सन 1857 से 1947 तक स्वाधीनता की अलख जगाने और इस संग्राम में अपने प्राण की बाजी लगाने वालों में केवल पुरूष-वर्ग ही शामिल नहीं हुआ था, बल्कि अनेकानेक महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया था. लखनऊ की बेगम हजरतमहल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, लखनऊ की तवायफ़ हैदरीबाई, ऊदा देवी, आशा देवी, नामकौर, राजकौर, हबीबा, गुर्जरी देवी, भगवानी देवी, भगवती देवी, इन्द्रकौर, कुशल देवी, रहीमी गुर्जरी,, तुलसीपुर रियासत की रानी राजेश्वरी देवी, अवध की बेगम आलिया ,अवध के सलोन जिले के सिमरपहा के तालुकदार वसंतसिंह बैस की पत्नी और बाराबंकी के मिर्जापुर रियासत की रानी तलमुंद कोइर, सलोन जिले में भदरी की तालुकदार ठकुराइन सन्नाथ कोइर, मनियापुर की सोगरा बीबी , धनुर्विद्या मे माहिर झलकारीबाई, कानपुर की तवायफ़ अजीजनबाई, अप्रतिम सौंदर्य की मल्लिका मस्तानीबाई, नाना साहब की मुंहबोली बेटी मैनावती, मुज्जफ़रपुर के मुंडभर की महावीरी देवी, अनूप शहर की चौहान रानी, रामगढ की रानी अवन्तीबाई, जैतपुर की रानी, तेजपुर की रानी चौहान, बिरसा मुंडा के सेनापति गया मुण्डा की पत्नी माकी, मणिपुर की नागा रानी गुइंदाल्यू, कोमिल्ला की दो स्कूली छात्राएं-शांति घोष तथा सुनीता चौधरी, मध्य बंगाल की सुहासिनी अली, रेणुसेन, क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नि दुर्गा देवी बोहरा (दुर्गा भाभी), सुशीला दीदी, भारत कोकिला सरोजनी नायडु, कमलादेवी चट्टॊपाध्याय, अरूणा आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी, ऊषा मेहता, कस्तुरबा गांधी, सुशीला नैयर, इन्दिरा गांधी, श्रीमती विजयालक्षमी पंडित, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, ले.मानवती आर्या सहित लन्दन में जन्मी एनीबेसेन्ट, भारतीय मूल की फ़्रांसीसी नागरिक मैडम भीकाजी कामा, आयरलैण्ड की मूल निवासी और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या मारग्रेट नोबुल(भगिनी निवेदिता), इंग्लैण्ड के ब्रिटिश नौसेना के एडमिरल की पुत्री मैडेलिन, ब्रिटिश महिला म्यूरियल लिस्टर और भी न जाने कितनी ही अनाम महिलाओं ने भारत की आजादी के लिए अपने प्राणॊं का उत्सर्ग कर दिया था. इन वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और गौरवमयी बलिदान का इतिहास एक जीवन्त दस्तावेज है. हो सकता है उनमें से कईयों को इतिहास ने विस्मृत कर दिया हो, पर लोकचेतना में वे अभी भी मौजूद हैं. ये वीरांगनायें प्रेरणा स्त्रोत के रूप में राष्ट्रीय चेतना की संवाहक है और स्वतंत्रता संग्राम में इनका योगदान अमूल्य एवं अतुल्य है.
संसार के इतिहास में कदाचित विरले ही उदाहरण इस तरह की स्त्रियों के मिलेंगे, जिन्होंने अपनी छॊटी सी उम्र में अलौकिक वीरता और असाधारण युद्ध-कौशल के साथ किसी भी देश की स्वाधीनता के लिए युद्ध किया हो और अपने आदर्शॊं के लिए लडते-लडते युद्ध क्षेत्र में प्राण त्याग दिए हों, निःसन्देह वह नाम महारानी लक्ष्मीबाई का है. उनका व्यक्तिगत जीवन जितना पवित्र और निष्कलंक था, उसकी मृत्यु भी उतनी ही वीरोचित थी.
अंग्रेजों की हड़प नीति के तहत डलहौजी ने झांसी को हड़पने का प्रयास किया. उसने रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को रियासत का कानूनी उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया. रानी ने इसके खिलाफ़ लंदन में अपील की और जो कदम उठाया वह बेमिसाल था. वह मुकदमा हार गयीं, लेकिन उस समय भारत के ब्रिटिश शासक उनके “धृष्टतापूर्ण व्यव्हार” के लिए उन्हें सबक सिखाना चाहते थे. उन्होंने रियासत के आभूषण जब्त कर लिए और उनके पति के कर्ज की रकम को सालाना पेंशन में से काटना शुरु कर दिया. उन्हें झांसी का किला छोडकर झांसी शहर के रानी महल में जाने का आदेश दिया गया. लेकिन रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने तो आखिरी दम तक लोहा लेने की ठान ली थी. उन्होंने जिन शब्दों में अपने फ़ैसले की घोषणा की वे अमर हो गये हैं. उन्होंने कहा;- मी माझी झांसी नहीं देहनार ( मैं अपनी झांसी देने वाली नही हूँ.)
सन 1857 में हिंसा भडकने के साथ ही झांसी विद्रोह का केन्द्र बन गया था. रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ करने के प्रयास शुरू कर दिये और स्वयंसेवकों की सेना खड़ी कर दी. यह बात ध्यान देने की है कि उनके अंगरक्षक बडॆ निष्ठावान मुसलमान सैनिक थे. सैकडॊं स्थानीय लोग स्वेच्छा से शाही सेना में शामिल हुए. पुरुषॊं के साथ-साथ महिलाओं को भी सेना में भर्ती किया गया और सैन्य प्रशिक्षण दिया गया. महिला टुकड़ी की एक अफ़सर झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई की जान बचाने के लिए अपना जीवन बलिदान कर अद्वितीय वीरता का परिचय दिया. बहादुरी से दुश्मन का सामना करते हुए लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची और उन्होंने तात्या टॊपे तथा नाना साहब के भतीजे राव साहब की सेनाओं के साथ अपनी सेना को नये सिरे से संगठित किया. उनकी साझा सेना ने अंग्रेजों की सेना से जमकर लोहा लिया. उन्होंने ब्रिटिश सेना के ठिकानों पर बडी तेजी और जोश से हमले किये. लेकिन भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया. 4 अप्रैल 1858 को कालपी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. जून के मध्य तक ब्रिटिश सेनाओं का ग्वालियर पर फ़िर से नियंत्रण हो चुका था और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने रणभूमि मे लडते हुए वीरगति प्राप्त की. लेकिन लोकगाथाओं और भारत के देशभक्ति के साहित्य में वे सदा अमर रहेंगी. कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने उनका बखान अपनी कविता में इस प्रकार किया है.
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी. खूब लडी मरदानी, वह तो झांसी वाली रानी थी.