वैश्वीकरण-भूमण्डलीकरण के दौर में सूचना प्रौद्योगिकी का हिंदी के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है. प्रिंट मीड़िया और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिंदी के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है. कम्प्यूटर, इन्टरनेट, लैपटाप, ई.मेल, फ़ैक्स, पेजर, वेबसाइट आदि हिंदी भाषा के विकास में सहायक हो रहे हैं. विज्ञान और तकनीकी ने हिंदी भाषा के लिए नए क्षितिज खोल दिए हैं. यही वे कारक है कि हिंदी आज विश्वबाजार में अपना परचम लहरा रही है. इतना ही नहीं उसने विश्व बाजार पर गहराई से अपना प्रभाव भी स्थापित किया है तथा उसका कुनबा लगातार बढ़ता ही जा रहा है.
संसार में प्रमुख रूप से तीन भाषाएं- चीनी, अंग्रेजी और हिंदी सर्वाधिक बोली जाती है. हिंदी को सिनेमा उद्योग ने अंतर्राष्ट्रीय ऊँचाइयों पर पहुँचाने में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया है. उसने हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपनी लोकप्रियता स्थापित की है. संसार के अनेक देशों में हिंदी फ़िल्में खूब देखी और पसंद की जाती है. इस संदर्भ में यह कथन उल्लेखनीय है-"मनोरंजन उद्योग के ग्लोबल बाजार ने बताया है कि वालीवुड की फ़िल्मों और गानों की धुनों को जो लोग भाषा की दृष्टि से नहीं समझते, वे भी उसकी संस्कृति संरचनाओं के प्रभाव में रहते हैं. वे जापानी, चीनी, फ़ैंच बोलने वाले हो सकते हैं, मगर हिंदी फ़िल्मों को बहुत पसंद करते हैं. इसी बहाने हिंदी के कुछ शब्द अनायास ही उनके दिल और दिमाक में स्थान बना लेते हैं. इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी अब दुनिया के लिए अजनबी नहीं रह गई है.
जिस चीनी भाषा को संसार की सब से बड़ी भाषा के रूप में जाना जाता है, वह राष्ट्रभाषा के होते हुए भी उसके जानने वाले चीन में हर कहीं उपलब्ध नहीं होते. ऐसी ही स्थिति इंग्लैण्ड में अंग्रेजी भाषा की है. कनाड़ा में अंग्रेजी के समानांतर फ़्रेंच भाषा का वर्चस्व है. अमेरिका में स्पेनिश बोलने वालों की संख्या करोड़ों में है. यदि हम विश्व के मानचित्र में देखें तो ज्ञात होता है कि भारत में अंग्रेजी बोलने वाले पचास प्रतिशत है तो वहाँ अंग्रेजी जानने वाले केवल दशमलव .58 प्रतिशत मात्र हैं. मतलब एक प्रतिशत भी नहीं है. यह कितने आश्चर्य का विषय है?. स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी शब्द संपदा का जितनी तेजी से विस्तार हुआ है, उतना विश्व की शायद ही किसी भाषा का विस्तार हुआ हो.
समय-समय पर विश्व हिंदी सम्मेलनों के माध्यम से विदेशों में रहने वाले लाखों भारतीयों को भारतीय संस्कृति से परिचित करवाया जाता रहा है. स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम स्वाधीन भारत के लिए परिकल्पना दी थी - "एक राष्ट्र, एक राष्ट्रभाषा हो".इसी परिकल्पना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सन् 1936 में वर्धा में हिंदी के उन्न्यन और प्रचार-प्रसार के महान उद्देश्यों को लेकर भारत के हिंदीतर राज्यों में, समितियों का गठन किया. संस्था के उद्देश्यों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ राष्ट्रीय एकता को भी सुदृढ़ करना था. कार्यवाही पंजी में हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों में स्वयं महात्मा गांधीजी, डा.राजेन्द्रप्रसाद जी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जी, सेठ श्री जमनालाल बजाज, काका कालेकर जी, ब्रिजलाल बियानी जी, हरिहर शर्माजी, वियोगी हरि जी, शंकर देव जी सहित बाबा राघवदास जी थे.
आज हिंदी विश्व में अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है. हिंदी को जानने, समझने और बोलने को उत्सुक विदेशियों के मन में भी इस भाषा के प्रति रुचि जाग्रत हुई, तभी तो हिंदी अंतरराष्ट्रीय क्षितिज में सूर्य की भांति चमक रही है. मारीशस, आस्ट्रेलिया के समीप फ़िजी, त्रिनीनाड, गुयाना, स्वीडन, डेनमार्क, सूरीनाम, अमेरिका, कनाड़ा, नीदरलैंड,, जर्मनी,नार्वे, म्यांमार, थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया,, न्यूजीलैंड, इंडोनेशिया, जाम्बिया, अफ़्रीका महाद्वीप, केन्या, युगांडा, कम्पाला, तंजानिया, नाइजीरिया, चाइना, जापान, फ़्रांस, रोमानिया, युगोस्वाविया, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, तुर्की, इरान, सउदी अरब, मिस्त्र, लीबिया आदि देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी विधिवत पढ़ाई जा रही है.
आधुनिक यूरोपीय भाषाओं में जर्मन भाषा के व्याकरण पर हिंदी का गहरा प्रभाव है. हिंदी साहित्य के अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो रहे हैं. और पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त भी अनेक ग्रंथ प्रकाशित किए जा रहे हैं. हिंदी की ध्वजा संपूर्ण विश्व में फ़हराई जा रही है, क्या यह हमारे लिए अत्यन्त ही गौरव का विषय नहीं है कि स्वाधीनता के बाद विश्व भर में हिंदी को जो गौरव और सम्मान प्राप्त हुआ है, वह विश्व की किसी भी भाषा के लिए दुर्लभ है.
हिंदी की शाखा-प्रशाखा को पुष्पित-पल्लवित करने में प्रवासी भारतीय लेखक / लेखिकाओं ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया है. उन्होंने न केवल हिंदी का प्रचार-प्रसार किया, अपितु अपनी भाषा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का वहाँ बीजारोपण भी किया है. सुश्री अंजना संघीर, सुरेन्द्रनाथ तिवारी, हरिशंकर आदेश, श्री उमेश शर्मा, कृष्ण बिहारी नूर, पूर्णिमा बर्मन, राम्कृष्ण द्विवेदी "मघुकर", विद्याभूषण धर,. उषा राजे सक्सेना, अचला शर्मा, कादम्बरी मेहरा, कीर्ति चौधरी, गोविन्द शर्मा, जाकिया जुबेरी, डा.कृष्णकुमार, पद्मेश गुप्त, डा.महेन्द्र वर्मा,तेजेन्द्र शर्मा, तोषी अमृता, दिव्या माथुर, नरेश भारतीय, निखिल कौशिक, प्राण शर्मा, कैलाश बुधवार, उषा प्रियंवद, सुषम बेदी, सुधा ओम ढींगरा, नीना पाल, दिव्या माथुर, उषा वर्मा, जया वर्मा, शैल अग्रवाल, ईला नरेन, इला प्रसाद, स्नेह ठाकुर,, विशाखा ठक्कर, रेणू राजवंशी, राजश्री, अंशुल जौहरी, सौमित्र सक्सेना, रचना श्रीवास्तव, पुष्पा सक्सेना, प्रतिमा सक्सेना,राजश्री, अमरेन्द्रक्मार,स्वदेश राणा आदि लेखकों ने अपनी रचनाधर्मिता से हिंदी के मान-सम्मान, गरिमा और गौरव में श्रीवृद्धि की है.
यह उल्लेखनीय है कि हिंदी को समृद्ध करने में देश के विद्वानों के साथ-साथ अनेक विदेशी विद्वानॊ की भी अहम भूमिका रही है. उनका हिंदी के प्रति गहरा अनुराग का एक लंबा इतिहास रहा है. जैसे कि ब्रिटेन के जान गिल क्राइस्ट, थामस डूएर ब्रूटेन, फ़्रेडरिक पिंकाट. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन,, जान फ़र्गुसन, डा,मैकग्रैगर, फ़्रांस के गार्सा द तार्सी, अमेरिका के सैमुएल बेहरी केलाग, प्रो.एनस्ट वेण्डर, सारा कोहिम, इटली के एल.पी.तेस्सीतारी, जर्मनी से डा.ईनेस फ़ोर्नेल, पोलैंड से प्रो.ब्रिस्की, रूस से डा.चेर्निशोव, वारान्निकोव.जैसे अनेकानेक विद्वानों ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका का निर्वहन किया और कर रहे हैं. जापान से डा.तोमिजो मिजोकामी, तोमियो मिजोकामी और रूस के वारान्निकोव, डा. ल्युदमिला, एवं पोलेंड के प्रो.ब्रिस्की जैसे विद्वानों के शोध कार्य लगातार सामने आ रहे हैं.टोक्यो युनिवर्सिटी में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण के प्रयासों से लगातार हिंदी के कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं और ओकासा युनिवर्सिटी में प्रो. हरेन्द्र चौधरी भी इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं.
इसी प्रकार दूसरी ओर वे भारतवंशी लोग हैं जो गिरमिटिया मजदूर के रूप में 150 वर्ष पूर्व मारीशस, फ़िजी, त्रिनिदाद, गयाना और सूरीनाम पहुँचे थे. वे अपने साथ रामायण, हनुमान चालीसा और आल्हा आदि लेकर गए थे और अपनी पीढ़ियों के पास विरासत के रूप में संरक्षित भी करते रहे, जिसके परिणामस्वरुप इन देशों में हिंदी व भारतीय लोक भाषाएं भी साथ-साथ यात्रा करती रहीं. मारीशस के राष्ट्रकवि बिजेन्द्र भगत मधुकर, अभिमन्यु अनत, रामदेव धुरंधर, राज हीरामन, सोमदत्त बखौरी, मुनिश्वरलाल चिंतामणि, अजामिल माताबदल, धनराज शंभु, बीरसेन जागासिंह, इन्द्रदेव भोला, हेमराज सुन्दर, सूरजप्रसाद मंगर, धनराज शंभु, धर्मवीर घूरा, राजेन्द्र अरू, राजरानी गोविन, जयदत्त जीवत, खैर जगह सिंह, महेश रामजियावन मोहित आदि प्रमुख हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है.
हिंदी अब विश्व भाषा बनने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है. आज भले ही वह संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा नहीं है, परंतु व्यहावारिक स्तर पर उसकी सभी एजेन्सियों की मान्य भाषा है. संयुक्त राष्ट्र संघ नियमित रुप से हिंदी में एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित करता है, जिसे उसकी वेबसाइट पर देखा जा सकता है. हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सघन प्रयास किए जा रहे हैं. जिन देशों में हिंदी के बोलने-पढ़ने और लिखने वालों की संख्या अधिक है, उन देशों का एक संगठन बनाने की दिशा में भारत सरकार काम कर रही है.
हिंदी के उन्न्यन और प्रचार-प्रसार को गति देने के लिए विदेश मंत्रालय में-हिंदी एवं संस्कृत प्रभाग- का गठन किया गया है, जो विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न गतिविधियों को संयोजित करता है. वह अपने विदेश स्थित दूतावासों के माध्यम से हिंदी की कक्षाएं आयोजित करने अनुदान देता है. साथ ही विदेशों में अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रिय हिंदी सम्मेलनों का भी आयोजन करता है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को प्रतिष्ठित करने के लिए "भारतीय संस्कृति संबंध परिषद"(आईसीसीआर) अपनी महत्वपूर्ण भुमिका का निर्वहन कर रही है. इसने दुनिया भर में अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पीठ की स्थापना की है. इतना ही नहीं, इन विश्वविद्यालयों में भारत से ही शिक्षक प्रतिनियुक्ति पर भेजती है, जो हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग करते हैं.
हिंदी आज सात समुद्र पार अपना परचम लहरा रही है- अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, दक्षिण अफ़्रीका, नेपाल, मारीशस, न्यूजिलैंड, सिंगापुर, यमन, युगांडा, इन दश देशों में हिंदी भाषी भारतीयों की संख्या दो करोड़ के लगभग है. फ़ीजी, गुयाना, सूरीनाम, टोबोगो, ट्रिनिडाड तथा अरब अमीरात- इन छः देशों में हिंदी को अल्पसंख्यक भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा प्राप्त है. भारत के बाहर जिन देशों में हिंदी को बोलने,लिखने, पढ़ने, अध्ययन और अध्यापन की दृष्टि से प्रयोग होता है, उन्हें हम इन वर्गों में बांट सकते हैं.
1..जहां भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में रहते हैं-पाकिस्तान, नेपाल,भूटान,बांगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका और मालद्वीव आदि.( 2.) भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण पूर्वी एशियाई देश-इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया और जापान.(3). जहां हिंदी को विश्व की आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है- अमेरिका, आस्ट्रेलिया,कनाड़ा और यूरोप के देश, 4.अरब और इस्लामिक देश- संयुक्त अरब अमीरात,(दुबई), अफ़गानिस्तान, कतर, मिस्त्र, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि.
प्राप्त जानकारी के अनुसार कैम्ब्रिज मे विगत 150 वर्षों से तथा यूरोप के 200 से अधिक वर्षों से हिंदी का अध्ययन-अध्यापन का कार्य हो रहा है. विश्व के कगभग 600 से अधिक स्थानों पर हिंदी शिक्षण का कार्य हो रहा है. श्रीलंका दूतावास के सहयोग से हिंदी की कक्षाओं में दो सौ से अधिक छात्र-छात्राएं प्रवेश लेते हैं.
इसी प्रकार अनेक पत्र-पत्रिकाएं भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हो रही हैं, जो हिंदी का प्रचार-प्रसार कर रही हैं. जापान से "सर्वोदय" एवं "जापान" तथा "ज्वालामुखी" पत्रिकाएं का प्रकाशन विगत बीस वर्षों से निरन्तर जारी है. अनुवाद के माध्यम से संत तुलसीदास जी के "रामचरित मानस" का लगभग पचास भाषाओं में, तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर की सत्तर पुस्तकों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ है.
ग्लोबल होती हिंदी की गति तो देखकर जहाँ हमें अपार प्रसन्नता होती है, वहीं हिंदी आज भी भारत की राष्ट्रभाषा बनने की प्रतीक्षा कर रही है. आज भले ही वह राष्ट्रभाषा नहीं बन पायी, लेकिन उसने अपने बलबूते पर विश्व भाषा होने का गौरव प्राप्त कर लिया है.