तकरीबन ढाई-तीन दशक तक कविता की कुंज-वाटिका में रमण करते रहने के बाद मैंने कहानी जैसी कठोर भूमि पर चलने का दुस्साहस किया था. यह अनायास नहीं बल्कि सायास हुआ था. होता यह था कि वरिष्ठ होने के कारण किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि अथवा अध्यक्ष बना दिया जाता. काव्यपाठ में सहभागिता करने वाले मित्रगण अपनी कविता सुनाते और फ़िर लघुशंका का इशारा करते हुए अपनी जगह से उठ खडॆ होते. और एक बार कमरे के बाहर कदम रखते तो फ़िर दुबारा लौटकर नहीं आते. एक तो यह कारण था और दूसरा यह कि उस समय तक मैं छॊटी-मोटी पत्र-पत्रिकाओं में शान से छप रहा था. मन में तरंग उठी कि किसी बडी पत्रिका में अपना भाग्य आजमाऊँ. मैंने एक आलादर्जे के संपादक के नाम, जो मेरे आदर्श रहे हैं, कुछ कविताएँ भेजी कि इसे अपनी पत्रिका में स्थान दें. जब उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई तो उन्होंने कहा कि अब इस तरह की कविताओं के दिन फ़िर गए हैं, यदि कोई अकविता लिखी हो तो भेजे, उसे स्थान जरुर मिल जाएगा. आपको शायद याद होगा कि यह वह समय था जब कविता औरअकविता के बीच एक अघोषित युद्ध चल रहा था. मैंने उसमे हाथ आजमाया लेकिन मैं उसमें सफ़ल नहीं हो पाया. ऎसा भी नहीं है कि मैंने उस तरह की कविताएं नहीं लिखी. लिखी जरुर लेकिन वे विष्णु खरे, लीलाधर मंडलोई, चन्द्रकांत देवताले, अथवा मोहन डहेरिया जैसी लिखी तो बिल्कुल भी नही गई थी. मेरे लिए एक निराशा का समय था यह. फ़िर मैंने कहानी लिखने का मानस बनाया. मेरी पहली कहानी” एल मुलाकात” जो शुरु से ही एक रहस्य लिए हुए होती है जो अंत तक रहस्यमयी बनी रहती है. इसका नायक “समय” होता है, से अचानक मुलाकात होतीहै. वह मेरे बारे में सब कुछ जानता है और मुझसे कहता है कि मैं तेरा बचपन का साथी हूँ. लंबे समय तक साथ बने रहने के बाद भी मैं उसे पहचान नहीं पाता हूँ. कहानी के अंत में एक अप्रत्याशित घटना घटती है और वह सारे रहस्यों पर से पर्दा उठाता है. यह कहानी “कहानी” के क्षेत्र में अत्यंत सफ़ल कहानी रही. मुझे काफ़ी प्रशंसाएं मिली और अनेकानेक पत्र पाठकों से प्राप्त हुए. इस कहानी के सफ़लतापूर्वक लिखे जाने के बाद से मेरे मानस पटल पर छाया कुहासा छटने लगा था. इसके बाद मैंने पीछे मुडकर नहीं देखा. मेरा पहला कहानी संग्रह “ महुआ के वृक्ष” पंचकुला हरियाणा से प्रकाशित हो कर आया. उस संग्रह पर लगभग पैंसठ समीक्षाएं मुझे प्राप्त हुईं. पाठक मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भोपाल से मेरे कथाकार मित्र श्री मुकेश वर्मा, श्री बलराम गुमास्ता श्री बलराम गुमास्ता, श्री मोहन सगोरिया, नागपुर से श्रीमती इंदिरा किसलय ने आकर उसे ऊँचाइयाँ दी. सभाग्रह में करीब ढाई सौ मित्रों की उपस्थिति रही. दूसरा संग्रह “तीस बरस घाटी” वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकाशित हुआ. इस संग्रह में मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन भोपाल के मंत्री-संयोजक सम्मानीय श्री कैलाशचन्द्र पंतजी ने दो शब्द लिखे और इस संग्रह का विमोचन देश के प्रख्यात कवि-मंत्री-सांसद सम्मानीय श्री बालकवि बैरागीजी के हस्ते “हिन्दी भवन”भोपाल में हुआ. यह मेरे लिए अब तक की सबसे बडी सफ़लता थी. तीसरा कहानी संग्रह “ आसमान अपना-अपना” शैवाल प्रकाशन गोरखपुर में प्रकाशाधीन है. इसी बीच लगभग सौ लघुकथाएं भी मैंने लिखी है और इसे पुस्तकाकार होने में समय लग सकता है. इस लघुकथाओं पर भी माननीय श्री पंतजी ने अपना आशीर्वाद दो शब्द लिखकर दिया है. मेरी प्रायः सभी रचनाएं देश-प्रदेश की हर बडी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं है. इससे लाभ यह हुआ कि मेरे हर प्रांत में मित्र्रों की फ़ौज खडी हो गई हैं. जगह-जगह से मुझे आमंत्रित किया जाता है और इस तरह करीब अठारह संस्थाओं ने मुझे सम्मानीत किया है. इसका सारा श्रेय मैं पंतजी को देना चाहता हूँ. अगर मेरा जुडाव राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से न हुआ होता तो शायद ही मैं इतनी ऊँचाइयाँ छू नहीं सकता था.
मित्रों, मैंने अब तक करीब तीस समीक्षाएं लिखी है. जब कहानी लिखने का मन नहीं होता है तो विभिन्न विषयों पर लेख-आलेख लिखता रहता हूँ. आज इन्टर्नेट का जमाना है, विभिन्न ईमेल पत्रिकाओं में इनका प्रकाशन होता रहता हैं. अब तो कुछ विदेशी ईमेल पत्रिकाओं में भी मेरी कहानियाँ, लघुकथाएँ लेख-आलेख प्रकाशित होते रहते हैं.
देश के ख्यातनाम कहानीकारों की कहानियों के अलावा प्रदेश के अनेक कहानीकारॊं को पढने का सुअवसर मिला है.पद्मश्री मान.श्री रमेशचन्द्र शाहजी, श्रीमती ज्योत्सना मिलन, गोविन्द मिश्रजी, रमेश दवेजी,श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज जी,महेश अनघ, सूर्यकांत नागर,शशांक, भालचन्द्र जोशी, ए असफ़ल, राजेन्द्र दानी, ज्ञानरंजनजी, हरिभटनागर, तरुण भटनागर, अजीत हर्षे, स्वाति तिवारी ,उर्मिला शिरीष, उदयन बाजपेयी, युगेश शर्माजी, मालती शर्माजी, मालती जोशीजी, उदयप्रकाश, रामचरण यादव, .रामसिंह यादवजी, डा.पुन्नीसिंहजी, अमरनाथजी, नवल जायसवालजी, प्रभु जोशीजी, ध्रुव शुक्लजी, छिन्दवाडा के श्री हनुमंत मनघटेजी, दिनेश भट्टजी, राजेश झरपुरेजी, स्व. मनीषरायजी, आदि-आदि ,फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी हो सकती है. ये सारे कथाकार अपनी लेखनी के बल पर पूरे देश में जाने जाते हैं. इन सबकी कहानियाँ जहाँ अपने काल का अक्स प्रस्तुत करती हैं वहीं वे समाज की विकृतियों को दूर करने का आगाह भी करती है. या यह कहें कि समग्र अर्थों में अपने युग की कडवी सच्चाई को प्रस्तुत करने का सफ़ल कार्य कर रही हैं. माननीय रमेशचन्द्र शाहजी की कहानी “ अभिभावक” पश्चिमी माडल पर आधारित आज की शिक्षा प्रणाली, अभिभावकों की दोहरी मानसिकता और उच्च आकांक्षाओं के बीच पिसते बच्चो के बचपन का मार्मिक विवेचन करती है. आपकी लेखनी का जादू पाठक के दिल-दिमाक पर गहरा असर डालती है, वहीं आपकी शब्द संपदा, शब्द सामर्थ्य, चिंतन बोध, भाषायी सुचिता की बानगी देखते ही बन पडती है. निःसंदेश यह आपके धीर-गंभीर लेखन का परिणाम है. ज्योत्सना मिलनजी की कहानी “चीख के उस पार” प्रभावशाली है. उर्मिला शिरीष की कहानी “तमाशा” एकदम नए विषयवस्तु पर लिखी समाज की सच्चाई को बयां करती महत्वपूर्ण कहानी है. सम्मानीय श्री रमेश दवे की कहानी “भुल्लकड” रिटायरमेंट पर लिखी कहानी है, उसी तरह आपकी एक कहानी “खबरें”आज के अखबारों में पसरी मानसिक उदासी को प्रस्तुत करती है. कि अब अखबार पढने की चीज नही रह गयी है. कहानी का नायक अपनी पत्नि गायत्री से कहता है—नहीं-नहीं गायत्री अब खबरे नहीं पढी जाती-अच्छा तो कल से अखबार बंद कर दो” काफ़ी गहरा असर पाठकों के दिल-दीमाक पर छोडती है. मालती जोशी की कहानी “विषपायी” बेटी-बेटे के बीच दृष्टिभेद पर लिखी मार्मिक कहानी है, जिसने समाज का बेडा गर्क कर दिया है. मेहरुन्निसा परवेज की कहानी “ अपने होने का अहसास” अंधविश्वास पर लिखी कहानी है. सूर्यकांत नागर की कहानी “विभाजन” तथा बेटियां” प्रभावकारी है.श्री ज्ञानरंजनजी की कहानी “पिता” पिता पर लिखी अब तक की तमाम कहानियों पर भारी पडती है. मंगला रामचन्द्रण की कहानी “मिन्नी बडी हो गई”-“भावनाएं अपाहिज नही होतीं,” “हम होंगे कामयाब”, श्री मुकेश वर्मा की कहानियां खेलणपुर, साक्षात्कार, होली, न्यायाधीश, रात, अन्ना, कस्तवार प्रभावशाली है. इस पर मैंने समीक्षा भी लिखी थी.
साहित्य समाज का दर्पण तो है ही साथ ही वह एक ऎसा प्रकाश स्तंभ भी है जो समाज को दिशा देखाने का कार्य भी संपादित करता है. उसका कारण यह है कि साहित्य में जहाँ एक ओर जीवन के लिए आदर्शों की प्रस्तुति की गुंजाइश होती है, तो दूसरी ओर वह समाज में व्याप्त आनियमितताओं, विकृतियों, प्रतिकूलताओं रोजमर्रा की कशमकशताओं, उसमें बिंधी इच्छाएं, आकांक्षाएं, विस्मृतियों, विडम्बनाओं, उत्पीडन, तथा अन्यान्य बुराइयों पर प्रहार करने का माद्दा भी होता है.
जहाँ तक समकालीन कहानियों का प्रश्न है तो इस समय की कहानियां समग्र अर्थों में अपने युग की कडवी सच्चाई को प्रस्तुत करने का सफ़ल कार्य कर रही है, वह आम आदमी के पक्ष में खडी दिखाई देती है. वर्तमान समय में जहाँ चारों ओर भ्रष्टाचार ताडंव कर रहा है, जहां बलात्कार मामुली सी चीज बन कर रह गई है, जहां भूख, कराह और विसंगतियों का माहौल है, समकालीन लेखकों द्वारा अधिकारपूर्वक कलम चलाई जा रही है. आज की समकालीन कहानिया जहां एक ओर साम्प्रदायिकता के विरुद्ध शंखनाद छेडॆ हुए है. वहीं वह ईष्या, द्वेष, झूठ ,छल, फ़रेब, राजनीति में अपराधिकरण, जनप्रतिनिधियों का चारित्रिक पतन ,गिरते जीवन मूल्यों, आहत होती भावनाओं पर जमकर लिखा जा रहा है.
उपरोक्त उदाहरणॊ से यह बात स्पष्ट होती है कि आज के कथाकार अपने दायित्वों का निर्वहन बडी शिद्दत के साथ कर रहे हैं अतः यह कहा जाना की आज की कहानियों में समकालीनता बोध का किंचित भी अभाव है,तो यह सर्वथा अनौचित होगा. यह बात निर्विवादरुप से कही जा सकती है कि आज की कहानियां युगानुरुप है, बल्कि वर्तमान की आवश्यक्ताओं के अनुकूल भी है.