सृष्टी के आरंभ में ब्रह्माजी ने केवल एक पुराण की रचना की थी, जिसमें एक अरब श्लोक थे. अपनी विशालता के चलते इसे पढ़ने में कठिनाइयां होती थी. अतः इस पुराण को सरल तरीके से समझाने के लिए महर्षि वेदव्यास ने इस विशाल पुराण को १८ पुराणॊं में विभक्त करते हुए इसे आसान बना दिया.
अठारह पुराणॊ के नाम तथा उनमें लिखे गए श्लोकों की संख्या निम्नानुसार हैं.
(१)ब्रह्मपुराण- दस हजार (२) पद्म पुराण-५५ हजार (३) विष्णु पुराण-२३ हजार (४) शिव पुराण-२४ हजार (५) भागवत पुराण-१८ हजार (६) नारद पुराण-२५ हजार (७) मार्कण्डेउ पुराण-९ हजार (८) अग्नि पुराण- १५ हजार चार सौ (९) भविष्य पुराण- १४ हजार पांच सौ (१०) ब्रह्मवैवर्त पुराण- १८ हजार (११)लिंग पुराण-११ हजार (१२) वराह पुराण-२४ हजार (१३) स्कंद पुराण-८१ हजार एक सौ (१४)वामन पुराण-१० हजार(१५) कुर्म पुराण-१७ हजार (१६) मत्स्य पुराण- १४ हजार (१७) गरुड़ पुराण-१९ हजार (१८) ब्रह्माण्ड पुराण-१२ हजार.
इस तरह मत्स्य पुराण सोलहवां पुराण है जिसमें २९० अध्याय तथा १४ हजार श्लोक हैं. इस ग्रंथ में मत्स्य अवतार की कथा के अलावा तालाब, बागीचा, कुआं, बावड़ी, पुष्करिणी, देव मन्दिर की प्रतिष्ठा, वृक्ष लगाने की विधि, भूगोल का विस्तृत वर्णन, ऎरावती नदी का वर्णन, हिमालय की अद्भुत छटा का वर्णन, कैलाश पर्वत का वर्णन, गंगा जी की सात धाराओं के वर्णन के साथ ही राजा पुरुरवा की रोचक कथा भी शामिल है..
पुराण शब्द “पुरा” एवं “अण” शब्दों की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है-पुराना अथवा प्राचीन, अनागत वा अतीत. “अण” शब्द का अर्थ होता है- कहना या बतलाना अर्थात जो पुरातन है अथवा अतीत के तथ्यों, सिद्धांतों, शिक्षाओं, नीतियों, नियमों और घटनाऒं का विवरण प्रस्तुत करना. माना जाता है कि सृष्टि के रचियता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतक धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है. हिन्दू सनातन धर्म में, पुराण सृष्टि के प्रारम्भ से माने गए हैं, इसलिए इन्हें सृष्टि का प्राचीनतक ग्रंथ मान लिया, किंतु ये बहुत बाद की रचना है. सूर्य के प्रकाश की भांति पुराण को ज्ञान का स्त्रोत माना जाता है, जैसे सूर्य अपनी किरणॊं से अंधकार हटा कर उजाला कर देता है, उसी प्रकार पुराण अपनी ज्ञानरुपी किरणॊं से मानव के मन का अंधकार दूर करके सत्य के प्रकाश का ज्ञान देते है. सनातनकाल से ही जगत पुराण की शिक्षाओं और नीतियों पर आधारित है.
विषयवस्तु- प्राचीन काल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों-सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं. पुराण मनुष्य को धर्म नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं. पुराण मनुष्य के कर्मों का विश्लेषण कर दुष्कर्म करने से रोकते हैं. पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार हैं, वेद बहुत ही जटिल तथा शुष्क भाषा शैली में लिखे गए हैं. वेदव्यास जी ने पुराणॊं की रचना और पुनर्रचना की. कहा जाता है “पूर्णात पुराण” जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो अर्थात वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को सरल भाषा में समझाया गया है. पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है. निर्गुण-निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना करना इन ग्रंथों का विषय है. पुराणॊं में अलग-अलग देवी देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कहानियां हैं. प्रेम, त्याग, भक्ति, सेवा, सहनशीलता ऎसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती. पुराणॊं में देवी-देवताओं के अनेक स्वरुपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है. पुराणकारों ने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण दिया है लेकिन मूल उद्देश्य सदभावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है.
पुराणॊ की रचना वैदिक काल के काफ़ी बाद की है. इनमें सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विषद विवरण दिया गया है. इन्हें मनुष्य के भूत, भविष्य और वर्तमान का दर्पण भी कहा जा सकता है. सरलतम शब्दों में कहा जा सकता है कि भूत में जो हुआ, वर्तमान में जो कुछ हो रहा है और भविष्य में क्या कुछ होने वाला है---इसका दिग्दर्शन कराना ही पुराणॊं का मकसद रहा है. यदि मनुष्य अपने अतीत में झांककर देखे तो वह अपने सुखद वर्तमान का निर्माण आसानी से कर सकता है. इनमें देवी-देवताओं का और पौराणिक मिथकों का बहुत रोचक तरीके से वर्णन दिया गया है.
भागवत पुराण और शिव पुराण को विस्तार से सुनने का मौका मुझे मिला है. बाकी के पुराणॊं के बारे में केवल जानकारियां भर है. गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित “मत्स्य पुराण” घर में किसी अनुपयोगी वस्तु की तरह पड़ा हुआ था. अकस्मात उसके पन्ने पलटने का मौका मिला. ११४ वें अध्याय में नदियों के उद्गमस्थलों की, नदियों के आसपास में बसे जनपदों के बारे में बतलाया गया है. इनमें से अनेक नाम ऎसे हैं,जिन्हें बारे में न कभी सुनने का और न जानने का मौका मिला. ये नाम सर्वथा नए हैं. जिनके बारे में विस्तार से खोजबीन की जानी चाहिए कि वे आज भी उस स्थान पर बने हुए हैं या उनके नाम बदल दिया गए है. कुछ देशों के नामों का उल्लेख भी इसमें आया हुआ है ( जो आज स्वतंत्र रुप से अपना कार्य कर रहे हैं) को पढ़कर लगता है कि प्राचीन समय में वे भारत का ही हिस्सा रहे हों? अध्याय ११४ के कुछ श्लोकों और उनके अर्थों को मैंने लिपिबद्ध करते हुए यहाँ प्रस्तुत किया है, जिसे पढ़कर आपको भारत के भू-भागों और नदियों के बारे में पढ़ने को मिलेगा.
अध्याय—११४ ( मतस्यपुराण से उदृत)
सप्त चास्मिन महावर्षे विश्रुताः कुलपर्वताः * मेहेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षवानपि विन्ध्यश्च पारियात्रश्च इत्येते कुलपर्वताः
* तेषां सहस्त्रशश्चान्ये पर्वतास्तु समीपतःआभिशातास्ततश्चान्ये विपुलाश्चित्रसानवः
* अन्ये तेभ्यः परिशाता ह्र्स्वा ह्रस्योपजीविनः तैर्विमिश्रा जानपदा आर्या मलेच्छाश्च सर्वतः*
पीयन्ते यैरिमा नद्धो गंगा सिन्धुः सरस्वती शतद्रुश्चन्द्रभागा च यमुना सरायूस्तथा *
इरावती वितस्ता च विपासा देवेका कुहूःगोमती धूतपापा च बाहुदा च दृषद्वती
कौशिकी च तृतीया च निश्चीरा गण्डकी तथा* चाक्षुर्लौहिता इत्येता हिमवत्पादनिःसृताः वेदस्मृतिर्वेत्रवती वृत्रघ्नी सिन्धुरेव च * पर्णाशा चन्दना चैव सदानीरा मही तथा पारा चर्मण्वती यूपा विदिशा वेणुमत्यपि * शिप्रा ह्यवन्ती कुन्ती च पारियात्राश्रिताः स्मृताः(१७-२४)
इस महान भारतवर्ष में सात विश्वविख्यात कुलपर्वत हैं- महेन्द्र ( उड़ीसा के दक्षिणपूर्वी भाग का पर्वत), मलय, सह्य, शुक्तिमान ( यह शक्ति पर्वत है, जो रायगढ़ से लेकर मानभूम जिले की डालमा पहाड़ी तक फ़ैला है), ऋक्षवान ( यह विन्ध्य-पर्वतमाला का पूर्वी भाग है), विन्ध्य, और पारियात्र ( यह विन्ध्यपर्वतमाला का पश्चिमी भाग है)-- ये कुलपर्वत हैं. इनके समीप अन्य हजारों पर्वत हैं. इनके अतिरिक्त अन्य भी विशाल एवं चित्र-विचित्र शिखरों वाले पर्वत हैं तथा दूसरे कुछ उनसे भी छॊटॆ हैं, जो निम्न (पर्वतीय) जातियों के आश्रयभूत हैं. इन्हीं पर्वतों से संयुक्त जो प्रदेश हैं, उनमें चारो ओर आर्य एवं मलेच्छ जातियां निवास करती हैं, जो इन आगे कही जाने वाली नदियों का जल पान करती हैं. जैसे गंगा, सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा (चिनाव) यमुना, सरयू, इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम), विपाशा (व्यास), देविका, कुहू, गोमती, घूतपापा (धोपाप), बाहुदा, दृष्यद्वती, कौशिकी (कोसी), तृतीया, निश्चीरा, गण्डकी, चक्षु, लौहित- ये सभी नदियां हिमालय की उपत्यका (तलहटी) से निकली हुई है. वेदस्मृति, वेत्रवती (बेतवा), वृत्रघ्नी, सिन्धु, पर्णासा, चन्दना, सदानीरा, मही, पारा, चर्मवती, यूपा, विदिशा, वेणुमती, क्षिप्रा, अवन्ती तथा कुन्ती- इन नदियों का उद्गमस्थल पारियात्र पर्वत है.(१७-२४)
शोनो महानदी चैव नर्मदा सुरसा क्रिया मन्दाकिनी, दशार्णा च चित्रकूटा तथैव च * तमसा पिप्पली श्येनी करतोया पिशाचिका विमला चंचला चैव वंजुलोआ वालुवाहिनी शुक्तिमान्ती शुनी लज्जा मुकुटा हृदिकापि च * ऋक्षवन्तप्रसूतास्ता नध्योSमलजलाः शुभाः तापी पयोष्णी निर्विन्ध्या क्षिप्रा च निषधा नदी* वेणवा वैतराआआअणी चैव विश्वमाला कुमुद्वती तोया चैव महागौरी दुर्गा चान्तःशिला तथा * विन्ध्यपादप्रसूतास्ता नद्दः पुण्याजलाः शुभाः गोदावरी भीमरथी कृष्णवेणी च वंजुला तुंगभद्रा सुप्रयोगा वाह्या कावेर्यथापि च * दक्षिणापथनद्दस्ताः सह्यपादाद विनिःसृता. कृतमाला ताम्रपर्णी पुण्यजा चोत्पलावती * मलयान्निःसृता नद्दः सर्वा शीतजलाः शुभाः त्रिषामा ऋषिकुल्या च इक्षुला त्रिदिवाचला * लांगलिनी वंशधराः महेन्द्रतनयाः स्मृताः ऋषीका सुकुमारी च मन्दगा मन्दवाहिनी * कृपा पलाशिनी चैव शुक्तिमत्प्रभवाः स्मृताः सर्वाः पुण्यजलाः पुण्या सर्वाश्चैव समुद्रगाः * विश्वस्य मातरः सर्वा सर्वपापहराः शुभाः( २५-३३)
शोण, महानदी, नर्मदा, सुरसा, क्रिया, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, तमसा, पिप्पली, श्येनी, करतोया, पिशाचिका, विमला, चंचला, वालुवाहिनी, शुक्तिमन्ती, शुनी, लज्जा, मुकुटा और हृदिका- ये स्वच्छ सलिला कल्याणमयी नदियां ऋक्षवन्त (ऋक्षवान) पर्वत से उद्भूत हुई हैं. तापी, पयोष्णी (पूर्णा नदी या पैनगंगा), निर्विन्ध्या, क्षिप्रा, निषधा, वेण्या, वैतरणी, विश्वमाला, कुमुद्वती, तोया, महागौरी, दुर्गा तथा अन्तःशिला- ये सभी पुण्यतोया मंगलमयी नदियां विन्ध्याचल की उपत्यकाओं से निकली हुई हैं. गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, वंजुला (मंजीरा), कर्नाटक की तुंगभद्रा, सुप्रयोगा, वाध्या (वर्धा नदी) और कावेरी- ये सभी नदियां दक्षिणापथ में प्रवाहित होने वाली नदियां हैं, जो सह्यपर्वत की शाखाओं से प्रकट हुई हैं. कृतमाला (वैगईन नदी) ताम्रपर्णी, पुष्पजा (पेन्नार नदी) और उत्पलावती- ये कल्याणमयी नदियां मलयाचल से निकली हुई हैं. इनका जल बहुत शीतल होता है. त्रिषामा, ऋषिकुल्या, इक्षुला, त्रिदिवा, अचला, लांगालिनी और वंशधारा – ये सभी नदियां महेन्द्र पर्वत से निकली हुई मानी जाती है. ऋषीका, सुकुमारी, मन्दगा, मन्दवाहिनी, कृपा और पलाशिनी- इन नदियों का उद्गम शुक्तिमान पर्वत से हुआ है. ये सभी पुण्यतोया नदियां पुण्यप्रद, सर्वत्र बहने वाली तथा साक्षात या परम्परा से समुद्रगामिनी हैं. ये सब-की-सब विश्व के लिए माता-सदृश हैं तथा इन सबको कल्याणकारिणी एवं पापहारिणि माना गया है.(२५-३३)
सह्यास्यानन्तरे चैते गोदावरी नदी * पृथिव्यामपि कृत्स्नायां स्स प्रदेशो मनोरम, (३७) यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादनः * रामप्रियार्थम स्वर्गीया वृक्षा दिव्यास्तथौषधी (३८)
इनकी सैकडॊं-हजारों छॊटी-बड़ी सहायक नदियां भी हैं, जिनके कछारों में दुरु, पांचाल, शाल्व, सजागंल, शूरसेन, भद्रकार, बाह्य, सहपटच्चर, मत्स्य, किरात, कुन्ती, दुन्तल, काशी, कोसल, आवन्त, कालिंग, मूक और अन्धक-ये देश अवस्थित हैं, जो प्रायः मध्यदेश के जनपद कहलाते हैं. ये सह्यपर्वत के निकट बसे हुए हैं, यहां गोदावरी नदी प्रवाहित होती है. अखिल भूमंडल में यह प्रदेश अत्यन्त ही मनोरम है. तत्पश्चात गोवर्धन, मन्दराचल और श्रीरामचन्द्रजी का प्रियकारक गन्धमादन पर्वत है, जिस पर मुनिवर भरद्वाज जी ने श्रीरामजी के मनोरंजन के लिए स्वर्गीय वृक्षों और दिव्य औषधियों को अवतरित किया था. इन्हीं मुनिवर के प्रभाव से यह प्रदेश पुष्पों से परिपूर्ण होने के कारण मनोमुग्धकारी हो गया था. बाल्हीक (बलख), बाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्ध्र, शूद्र, पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार, यवन, सिन्धु (सिंध) सौवीर (सिंध का उत्तरी भाग), मद्रक (पंजाब का उत्तरी भाग), शक, द्रुह्य( द्रुह्यु का उत्तरी भाग--पश्चिमी पंजाब), पुलिन्द, पारद, आहारमूर्तिक, रामठ, कण्ठकार, कैकेय और दशनामक- ये क्षत्रियों के उपनिवेश हैं तथा इनमें वैश्य, शूद्र कुल के लोग निवास करते हैं. इनके अतिरिक्त कम्बोज (अफ़गानिस्तान), दरद( पाकिस्तान ) बर्बर, अह्लव( ईरान), अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल, कसेरक, लम्पक, तलगान असुर जांगल सहित सैनिक प्रदेश- ये सभी उत्तरापथ के देश हैं. अब पूर्व दिशा के देश--- अंग(भागलपुर), वंग (बंगाल), मग्दुरक, अन्तर्गिरे, बहिर्गिरे, मातंग, यमक, मालवर्णक, सुह्य (उत्तरी असम), प्रविजय, मार्ग, वागेय, मालव, प्राग्ज्योतिष (आसाम का पूर्वी भाग), पुण्ड्र (बंगलादेश), विदेह(मिथिला), ताम्रलिप्तक (उड़ीसा का उत्तरी भाग), शाल्व, मागध और गोनर्द---ये पूर्व दिशा के जनपद हैं.
दक्षिणापथ के देश- पाण्ड्य, केरल, चोल, कुल्य, सेतुक, मूषिक, कुपथ, वाजिवासिक, महाराष्ट्र, माहिषक, कालिंग(उड़ीसा का दक्षिनी भाग), आभीर, सहैषीक, शबर, पुलिन्द, विन्ध्यमुलिक, वैदर्भ (विदर्भ), दण्डक, कुलीय, सिराल, अश्मक (महाराष्ट्र का दक्षिण भाग), भोगवर्धन ( उड़ीसा का दक्षिण भाग), तैत्तिरिक, नासिक्य तथा नर्मदा के अन्तःप्राय में स्थित अन्य देश---- ये दक्षिणापथ के देश हैं. भारुकच्छ, माहेय, सारस्वत, काच्छीक, सौराष्ट्र, आनर्त और आर्बुद---ये प्रदेश अपरान्त प्रदेश हैं. अब जो विन्ध्यवासियों के प्रदेश हैं, वे इस प्रकार है---मालव, कुरूष, मेकल, उत्कव्ल, औंड्र (उड़ीसा), माष, दशार्ण, भोज, किषिकन्धक, तोशल, कोसल( दक्षिण कौसल), त्रैपुर, वैदिश(भेलसा राज्य), तुमुर, तुम्बर, नैषध, अरूप, शौण्डिकेर, वीतेहोत्र, तथा अवन्ति---ये सभी प्रदेश विन्ध्यपर्वत की वादियों में स्थित बतलाए जाते हैं.
१,९६,०८,५३,११० वर्ष बीत चुके हैं. यह ७ वें मन्वन्तर का २८ वां कलयुग चल रहा है. इसकी शुरुआत महाभारत के समय श्रीकृष्णजी के देवगमन के बाद हुई है. इस घटना को लगभग ५५०० वर्ष बीत चुके हैं. कलयुग का समय ४,३२,००० वर्ष होता है और द्वापर के लिए कलयुग से दुगना, त्रेता के लिए तिगुना तथा सतयुग के लिए कलयुग की सीमावधि का चार गुना होता है. जैसा की आलेख के शुरुआत में ही इस्स बात को स्पष्ट कर दिया गया है कि “पुराण” की रचना सृष्टि के प्रारंभ में स्वयं ब्रह्माजी ने की थी. चुंकि यह इतना विशद था कि इसे पढ़ पाना आसान नहीं था. वेदव्यासजी ने इसे आसान बनाते हुए अठारह पुराणॊं की रचना की. इन पुराणॊं में “मत्स्य पुराण” की गिनती सोलहवें नम्बर पर आती है. इससे स्पष्ट होता है कि लाखों साल पहले इसे लिख दिया गया था.
इतने अधिक पुराने पुराण में भूगोल की सटीक जानकारी किस तरह इकठ्ठी की गई होगी? किस तरह इतने बड़े भूभाग का भ्रमण किया गया होगा? इसको लेकर अनेकानेक प्रश्न मन-मस्तिस्क को मथने के लिए काफ़ी हैं. पहला सवाल तो यही उठ खड़ा होता है कि क्या उस समय इस ग्रंथ के रचियता के पास अत्यधिक विकसित साधन उपलब्ध थे, जिसकी सहायता से वे ऎसा कर पाए? क्या उस समय विज्ञान इतना उन्नत था कि उन्होंने इतने कम समय में १८ पुराणॊं का सम्पादन-लेखन किया, जबकि कोई प्रेस उन दिनों उपलब्ध नहीं थे? उपरोक्त आलेख में अनेकानेक नदियों के नाम, स्थानों के नाम आदि का इसमें उल्लेख किया गया है, कुछ स्थानों के नाम तो भारत भूमि के बाहर के भी आए हैं, क्या वे सबकी सब भारत के अन्तर्गत आते थे? कुछ ऎसे भी नाम आते हैं,जिनके बारे में काम ही सुनने में आता है,क्या वे आज भी इस भूभाग में अवस्थित हैं या फ़िर उनके नाम परिवर्तित कर दिए गए, इस पर भी गहनतम शोध की आवश्यकता है.