मित्र श्री सुरेन्द्र वर्मा किसी अतिरिक्त परिचय के मोहताज नहीं है. आप नीतिवान, निष्ठावान शिक्षक रहे हैं जिन्होंने सदा से ही अनैतिकता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की है. शिक्षक के पद पर रहते हुए आपने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं और प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात भी अपनी कलम का लोहा मनवाते आ रहे हैं. आप एक अच्छे अध्येता के लिए जाने जाते हैं. समय की चाल के अनुरुप जब-अब आपको अपनी बात मुखर करना होता है तो आप "शेरों-शायरी " को बखूबी प्रयोग में लाते हैं.
आपका पहला खण्ड-काव्य "ऎषा पंचवटी" अभी हाल में दिल्ली के साहित्यभूमि प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया है. पंचवटी में घटित होने वाले प्रसंगों को आपने सूक्षमता के साथ उकेरा है, जिसे पढ़कर पाठक के मन में जहाँ उत्सुकता जाग्रत होती है, वहीं वह अतिरेक आनंद में खोता चला जाता है. इस खण्ड काव्य में कुल चार सौ से अधिक चतुष्पदियां हैं, इसे पढ़कर लेखक/कवि के आत्मजगत को पहचाना जा सकता है. नए विचारों की प्रतिस्थापना और उन विचारों को गहनता प्रदान करना, इस सिद्धहस्त कवि की अपनी विशेशता है.
साहित्यभूमि प्रकाशन दिल्ली से उनका दूसरा संग्रह " लोक व्यवहार में राम तथा विविध निबंध" शीघ्र ही प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँचेगा. निबंध-कला में विशेष दक्षता रखने वाले लेखक ने हिंदी के विशेष योगदान से लेकर प्रख्यात कवियों- यथा- मैथिलीशरण गुप्त, मुक्तिबोध, राम, रहीम, शेक्सपीयर से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों- सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, डा. राजेन्द्रप्रसाद, वीर सावरकर जी के सहित महर्षि अरविन्द, शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, तुलसी, महा कवि भवभूति, कालीदास पर ओजस्वी निबन्ध लिखे हैं. साथ ही आपने भारत के पावन तीज-त्योहार एवं पर्वों पर भी विद्ववत्तापूर्ण निबंध लिखे हैं.
"लोक व्यवहार में राम" - विषय में जाने से पूर्व "लोक"को जानना अति आवश्यक है. लोक का शाब्दिक अर्थ "संसार" प्रतिध्वनित होता है. एक ऐसा लोक जिसमें मनुष्य समाज का वह अभिजात्य वर्ग है, जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित है. "लोक" शब्द आधुनिक काल में महत्त्वपूर्ण विमर्श का आधार रहा है., क्योंकि उसका संबंध संस्कृति एवं परंपरा से है. लोक शब्द वास्तव में अंग्रेजी के "फ़ोक" का पर्याय है जो नगर तथा ग्राम की समस्त साधारण जन का द्योतक है. आचार्य हजारी प्रसाद के अनुसार-"लोक" शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम नहीं है.
इस लोक में रहते हुए प्रभु श्रीराम जानते थे कि किसके साथ कैसा व्यवहार हो. गुरु से, माता-पिता से, भाई से, मित्र से, यहाँ तक की अपने शत्रु से भी उनका व्यवहार अनुकरणीय है. इसीलिए कहा जाता है कि "रामकथा" लोक व्यवहार की आचार संहिता है. "रामकथा" विविध मानव संबंधों और आदर्शों की कथा है. यही इसके लोकजीवन में समाहित होने का रहस्य है. विविध मानव संबंधों का सजीव, साकार एवं सक्रीय रूप ही लोक जीवन है. ऐसी दशा में लोकजीवन में रामकथा की परिव्याप्ति सहज और स्वाभाविक है. रामकथा से बढ़कर जीवन्त परम्परा और क्या हो सकती है?.
मनुष्य के बालकाल, युवावस्था एवं वृद्धावस्था के कार्यकलाप रामकथा में विद्यमान है. पारिवारिक जीवन का मोह-ममत्व, ईर्ष्या-द्वेष, छल-प्रपंच, विवशताएं एवं उलझने, आंतरिक भावनाओं के द्वंद्व एवं संघर्ष ,विक्षोभ, धैर्य,चातुर्य, शील, निष्ठा, विश्वास,समर्पण, दृढ़ता, वात्सल्य, सुकुमारता, कर्कशता, त्याग, एवं सहनशीलता राम कथा की जीवन-धारा में लहरों की भांति तरंगित होते रहते हैं. ठीक इसी प्रकार जीवन के विविध स्पन्दन एवं लोक-जीवन की अशेष संवेदनाएं रामकथा में स्थान पाती हैं. यह जीवन की मार्मिक कथा भी है, यथार्थ की भूमि भी है और आदर्श का आकाश भी.
लोकजीवन के चार प्रमुख आधार स्तंभ है- (१) निजी वैयक्तिक जीवन (२) पारिवारिक संबंधो का जीवन (३) सामाजिक व्यवहारों का जीवन और (४) राष्ट्रीय कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का जीवन. रामकथा में सभी पक्ष उज्ज्वल स्वरूप में उभर कर सामने आते हैं.
प्रभु श्री रामजी लोक व्यवहार में कुशलता प्राप्त हैं. महाराज दशरथ रामजी के राज्याभिषेक की विधिवत घोषणा करते हैं, जब यह बात उन्हें पता चलती है तो बजाय प्रसन्न होने के उनके मन में विस्मय होता है-
जनमे एक संग सब भाई: भोजन सयन केलि लरिकाई करनबेध उपबीत विआहा: संग संग सब भए उछाहा विमल बंस यहु अनुचित एकू: बंधु बिहाई बड़ेहि अभिषेकू प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई : हरउ भगत मन कै कुटुलाई.
कि मुझे ही क्यों राजा बनाया जा रहा है, जबकि हम सब भाइयों का जन्म, खान-पान, रहन-सहन, कर्णछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह एक साथ हुआ, फ़िर अन्य भ्राताओं को छोड़कर मेरे अकेले का राज्याभिषेक होने जा रहा है. रघुंवंश कि यह अनुचित प्रथा है. अपने अनुजों के प्रति कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए, रामजी इसे भली-भांति जानते थे. न जानते होते, तो फ़िर पछतावा होता ही क्यों?
राज्याभिषेक न होकर उन्हें वनवास दे दिया गया, वह भी चौदह वर्षों के लिए. जब उन्हें यह बात पता चलती है, तब भी उनके मन में कोई दुःख नहीं होता और वन जाने से पूर्व वे अपने पिता से कहते हैं कि इतनी छोटी-सी बात के लिए आपने कितना कष्ट पाया. मुझे पहले ही बता दिया गया होता कि मेरी जगह अनुज भरत का राज्याभिषेक होगा. यह तो मेरे लिए अत्यन्त ही प्रसन्नता की बात होती.
अपनी माता कौशल्या जी को धीरज बंधाते हुए वे यह नहीं कहते कि विमाता ने मुझे वनवास दे दिया है. बड़ी प्रसन्नता के साथ वे माता कौशल्या जी से कह्ते है-"पिता दीन्ह मोहि कानन राजू"- राम के लिए क्या राजमहल, क्या जंगल?.सब उनके लिए समान ही है. लक्ष्मण जी की व्यवहार कुशलता भी देखिए -"मोरें सबै एक तुम्ह स्वामी: दीनबंधु अंतरयामी. वे रामजी से कहते हैं कि आप ही मेरे सब कुछ हैं .मैं आपको अकेला वन नहीं जाने दूंगा, मैं भी साथ चलूंगा. इसी तरह भरत का भी हम लोकव्यवहार देखें कि वे भी उतने ही कुशल हैं, उतने ही लोक-व्यवहारिक हैं. जितने की रामजी थे. वे अयोध्या में रामजी को न पाकर कहते हैं-" देखें बिनु रघुनाथ पद, जिय कै जरनि न जाइ" उनके सामने राजपाट, धन-वैभव-ऐश्वर्य, अधिकार आदि सब तुच्छ हैं. वे राजसिंहान को ठुकरा कर अपने ज्येष्ठ भ्राता प्रभु रामजी को वापिस अयोध्या लौटा लाने के लिए निकल पड़ते हैं.
महाराज दशरथ संपूर्ण आर्यव्रत के चक्रवर्ती सम्राट हैं. वे उच्च कुल के है. श्रीराम के वनगमन में उनकी भेंट निषादराज गुह से होती है, जिसे निम्न जाति से संबंध रखता है. प्रभु राम केवल उससे मिलते ही नहीं है, अपितु आगे बढ़कर उसका आलिंगन भी करते हैं. वे उसे अपना सखा कहकर संबोधित करते हैं. " अर्चिताश्चैव हृष्टाश्च भवता सर्वदा वयम: पद्भ्यामभिगमाश्चैव स्नेहसंदर्शनेन च" ( वाल्मीकि रामा श्लोक 40 अयो.कांड) सखे ! तुम्हारे यहाँ तक पैदल आने और स्नेह दिखाने से हमारा सदा के लिए भली-भाँति पूजन-स्वागत- सत्कार हो गया.
ब्राह्मण,संत-मुनि, महामुनि, ऋषि-महर्षियों को वे आदरपूर्वक प्रणाम करते हैं. क्योंकि वे आदरनीय हैं, पूज्यनीय है. वे केवल प्रणाम ही नहीं करते हैं, बल्कि नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं.( सोSत्रेराश्रममासाद्य तं ववन्दे महायशाः(श्लोक 5वाल.सप्तदशः सार्ग-. अपनी वन यात्रा में वे महामुनि अत्रि के आश्रम में पहुँचकर उन्हें नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं). इसी तरह अनेक ऋषि-मुनियों से भेंट कर जब वे महात्मा अगस्त्य जी के आश्रम में पहुँचते है तो उनके चरणॊं में दण्डवत प्रणाम करते हैं. जग्राहापततस्त्स्य पादौ च रघुनन्दनः (वा.श्ल.24द्वादशः सर्ग). हमें एक चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र की महानता और विनम्रता के यहाँ दर्शन होते हैं. इसी तरह उनकी भेंट जटायु से होती है. अपनी प्रथम भेंट में वे रामजी को अपना परिचय देते हुए बतलाते हैं कि मैं महाराज दशरथ का मित्र हूँ..यह जानकर वे अति प्रसन्न होते हैं और उनका यथोचित आदर-सत्कार करते हैं. एक अन्य प्रसंग में- जब वे रावण के द्वारा सीताजी का अपहरण कर ले जाता हुआ देखते हैं , तब उनका रावण के साथ भीषण युद्ध होता है, जिसमें वे मरणासन्न स्थिति में पहुँच जाते हैं, मरनासन्न जटायु को वे न केवल आलिंगन करके विलाप करते हैं, बल्कि उनके प्राण त्याग देने पर स्वयं अपने हाथों से अंतिम संस्कार भी करते है. श्रीराम जी के दलित-पीढ़ित वर्ग के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा हमें यहाँ देखने को मिलती है.
आगे की वनयात्रा में उनकी भेंट शबरी से होती है, जो शबर जाति से संबंध रखती थी. वे न केवल उससे मिलते हैं बल्कि उसके जूठे बेर भी बड़े प्रेम से खाते हैं. इसी तरह उनकी भेट वानरश्रेष्ठ हनुमानजी से,फ़िर सुग्रीव से होती है. उन दिनों वानर -ऋक्ष आदि जाति से संबंध रखने वालों को भी समाज में उच्च स्थान प्राप्त नहीं था. राम न केवल इनसे मिलते हैं बल्कि उनका आलिंगन करते है, मित्रता स्थापित करते हैं और मित्रता को स्थापित करने के लिए सुग्रीव का राज्याभिषेक भी कर देते हैं. यानि उसे ऊँचा स्थान देने में राम आगे आते हैं. इसी तरह विभीषण, जो दैत्य वंश से संबंध रखता था, मित्रता कायम करते हैं,अपनी शरण में लेते हैं और मित्रता के धर्म की स्थापना करते हुए उसका राज्याभिषेक भी कर देते हैं. इस तरह हम अन्यान्य संदर्भों में प्रभु श्रीराम के आदर्श लोकजीवन की झांकी देख सकते हैं.
भारतीय चिंतन में एक अत्यंत ही अद्भुत, सर्वज्ञात और लोकप्रिय शब्द है "परमात्मा" यानि कि आत्मा का वह परम रूप, आत्मा का वह सर्वोत्तम रूप, आत्मा का विशुद्धतम रूप. हम सभी में आत्मा है. फ़िर भी हम बहस में पड़ जाते हैं कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है या नहीं. लेकिन इस विवाद से अलग बड़ी बात यह है कि मानव विकास की लंबी यात्रा में, ईश्वर एक आवश्यक अवधारणा के रूप में सदैव मौजूद रहा है. और सारे धर्मग्रंथ सिर्फ़ उपदेश ही नहीं देते, बल्कि अपने मूल स्वरूप में किसी न किसी दर्शन को प्रतिपादित करते हैं.
प्रख्यात विचारक डा.राम मनोहर लोहिया श्रीराम और कृष्ण की व्याख्या करते हुए कहते हैं-" राम और कृष्ण, विष्णु के दो मनुष्य रूप हैं, जिनका अवतार धरती पर धर्म का नाश और अधर्म के बढ़ने पर होता है. राम धरती पर त्रेता में आए, जब धर्म का रूप इतना नष्ट नहीं हुआ था. वह आठ कलाओं से बने थे, इसलिए मर्यादित पुरुष थे. कृष्ण द्वापर में आए, जब अधर्म बढ़ती पर था. वे सोलह कलाओं से बने थे और इसलिए वे संपूर्ण पुरुष थे. राम का जीवन उद्दात मानसिक आचरणों से देवोपम बनने की कहानी है, जबकि कृष्ण पहले ऐसे देवता हैं, जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करते रहे और अनुभव कराते रहे कि देवता बनने से कहीं अधिक कठिन है मनुष्य बनकर रहना." रामजी ने जितनी भी लीलाएं कीं वे सभी मनुष्य बने रहकर ही की हैं. इसका गहरा प्रभाव न केवल भारत की संस्कृति पर पड़ा बल्कि समूचे विश्व पर भी उसका गहरा प्रभाव पड़ा.
निबन्ध लेखन के बारे में संक्षिप्त जानकारी-
निबंध - गद्य लेखन की एक विधा है, लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है. निबंध के पर्याय रूप में सन्दर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है. लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द " निबंध" ही है. इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबंध का साहित्य है. प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबंधों में धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की तार्किक व्याख्या की जाती थी. उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी. किन्तु वर्तमान काल के निबंध संस्कृत के निबंधों से ठीक उलटे हैं. उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है.
इतिहास-बोध परम्परा की रूढ़ियों से मनुष्य के व्यक्तित्व को मुक्त करता है. निबंध की विधा का संबंध इसी इतिहास-बोध से है. यही कारण है कि निबंध की प्रधान विशेषता व्यक्तित्व का प्रकाशन है.निबंध की सबसे अच्छी परिभाषा है-
निबंध, लेखक के व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाली ललित गद्य-रचना है.
इस परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है. लेकिन निबंध का रूप साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा इतना स्वतंत्र है कि उसकी सटीक परिभाषा करना अत्यंत कठिन है.
सारी दुनिया की भाषाओं में निबंध को साहित्य की सृजनात्मक विधा के रूप में मान्यता आधुनिक युग में ही मिली है. आधुनिक युग में ही मध्ययुगीन धार्मिक, सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति का द्वार दिखाई पड़ा है. इस मुक्ति से निबंध का गहरा संबंध है.
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- "नए युग में जिन नवीन ढंग के निबंधों का प्रचलन हुआ है वे व्यक्ति की स्वाधीन चिन्ता की उपज है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है:" निबंध लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से इधर-उधर फूटी हुई सूत्र शाखाओं पर विचरता चलता है. यही उसकी अर्थ सम्बन्धी व्यक्तिगत विशेषता है. अर्थ-संबंध-सूत्रों की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ ही भिन्न-भिन्न लेखकों के दृष्टि-पथ को निर्दिष्ट करती हैं. एक ही बात को लेकर किसी का मन किसी सम्बन्ध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर इसी का नाम है. एक ही बात को भिन्न दृष्टियों से देखना. व्यक्तिगत विशेषता का मूल आधार यही है. इसका तात्पर्य यह है कि निबंध में किन्हीं ऐसे ठोस रचना-नियमों और तत्वों का निर्देश नहीं दिया जा सकता, जिनका पालन करना निबंधकार के लिए आवश्यक है. ऐसा कहा जाता है कि निबंध एक ऐसी कलाकृति है जिसके नियम लेखक द्वारा ही आविष्कृत होते हैं. निबंध में सहज, सरल और आडम्बरहीन ढंग से व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है.
निबंध लिखने में विशेष दक्षता रखने वाले वर्माजी का यह द्वितीय खण्ड -"लोक व्यवहार में राम तथा विविध निबंध" पाठकों को सौंपते हुए मुझे अत्यंत ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है. राम के अनन्य सेवक होने के कारण लेखक पर प्रभु रामजी का कितना प्रभाव पड़ा है, यह इस बात से स्वयं प्रमाणित हो जाता है कि उन्होंने सर्वप्रथम रामकथा पर आधारित" ऐषा पंचवटी" पर कुशलता के साथ अपनी लेखनी को धन्य किया है. वहीं दूसरे क्रम में आपका -"लोक व्यवहार में राम तथा विविध निबंध" नाम से द्वितीय खंड का प्रकाशन होने जा रहा है. इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं.
मुझे विश्वास है कि सुरेन्द्र वर्मा जी के इस द्वितीय खण्ड " लोक व्यवहार में राम तथा विविध ` निबंध. संग्रह को पढ़कर, पाठक न केवल लाभान्वित होंगे, बल्कि वे अनेक अछूते प्रसंगों से भी क्रमशः तादात्म्य स्थापित करते चलेंगे..