भारत में करीब तीन हजार की संख्याँ में विभिन्न जातियों और उप-जातियाँ निवास करती है. सभी का रहन-सहन, रीति-रिवास एवं परम्पराएं अपनी विशिष्ट विशेषताओं को दर्शाती है. कई जातियाँ (**)मसलन गोंड- भील- बैगा- भारिया आदि जंगलॊं मे आनादिकाल से निवास करती आ रही है. सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति जंगलो से होती है. इन जातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनितिक एवं कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी अलग पहचान रही है. इन लोंगो में वन-संरक्षण करने की प्रबल वृत्ति है. अतः वन एवं वन्य-जीवों से उतना ही प्राप्त करते हैं,जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके और आने वाली पीढ़ी को भी वन-स्थल धरोहर के रुप में सौंप सकें. इन लोगों में वन संवर्धन, वन्य जीवों एवं पालतू पशुओं का संरक्षण करने की प्रवृत्ति परम्परागत है. इस कौशल दक्षता एवं प्रखरता के फ़लस्वरुप आदिवासियों ने पहाड़ों, घाटियों एवं प्राकृतिक वातावरण को संतुलित बनाए रखा. स्वतंत्रता से पूर्व समाज के विशिष्ट वर्ग एवं राजा-महाराजा भी इन आदिवासी क्षेत्र से छॆड़-छाड़ नहीं किया करते थे. लेकिन अग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों की परम्परागत व्यवस्था को तहस-नहस कर डाला, क्योंकि यूरोपीय देशों में स्थापित उद्योगों के लिए वन एवं वन्य-जीवों पर कहर ढा दिया. जब तक आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक वातावरण में सेंध नहीं लगी थी, तब तक हमारी आरण्यक-संस्कृति बरकरार बनी रही. आधुनिक भौतिकवादी समाज ने भी कम कहर नहीं ढाया. इनकी उपस्थिति से उनके परम्परागत मूल्यों एवं सांस्कृतिक मूल्यों का जमकर ह्रास हुआ है. साफ़-सुथरी हवा में विचरने वाले, जंगल में मंगल मनाने वाले इन भॊले-भाले आदिवासियों का जीवन में जहर सा घुल गया है. आज इन आदिवासियों को पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी, बेकारी एवं वन-विनाशक के प्रतीक के रुप में देखा जाने लगा है. उनकी आदिम संस्कृति एवं अस्मिता को चालाक और लालची उद्योगपति खुले आम लूट रहे हैं. जंगल का राजा अथवा राजकुमार कहलाने वाला यह आदिवासी-जन आज दिहाड़ी मजदूर के रुप में काम करता दिखलायी देता है. चंद सिक्कों में इनके श्रम-मूल्य की खरीद-फ़ारोख्त की जाती है और इन्हीं से जंगल के पेड़ों और जंगली पशु-पक्षियों को मारने के लिए अगुवा बनाया जाता है. उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी कि पीढ़ी दर पीढी से वे जिन जंगलों में रह रहे थे, उनके सारे अधिकारों को ग्रहण लग जाएगा. विलायती हुकूमत ने सबसे पहले उनके अधिकारों पर प्रहार किया और नियम प्रतिपादित किया कि वनॊं की सारी जिम्मेदारी और कब्जा सरकार की रहेगी और यह परम्परा आज भी बाकायदा चली आ रही है.
वे अब भी “झूम खेती” करते है. पेड़ों कॊ जलाते नहीं है,जिसके फ़लों की उपयोगिता है. महुआ का पॆड़ इनके लिए किसी “कल्पवृक्ष” से कम नहीं है. जब इन पर फ़ल पकते हैं तो वे इनका संग्रह करते हैं और पूरे साल इनसे बनी रोटी खाते है. इन्हीं फ़लों को सड़ाकर वे उनकी शराब भी बनाते हैं. शराब की एक घूंट इनमें जंगल में रहने का हौसला बढ़ाती है.
देश की स्वतंत्रता के उपरान्त पंचवर्षीय योजनाओं की स्थापनाएं, बुनियादी उद्योगों की स्थापनाएं एवं हरित क्रांति जैसे घटकों के आधार पर विकास की नींव रखने वाले तथाकथित बुद्दिजीवियों ने हड़बड़ाहट में “इकानामी” एवं “इकालाजी” के सह-संबंधों को भूल जाने अथवा जानबूझकर “इगनोर” करने की प्रवृति के चलते, हमारे सम्मुख पारिस्थितिकी की विकट समस्या पैदा कर दी हैं. समझ से परे है कि विकास के नाम पर आदिवासियों को विस्थापित कर उन्हें घुम्मकड़ की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया है और द्रुतगति से वनों की कटाई करते हुए बड़े-बड़े बांधों का निर्माण करवा दिया है.. यदि आदिवासियों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को भी दृष्टि में रखकर इन सभी योजनाओं का क्रियान्वित किया जाता, तो संभव है कि पर्यावरण की समस्या विकट नहीं होती और न ही प्रकोप होता, जैसा कि अभी हाल ही में आए प्राकृतिक प्रकोप ने “उत्तराखण्ड” को खण्ड-खण्ड कर दिया, बचा जा सकता था. यह भी सच है कि हमें विश्व संस्कृति के स्तर पर देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाते हुए समानान्तर स्तर पर लाना है, लेकिन “अरण्य़ संस्कृति” को विध्वंश करके किये जाने की परिकल्पना कालान्तर में लाभदायी सिद्ध होगी, ऎसा सोचना कदापि उचित नहीं माना जाना चाहिए.
हमें अपने परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक परम्पराओं का विनाश न करते हुए आदिवासियों की वन एवं वन्य-जीव संस्कृति को बगैर छेड़-छाड़ किए संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए. एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापन, न तो आदिवासियों को भाता है और न ही वन्य जीव-जन्तुओं को, लेकिन ऎसा बडॆ पैमाने पर हो रहा है, इस पर अंकुश लगाए जाने की जरुरत है. अगर ऎसा नहीं किया गया तो निश्चित जानिए कि वनों का विनाश तो होगा ही, साथ ही पारिस्थितिकी असंतुलन में भी वृद्धि होगी. अगर एक बार संतुलन बिगड़ा तो सुधारे सुधरने वाला नहीं है.
संविधान में आदिवासियों को यह वचन दिया गया है कि वे अपनी विशिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए राष्ट्र की विकासधारा से जुड़ सकते हैं. अतः कड़ा निर्णय लेते हुए सरकार को आगे आना होगा, जिससे उनकी प्राकृतिक संस्कृति पर कोई प्रतिकूल असर न पडॆ.
हम सब जानते हैं कि उनकी भूमि अत्यधिक उपजाऊ नहीं है और न ही खेती के योग्य है. फ़िर भी वे वनों में रहते हुए वनॊं के रहस्य को जानते हैं और “झूम”पद्दति से उतना तो पैदा कर ही लेते हैं, जितनी कि उन्हें आश्यकता होती है. यदि इससे जरुरतें पूरी नहीं हो सकती तो वे महुआ को भोजन के रुप में ले लेते हैं या फ़िर आम की गुढलियों कॊ पीसकर रोटी बनाकर अपना उदर-पोषण कर लेते हैं, लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ नहीं करते., फ़िर वे हर पौधे-पेड़ों से परिचित भी होते हैं, कि कौनसा पौधा किस बिमारी में काम में आता है, कौनसी जड़ी-बूटी किस बिमारी पर काम करती है, को भी संरक्षित करते चलते हैं.
विंध्याचल-हिमालय व अन्य पर्वत शिखर हमारी संस्कृति के पावन प्रतीक हैं.. इन्हें भी वृक्षविहीन बनाया जा रहा है.,क्योंकि वनवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा सके. इन पहाड़ियों पर पायी जाने वाली जड़ी बूटियां, ईंधन, चारा एवं आवश्यकतानुसार इमारती लकड़ी प्रचूर मात्रा में प्राप्त होती रहे.. आदिवासियों को जंगल धरोहर के रुप में प्राप्त हुए थे, वे ही ठेकेदारों के इशारे पर जंगल काटने को मजबूर हो रहे हैं.. यद्दपि पर्वतीय क्षेत्रों में अनेकों विकास कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं लेकिन उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरुप से उन्हें फ़ायद होने वाला नहीं है.,
आदिवासियों को संरक्षण प्राप्त नहीं होने से केवल वन संस्कृति एवं वन्य-जीव सुरक्षा का ही ह्रास नहीं हो रहा है बल्कि देश की अखण्डता को खंडित करने वाले तत्व अलग-अलग राज्यों की मांग करने को मजबूर हो रहे हैं. इन सबके पीछे आर्थिक असंतुलन एवं पर्यावरण असंतुलन जैसे प्रमुख कारण ही जड़ में मिलेंगे.
हमारे देश की अरण्य संस्कृति अपनी विशेषता लिए हुए थी, जो शनैः-शनैः अपनी हरीतिमा खोती जा रही है. जहाँ-कहीं के आदिवासियों ने अपना स्थान छोड दिया है,वहाँ के वन्य-जीवों पर प्रहार हो रहे हैं ,बल्कि यह कहा जाए कि वे लगभग समाप्ति की ओर हैं, उसके प्रतिफ़ल में सूखा पड़ने या कहें अकाल पड़ने जैसी स्थिति की निर्मिति बन गई है..फ़िर सरकार को करोड़ों रुपया राहत के नाम पर खर्च करने होते हैं. लाखों की संख्या में बेशकीमती पौधे रोपने के लिए दिए जाते हैं, लेकिन उसके आधे भी लग नहीं पाते. यदि लग भी गए तो पर्याप्त पानी और खाद के अभाव में मर जाते हैं. जब शहरों के वृक्ष सुरक्षित नहीं है तो फ़िर कोसो दूर जंगल में उनकी परवरिश करने वाला कौन है? हम अपने पड़ौस के देशो में जाकर देखें, उन्होंने प्रभावी ढंग से सफ़लतापूर्वक अनुकरणीय़ कार्य किया है और पेड़ों की रक्षा करते हुए हरियाली को बचाए रखा है.
जब आदिवासियों से वन-सम्पदा का मालिकाना हक छीनक्रर केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के हाथॊ में चले जाएंगे तो केवल विकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध बांधे जाएंगे और बदले में उन्हें मिलेगा बांधो से निकलने वाली नहरें और नहरों के आसपास मचा दलदल और भूमि की उर्वरा शक्ति को कम करने वाली परिस्थिति और विस्थापित होने की व्याकुलता और जिन्दगी भर की टीस, जो उसे पल-पल मौत के मुंह में ढकेलने के लिए पर्याप्त होगी.
आदिवासी क्षेत्रों में होने वाले विध्वंस से जलवायु एवं मौसम में परिवर्तन द्रुत गति से हो रहा है. कभी भारत में ७०% भूमि वनों से आच्छादित थी, आज घटकर २०-२२ प्रतिशत रह गई है. वनो के लिए यह चिंता का विषय है. वनों की रक्षा एवं विकास के नाम पर पूरे देश में अफ़सरों और कर्मचरियों की संख्यां में बेतरतीब बढ़ौतरी हुई हैं, उतने ही अनुपात में वन सिकोड़ रहे हैं. सुरक्षा के नाम पर गश्ति दल बनाए गए हैं, फ़िर भी वनों की अंधाधुंध कटाई निर्बाधगति से चल रही है. कारण पूछे जाने पर एक नहीं, वरन अनेकों कारण गिना दिए जाते हैं.,उनमे प्रमुखता से एक कारण सुनने में आता है कि जब तक ये आदिवासी जंगल में रहेंगे, तब तक वन सुरक्षित नहीं हो सकते. कितना बडा लांझन है इन भेले-भाले आदिवासियों पर, जो सदा से धरती को अपनी माँ का दर्जा देते आए हैं. वे रुखा-सूखा खा लेते हैं, मुफ़लिसी में जी लेते हैं, लेकिन धरती पर हल नहीं चलाते, उनका अपना मानना है कि हल चलाकर वे धरती का सीना चाक नहीं कर सकते.
कुहरें में लिपटा आदिवासी अंचल-पातालकोट (छिन्दवाड़ा)
भारत का हृदय कहलाने वाले मध्यप्रदेश के छिन्दवाड़ा जिले से 62 किमी. तथा तामिया विकास खंड से महज 23 किमी.की दूरी पर, समुद्र् सतह से 3250 फ़ीट ऊँचाई पर तथा भूतल से 1200 से 1500 फ़ीट गराई में “कोट” यानि “पातालकोट” स्थित है. जिसमें आज भी आदिवासियों के बारह गाँव सांस लेते हुए देखे जा सकते हैं. यहाँ के आदिवासियों को धरती-तल पर बसाने के लिए कई प्रयत्न किए गए,लेकिन वे इसके लिए कतई तैयार नहीं होते. अतः दोषरोपण मढना कि अदिवासियों की वजह से वन सुरक्षित नही है, एक मूर्खतापूर्ण लांछन है
पातालकोट- एक आदिवासी आराम की मुद्रा में (२) पातालकोट का एक विहंगम दृश्य
,अतः सच्चाई का दामन पकड़ना होगा. यदि आदिम लोगो की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए तथा उनकी सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करते हुये उन्हें विकास की योजनाओं के साथ जोड़ दिया जाए तो निश्चित ही कहा जा सकता है कि आदिम क्षेत्र में पर्यावरण के साथ अन्य भागों कॊ भी सुरक्षित रखा जा सकता है, स्वस्थ पर्यावरण पर सारे राष्ट्र का अस्तित्व एवं भविष्य सुरक्षित रह सकता है और वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है. अन्य जातियां जो जंगलॊं में रहती है.
चित्र १ से ३-गोंड, (४) बैगा औरतें (५) सहरिया (६) कोरकू