जिस प्रकार सोना भट्टी में तपकर निखार पाता है, ठीक उसी तरह दुखों की भट्टी में तपकर एक साहित्यकार कालजयी रचनाएं लिख पाता है. कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द के जीवन-वृत्त को पढकर यह बात सिद्ध होती है.
बचपन में जिसके सिर पर से माँ का साया उठ चुका हो, मात्र चौदह साल की उम्र में जिसके पिता ने भी साथ छॊड दिया हो, जिसके नाजुक कंधों पर सौतेर्ली मां एवं उसके दो बच्चों का भार डाल दिया गया हो, जिसकी शादी एक बदसूरत और जुबान की कडवी स्त्री से करा दी गई हो, एक ऎसा व्यक्ति जिसका पूरा जीवन दुखों और संघर्षों से भरा रहा हो, उसने साहित्य की झोली अमूल्य रत्नों से भर दी. उपन्यास-सम्राट की उपाधि से विभूषित प्रेमचन्द का जीवन खुद एक जीता-जागता उपन्यास था, जिसमें जिन्दगी के अंतर्द्वन्दों के बीच एक कृशकाय व्यक्ति कभी मजबूती से खडा नजर आता तो अगले ही पल टूटता सा दिखाई देता है.
शिक्षा पाने के लिए उन्हें काफ़ी संघर्षों का सामना करना पडा. एक मौलवी की देख-रेख में उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई,जहाँ उन्होंने उर्दू सीखी. बनारस में नौवीं कक्षा के विद्दार्थी रहते हुए उनके पिता की मृत्य हो गई, जिससे उनका आर्थिक संबल टूट गया. लेकिन आगे पढने की ललक के चलते वे कुप्पी के सामने बैठकर पढते और इस तरह वे बी.ए. तक की शिक्षा ग्रहण कर पाए. मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करके जीविकोपार्जन की खातिर उन्होंने स्कूल मास्टर की नौकरी ज्वाइन की और बी.ए. पास करने के बाद डिप्टी इंस्पेक्टर आफ़ स्कूल्स हुए. 1901 में उन्होंने पहला उपन्यास लिखना शुरु किया. बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र सेन ने उन्हें “उपन्यास साम्राट” कहकर संबोधित किया. सन 1907 में अपनी पहली कहानी “दुनिया का सबसे अनमोल रतन” लिखी. इनका पहला कहानी सन 1918 में हिन्दी में पहला उपन्यास“सेवासदन” लिखा. उर्दू में वे नवाब राय के नाम से लिखते थे पर 1910 में अपनी कहानी “सोज-ए-वतन” की जब्ती के बाद उन्होंने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी की प्रेरणा से “प्रेमचंद”नाम से लिखना आरंभ किया. “सोज-ए-वतन” की जब्ती के बाद उन्होंने लिखा;-“मैं विद्रोही हूँ, जग में विद्रह कराने आया हूँ / क्रांति-क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूँ”.
सन 1921 के आसपास का वह समय था जब महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था. महात्मा गांधी के आव्हान पर तमाम लोग सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र देकर उनके साथ हो लिए थे. 12फ़रवरी 1921 को गोरखपुर में चौरी-चौरा काण्ड घटित हुआ जिसमें आंदोलनकारियों ने उत्तेजित होकर 21 पुलिस वालों सहित समूचे थाने को जला दिया. इस कदाचरण की निंदा करते हुए गांधीजी ने अपना आंदोलन वापिस ले लेने की घोषणा कर दी. चौरी-चौरा काण्ड के ठीक चार दिन बाद अर्थात 16 फ़रवरी 1921 में आपने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और अपना सारा ध्यान साहित्य रचना पर केन्द्रीत कर दिया.
आपने लगभग तीन सौ कहानियां लिखी. जिसमें प्रमुख ये कहानियां हैं
आभूषण, अग्नि समाधि, अमृत, आत्माराम, चोरी, दरोगा साहब, देवी, ढाई सेर गेहूँ, डिग्री के रुपये, दो ब्राह्मण, दो बैलों की कथा, दूध का दाम, फ़ौजदार, गिल्ली डंडा, गृहनीति, गुरुमंत्र, हार की जीत, जेल, जुलूस, जुर्माना, खुदाई, महातीर्थ, मनुष्य का परम धर्म, मर्यादा की वेदी, मुक्ति मार्ग, नैराश्य, निमंत्रण, पशु से मनुष्य, प्रायश्चित, प्रेम पुर्णिमा, रामलीला, समर यात्रा, सती, सत्यागृह, सवा सेर गेहूँ, सेवा मार्ग, सुहाग की साडी, सुजान भगत, स्वात्यरक्षा, ठाकुर का कुंआ, त्रिया चरित्र, उधार की घडी, वज्रपात, विमाता, हाजी अकबर, सौतेली मां, इबारत, रोशनी, भाडॆ का टट्टू, निजात, मजदूर, अदीब की इज्जत, नमक का दरोगा, दुनिया का सबसे अनमोल, बडॆ भाई साहब, बेटी का दान, सौत, सज्जनता का दण्ड, पंच परमेश्वर, ईश्वरीय न्याय, दुर्गा का मन्दिर, उपदेश, बलिदान, पुत्र प्रेम, इन कहानियों के लगभग 24 संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिसमें प्रमुख हैं-बडॆ भाई साहब, मंत्र, दो बैलों की जोडी, पूस की रात, आदि प्रमुख हैं-मानसरोवर (आठ भाग), ग्राम जीवन की कहानियाँ, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम चतुर्थी, प्रेम गंगा, सप्त सुमन, सप्त सरोज, अग्नि-समाधि, नवनिधि, मनमोदक, कुत्ते की कहानी, समर यात्रा, अग्नि-समाधी.आदि
हिन्दी में प्रेमचंद ने अपना पहला उपन्यास “सेवा सदन” लिखा वहीं उनका अन्तिम उपन्यास “मंगलसूत्र” था, जिसे वे पूरा नहीं कर पाए. अन्य उपन्यासों में गोदान, गबन, निर्मला, सेवा सदन ,रंगभूमि, प्रेमाश्रय, वरदान, प्रतिज्ञा, कर्मभूमि, अहंकार इत्यादि प्रमुख हैं. उपन्यास के अलावा आपने कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी, रुठी रानी आदि नाटक भी लिखे. उन्होंने अपने लेखन के साथ-साथ टाल्स्टाय की कहानियाँ, गाल्सवर्दी के तीन नाटकों तथा रतननाथ सरशाह के उर्दू उपन्यास “फ़सान-ए-आजाद का हिन्दी में अनुवाद किया था.
प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास की एक ऎसी परंपरा का विकास किया, जिसने एक पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया और साहित्य में एक यथार्थवादी परंपरा की नींव डाली. आपका लेखन,हिन्दी साहित्य की एक ऎसी विरासत है,जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा ही रहेगा. वे एक संवेदेनशील लेखक, एक संवेदनशील नागरिक और कुशल वक्ता तथा प्रतिबद्ध संपादक थे.
प्रेमचंद का साहित्य और उनका सामाजिक विमर्श आज भी प्रासंगिक है. वे आज भी अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे समाज के बीच उपस्थित हैं. वे अपनी रचनाओं के माध्यम से गहरी नींद में सोये हुए वर्गों को जगाने का उपक्रम करते दिखाई देते हैं. आज हम जिन-जिन भी समस्याओं से पीढित नजर आ रहे हैं, आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से काफ़ी पहले ही रेखांकित कर दिया था. फ़िर चाहे वह जातिवाद का मसला हो, अथवा आत्महत्या करता किसान हो, चाहे वह नारी की पीडा हो, या फ़िर समाज में व्याप्त कुरीतियों की बात हो. उन्होंने अपनी कहानियों /उपन्यासों के माध्यम से सचेत कर दिया था. इन तमाम तरह की बुराइयों के मौजूद होने के पीछे मुख्य कारण तो यह रहा कि राजनैतिक सत्तालोलुपता के समांतर सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आंदोलनों की दिशाएं नेतृत्वकर्ताओं को केन्द्र बनाकर लडी गईं जो कालान्तर में मूल भावनाओं के विपरीत आंदोलन गुटॊं में तब्दील हो गए.
निःसन्देह आज फ़िर हमारे समाज को प्रेमचंद जैसा रचनाकार चाहिए जो जनता की संवेदनाओं को कलम और कर्म से पुनर्जाग्रत कर सके और उसकी सामाजिक स्थिति को नयी चेतना से भर दे.