अस मैं सुना श्रवन दसकंधर ॥
पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर ॥
पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥
दुर्दांत रावण ने अपने दो विश्वासपात्र राक्षस शुक और सारण को बुला भेजा और कहा कि मैंने सुन रखा है कि राम की सेना में अठारह पद्म सेनापति हैं. मैं नहीं जानता कि हर-एक सेनापति के अधीन कितने वानर हैं? उसने दोनों को आदेश देते हुए कहा-“. तुम दोनों शीघ्रता से उस ओर जाओ, जहाँ राम ने छावनी बिछा रखी है, जाकर पता लगाओ कि मुख्य-मुख्य मंत्री, और सेनापति कौन-कौन हैं और उनके साथ कितने वानर युद्ध की इच्छा लिए आए हुए है”.
मानस में बाबा तुलसीदास जी –“ अस मैं सुना श्रवण दसकंदर, पदुम अठारह जूथम बंदर” लिखकर आगे बढ़ जाते हैं, जबकि रामजी के सेना में अनेक सेनापति और असंख्य भालू-बंदर युद्ध की अभिलाषा लेकर लंका में घुस आए थे.
महाकवि वाल्मीकि जी ने न केवल सेनापतियों के नाम और उनके साथ कितने बंदर-भालू आए हुए थे का विस्तार से वर्णन किया है. अगर बाबा चाहते तो सेनापतियों के नाम और उनके साथ आए वानर-भालू की गिनती बता सकते थे, लेकिन उन्होंने इस बात पर ज्यादा बल न देते हुए रावण के मुख से कहलवा दिया कि राम की सेना में अठारह पद्म सेनापति युद्ध के लिए आए हैं.
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रामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा-“शत्रु-नगरी पर विजय पाने वाले लक्ष्मण ! जिसके लिए यह मित्रता आदि का सारा आयोजन किया गया, सीताकी खोजविषयक उस प्रतिज्ञा को इस समय वानरराज सुग्रीव भूल गया है-उसे याद नहीं कर रहा, क्योंकि उसका अपना काम सिद्ध हो चुका.सुग्रीव ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा का अन्त होते ही सीता की खोज आरम्भ कर दी जाएगी, किंतु वह क्रीड़ा-विहार में इतना तन्मय हो गया है कि इस बीते हुए चार महिने का उसे कुछ पता ही नहीं है.”
“ महाबली वीर लक्ष्मण ! तुम जाओ. सुग्रीव से बात करो.मेरे रोष का जो स्वरूप है, वह उसे बताओ और मेरा संदेश भी कह सुनाओ. सुग्रीव! वाली मारा जाकर जिस रास्ते से गया है,वह आज भी बंद नहीं हुआ है. इसलिए तुम अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहो. बाली के मार्ग का अनुसरण न करो” बाली तो रणक्षेत्र में अकेला ही मेरे बाण से मारा गयाथा, परंतु यदि तुम सत्य से विचलित हुए तो मैं तुम्हें बन्धु-बान्धवों सहित काल के गाल में डाल दूँगा.
“पुरुषप्रवर ! नरश्रेष्ठ लक्ष्मण ! जब इस तरह कार्य बिगड़ने लगे, ऐसे अवसर पर और जो-जो भी बातें उचित हों-जिसके कहने से अपना हित होता हो वे सब बातें कहना. जल्दी करो,क्योंकि कार्य आराम्भ करने का समय बीता जा रहा है.”
“सुग्रीव से कहो-वानरराज ! तुम सनातन धर्म पर दुष्टि रखकर अपनी की हुई प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाओ, अन्यथा ऐसा न हो कि तुम्हें आज ही मेरे बाणॊं से प्रेरित हो प्रेतभाव को प्राप्त होकर यमलोक में बाली का दर्शन करना पड़े.”
मानव-वंश की वृद्धि करने वाले तेजस्वी लक्ष्मण ने जब अपने बड़े भाई को दुःखी तथा बढ़े हुए तीव्र रोष से युक्त तथा अधिक बोलते हुए देखा, तब वानरराज सुग्रीव के प्रति कठोर भाव धारण कर लिया.
“जी भैया ! जैसी आपकी आज्ञा” कहते हुए क्रोध से भरे लक्षमण जी सुग्रीव के महल की ओर द्रुतगति से चले.
लक्ष्मण जी को आता देख अंगद ने, हनुमानजी ने और तारा ने भी सुग्रीव को बताया कि भैया लक्ष्मण अत्यन्त क्रोधित अवस्थामें आए हैं, अब जाकर उनका सामना करों. मृत्यु के भय से भयाभीत सुग्रीव थर-थर कांपने लगा और तारा से अनुरोध किया कि मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं भैया लक्ष्मण का सामना कर सकूँ अतः तुम जाकर उनका गुस्सा शांत करो.तारा ने युक्तियुक्त वचनों द्वारा लक्ष्मण को शांत करवाया तब जाकर सुग्रीव लक्ष्मण का सामना कर सके थे.
सुग्रीव ने वीर हनुमान को वानर सेना के संग्रह के लिए दोबारा दूत भेजने की आज्ञा दी. फ़िर लक्ष्मण जी के साथ रामजी के चरणॊं में आकर प्रणाम करते हुए बताया-
शतैः शतसहस्त्रैश्च वरन्ते कोटिभिस्ताथा ; अयुतैश्चावृता वीर शंखकुभिश्च परंतप (३०) अर्बुदैरर्बुदशतैर्मध्यैश्चान्त्पैश्च वानराः :समुद्राश्च परार्धाश्च हरयो हैयूथपाः
अर्थ-शत्रुओं को संताप देने वाली वीर! इसमें से किसी के साथ सौ, किसी के साथ लाख, किसी के साथ करोड़, किसी के साथ अयुत ( दस हजार.) और किसी के साथ एक शंकु वानर हैं :” कितने ही वानर अर्बुद ( दस करोड़), सौ अर्बुद (दस अरब.) मध्य (दस पद्म.) तथा अन्त्य (एक पद्म) वानर सैनिकों के साथ आ रहे हैं कितने ही वानर-यूथपतियों की संख्या समुद्र (दस नील) तथा परार्ध (शंख) तक पहुँच गयी है. इसमें रीछ हैं, वानर हैं और शौर्य संपन्न लंगुर हैं. ये सब-के-सब देखने में बड़े भयंकर हैं और बीहड़ वनों तथा दुर्गम स्थानों के जानकार हैं.कुछ देवताओं और गन्धर्वों के पुत्र हैं, और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं,वे श्रेष्ठ वानर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ चल हैं और इस समय मार्ग में हैं.
“राजन! वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी तथा मेघों और पर्वतों के समान विशालकाय वानर जो मेरु और विन्ध्याचल में निवास करते हैं, यहाँ शीघ्र ही उपस्थित होंगे.
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यहाँ अर्बुद, शंकु,अन्त्य और मध्य आदि संख्या वाचक शब्दों का आधुनिक गणित के अनुसार मान समझने के लिए प्राचीन संज्ञाओं का पूर्व रूप से उल्लेख किया है और कोष्ठ में उसका मान दिया जा रहा है. एक (इकाई), दश-(दहाई), शत-(सैकड़ा) सहस्त्र(हजार),अयुत(दस हजार) लक्ष(लाख) प्रयुत(दस लाख), कोटि)करोड़), अर्बुद (दस करोड़),अब्ज (अरब), खर्व(दस अरब), निखर्व(खर्व), महापद्म( दस खर्व), शंकु(नील) जलधि ( दस नील), अन्त्य(पद्म), मध्य (दस पद्म), परार्ध( शंख), ये संख्याबोधक संज्ञाएँ उत्त्तरोत्तर दस गुनी मानी गई है.
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वाल्मीकि रामायण, विश्राम सागर में वृहद रामायण के प्रमाण के आधार पर वानरी सेना की संख्या के संबंध में उल्लेखित किया है कि-
1. परियात पर्वत के गव गवाक्ष की संख्या 80 शंख सार सौ वानर की सेना
2. रेवत पर्वत और कदली वन के दुर्द्धुर और गज नामक वानर की सात पद्म,80 करोड़, वानरी सेना.
3. बलवीर वानर की संख्या 23 लाख 60 हजार एक सौ वानरी सेना
4. धुंदमाल वर्वतके सिखण्डी नामक वानर की 56 करोड़ वानरी सेना.
5. अर्जुन गिरि के कुमुद वानर की 4 पद्म 87 लाख की वानरी सेना
6. तावगिरि के नील नामक वानर की 16 लाख वानरी सेना.
7. बद्री पर्वत के गन्ध मदन वानर की 11 अरब वानरी सेना.
8. अर्जुन गिरि के तारा बखत की 87 करोड़ 90 लाख वानरी सेना
9. सुमेर गिरि के केशरी नामक वानर की 10 करोड़ 9 लाख 26 हजार वानरी सेना
10. कैलाश पर्वत के पुलिंद और जय-विजय तथा अण्ड नामक वानरों की संख्या की 17 शंख 20 करोड़ की वानरी सेना.
11. विन्ध्याचल पर्वत की बाण और वसंत नामक वानरों की संख्या 11 करोड़ 1 लाख की वानरी सेना.
12. विजय गिरि के रतिमुख वानर नाम की 8 पद्म 981 वानरी सेना.
13. कास गिरि के मुदमयंद नामक 1 पद्म, 1 करोड़ वानरी सेना.
14. जामवन्त गिरि पर जाम्बवन्त और उसके भाई धूमकेतु की 8 शंख, 5 सौ करोड़ तत्काल विद्यमान वानरी सेना तथा शेष 56 करोड़ अन्य पर्वतों पर बिखरित वानरी सेना लेकर जाम्बवन्त चले थे.
15 दौला गिरि से द्विविध वानर की 1 करोड़, 25 लाख 30 सेना नायकों के साथ आए थे.
16 उदयाचल पर पनस से मिले और सुषेण नामक वानर की 7 पद्म, 80 करोड़ की वानर सेना
....................................................................................................................................................................... नोट- उपर्युक्त प्रमाण विश्राम सागर के रामायण खण्ड के आधार पर प्रस्तुत किया गया है.
अब वाल्मीकि रामायण में उल्लेखित वानरी सेना का प्रमाण –
प्रभु श्रीराम और सुग्रीव में वार्ता हो रही थी, उसी समय बड़े जोरों की धूल उठी, जिसने आकाश में फ़ैलकर सूर्य की प्रचण्ड प्रभा को ढक दिया. उस धूलजनित अन्धकार में दिशाएं दूषित एवं व्याप्त हो गयीं, वन, पर्वत और काननों के साथ समूची धरती डगमगाने लगी. पलक झपकते ही अरबों, खरबों वानरों से घिरे हुए यूथपतियों ने वहाँ आकर सारी भूमि के ढक लिया. फ़िर उस धूलजनित अन्धकार से सम्पूर्ण दिशाएँ दूषित एवं व्याप्त हो गयीं तथा पर्वत वन,और काननों के साथ समूची पृथ्वी डगमगाने लगी.
तदनन्तर पर्वतराज के समान शरीर और तीखी दाढ़ वाले असंख्य महाबली वानरों से वहाँ की सारी भूमि को ढक लिया. पलक मारते-मारते अरबों वानरों से घिरे हुए अनेकानेक यूथपति नदी, पर्वत, वन और समुद्र सभी स्थानों के निवासी महाबली वानर जुटे जो मेघों की गर्जना के समान उच्च स्वर से सिंहनाद करते थे. इनमें से कोई बालसूर्य के समान लाल रंग के थे तो कोई चन्द्रमा के समान गौर वर्ण के.कितने ही वानर कमल के केसरों के समान पीले रंग के थे, कितने ही हिमाचलवासी वानर सफ़ेद दिखायी देते थे.
उस समय परम कान्तिमान शतबलि नायक वीर वानर दस अरब वानरों के साथ दृष्टिगोचर हुआ. तत्पश्चात सुवर्णशैल के समान सुन्दर एवं विशाल शरीर वाले तारा के महाबली पिता कई सहस्त्र कोटि वानरों के साथ वहाँ उपस्थित देखे गए. इसी प्रकार रूमा के पिता और सुग्रीव के श्वसुर जो बड़े वैभवशाली थे, वहाँ उपास्थिथुए. उनके साथ भी दस अरब वानर थे.
तदनन्तर श्री हनुमानजी के पिता कपिश्रेष्ठ श्रीमान केसरी दिखाई दिये., जिनके शरीर का रंग कमल-केसरी की भांति पीला और मुख प्रातःकाल के सूर्य के समान लाल था. वे बड़े बुद्धिमाअन और समस्त वानरों में श्रेष्ठ थे. वे कई सहस्त्र वानरों से घिरे हुए थे. फ़िर लंगूर जाति वाले वानरों के महाराज भयंकर पराक्रमी गवाक्ष का दर्शन हुआ. उनके साथ दस अरब वानरों की सेना थी. शत्रुओं का संहार करने वाले ध्रूम भयंकर वेगशाली बीस अरब रीछों की सेना लेकर आए थे.
महापराक्रमी यूथपति पनस तीन करोड़ वानरों के साथ उपस्थित हुए.वे सब-के-सब बड़े भयंकर तथा महान पर्वताकार दिखायी देते थे. यूथपति नील का शरीर भी बड़ा विशाल था. वे नीले कज्ज्ल गिरि के समान नीलवर्ण के थे और दस करोड़ कपियों से घिरे हुए थे. तदनन्तर यूथपति गवय, जो सुवर्णमय पवत मेरू के समान कान्तिमान और महापराक्रमी थे, पाँच करोड़ वानरों के साथ उपस्थित हुए थे.
भवन्तौ वानरं सोन्यं प्रविश्यानुपलक्षितौ: परिणामं च वीर्य च ये च मुख्याः प्लवंगमाः मन्त्रिणो ये च रामस्य सुग्रीवस्य च सम्मताः : ये पूर्वमभिवर्तन्ते ये च शूराः प्लवंगमाः स च सेतुर्यथा बद्धः सागरे सलिलार्णवे : निवेशं च यथा तेषां वानराणां महात्मनाम् रामस्य व्यवसायं च वीर्यं प्रहरणानि च : लक्ष्मणस्य च वीरस्य तत्त्वतो ज्ञानुमर्हथः कश्च सेनापतिस्तेषां वानराणां महात्मनाम् : तच्च ज्ञात्वा यथातत्तत्वं शीघ्रमागन्तुमर्हथः
(वाल.रामा.श्लोक 4 से 8) पंचविशं सर्गः) (पृष्ठ 303)
लंकापति रावण ने अपने विशेष दूत शुक और सारण को बुला भेजा और आज्ञा दी कि तुम दोनों इस तरह वानर-सेना में प्रवेश करो कि तुम्हें कोई पहचान न सके. वहाँ जाकर पता लगाओं कि वानरों की संख्यां कितनी है? उनकी शक्ति कैसी है. उसमें मुख्य-मुख्य वानर कौन-कौन से हैं? श्रीराम और सुग्रीव के मन्त्री कौन-कौन हैं. कौन शूरवीर वानर-सेना के आगे रहते हैं. अगाध समुद्र में पुल किस तरह बांधा गया? वानरों की छावनी कैसे पड़ी है.श्रीराम और लक्ष्मण का निश्चय क्या है?. वे क्या करना चाहते हैं और उनका बल-पराक्रम कैसा है?. और उनके पास कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र हैं? वानारों का सेनापति कौन है? इन सब का तुम लोग ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त करो और सबका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर लौट आओ.
ऐसा आदेश पाकर दोनों राक्षस शुक और सारण वानररूप धारण करके उस वानरी सेना में घुस गये.
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दोहा :
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥
भावार्थ.:-उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है॥53॥
चौपाई :
* नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥ मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥
भावार्थ:-(दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥
दोहा :
* रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥ श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥
भावार्थ:-हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए, यहाँ तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥2॥
* पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥ नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥3॥
‘ * जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥ अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥
भावार्थ:-जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥4॥
दोहा :
* द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥
भावार्थ:-द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान् ये सभी बल की राशि हैं॥54॥
चौपाई :
* ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥ राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥
भावार्थ:-ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥
* अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥ नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥
भावार्थ:-हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना मंक ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥
* परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥ सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥
भावार्थ:-सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥
* मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥ गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥
भावार्थ:-और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥
दोहा :
* सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥55॥
भावार्थ:-सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं। हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥
नोट:-
संत तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीरामजी की सेना के सेनापतियों के नाम बतलाए लेकिन एक-एक सेनापति के अधीन कितने सैनिक हैं, इसकी संख्या का उल्लेख नहीं किया है. वहीं वाल्मीकि जी ने सेनापतियों के नाम और कितने सैनिक हैं का विस्तार से वर्णन किया है.
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