हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक अपना अस्तित्व रखती है. सच माने में हिन्दी हमारी संस्कृति की पर्याय है. वह बद्रीविशाल की अलकनंदा है, रामेश्वर के अभिषेक की गंगा है. जगदीश के शिखर पर स्थापित भ्रामरीचक्र है, तो द्वारकाधीश के भव्य प्रासाद की फ़हराती ध्वजा है. हिन्दी की जन्मजाती उपलब्धि कि वह संस्कृत की दुहिता है. जनपदीय बोलियाँ इसकी सहोदरा है. यह अतुल शब्द संपदा वाली है. इसकी लिपि देवनागरी है, जो पूर्णतः वैञानिक है. इन सभी गुणवत्ता के कारण ही हिन्दी अपनी लिपि, भाव,और भाषा की कसौटी पर खरी उतरी है. विश्व मंच पर आज हिन्दी प्रौद्द्योगिकी की हमसफ़र बनकर भारतीय संस्कृति का परचम लहरा रही है.
किसी भी देश को सुसंपन्न बनाने में स्वदेशी भाषा और स्वदेशी भाव का होना बहुत जरुरी है. जब तक इन दो भावों का तालमेल नहीं होगा, देश कतई आगे नहीं बढ़ सकता. आज इस बात आवश्यक्ता महसूस की जाने लगी है. अपने बाजार को दूसरे देशों के हवाले करने से उस देश का आर्थिक आधार मजबूत होता जाएगा, लेकिन अपना खुद का देश बहुत पीछे चला जाएगा. हम जानते हैं कि पुरातनकाल में भारत पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर था. गाँव खुशहाल थे. सामाजिक व्यवस्था एक दूसरे पर अवलंबित थी. इसी अवलंबन के भाव के कारण ही हर परिवार की व्यवस्थाएँ एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं. इस कारण शहर ही नहीं गाँव भी आत्मनिर्भर थे. आज देश को इसी भाव यानी स्वदेशी भाव की बेहद आवश्यकता है.
भारत की अर्थव्यवस्था का एक आधार यह भी था कि भारत के गाँवों में कृषि एक ऐसा उद्योग था, जिस पर गाँव ही नहीं शहरों की भी व्यवस्थाएं होती थी. इसके अलावा लगभग हर घर में कुटीर उद्योग जैसी व्यवस्था संचालित होती थी. आज के समय में यह सारी व्यवस्थाएं चौपट हो गई हैं, जिन्हें फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है. यही स्वदेशी का भाव है और यही भारत की आत्मनिर्भरता का एक मात्र रास्ता है. वर्तमान में एक धारणा प्रचलित है अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है. इसके पीछे मात्र कारण यही है कि हम दूसरों पर आश्रित होते जा रहे हैं. दूसरों के सहयोग के बिना हम खाना भी नहीं खा सकते हैं, यह सब धन केंद्रित जीवन का ही परिणाम है. धन भी जरूरी है, लेकिन पैसा भूख नहीं मिटा सकता यानी पैसा भूख का पर्याय नहीं हो सकता. यह बात स्वीकार करने योग्य है कि सारे देश को अंग्रेजी के माध्यम से साक्षर नहीं बनाया जा सकता. वह हिन्दी या अन्य भारतीय प्रांतीय भाषाओं के द्वारा ही संभव है. सारे संसार में भारत को छोड़कर कोई एक भी देश ऐसा नहीं है जिसकी राजभाषा विदेशी भाषा है. भारत के अधिसंख्य लोग हिन्दी जानते-समझते हैं. अतः भविष्य में हिंदी तथा अन्य प्रांतीय भाषाओं का वर्चस्व भारत में होना चाहिए. हिन्दी विरोधी लोगों का आज भी तर्क है कि हिन्दी एक अविकसित भाषा है. इसमें वैज्ञानिक साहित्य का अभाव है. हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली का अभाव है. इसमें शब्दो की एकरूपता नहीं है. एक ही शब्द अनेक प्रकार से लिखा जाता है, किसे ग्राह्य समझें और किसे अग्राह्य, समझ में नहीं आता. इससे हिन्दी लिखने में असुविधा और उलझन होती है.
वैज्ञानिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी.
हिन्दी में ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए तथा विश्वविध्यालय स्तर पर शिक्षण माध्यम के रुप में हिन्दी विकास के लिए भारत सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन सन 1961 ई.में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली, अखिल भारतीय शब्दावली, परिभाषा कोशों, चयनिकाओं, पाठसंग्रहों तथा विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी पुस्तकों के निर्माण का कार्या सौंपा गया था. आयोग अब तक अनेक परिभाषिक शब्द-संग्रह और विभिन्न विषयों पर शब्दावलियां तथा परिभाषा कोश प्रकाशित कर चुका है. इतना ही नहीं आयोग तथा प्रदेशों की हिन्दी अकादमियों द्वारा विभिन्न विषयों जैसे- धर्मशास्त्र, वाणिज्य, आयुर्विज्ञान, इंजीनियरी, कम्प्युटर विज्ञान, गणित, दर्शन विज्ञान, सैन्य विज्ञान आदि विषयों पर विश्वाविद्याल स्तर की सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित कर चुका है.
भूमण्डलीकरण और हिन्दी
सदियों से दुनिया के अनेक देश आपस में व्यापार करते आए है. यह भी एक प्रकार का भूमण्डलीकरण ही था. परन्तु आधुनिक भूमण्डलीकरण उससे बहुत भिन्न है. अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार के साथा-साथ उत्पादन का बहूमण्डलीकरण भी हो रहा है. इतना ही नहीं, आर्थिक स्वामित्व का भी भूमण्डलीकरण होने लगा है.
आज हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार का असर यह हो रहा है कि भारत में बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पाद का विज्ञापन हिन्दी माध्यम से हो रहा है. सौदा तय करने की अपनी भाषा है. यही सब कारण है कि हिन्दी की अन्तर्राष्ट्रीय पैठ बढ़ी है.
भूमण्डलीकरण का प्रभाव इन प्रस्तुत नीतियों के परिवर्तन से ही परिलक्षित होगा
१. विदेश व्यापार नीति, २-औद्योगिक नीति, ३-सार्वजनिक क्षेत्र नीति, ४-उत्पादनकारक नीति-( भूमि से संबंधित, भ्रमण से संबंधित, पूंजी, शेयर,बाजार से संबंधित), ५-प्रशाशित मूल्य नीति, ६-तटकर नीति, ७- सेवा एवं पेटेंट नीति ( अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, अन्तर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी प्रवाह, अन्तर्राष्ट्रीय उत्पादन, और अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक स्वामित्व)
भाषा के प्रचार-प्रसार की अनेकानेक संभावनाएं
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भाषा के प्रसार एवं विकास की बड़ी सम्भावनाएं है. भारतीयता को आगे बढ़ाने का स्वर्णिम अवसर है क्यंकि भाषा केवल विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति भर का माध्यम नहीं है, यह देश की अस्मिता की पहचान है. हिन्दी भारतीय संस्कृति की पहचान है.
भारतीय अर्थव्यवस्था का भूमण्डलीकरण न केवल भारत की राजभाषा हिन्दी बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं के विकास एवं विस्तार का मार्ग प्रशस्त करता है.
भूमण्डलीकरण से पर्यटकों, व्यापारियों, उत्पादकों एवं सामान्य व्यक्तियों के आवागमन में वृद्धि हुई है. भाषा व्यवहार की भी पहचान है. अपनेपन और आत्मीयता का बोध कराती है. इसलिए इस अवसर का लाभ हमें भरपूर उठाने की आवश्यकता है.
भूमण्डलीकरण के साथ एक ओर जहाँ अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्धा करानी पड़ रही है, वहीं दूसरी ओर भाषा को भी प्रतिस्पर्धा करनी ही पड़ेगी. विदेशी बैंक, विदेशी पूंजीगत एवं वाणिज्यिक कंपनियाँ उत्पादन फ़र्म निरन्तर देश में प्रवेश कर रही है. आर्थिक विकास के साथ-साथ हिन्दी को भी प्रौढ़ावस्था में आना होगा, जिससे वह अन्य भाषाओं से स्वतंत्र प्रतियोगिता में ठहर सके.
एक ओर उच्च शिक्षा का भी भूमण्डलीकरण हो रहा है तथा व्यावसायिकरण हो रहा है. अन्य क्षेत्रों के साथ इसका भी निजीकरण हो रहा है. स्ववित्त पोषित कार्यक्रम के अन्तर्गत अनेक व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं, यहाँ भी हिन्दी को प्रतिस्पर्धा करनी होगी.
सूचना प्राद्दोगिकी और कम्प्युटर का विकास.
आज कम्प्युटर और सूचना प्राद्धोगिकी का युग है. सभी क्षेत्रों में कामकाज में यांत्रिक और इलेक्ट्रानिक उपकरणॊ का प्रयोग बढ़ता जा रहा है. इसे देखते हुए राजभाषा विभाग ने इन उपकरणॊं द्वारा हिन्दी में काम करने की सुविधाएँ जुटाने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किये है, जिसके दूरगामी परिणाम प्राप्त होने लगे हैं. अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करने में अब कंप्युटर सक्षम है. इसकी सहायता से प्रशासकीय क्षेत्र में प्रयोग में आने अंग्रेजी पत्रों का अनुवाद करने के लिए सी_डेक पुणे के माध्यम से इसका साफ़्टवेयर तैयार किया गया है.
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए और भी अनेक विभिन्न साफ़्टवेयर तैयार किए जा चुके हैं. यान्त्रिक उपकारणों में " लीप आफ़िस" का विशेष उल्लेखनीय है. इस साफ़्टवेयर से देवनागरी के अलावा असमी, बंगला, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, तमिल, और तेलुगू इन दस लिपियों में काम किया जा सकता है. इस साफ़्टवेयर में संपादन और मुद्रण आदि की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं. लिखित सामग्री को दूसरी लिपि में भी परिवर्तित किया जा सकता है.
सी-डेक के अलावा और कई प्रतिष्ठानों में भी यांत्रिक और इलेक्ट्रनिक सुविधाएँ उपलब्ध करने में उल्लेखनीय कार्य हुए हैं. इसे और सरल बनाते हुए "गुरु" को इजाद किया गया, यह मल्टीमिडिया सी.डी.रोम एक ऐसा ही उपकरण है. "गुरु" वास्तविक और व्यवहारिक स्थितियों के आधार पर प्रशिक्षणार्थियों का मार्ग निर्देशन करता है. इससे प्रशिक्षाणार्थी की प्रगति का मूल्यांकन भी किया जा सकता है.
इस बदलते राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक और राष्ट्रीय तथा अंन्तर्राष्ट्रीय परिवेश को ध्यान में रखते हुए राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार, प्रयोग और उसकी सम्यक प्रतिष्ठा के लिए सतत प्रयास किए है, अतः राजभाषा हिन्दी के उज्ज्वल भविष्य को लेकर ज्यादा चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है. इतना सब कुछ हो चुकने के बाद भी आज हिन्दी के धुर-विरोधी इसके विपरीत कार्य करते देखे जा सकते है. वे चाहें तो इन साफ़्टवेयर की सहायता हिन्दी में लिखना और टाईप करना आसानी से सीख सकते है. आजकल एंड्राईड मोबाईल का चलन तेजी से बढ़ा है. उसमें भी हिन्दी में लिखे जाने की व्यवस्था की गई है, लेकिन कुछ सिरफ़िरे रोमन में लिखना अपनी शान समझ रहे हैं, जबकि वे आराम से हिन्दी को प्रयोग में ला सकते हैं.लेकिन वे जानबूझ कर सीखना नहीं चाहते या हिन्दी के प्रति अपने मन में विद्वेश पाले बैठे रहते हैं. यह ठीक नहीं है.
भारत में आज जितनी भी मल्टिनेशनल कंपनियां अपनी शाखाएं खोल रही है या खोल चुकी हैं, सभी अपने प्रोडक्टस के बारे में हिन्दी का प्रयोग करते हुए उनकी गुणवत्ता का बखान करते हुए अच्छा माल ( पैसा ) बना रही है. हिन्दी न केवल भारत में, बल्कि विश्व के प्रायः सभी देशों में शान के साथ बोली जा रही है. लगभग हर देश में हिन्दी के विश्व-विद्यालय संचालित हो रहे हैं.
अब जमाना बदल चुका है. मोदी जी की सरकार ने एक अरसे से चला आ रही शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन किया हैं. बच्चे अब कक्षा चार तक अपनी मातृभाषा या फ़िर देवनागरी हिन्दी में अध्ययन करेंगे. जैसा कि मैंने पहले इस बात का उल्लेख किया है कि हिन्दी संस्कृत भाषा की दुहिता है, माने वह संस्कृत की बेटी है. बच्चे जब हिन्दी से जुड़ेंगे तो निश्चित ही वे संस्कृत साहित्य को भी पढेंगे. हमारा संस्कृत साहित्य अन्य देशों के साहित्य से ज्यादा धनी है. इसमें जीवन से जुड़ी हर प्रकार की समस्याओं का निदान समाया हुआ है. इतना ही नहीं, हमारे जीवन मूल्य क्या होने चाहिये, समाज कैसा हो, समाज में हमें कैसे रहना चाहिए, हमारे नैतिक दायित्व क्या हैं और हम अपने राष्ट्र को कैसे उन्नति के शिखर पर पहुँचा सकते हैं आदि के बारे में विस्तार से दिया गया है.आज बच्चे हों या बुजुर्ग सभी अपने भारतीय मूल्यों की तिलांजलि देकर पाश्चात्य परिवेश में ढल रहे है वा थोती पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे हैं, में एक व्यापक परिवर्तन देखने को मिलेगा.
हिन्दी आज विश्व भाषा बन चुकी है. मारीशस हो या आस्ट्रेलिया या फ़िर फ़िजी, त्रिनीडाड, गुयाना, स्वीडन, डेनमार्क, सूरीनाम, अमेरिका, कनाड़ा, नीदरलैंड, जर्मनी, नार्वे, म्यांमार, थाईलैंड , सिंगापुर, मलेशिया, न्यूजीलैंड, जाम्बिया, अफ़्रीकी महाद्वीप, केन्या, युगांडा, कम्पाला, तंजानिया, नाइजीरिया, चाइना, जापान, फ़ांस,, रोमानिया, योगोस्लाविया, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, तुर्की, इरान, सउदी अरब, मिस्त्र, लीबिया आदि देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विधिवत पढ़ाई जा रही है. आधुनिक युरोपीय भाषाओं में जर्मन सबसे अधिक विज्ञान संगत भाषा जरुर है लेकिन जर्मनी भाषा के व्याकरण पर हिंदी का गहरा प्रभाव है. हिंदी साहित्य के अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो रहे है और पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त ग्रंथ प्रकाशित किए जा रहे हैं. हिंदी की ध्वजा विश्व में फ़हराई जा रही है, क्या यह हमारे लिए हर्ष का विषय नहीं है कि स्वाधीनता के बाद विश्व भर में हिंदी को जो मान्यता प्राप्त हुई है वह विश्व की अनेक भाषाओं के लिए दुर्लभ है?
कोरोना महामारी का जनक चीन आज दुनियां की नजरों में गिर गया है. उसकी विस्तारवादी नीति के चलते वह अपने पड़ौसी देशों से दुश्मनी भी मोल ले चुका है. यही सब कारण है कि कई विदेशी कंपनियाँ वहाँ से अपना कारोबार समेट रही हैं. चुंकि भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार है. अतः कई नामी-गिरामी उद्धोगपति अपना व्यापार भारत की धरती पर स्थापित करने को ललायित हैं. भारत के लिए यह स्वर्णिम अवसर है कि वह इस अवसर का फ़ायदा उठाए. अनेक उद्धोगो के स्थापना से न सिर्फ़ रोजगार बढ़ेगा बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था की मजबूत होगी और मेक-इन-इंडिया, स्किल इंडिया जैसे प्रोग्रामों को बल मिलेगा.
विश्व में हिंदी भाषा की प्रधानता बढ़ी है क्योंकि इसका व्याकरण विज्ञान संगत है. इसकी लिपि अब कंप्युटर की लिपि है. जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि संस्कृत की पुत्री होने के कारण ही हिन्दी को वह स्थान और आधार मिला है. आत्मनिर्भर बनता भारत आज की दुनिया के अन्य देशों के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा है, बल्कि यूं कहा जाए कि वह कई क्षेत्रों में दुनिया के अन्य देशों से काफ़ी आगे निकल चुका है, यह हमारे सबके लिए गौरव का विषय है. वह दिन भी शीघ्र ही आने वाला है जब हमारा भारत, दुनिया का सिरमौर बनेगा, फ़िर से विश्व गुरु बनेगा, इसकी इबारत कभी की लिखी जा चुकी है.
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संदर्भ पुस्तकें/पत्रिकाएं.
1.स्वतंत्र भारत में राष्ट्रभाषा का सवाल (लेखक) श्री ब्रह्मदेव प्रसाद कार्यी
2. साहित्या वैभव (जुलाई-सितंबर 2007)- डा.सुधीर शर्मा
3. नववीर पत्रिका ( दिसंबार-2013)
4.साहित्य यात्रा (जन.मार्च 24) सं-कलानाथ मिश्र
5.साक्षात्कार-साहित्य अकादमी भोपाल की पत्रिका
6.हरसिंगार-(हिंदी लाओ-देश बचाओ_ उदयपुर (राज.) से प्रकाशित
7. अक्षरा- (मासिक पत्रिका.) (भारतीय भाषा विशेषांक) –हिन्दी भवन भोपाल की मासिक पत्रिका
8.विश्व हिंदी पत्रिका-मारीशस-( 2014, 2015, 2016-2021) तथा अन्य पत्र-पत्रिकाएं