हूं एक दिन से दूसरे तक / बहुरंगी गोल और खूबसूरत / जैसे धनुष का जाल हो या रंगों की आग / जब लौ का रंग है हवा-सा / जीवन ओ ! शांत स्वचलित वाहन / और आगे दौड़ने का आनन्दमयी संकट / मैं जलूंगा रोशनी की आग से.
फ़्रांस ( कवि-२ )- पाल एल्युआर. (अनुवाद-हेमन्त जोशी )
मेरे नयन / शांत कभी थे ही नहीं / सागर के उस विस्तार को देखते हुए / जिसमें मैं डूब रहा था / अंततः सफ़ेद झाग उठा / भागते कालेपन की ओर / सब मिट गया.
रुस कवि - युन्ना मोरित्स. (अनुवाद-शीतांशु भारती.)
वहाँ है- हवा, सूरज, तारे और चाँद / वहां है-हवा, पत्तियों की डालियाँ / तारों में आसमान / वहाँ है- हवा, ऊंचाइयाँ, लम्बाइयाँ / और गहराइयाँ. / वहाँ है प्रेम, वहाँ है-हवा, हवा, हवा / वहाँ है सब जो मैं आपको देना चाहती हूं. // बाकी आप सुन लीजिए / गाने वाली चिड़ियों से, फ़ुर्तीली छिपकलियों से / विवश हो जाएं कहने को / चीतल, हाथी, चमगादड़ / घोंघें संग तितलियां . / और बाबा आदम के जमाने की / समुद्री मछलियाँ // बात कीजिए / छुड़मुड़यों से, गुलबहारों से / सुनिए, इन्हें भोर से सांझ तक. / पर मैं न दूँगी आपको / किसी भी घोर यातना के डर से / किसी पुनरजन्म के वादों पे / किसी अनोखी खुशी के बदले / मैं नहीं दुँगी वो रोशनी / जो भाईचारे के इस बंधन को कस के बाँधती है / जो एक दूसरे से प्रेम करना सिखाती है.
ब्रिटिश कवि- हैराल्ड पिंटर ( अनुवाद व्योमेश शुक्ल)
लोकतंत्र ....कोई उम्मीद नहीं / बड़ी सावधानियाँ खत्म / ये दिख रही हर चीज की मार देंगे / अपने पिछवाड़े की निगरानी कीजिए. (२) बम- ...और कहने के लिए शब्द बाकी नहीं है / हमने जो कुछ छोड़ा है सब बम है / जो हमारे सरों पर फ़ट जाते हैं / हमने जो कुछ छोड़ा है सब बम है / जो हमारे खून की आखिरी बूंद तक सोख लेते हैं. / जो कुछ छॊड़ा है सब बम है / जो मृतकों की खोपड़ियां चमकाया करते हैं.
क्यूबा कवि-- निकोलस गियेने. (अनुवाद- श्रीकांत)
कविता पहेलियां.
दातों में, सुबह,/ और रात चमड़ी में / कौन है, कौन नही / नीग्रो / उसके एक सुन्दर स्त्री न होने पर भी / वही करोगे, जो उसका हुक्म होगा / कौन है, कौन नहीं / भूख / गुलामों का गुलाम / और मालिक के संग जुल्मी / कौन है, कौन नहीं ./ गन्ना / छुपा लो उसे एक हाथ से / ताकि दूसरा कभी जाने भी नहीं / कौन है, कौन नहीं / भीख / एक इंसान जो रो रहा है / एक हंसी के साथ जो उसने सीखी थी / कौन है, कौन नहीं.
ब्राजिल. – कवि- मार्था मेरिडोस
( कवियित्री की इसी कविता के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था)
नित जीवन के संघर्षों से/ जब टूट चुका हो अन्तर्मन,/ तब सुख के मिले समन्दर का/रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।जब फसल सूख कर जल के बिन / तिनका -तिनका बन गिर जाये, / फिर होने वाली वर्षा का /रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।//सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन / यदि दुःख में साथ न दें अपना,/फिर सुख में उन सम्बन्धों का रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।//छोटी-छोटी खुशियों के क्षण / निकले जाते हैं रोज़ जहां, / फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का रह जाता कोई अर्थ नहीं ।।// मन कटुवाणी से आहत हो /भीतर तक छलनी हो जाये, / फिर बाद कहे प्रिय वचनों का रह जाता कोई अर्थ नहीं।।/ सुख-साधन चाहे जितने हों/पर काया रोगों का घर हो, /फिर उन अगनित सुविधाओं का रह जाता कोई अर्थ नहीं।। ...!!
चीन कवि- छाओ-छाओ - ईसवी सन 155-20 (अनुवाद- त्रिनेत्र जोशी)
कब्रिस्तान का गीत.-
दर्रे के पूरब में शूरवीर / सशत्र तैयार गद्दारों को दंडित करने के लिए / पहले मंगचिन में एकत्र होते हैं / लक्ष्य है श्येनयांग / पर सहयोगी टुकड़ियों मे आपस में ठनी है / अनिर्णय की स्थिति-मुर्गावियों जैसी अपनी तू-तू-मैं-मैं / ताकत और जीत को बेताब, होते हैं परास्त / और एक दूसरे के खून के प्यासे / हवाइ के दक्षिण में एक नौजवान हथिया लेता है राजसी पद्वी / उत्तर में एक राजा बना लेता है अपनी अलग मोहर / शस्त्रों से लेस लोग चलते हैं भड़भड़िये / मौते बेहिसाब / चारों तरफ़ फ़ैलती हैं बेरंग पड़ रही हड्डियां छितर-बितर / हजारों ली तक भी नहीं सुनाई पड़ती कुक्कुट की बांग / प्रति सैकड़ा बच पा रहे हैं एकाध / सोचने भर से दरक उठते है दिल.
लैटिन कवि - पाब्लो नेरुदा (अनुवाद-वंदना देवेन्द्र.)
मैं कुछ चीज समझता हूँ./ तुम पूछोगे: वे नीले फ़ूल कहां गए ? और / अहिपुष्प पंखुरियों का तत्व विज्ञान और / अपनी शब्दावली दुहराती रन्ध्रों, / चिड़ियों को सबक सिखाती बरसात ? / मैं तुम्हें सभी सूचनाएं दुँगा, / मैं एक उपनगर में रहा, मेड्रिड के एक घण्टियों, / घड़ियों और पेड़ों के उपनगर में, / वहाँ से आप मध्य स्पेन का खुश्क चेहरा देख सकते हैं: एक चमड़ा समुद्र जैसा कुछ / मेरा घर फ़ूलों का घर कहा जाता था / क्योंकि इसके हर एक कोने-आंतरों में जेरेनियम फ़ूलते थे: / यह बच्चों और कुत्तों से बसा एक बढ़िया आवास था / कुछ याद है राउल / / तुम्हें रफ़ेल ? / फ़ेड्रेको, क्या तुम्हें याद है / मेरे छज्जों पर जून की रोशनी / फ़ूलों को तुम्हारे कंठ में उतार देती थी?
( ii ) आज की रात लिख सकता हूँ- ( अनुवाद- मधु शर्मा )
लिख सकता हूं आज की रात / सबसे उदास पंक्तियाँ / लिखूँ, जैसे-“ रात है तारों भरी, / तारे हैं नीले, टिमटिमाटे कहीं दूर / रात को हवा चक्कर काटती है, आकाश में और गाती है / आज की रात लिख सकता हूँ , सबसे उदास कविताएँ. / मैंने प्यार किया उसे, कभी-कभी उसने भी किया मुझे प्यार / आज की रात जैसी उन रातों में, बाँहों में थामे होता था उसे मैं / कितनी ही बार चूमा उसे मैंने, इस अन्तहीन आकाश तले / उसने मुझे प्यार किया कभी-कभी मैंने भी किया उसे प्यार / कोई कैसे न करता उसकी बड़ी-बड़ी शांत आँखों से प्यार / आज की रात लिख सकता हूँ सबसे उदास कविताएँ / सोचते हुए कि नहीं है वह मेरे पास
इस्ताम्बुल कवि--नाजिम हिकमत (अनुवाद- चन्द्रबली सिंह)
पाल रोबसन से …….
वे हमें अपने गीत नहीं गाने देते है, रोबसन / ओ गायकों के पक्षिराज नीग्रो बन्धु, / वे चाहते हैं कि हम अपने गीत न गा सकें / डरते हैं, रोबसन / वे पौ के फ़टने से डरते हैं / देखने / सुनने / छूने से / डरते हैं./ वैसा प्रेम करने से डरते हैं / जैसा हमारे फ़रहाद ने प्रेम किया (निश्चय ही तुम्हारे यहां भी तो कोई फ़रहाद हुआ, रोबसन, नाम तो उसका बताना जरा?) / उन्हें डर है / बीज से / पृथ्वी से / पानी से / और वे / दोस्त के हाथ की याद से डरते हैं / जो हाथ कोई डिसकाउंट, कमीशन या सूद नहीं मांगता / जो हाथ उनके हाथों से किसी चिड़िया-सा फ़ंसा नहीं / डरते है, नीग्रो बन्धु / वे हमारे गीतों से डरते हैं, रोबसन.
कजाकिस्तान कवि--ऎवे कुनानावेव ( अनुवाद-महाश्वेता देवी.)
मनुष्य मल से भरा बोरा है- / जब तुम मरते हो, मल से भी अधिक दुर्गन्ध तुम से आती है / तुम्हें गर्व है कि तुम मुझसे ऊपर हो / किन्तु यह तुम्हारे अन्धकार का चिन्ह है / कल तुम बालक थे / किन्तु अब तुम्हारे ढलते दिन हैं / तुम्हें विश्वास हो गया कि तुम समान स्थिति में नहीं रह सकते / जीवों से प्यार करो / और ईश्वरीय रहस्य को समझो / इस जीवन में इससे अधिक विस्मय / और क्या हो सकता है.
(२) मैंने तुम्हें पिल्ले से कुत्ता बना दिया / और जब वह मेरे पैर में काटता है / मैंने किसी को लक्ष्य-भेद करना सिखाया / और उसने चतुराई से मुझे ही निशाना बनाया.
पोलिश कवि- विस्वावा शेम्बोर्स्का. (अनुवाद-अब्दुल बिस्मिल्लाह)
वियतनाम-
तुम्हारा नाम क्या है औरत? मैं नहीं जानती / तुम कब पैदा हुई, कहाँ घर है तुम्हारा ?- / मैं नहीं जानती / तुमने धरती पर गढ्ढा क्यों खोदा? - मैं नहीं जानती / तुम कब से यहाँ छिपी हुई हो ? मैं नहीं जानती / तुमने दोस्ती की डोर क्यों तोड़ दी ? मैं नहीं जानती / क्या तुम नहीं जानती, कि हम तुम्हें, कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे ? मैं नहीं जानती / तुम किसके पक्ष में हो ? मैं नहीं जानती / यहाँ तो युद्ध हो रहा है, तुम्हें चुन लेना चाहिए अपना पक्ष !- मैं नहीं जानती / क्या तुम्हारा गाँव अब भी बचा है? मैं नहीं जानती / क्या ये बच्चे तुम्हारे है? / हाँ.
अफ़्रीका कवि-- जोफ़्रे रोचा ( अनुवाद-राजा खुगशाल)
जेसा मेंडेज से अंतिम बातचीत (लंबी कविता के कुछ अंश) ....मैं जानता था जेसा / जानता था कि तुम पैदा हुए थे / कांति के साथ कदम बढ़ाने के लिए / सच्चे और गहरे अर्थों में वीर थे तुम / तुम सच्चे अर्थों में प्यार थे संघर्ष के / मैं अच्छी तरह जानता हूं जेसा / विप्लव और प्रेम की कौंध थे तुम / स्वतंत्र चेता और मुक्त हृदय /. पूरी तरह समर्पित थे अपने कर्म के प्रति / शांति से सोओ योद्धा, ओ योद्द्धा / जब खत्म करुँगा मैं इन अनाश्वयक बातों को / जो महज एक बाधा है / तुम्हारी वीरतापूर्ण नींद में / इस देश की मिट्टी में / जहाँ दुश्मन की बंदूकों से धराशायी हुए तुम / शांति से सोओ / अब कभी नहीं सनसनाओगे तुम / उन सतहों पर / जिन्हें उघाड़ने की कोशिशें की तुमने / निश्वय ही विजय की ओर बढ़ रहा है / क्रांति का परचम / जबकि मुझे दुख है सिर्फ़ अपना / मैं नतसिर हूं / उस महान की महानता के सन्मुख / अलविदा जेसा मेंडेज / हमेशा के लिए अलविदा.
जापान कवि--ओना नो कोमाची. ( अनुवाद-मधु शर्मा)
(एक) यदि वह एक सपना था / फ़िर से देखुंगी मैं तुम्हें / क्यों छॊड़ दिया जाए अधूरा ही / जागा हुआ प्रेम (दो) कोई तरीका नहीं उसे देख पाने का / चाँद के बिना इस रात में / पड़ी हूं मैं जागती हुई इच्छा में जलती / दौड़ती है आग सीने में / दिल धड़कता है. (तीन) साँझ के धुंधले उजाले में / गाती है चिड़िया मेरे पहाड़ी गाँव की / कोई नहीं आएगा आज की रात / इस सुर को बचाने. (चार.) कितने अदृष्य तरीके से / बदला करते हैं रंग / इस दुनिया में / इंसानी दिल के फ़ूल.
श्रीलंका कवि-- डब्ल्यू ए. अबेसिंधे ( अनुवाद- रमेश चन्द्र शाह )
जंगल में बुद्ध- बज्रकठोर पर्वत हुआ / मुलायम पंखुड़ी सा / विकराल चेहरा चट्टान का / जगमगा उठा है जीवित रक्त माँस से / रेशम से भी स्निग्ध जिस का स्पर्ष / शिलीभूत तमिस्रा / प्रपात बन फ़ट पड़ी प्रकाश का / बोधि का किरणॊं से नहलाते जग-जग को / कब से अधमुंदे नयन / बुलबुलों की तरह वर्षो-शताब्दियों को / मेटते महाकाल में / इस गहन कान्तार के निर्जन में / करुणामय...ध्यानलीन...हे महाबुद्ध / इस पुरातन वृक्ष तले जाने कब से बैठे हुए / अपनी मैत्री और विश्व-प्रेम के साथ / आओ हमारे इस मनुष्य-लोक के बीचोबीच / दुःखों से दग्ध इस धरा को नहलाओ हे महाभिषग / बोओ बीज मैत्री के / हमारे दिलों के / बंजर बियाबान में.
वियतनाम कवि- दियु न्हान- (अनुवाद-प्रेम कपूर / कुसुम जैन.)
जन्म-.....जन्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु / ऎसा ही होता आया है हमेशा से / इनसे जितना भी दूर जाने का प्रयास करो / कसती ही जाएगी इसकी गाँठ / इस प्रकार अज्ञान ले जाएगा तुम्हें बुद्ध की ओर / और कठिनाइयाँ ध्यान की ओर / न ही ध्यान की ओर / शांत रहो / शब्द तो कोरी बातें हैं
वियतनाम ( कवि-२)- न्युएन त्राइ, ( प्रेम कपूर/कुसुम जैन )
स्वपन भंग........स्वर्णिम स्वप्न से जागने पर नहीं रहता शेष / लगता है सब कुछ हो जैसे रिक्त / अच्छा होगा पहाड़ पर बनाएं एक कुटी / उसमें रहें, पढ़ें, प्राचीन ग्रंथ और हों संतुष्ट / जंगल में खिलते फ़ूलों को सुनते हुए
वियतनाम- (कवि-३) -वान हान्ह.... ( प्रेम कपूर/ कुसुम जैन )
.मानव जीवन-- क्षणभंगुर है मानव-जीवन विद्युत की तरह / आज जन्म है तो कल मृत्यु / वसन्त के हरियाले वृक्ष / हो जाते हैं पत्रहीन शरद में / अतः उत्थान या पतन की क्या चिंता / ओस की बूंद सी है उन्नति व अवनति / जो घास पर मोती जैसी लगती है.
वियतनाम— (कवि-४)- न्गुएन फ़ि रवान्ह ( प्रेमकपूर/कुसुम जैन)
यदि प्रेम है मुझसे तो भी / सोचो अपने देस के बारे में / न सहने दो अन्याय / अपनी पितृ-भूमि को
जापान कवि.-ककिनोमोतो हितोमारो ( अनुवाद-प्रमोद पाण्डॆ)
उलझे शैवाल से / एक गहन प्रेम में / मैं और मेरी प्रेम-परी / सोया करते थे साथ-साथ / लिपटे-सिकुड़े-सिमटे / लेकिन कितनी कम रातें थी हमें मिली / जब हम दोनों थे साथ-साथ / दूर-दूर तक गया अनवरत / मेरा काला अश्व मुझे ले गया / दिग-दिगंत छोड़ता पीछे / मुझको वह ले गया प्रिया तीर / आह ! / हे रक्तिम पर्ण वृक्ष में पल के / पतझर में झर रहे पहाड़ी पर / क्षण भर रोको झरता यह पत्तों का / ताकि / मैं देख सकूं / अपनी प्राण प्यारी का निवास.
जापान कवि-(२) -ओनो नो कोमाची. ( प्रमोद पाण्डॆ)
प्रिय मेरा मुझको नहीं मिला ! / मिलन की विह्वलता / यह अमानिशा / है बढ़ा रही / मेरे वक्षस्थल से होकर जाती है अग्नि-शिखा / करती है भस्मीभूत हृदय को / जब उसका चिन्तन करती हूं / जो शायद यह कल्पना करे / उसका चेहरा देख रही हूं. / अगर जानती / बस यह था इक स्वपन / मैं कभी न जागी होती...
क्यूबा कवि - जोस मार्ती. ( अनुवाद- प्रमोद पाण्डे )
ग्वाटेमाला की लड़की.—
आह ! कह लेने दो मुझको, वह मधुर कथा / उस छाया में, मैं खड़ा जहाँ इस समय / यह कथा उसी ग्वाटेमाला की लड़की की, / जिसने त्यागे थे प्राण / प्रेम की वेदी पर / उसके शव पर थे हार, / कुमुदिनी पुष्पों की / सब सुरभि रूप वे पुष्प / चमेली जिनके चारों ओर गुंथी / हमने था उसको दफ़नाया / रेशम के उस ताबूत में / उसने अपने प्रेमी को / दी थी छॊटी सी शीशी / थी जिसमें मधुर सुगंध भरी , पर / लौटा वह विवाह करके बस / तभी प्राण त्यागे थे उसने, / जिसकी हूँ मैं कथा कह रहा / वे कांधों पर ले गए उसे / सब पंडित और पुजारी थे / आए थे कितने युगल, उसे श्रद्धांजलि देने, / चढ़ा- चढ़ाकर पुष्प हार / धीरे-धीरे / जब सांझ ढली, / उस कब्र खोदने वाले ने / था मुझे बुलाया / और कहा. देख लो / यही अन्तिम अवसर / वह ग्वाटेमाला की लड़की / जिसने त्यागे थे प्राण / प्रेम की बेदी पर.
हंगरी कवि--फ़ेरेंत्स यूहास. ( अनुवाद- सुरेश सलिल )
सोना.---औरत अपने छीजते जाते बालों के जूड़े में / सधे हाथों सहेजती हुई / फ़िर एक चम्मच और पाव रोटी का एक एक गुम्मा / गिरा देते है उनके फ़ेले, मैले कुचैले हाथों में / हँसते हुए / उनकी सींकिया-सुर्ख घींचों का घेरा / भफ़ाती रकाबियों पर झुकता है / पवित्र जल पर गुलाब के फ़ूलों की भाँति / और सुर्ख गुलाब खिल उठते हैं / मसालेदार कुहासे में / चमक उठती है उनकी आँखों की पुतलियाँ. जैसे दस दुनियाएँ अपनी खुद की रोशनी में / अकबका गई हों / तिरने लग जाते हैं शोरबे में / आहिस्ता-आहिस्ता चक्कर लगाते / प्याज के सुनहरे छल्ले.
चेक कवि - मिरोस्लाव होबुल (अनुवाद-सुरेश सलिल)
हठधर्मिता का सिंड्रोम--- हवा में खड़ा है एक दैत्याकार वायुयान / पूँछ झुकाए / शहर के ऊपर / इतना भारी कि भर न पाए उड़ान / किसी सगर्भा व्याध पतिंगा की भाँति / अपने रहस्यमय निकास-मार्ग से / छतों को तोड़ता हुआ अपने मुर्दे / ऊपर जो घटित है / देखकर भी हम उसकी अनदेखी करते हैं / पेशियों की ऎंठन में कैसी तो हठधर्मिता है / हम से ऊपर मूर्तिवत हो गए हैं हम / संभव नहीं है कि अपनी गर्दने / पाँच डिग्री दायें या बांयें भी मोड़ सकें / राजनेताओं के रवैये की तरह / शहर के ढंग-ढर्रे से / पोशीदातौर पर चकित हैं हम /’ कि, देखिए, किस तरह ढेर होती जा रही है / जागते रहने की शहर की कोशिशें
आईसलैण्ड कवि.- सिगुरदुर पालसन ( अनुवाद- कुसुम जैन)
(१) शीशे के भीतर दिखते हैं बड़े / वे आंसू, जिन्हें दिखना नहीं चाहिए / बाहर तनी पर टंगी चादरें / अब और नहीं बिछेगीं.
(२) जीवन और भी है / जो जिये जाते हैं / शुभकामनाएं और भी हैं / दी जाती हैं औरों को / याद नहीं अब / चाँद की वे किरणें / दिखाई देती थीं / जो बर्फ़ के आर-पार / सुबह की निस्तब्धता में बैठ / पी रहा हूं गर्म काफ़ी / कुछ अलग है यह चाँद / जिसे पहले कभी नहीं देखा / नया है इसका फ़ीकापन / जैसे दुकान से रोटी खरीदती औरत / मुझे नहीं जानती.
पुर्तगाल कवि - जार्ज डे लिमा ( 1893-1953) (अनुवाद-पियूष दईया)
दिन उतरा नहीं है / मैंने देखा जहाजों को जाते और आते / मैने देखा दुर्दशा को जाते और आते / मैंने देखा चर्बीले आदमी को आग में / मैंने देखा सर्पीलाकारों को अंधेरे में / कप्तान, कहां है कांगो ? / कहा है संत ब्रैडानक टापू? / कप्तान कितनी काली है रात ! ऊँची नस्लवाले कुत्ते भौंकते हैं अंधेरे में / ओ ! अछूतों, देश कौन सा है / कौन सा है देश जिसकी तुम इच्छा रखते हो ? / मैंने लिया वनस्पतियों से जंगली शहद / मैंने लिया नमक पानियों से, मैने रोशनी ली आकाश से / मेरे पास केवल काव्य है, तुम्हें देने को / बैठ जाऒ, मेरे भाइयों.
रुमानिया कवि-- लूसीयन बलागा (1895-1961) (अनुवाद – पियूष दईया)
मैं नहीं पेरुंगा संसार की पिंजूलियां अजूबों को / और मैं नहीं मरुंगा / तर्कणा से / रहस्यों को जिन्हें मैं मिलता हूं अपने मार्ग के साथ साथ / फ़ूलों, आंखों, ओठॊं और कब्रों में / दूसरों की रोशनी / डुबोती है छिपे हुए गहरे जादू को / अथाह अंधेरे में / मैं बढ़ाता हूं संसार की पहेली / अपनी रोशनी के संग / जैसे चांद अपनी धवल शहतीरों संग / बुझाता नहीं बल्कि बढ़ाता है / रात के झिलमिलाते रहस्यों को. मैं समृद्ध करता हूं गहराते क्षितिज को / महान राज की कंपकपियों से / वह सब जिसे जानना कठिन है / बन जाता है एक अरूझा बुझौवल / ऎन मेरी आंखों तले / क्योंकि बराबर प्यार करता हूं मैं / फ़ूलों, ओठों, आंखों और कब्रों को.
इराक कवि (१) - टून्या मिखाइल ( अनुवाद-गीत चतुर्वेदी )
( I ) मैं हड़बड़ी में थी--- कल मैंने एक देश खो दिया / मैं बहुत हड़बड़ी में थी / मुझे पता ही नहीं चला / कब मेरी बाहों से फ़िसल कर गिर गया वह / जैसे किसी भुल्लकड़ पेड़ से गिर जाती है / कोई टूटी हुई शाख ( लंबी कविता का अंश)
(२) भांत-भांत के पैरों के लिए / पैर जो चलते हैं / पैर जो मारते हैं ठोकर / पैर जो लगाते हैं छलांग / पैर जो करते हैं अनुसरण / पैर जो दौड़ते हैं / पैर जो शामिल होते है भगदड़ में / पैर जो भहरा जाते हैं / पैर जो उछलते हैं / पैर जो यात्रा करते हैं ./ पैर जो शांत पड़े रहते हैं./ पैर जो कांपते हैं / पैर जो नाचते हैं / पैर जो लौटते है / जीवन मोची के हाथ में पड़ी / कुछ कीलें ही तो हैं.
इराक कवि(२) सादी यूसुफ़ (अनुवाद- अशोक पांडॆ) ( लंबी कविता का अंश)
हम बंधक नहीं है, अमेरिका / हम ईश्वर के सैनिक नहीं तुम्हारे सिपाही हैं / हम निर्धन लोग हैं, हमारी है धरती वह जिसके देवता डुबा दिये गए हैं / बैलों के देवता / आगों के देवता / दुःखों के देवता, जो मिट्टी / और रक्त को गीत में गूंथ देते हैं / हम निर्धन लोग हैं, हमारा देवता है निर्धन / जो उभरता है किसानों की पसलियों से भूखा और चमकीला और ऊँचा उठाता है अपना सिए / अमेरिका हम मृतक हैं ./ आने दो अपने सिपाहियों को / जो भी एक मनुष्य का वध करे, उसे करने दो उसका उद्धार / हम डूबे हुए हैं, प्यारी लेडी ! / हम डूबे हुए लोग हैं / आने दो पानी को.
ईरान- डेनमार्क मूल की कवि- शीमा काल्बासी ( अनुवाद अशोक पांडॆ)
अफ़गान की स्त्रियों के लिए- मैं टहल रही हूं काबुल की गलियों में / रंगी हुई खिड़कियों के पीछे / टूटॆ हुए दिल और टूटी हुई स्त्रियां हैं. / जब उनके परिवारों में कोई पुरुष नहीं बचा / रोटी के लिए याचना करतीं वे भूख से मर जाती हैं / एक जमाने की अध्यापिकाएं., चिकित्सिकाएं और प्रोफ़ेसर / आज बन चुकीं चलते-फ़िरते मकान भर / चन्द्रमा का स्वाद लिए बगैर / वे साथ लेकर चलती हैं, अपने शरीर, कफ़न सरीखे बुर्कों में ( लंबी कविता के अंश)
इजरायल कवि- (१) आमीर ओ”र ( अनुवाद अशोक पांडॆ)
भाषा कहती है- भाषा कहती है : भाषा के पहले / एक भाषा होती है, वहीं के धिसे हुए निशान होती है भाषा / भाषा कहती है: सुनो, अभी / आप सुनते हैं / गूंजता है कुछ / खामोशी ले लो और खामोश हो रहने का जतन करो / शब्द ले लो और बोलने की कोशिश करो / भाषा के परे, भाषा का एक घाव है / जिसमें से बहता जाता है, बहता जाता है संसार / भाषा कहती है : है, नहीं है, हैं / नहीं है, भाषा कहती है: मैं / भाषा कहती है चलो तुम्हें बोला जाए,/ चलो तुम्हें छुआ जाय, आ के बोलो ना,/ तुम बोल चुके हो.
इजरायल कवि (२) -येहूदा आमीखाई ( अशोक पांडॆ) ( लंबी कविता का अंश)
हिब्रू और अरबी भाषाएं लिखी जाती हैं पूर्व से पश्चिम की तरफ़ / लैटिन लिखी जाती है पश्चिम से पूर्व की तरफ़ / बिल्लियों जैसी होती हैं भाषाएं / आपको चाहिए कि उन्हें गलत तरीके से न सहलाएं / बादल आते हैं समुद्र से / रेगिस्थान से गर्म हवा / पेड़ झुकते हैं हवा में / और चारों तरफ़ हवाओं में पत्थर उड़ते हैं / चारों हवाओं तलक वे पत्थर फ़ेंकते हैं / इस धरती को फ़ेंकते है एक दूसरे पर / लेकिन धरती वापस गिरती है धरती पर.
तुर्की कवि- आकग्यून आकोवा ( अनुवाद गीत चतुर्वेदी) ( लंबी कविता का अंश)
शांति क्या है मेरी जान---तुम जानती हो मेरी जान / शांति क्या होती है / क्या यह कोई पुल है जो एक परछाई पड़ते ही भहरा जाता है / कोई कंपनी है जो दिवालिया हो जाती है / इससे पहले कि उसके शेयर लोगों तक पहुंचे / क्या यह दो युद्धों के बीच का चायकालीन अवकाश है या / लोहार के सामने कहे गए उस बच्चे के आखिरी शब्द / जिसकी साइकिल खराब हो गई हो. / बताओ मेरी जान / शांति क्या वह खत है जो आईंस्टीन ने रूजवेल्ट को लिखा था / लाउसेन से मुस्तफ़ा कमाल के नाम आया टेलीफ़ोन है / या वह गली है जिसका कूड़ा / बुहार ले गया विज्ञान. ( लंबी कविता.)
तुर्की- कवि(२) -नाजिम हिकमत (गीत चतुर्वेदी)
इस तरह से— मैं खड़ा हूं बढ़ती रोशनी में, / मेरे हाथ भूखे, दुनिया सुन्दर / मेरी आंखे समेट नहीं पातीं पर्याप्त पेड़ों को / वे इतने उम्मीद भरे हैं, इतने हरे / एक धूप भरी राह गुजरती है शहतूतों से होकर, / मैं जेल-चिकित्सालय की खिड़की पर हूं / सुंधाई नहीं दे रही मुझे दवाओं की गंध / कहीं पास ही में खिल रहे होंगे कार्नेशन्स / यह इस बात की तरह है / गिरफ़्तार हो जाना अलग बात है / खास बात है आत्म समर्पण न करना.
चेकोस्लोवाकिया कवि -- येरोस्लाव साइफ़र्त. ( अनुवाद- अशोक पांडॆ)
गीत. बिदा के समय / हम हिलाते हैं रुमाल ./ हर रोज कोई चीज खत्म हो रही है / कोई सुन्दर चीज खत्म हो रही है / हवा को फ़ड़फ़ड़ाता है / लौटता हुआ हरकारा कबूतर / हम हमेशा लौट रहे होते हैं / उम्मीद के साथ या उसके बिना / जाओ, आँसू सुखा लो अपने / और मुस्कुराओ, अलबत्ता जल रही है अब भी तुम्हारी आँखें / हर रोज कोई चीज खत्म हो रही है / कुछ सुन्दर चीज खत्म हो रही है.
स्वीडिश कवि- टामस ट्रांसट्रामर ( अनुवाद- किरण अग्रवाल)
सीमा के पीछे मित्रों को.— (१) मैंने तुम्हें इतनी होशियारी से लिखा / लेकिन जो मैं नहीं कह सका / भर गया और बड़ा हो गया गरम हवा के बैलून की तरह / और अन्ततः रत्रि आकाश से होकर दूर उड़ गया. (२) अब मेरा पत्र सेंसर के पास है / वह अपना दीपक बारता है / इसकी चमक में मेरे शब्द कूदते हैं / जैसे तार जाल में बंदर / इसको खड़खड़ाते हुए, अपने दांतों को अनावृत करने के लिए रुकते हुए.
सीरिया कवि – अली अहमद सईद. ( अनुवाद- सुरेश सलिल)
मैं भौंचक हूं, ऎ मेरे वतन / हर बार मुझे तुम एक मुख्तलिफ़ शक्ल में नजर आते हो / अब मैं तुम्हें अपनी परेशानी पर ढो रहा हूं / अपने खून और अपनी मौत के दरमियान / तुम कब्रिस्तान हो या गुलाब ? / बच्चों जैसे नजर आते हो तुम मुझे, अपनी अंतड़ियां घसीटते / अपनी ही हथकड़ियों में गिरते-उठते / चाबुक की हर सटकार पर एक मुख्तलिफ़ चमढ़ी ओढ़ते / एक कब्रिस्तान या एक गुलाब ? / तुमने मेरा कत्ल किया, मेरे नग्मों का कत्ल किया / तुम कत्लेआम हो या इंकलाब ? / मैं भौंचक हूं मेरे वतन / हर बार तुम मुझे मुख्तलिफ़ शक्ल में नजर आते हो..
पाकिस्तान कवि- अंजुम सलीमी (अनुवाद- प्रेम कपूर)
अधूरा आदमी हूँ मैं.../ पूरा चाँद मुझे समुंदर बना देता है / आँखें हजूम से सोहबत करती है , और मैं? / मुझे तनहाई ने बनाया है / रफ़ाकतें मुझे तोड़ देती है / मैं जमा हो रहा हूं / वक्त मुझे मिलने आयेगा / मैंने अपनी सरगोशियां दीवारों में रख दी है / खाली कमरा मुझ से भरा हुआ है / मुझे अभी दस्तक मत दो.
मारीशस- मारीशस के नौ हिन्दी कवि ( कविता संग्रह) (1988) - संपादक-अभिमन्यु अनत.
स्व,अभिमन्यु अनत- (नागफ़नी में उलझी सांसें)
सूर्यकिरणॊं को मुठ्ठी में बांधे/ मैं दुकान को दौड़ जाता हूँ / पर उन्हें बेच कभी नहीं पाया./क्योंकि मुठ्ठी खुलते-खुलते./किरणें बर्फ़ की नन्हीं गोलियों में/परिवर्तित हो जाती है/कौन किसी को रोटी देगा./बर्फ़ की गोलियों के बदले/इसीलिए मैं आज भी भूखा हूँ./सूर्य की ठण्डी किरनॊं को मुठ्ठी में बांधे
(२)(क) तुमने आदमी को खाली पेट दिया / ठीक किया / पर एक प्रश्न है रे नियति / खाली पेटवालों को/ तुमने घुटने क्यों दिये? / फ़ैलने वाले हाथ क्यों दिये.
(ख) जिस दिन सूरज को / मजदूरों की ओर से गवाही देनी थी / उस दिन सुबह नहीं हुई / सुना गया कि / मालिक के यहाँ की पार्टी में / सूरज ने ज्यादा पी ली थी.
मारीशस कवि- राज हीरामन
(1) चाचा रामगुलाम---- ..चाचा थे, अब तुम चाचा न रहे / देश के तुम अब दादा बन गए/ पिता तुम सिर्फ़ नवीन के थे/ देश के अब राष्ट्रपिता बन गए / देश तो जंजीरों में थी बंधी / तुम ने एक-एक कड़ी थी तोड़ी / तुमने सबको आजाद किया / देश को तुमने आबाद किया.
(२) किस हवा में दम है- किसमें इतना दम है / जो इस दीप को बुझा सके / अमावस्या में यह जन्मा है / आँधियों से यह खेला है / तूफ़ानों में यह पला है / दिवाली में यह जला है / किसमें इतना दम है / जो इस दीप को बुझा सके.
जर्मन कवि - मे.आयिम ( अनुवाद- अमृत मेहता.)
विदा.---- क्या हों अन्तिम शब्द / सुखी रहो फ़िर मिलेंगे / कभी न कभी कहीं न कहीं / क्या हो अंतिम कारज / एक अन्तिम पत्र एक अंतिम फ़ोन-वार्तालाप / एक गीत मंद स्वर में? / क्या हो अंतिम इच्छा / माफ़ करना / भूलना नहीं मुझे/ प्यार करता हूं तुझे ? / क्या हो अंतिम विचार? / धन्यवाद? / धन्यवाद.
जर्मन कवि- बर्तोल्त ब्रेख्त (अनुवाद-अनिल पेटवाल)
जनरल तुम्हारा टैंक बड़ा शक्तिशाली है / ये जंगलों को तबाह करता है / और सैकड़ों लोगों को रौंद सकता है / मगर इसमें एक कमी है, / ये बिना चालक के काम नहीं कर सकता / तुम्हारे पास बड़े शक्तिशाली बम बरसाने वाले जहाज हैं. / ये तूफ़ानों से ज्यादा तेज उड़ सकते हैं / कई हाथियों को अपने भीतर ले जा सकते हैं / मगर इनमें एक कमी है / ये बिना मैकेनिक किसी काम के नहीं / जनरल, आदमी बड़े काम की चीज है / वो उड़ सकता है, और बड़ी आसानी से मार भी सकता है / मगर उसमें एक कमी है / वो सोच सकता है.
भारतीय मूल के कवि-विदेश में सक्रीय
न्यु जर्सी-अमेरिका-- देवी नागरानी--
ठहराव जिंदगी में दुबारा नहीं मिला /जिसकी तलाश थी वो किनारा नहीं मिला /वर्ना उतारते न समंदर में कश्तियां / तूफान आया जब भी इशारा नहीं मिला / हम ने तो खुद को आप संभाला है आज तक / अच्छा हुआ किसी का सहारा नहीं मिला /. बदनामियां घरों में दबे पांव आईं /शोहरत को घर कभी भी, हमारा नहीं मिला / खुशबू, हवा और धूप की परछाइयां मिलीं / रौशन करे जो शाम, सितारा नहीं मिला
२ .. (सिंधी भाषा से हिन्दी में अनुवाद.)
धीरे-धीरे शाम चली आई / भीनी-भीनी खुशबू छाई / इण्द्रधनुषी रंग मेरे मन का / मैं उसकी परछाइ.,छाई / धीरे-धीरे शाम चली आई / बूँद पड़े बारिश की सौंधी / महक मिट्टी की भाई,भाई / धीरे-धीरे शाम चली आई / भीगी मेरे मन की चादर / प्यास पर न बुझ पाई, पाई / धीरे धीरे शाम चली आई / कल तक जो बीज थे मैंने बोये / हरियाली अब छाई, छाई / आँगन में कुछ फ़ूल खिले हैं / रँगत मन को भाई, भाई / धीरे धीरे शाम चली आई / सुर से सुर मिल राग यह मालकौंस रस बरसाई / धीरे धीरे शाम चली आई / सातरँगों की सरगम कारी / कोयल ने है गाई, गाई / धीरे धीरे शाम चली आई / महकाए मन मेरा देवी / भोर न ऎसी आई.
युनाईटेड किंघडम(यू.के.)
शैल अग्रवाल-
(जंगल)
यह दुनिया एक जंगल है / इस जंगल में रहने वाला / हर शक्तिवान, असमर्थ को / मारता है, खाता है / और जब शिकार मारने / खाने लायक भी न रहे / तो ठोकर मारकर / बाहर फेंक आता है / कतार में पीछे खड़े रहने से / कुछ भी हासिल नहीं होता / अपने हक के लिये लड़ना सीखो / अपनी जरूरतों को आवाज दो / उसकी हर बात कानों से उतर / मस्तिष्क में गूँज रही थी / और मेरी झुकी हुयी / विस्मित–सी आँखें देख रही थीं
२ (कोहरा)
घर, खेत, सड़क, पहाड़ / किनारों तक सरककर / समुन्दर में / कूदने को तैयार / एक आजाद पक्षी / अपने ही पंखों के / विस्तार में भटका / पहचान ढूँढता /––जाने कब खोल पाए/ आकाश के ढक्कन से/ ढकी धरती की
बन्द यह डिबिया
अमेरिका
सुधा ओम ठिंगरा
कभी कभी/चाँदनी से नहाने लगी/तुम्हें क्या याद आया/तेरा मेरा साथ/प्रकृति से सीख/पूर्णता/बदलाव
बेबसी/भ्रम/मोम की गुड़िया/यह वादा करो
२-.माली से क्या पूछते हो ?/.फूल की पीड़ा/फूल से पूछो/जब/धूप तड़पाती है/बदली मंडराती है/और/उमड़-घुमड़ रोमांस रचा// बिन बरसे उड़ जाती है./धरती भी धोखा देती है/उसे मत धिक्कारो/वह तो ख़ुद ही प्यासी रह जाती है/उस दुल्हन की तरह/जो मण्डप में सजी संवरी/खड़ी रह जाती है
दुबई
पूर्णिमा वर्मन
(एक गीत और कहो-)
सरसों के रंग सा / महुए की गंध सा / एक गीत और कहो / मौसमी वसंत का / होठों पर आने दो रुके हुए बोल / रंगों में बसने दो याद के हिंदोल / अलकों में झरने दो गहराती शाम / झील में पिघलने दो प्यार के पैगाम
२ (खोया खोया मन)
जीवन की आपाधापी में/खोया खोया मन लगता है/बड़ा अकेलापन/लगता है/दौड़ बड़ी है समय बहुत कम/हार जीत के सारे मौसम/कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको/जिसमें/ -अपनापन लगता है
कनाड़ा स्नेह ठाकोर
मानव के आरोप पर/कि ईश्वर तो हमसे/बोलता नहीं/ईश्वर ने कहा/-आरोप न्यायोचित नहीं
मैं तो हर समय/ हर किसी से/बात करता हूं/प्रश्न यह नहीं/कि मैं किससे/और कब/बात करता हूं/ वरन्
कौन मुझे/सुनता है।
कविता की दुनियाँ में झांकते हुए हमें जहाँ एक ओर कविता के दिग्दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर दुनियां के तमाम कवियों की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे यहाँ और वहाँ की आम जिन्दगी में रोजमर्रा की कशमकश, उसमें बिंधी इच्छाएं, गीले-सूखे दुःख-दर्द, आशा-निराशा, छल-कपट, धुर्तताएँ, आकांक्षाएं, स्मृतियाँ, विस्मृतियाँ, विस्मय, विडम्बनाएँ तथा वकृताएँ आदि के पुट देखने को मिलते है..जिस दुख और संताप की आद्रता हम यहाँ महसूस करते हैं, ठीक उसी तरह समूची धरती पर एक सी दिखलायी पड़ती है. कविता की भाषा कोई भी हो सकती है लेकिन वास्तविकताएँ लगभग एक ही जैसी होती है. यह सब देखते हुए मुझे निदा फ़ाजली साहब की गजल याद हो आती है. वे लिखते हैं
इन्सान में हैवान, यहाँ भी हैं वहाँ भी, अल्लाह निगहबान यहाँ भी है, वहाँ भी है खूँखार दरिंदों के फ़कत नाम अलग है *शहरों में बयाबान, यहाँ भी है, वहाँ भी है रहमान की कुदरत हो,या भगवान की मूरत, हर खेल का मैदान, यहाँ भी है वहाँ भी हिंदू भी मजे में है, मुस्लमाँ भी मजे में है ,* इन्सान परेशान,यहाँ भी है, वहाँ भी है उठता है दिलोजाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही * ये मीर का दीवान,यहाँ भी है,वहाँ भी है.
और अंत में अपनी ओर से-
मुझे विश्वास है कि “कविता का लोक / लोक की कविता” की इन सतरंगी कविताओं के माध्यम से हमें देश और दुनियां के अलग-अलग समाजों की राजनीतिक व व्यक्ति समाज के जीवन को समझने की नयी दृष्टि मिलेगी. मैंने तो बस, गागर में सागर भरने की कोशिश भर की है.