बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा, भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने हरियाणा की विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए दिया था. अपने भाषण में उन्हें यह कहने की आखिर जरुरत क्यों पड़ी कि हमारी मानसिकता १८ वीं सदी की है, जबकि हम २१ वीं सदी में जी रहे है. हमें २१ वीं सदी का नागरिक कहलाने का कोई अधिकार नहीं है. अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी कहा- बेटे और बेटियों के बीच भेदभाव को खत्म करना चाहिए. ऎसा करके ही कन्या भ्रूण हत्या को रोका जा सकता है. यह हमारी सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है वरना हम न केवल मौजूदा पीढ़ी को नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भयानक संकट भी आमंत्रित कर रहे हैं. देश के डाक्टरों को कड़ी फ़टकार लगाते हुए उन्होंने यह कहा कि मेडिकल शिक्षा का उद्देश्य जीवन बचाना है, न कि बेटियों की हत्या करना है.
उनका यह कोरा भाषण मात्र नहीं था, बल्कि एक समृद्ध होते देश को एक खुली चेतावनी भी थी. निश्चित रूप से हमें इसकी गहराई में जाकर पड़ताल करने की आवश्यकता पड़ेगी कि उन्हें आखिर ऎसा क्यों बोलना पड़ा ? २१ वीं सदी में जब हम अन्तरिक्ष में कदम बढ़ा चुके हैं, देश-विदेशों में हमारी धाक बनी है, हम नित नूतन आविष्कार करते हुए भारत को गौरव प्रदान कर रहे हैं, ठीक ऎसे समय में देश के प्रधानमंत्री जी को आखिर यह प्रश्न क्यों कर उठाना पड़ा?
प्रधानमंत्री जी कहते, न भी कहते, लेकिन यह आज की कड़वी सच्चाई है कि बड़े पैमाने पर कन्या भ्रूण की धड़ल्ले से हत्या की जा रही है. उन्हें कोख में ही मार दिया जाता है. शायद इसके पीछे यह मुख्य कारण यह हो सकता है कि बेटी होगी तो उसका लालन-पोषण करना पड़ेगा, उसे लिखाना-पढ़ाना होगा और एक दिन उसकी शादी भी करनी पड़ेगी. निश्चित ही इन कार्यों मे एक मोटी रकम का खर्चा भी होगा. अभिभावक यह भी जानता है कि बेटी आखिर होती ही है पराया धन. फ़िर इस पर इतनी रकम खर्च करने की क्या आवश्यकता है ? बेटी पर किया गया खर्च लौटकर आने वाला नहीं है. अतः उस पर भारी रकम क्यों खर्च की जाए? इस प्रकार की सोच निरन्तर बलवती होती चली गई. वे यह भी सोचते हैं कि अगर इतना पैसा बेटों पर खर्च करेंगे, तो वह धन कमा के लाएगा, जिससे हमारा ऎश्वर्य बढ़ेगा, समाज में मान-सम्मान बढ़ेगा. स्टेटस बढ़ेगा. इसी संकीर्ण सोच के चलते समाज का ढांचा लड़खड़ा गया.
ऎसी सोच वाला आदमी यह नहीं सोच पाता कि वह आखिर बहू लाएगा भी तो कहां से, क्योंकि सभी इस प्रयास में लगे हैं कि उनके यहाँ बेटी पैदा न हो. यदि इस प्रकार की सोच को मैं घटिया मानसिकता कहूं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसी घटिया सोच के चलते न जाने कितनी कन्याएँ भ्रूण गर्भ में ही मार दी जाती हैं. यदि किसी कारणवश नहीं मारी जा सकी तो उसे किसी गन्दे नाले में या कूड़ाघर में फ़ेंक दिया जाता है, गला घोंट कर मौत के हवाले कर दिया जाता है. बहू को लगातार कन्या ही पैदा हो रही हो, तो उसकी क्या गत बनती है परिवार में, यह भी हमसे छिपा नहीं है. सास तो सास, बेटा भी अपनी पत्नि पर जुल्म ढाने में पीछे नहीं रहता. शायद वह यह नहीं जानता या जानना नहीं चाहता कि इसमें उसकी पत्नि का तनिक मात्र भी दोष नहीं है. लेकिन सारा दोष बहू पर लाद दिया जाता है और उस पर अनगिनत अत्याचार होने लगते हैं.
गर्भ में लड़का पल रहा है या लड़की इसकी जांच के लिए मशीनें इजाद की गई हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि लड़की होगी या फ़िर लड़का. लड़की होने की पुष्टि होते ही उसे मार डालने का षड़यंत्र शुरु हो जाता हैं. डाक्टर जानता है कि इस प्रकार का कृत्य कानूनन अपराध है, लेकिन मोटी रकम पाने की लालसा उसे ऎसा करने के लिए बाध्य कर देती है.
बरसों से चल रही इस मानसिकता के चलते समाज में विसंगतियां पैदा होने लगी है. लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या तेजी से घट रही है. लड़किया ढूंढे मिल नहीं पाती है फ़िर दहेज का दानव चीतकार कर रहा होता है. जिसके घर बेटी है, जरुरी नहीं कि वह दौलतमंद ही होगा. वह दहेज में मोटी रकम नहीं दे सकता. फ़लस्वरूप होता यह है कि लड़की मां-बाप पर बोझ बनती चली जाती है और उन्हें न जाने कितनी ही मानसिक आघातों को झेलना होता है. कुल मिलाकर स्थिति यह बन पड़ती है कि लड़के तो लड़के, लड़कियां तक कुंवारी रह जाने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं.
लड़कियाँ अब मां-बाप का बोझ नहीं बल्कि उनका सहारा बनकर आगे आ रही हैं. एक जमाना था जब उन्हें अनेकानेक पाबंदियों से होकर गुजरना पड़ता था. घर का सारा काम-काज निपटाते रहने के बावजूद, लिंग-भेद का तनाव झेलने के बाद भी बेटियां वे समय में से समय चुराकर अपनी पढ़ाई कर लेती हैं और अच्छे नम्बरों से पास ही नहीं होती,बल्कि लाड़ले लड़कों को काफ़ी पीछे धकेल देती हैं. परीक्षा-फ़ल पर नजर डालें तो सच्चाई देखी जा सकती है.
बेटियां किसी से कम नहीं होती. कभी अभावों के बीच से गुजरते हुए, तो कभी विषम परिस्थितियों के बीच से गुजरते हुए बेटियों ने सफ़लता की मंजिलों को न सिर्फ़ छूया है बल्कि विश्व-रिकार्ड भी बनाया है. यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इनके अभिभावकों ने बेटियों को बेटी न मानते हुए उनका लालन-पालन एक लड़के की तरह किया और उसका परिणाम हम सबके सामने है. आइए, हम उन असाधारण बेटियों की बात करें,जिन्होंने आगे चलकर इस देश का नाम रोशन किया.
उपकुलपति-हंसा मेहता, विधायक.... डा.मुत्तुलक्ष्मी (१९२६) ,न्यूज रीडर..येशन मेनन, आई.ए.एस..अन्ना राजम जार्ज, इंगलिश चैनल पार करने वाली ..आरती साहा, एशियाई खेलों में प्रथम स्वर्ण विजेता-कंवलजीत कौर संधू( ५७.३५..४०० मीटर), इंडियन नेशनल कांग्रेस की महिला अध्यक्ष-विजय लक्ष्मी पण्डित,स्काउट गाईड की मुख्य आयुक्त -माणिक बर्सले,महिला टेस्ट में एक पारी में सात विकेट लेने वाली...एन.डेविड, अशोक चक्र से सम्मानित-नीरजा मिश्रा ..हाकी, प्रथम मिसेस वर्ल्ड -अदिति गोवित्रिकर...२०००, दाँतों से विमान खींचने वाली -सीमा मढोश्रया..(दतिया), एशिया की सबसे तेज दौडने वाली महिला तैराक. कावेरी ठाकुर, प्रथम महिला विदेश सचिव-श्रीमती बोथिला अय्यर, सबसे कम उम्र की महापौर-पंचमार्थी अनुराधा (विजयवाडा-२६ वर्षीय), प्रथम महिला प्रधानमंत्री-श्रीमती इन्दिरा गांधी, राज्यसभा की प्रथम जनरल सेक्रेटरी-बी.एस.रमादेवी (१-७-९३),प्रथम महिला मेयर-सुलोचना मोदी, प्रथम महिला राजदूत -विजयलक्ष्मी पण्डित (रूस १९४७-४९), संयुक्त राष्ट्र की प्रथम महिला अध्यक्ष-विजयलक्ष्मी पण्डित (१९५३),भारत रत्न से सम्मानित-श्रीमती इंदिरा गांधी (१९७५), प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश-लीला सेठ (हिमाचल ९१),सुप्रीम कोर्ट की प्रथम महिला जज-मीरा साहिबा फ़ातिमा बीवी,फ़िंगरप्रिंट की प्रथम महिला चीफ़ एक्सपर्ट-वारथाम्बल (मद्रास १९५२),राज्यसभा की प्रथम महिला उपसभापति-मार्गरेट अल्वा, गिनीज बुक आफ़ रिकार्ड्स में सर्वाधिक नाम दर्ज कराने वाली..भुवनेश्वरी (स्क्वाश खेल),ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाली-आशापूर्णा देवी,साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाली-अमृता प्रीतम, फ़िल्म स्क्रीन पर आने वाली प्रथम महिला-दुर्गाबाई और उनकी पुत्री कमलाबाई(मोहिनी भस्मासुर), स्क्रीन पर आने वाली बालिका कलाकार दादा फ़ाल्के की पुत्री मन्दाकिनी(१९१८), प्रथम महिला भारत केसरी-मास्टर चन्दीराम की पुत्री सोनिका, भारत में प्रथम महिला शासक-रजिया सुल्तान,मंत्रीमंडल में प्रथम राजकुमारी-अमृतकौर (कपूरथला),प्रथम महिला मंत्री-श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित (१९३७),प्रथम महिला मुख्यमंत्री-श्रीमती सुचेता कृपलानी, एअर बस की प्रथम महिला पायलट-दुर्गा बनर्जी, प्रथम महिला जिलाधिकारी-के.श्रीनिवास (मद्रास), एशियाई खेलों में सर्वाधिक स्वर्ण पदक विजेता पी.टी.ऊषा,समुद्री यात्रा द्वारा विश्व का चक्कर लगाने वाली- उज्जवला राय (१९८८),प्रथम महिला डीजल इंजिन ड्राइवर -मुमताज कथावला (१९८८),प्रथम महिला जिसके विमान पर ध्वज लहराया गया-विजयलक्ष्मी पण्डित, प्रथम मिस युनिवर्स-सुष्मिता सेन(२१-११-९४),प्रथम विश्व सुंदरी-रीता फ़ारिहा (१९६६), चुनाव लडने वाली प्रथम महिला-कमलादेवी चट्टॊपाध्याय,प्रथम पुलिस महानिदेशक-श्रीमती कंचन चौधरी भट्टाचार्य, कस्टम एण्ड एक्साइज आयुक्त-कौशल्या नारायण, प्रथम दस्यु सुन्दरी-पुतलीबाई, अन्डर वर्ल्ड की पहली महिला शूटर-प्रिया चन्द्रकला राजपूत,पद्मश्री की उपाधि पाने वाली पहली महिला-नर्गिस दत्त (१९५८), बी.जे.पी सरकार की प्रथम महिला मुख्यमंत्री-श्रीमती सुषमा स्वराज, प्रथम महिला बस ड्राइवर-वसन्तकुमार (कन्याकुमारी),संघ लोकसेवा आयोग की अध्यक्षा-रोज मियिन मैथ्यूज, योजना आयोग की अध्यक्ष-श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रथम महिला चिकित्सक-मेजर जनरल जी.ए.एम.राम, प्रथम महिला बैंक मैनेजर-शांताकुमार(सिंडिकेट बैंक बंगलोर), प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी--हर्षा (१९८६), सेना में उच्चतम पद पर पहुंचने वाली-मेजर जनरल पी.एस. सरस्वती(आर्मी नर्सिंग सेवा ),चित्रपट की प्रथम नायिका-देविका रानी प्रथम पोस्टमास्टर जनरल- श्रीमती सुशीला चौरसिया (१९७९), प्रथम महिला चीफ़ इंजीनियर--पी.के.त्रेसिया नागूंली, टेनिस का डब्ल्यू टी.ए. खिताब जीतने वाली- सानिया मिर्जा (२००३ हैदराबाद).
जमाना बदल गया है लेकिन मानसिकता अभी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पायी है. मुझे तो बेसब्री से उस दिन की प्रतीक्षा है जब बेटी को दुर्भाग्य नहीं बल्कि सौभाग्य की तरह माना जाएगा. कहावत है कि बेटी एक-साथ दो कुलों को तारती हैं.... एक बेटी अगर साक्षर होती है...उन्नति की देहलीज पर जा खड़ी होती है तो वह न सिर्फ़ मां-बाप के गौरव में श्रीवृद्धि करती है,अपितु अपने ससुराल पक्ष का भी नाम रौशन करती है. अपने को एक सभ्य और सुसंस्कृत मानने वाले हर उस व्यक्ति की जवाबदारी बनती है कि वह अपने पास-पड़ौस के नासमझ लोगों को जागृत करे ..उन्हें समझाएं और एक समतामूलक समाज का निर्माण करे जिसमें बेटियों और बेटॊं के बीच के भेद-भाव को समाप्त किया जा सके.