परम्परा पर चर्चा करने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि परम्परा क्या होती है? इसकी स्थापना की जरुरत आखिर क्यों समझी गई? क्या इसका कोई वैज्ञानिक आधार है ? क्या इसके करने और न करने पर कोई अनिष्ट होने की संभावना है? क्या परम्पराएँ कोई दकियानुसी विचारधारा है, या फ़िर इनका कोई ठोस आधार भी है? क्या राष्ट्रीयता को लेकर भी कोई परम्परा विकसित हुई है?. क्या परम्परा का प्रभाव गायन,/नृत्य/चित्रकला/ साहित्य /नाटक/संगीत पर भी देखा जा सकता है? आदि-आदि. एक नहीं,बल्कि अनेक प्रश्न इस दिशा में उठ खडॆ होते हैं.
यदि हम इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करें तो पाते हैं कि परम्पराऎं जीवन जीने की एक शैली का नाम है. अब यह आदमी के विवेक पर निर्भर करता है कि वह पशुवत जीवन जिए, जिसमें कोई सामाजिक बंधन नहीं है. न ही कोई आदर्श हैं, और न ही कोई नियम कायदे हैं. चुंकि आदमी एक सामाजिक प्राणी है, अतः समाज की एक इकाई होने के नाते, उसके कुछ कर्तव्य बनते हैं, कि समाज में किस तरह शांति का वातावरण बना रहे. बडॆ-बुजुर्गों के प्रति उसका कैसा व्यवहार हो. घरों की स्त्रियों के प्रति उसका क्या नजरिया हो. बच्चों के प्रति उसके क्या कर्तव्य होने चाहिए. फ़िर समाज में एक ही जाति के ,एक ही संप्रदाय के लोग नही रहते. उसमे अलग-अलग धर्मों के लोग भी रहते हैं, उनके प्रति उसका क्या दायित्व बनता है,? प्रकृति और पर्यावरण से उसके कैसे संबंध होने चाहिए?, यह भी उसे ध्यान में रखना होता है. इन सब बातों की शिक्षा वेदों-पुराणॊं में अथवा धार्मिक ग्रंथॊं में पढने को मिलती हैं. इन वेदों और पुराणॊं के रचियता और कोई नहीं बल्कि हमारे ऋषिगण थे,जिन्होंने सुक्तियों के रुप में ऋचाएं लिखी- श्लोक लिखे, ताकि आदमी इन नियमों का पालन करे और अपने जीवन में उतारे. यहाँ यह बात ध्यान में रखना अति आवश्यक होगा कि वे कथाकथित ऋषि और कोई नहीं, बल्कि समाजशास्त्री ही थे,जिन्होंने एक मर्यादा-रेखा खीचीं, उस पर धर्म का हल्का सा मुल्लमा चढाया और उसे अमल में लाने की सीख दी. उन्होंने जो भी नियम-कायदे बनाए, उन सभी का अपना ठोस आधार है साथ ही वैज्ञानिक आधार भी.
प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त अर्थात सूर्योदय से प्रायः डेढ घंटा पूर्व उठकर जाग जाने की बात कही गई है. यह भी कहा गया है कि ऎसा करने से उत्तम स्वास्थ्य, धन विध्या, बल और तेज बढता है. जो सूर्य उगने के समय तक सोया रहता है उसकी आयु घटती है. उन्होंने उसे एक सूत्र में व्याख्यायित करते हुए लिखा-
“कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती--करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम.”
अर्थात;--हथेलियों के अग्र भाग में लक्ष्मी निवास करती है, मध्यभाग में सरस्वती और मूल में ब्रह्माजी निवास करते हैं. अतः प्रातः हथेलियों के दर्शन करना आवश्यक है. भगवान देवव्यास ने करोपल्ब्धि को मानव का परम लाभ माना है. इस् विधान का आशय यह है कि प्रातःकाल उठाते ही सर्वप्रथम दृष्टि और कहीं न जाकर अपने करतल में ही देवदर्शन करे, जिससे वृत्तियां भगतचिन्तन की ओर प्रवृत्त हों. भगवान का स्मरण और ध्यान करने से सुबुद्धि बनी रहे. शरीर तथा मन से शुद्ध सात्विक कार्य किया जा सके. जब आदमी सुबह से ही इस बात को अपने जहन में उतार लेता है तो निश्चित जानिए कि वह फ़िर कोई बुरे काम की ओर प्रवत्त नहीं होगा. यदि बुरे काम नहीं करेगा तो उसका फ़ायदा तो उसे मिलेगा ही, साथ में वह समाज के लिए भी अप्रत्यक्षरुप से लाभदायी होगा.. इसी तरह बिस्तर छोडने से पहले और शय्या से नीचे उतरने से पूर्व उसे धरती माता का अभिवादन करना चाहिए और उन पर पैर रखने की विवशता के लिए क्षमा मांगते हुए निम्नलिखित शलोक का पाठ करना चाहिए “ समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले//विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं क्षमस्व में”
आप ऎसा करें अथवा न करें,इससे धरती को कोई फ़र्क नहीं पडता. आप चाहें खाट पर रहें अथवा नीचे उतर आएं, धरती पर उतना वजन निश्चित तौर पर रहना ही रहना है, लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण काम कर रहा होत्ता है. धरती के स्पर्ष करने मात्र से आपके भीतर एक चुंबकीय शक्ति उत्पन्न होती है,जिसका अनुभव आप दिन भर महसूस कर सकते है. मात्र इस छोटे से टोटके से क्या आप दिन भर उर्जावान बने रहना नहीं चाहेंगे? फ़िर वैज्ञानिक भी मानते है कि धरती एक विशाल चुंबक है. इस बात से भला आप इनकार कैसे कर पाएंगे.?
इसी प्रकार घर में स्नान करने से पूर्व निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए लोगों देखा-सुना जा सकता है.
“गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती//नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेSस्मिन संनिधिं कुरु”
इस देश में नदियों को माँ का दर्जा दिया गया है. गंगा-यमुना-सरस्वती, नर्मदा ताप्ति आदि नदियों को देवी का दर्जा दिया गया है और उनकी अनेकानेक महिमा गायी गई है. नहाने से पूर्व आदमी इस भाव से भर उठता है कि वह नदी में उतरकर स्नान कर रहा है. यह भाव-पक्ष है. कहा गया है कि जैसा भाव आप मन में लाएंगे,वैसी ही अनुभूति आपको होने लगेगी. ऎसा किए जाने से मन प्रसन्नता से भर उठता है और वह पूरे दिन अपने आपको तरोताजा पाता है.
एक ही तरह की लोकाभिव्यक्ति या लोक तत्व लंबे समय तक अभिव्यक्त होता रहे तो कालान्तर में परम्परा बन जाता है. और उसकी अभिव्यक्ति लोक परम्परा के अन्तरगत होने लगती है. और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अभिव्यक्ति भी पाती हैं. यथा गीतों में, नृत्यों में, वाध्यों में, कथाओं में, कहावतों में, और लोकोक्तियों में रुप पाकर संचारित होती हैं. साथ ही लोक-व्यवहार, उठने-बैठने, पहनने-ओढने, हँसने-रोने, तथा बातें करने में भी परिलक्षित होती हैं.
इस प्रकार स्पष्ट है कि इन परम्पराओं में भिन्न-भिन्न चीजों पर जोर है,किन्तु उनमें परस्पर मेल मिलाप भी होता है. शास्त्रीय संगीत और नृत्य शास्त्रीय परम्परा के ज्वलन्त उदाहरण है, जो लोक संस्कृति के स्वरुपों लोक-गीत- जैसे बिरहा, चैता, कहरवा, पंडवानी----लोकनाट्य में नौटंकी विदेशिया,तथा माचा, -लोकनृत्य में छउ बीहू, गर्भा----लोक चित्रकला में -मधुबनी, जादोपटिया आदि भिन्न हैं क्योंकि शास्त्रीय संगीत और नृत्य प्रायः कुछ घरानों और राजदरबारों तक सीमित रहे.( दरभंगा, बनारस घराना, जयपुर घराना, लखनऊ घराना,आगरा घराना, ग्वालियर घराना, गया घराना, कर्नाटक संगीत, हिन्दुस्थानी संगीत) वहीं दूसरी ओर र्लोकगीत, लोकचित्रकला, लोकनृत्य आदि समूची जनता के लिए खुले है और वह गुरु-शिष्य परम्परा तक सीमित और संकुचित नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि दोनो पम्पराओं के मिलने से अर्धशास्त्रीय संस्कृति का विकास हुआ.
जो भी है, यह तो मानना पडॆगा कि भारत में सांस्कृतिक बहुलता का वजूद है. न केवल धर्मों में और पंथों में अलग-अलग उप-सांस्कृतिक परम्पराएं है, और यह परम्परा इतिहास से भी प्रभावित है, जिसके कारण अद्भुत “सामाजिक संस्कृति” विकसित हुई, जिसमें ’भिन्नता में एकता के साथ-साथ “एकता में भिन्नता” भी है और यही इसकी खूबसूरती एवं निरंतरता की वजह है.
लोक परम्पराएं अपने बुनियादी चरित्र के समानधर्मी होते हुए किसी अंचल विशेष में अपनी विशिष्टता की पहचान अलग लिए भी हो सकती है .उसको समझने के लिए उस अंचल के उद्भव, विकास, और निरंतरता, भौगौलिक परिस्थिति तथा सामाजिक दबाव आदि को ध्यान में रखकर समझा जा सकता है. जन्म संस्कार ,छटी, नामकरण संस्कार, सगाई, विवाह आदि में अपनायी जाने वाली परम्पराएं, मृत्यु के अवसर पर किए जाने वाले संस्कारो में, पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है. यही नहीं, एक ही जाति के लोगों में भी उनकी लोक-परम्पराओं में भिन्नता मिलती है. यद्दपि बुनियादी तौर पर एकरुप होते हुए भी विभिन्न अंचलों की परम्पराएं भी लगभग एक ही तरह की होती है और उनके गतिशीलता का पैमाना भी एक सा ही हुआ करता है.
गतिवान और विकासशील परम्पराएं कब संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन जाती है, पता ही नहीं चल पाता. शाब्दिक अर्थों में “संस्कृति” शब्द “संस्कार” का ही रुपान्तरण है. और कालान्तर में संस्कारों का परिमार्जन ही संस्कृति का आकार ग्रहण करता हुआ जीवन भर साथ चलता है, जिसे हम बाद में इन्हीं संस्कृति और संस्कारों को भावी पीढी को सौंप जाते हैं.
लोक व्यवहार के कुशल चितेरे, मानस मर्मज्ञ तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में परम्प्रराओं और संस्कारों की विशद व्याख्या ही नहीं की है,बल्कि उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उतारकर उसे जन-जन तक पहुंचाया भी है-
१/-“प्रातकाल उठि के रघुनाथा* मातु पिता गुरु नावहिं माथा”
२/-“करि दंडवत मुनिहिं सनमानी*निज आसन बैठारेहि आनी
३/-“जननी भवन गए प्रभु*चले नाइ पद सीस”
४/-“लागे पखारन पाय पंकज*प्रेम तन पुलकावली”
“५/- कंबल,बसन विचित्र पटॊरे*भांति-भांति बहु मोल न थोरे
६/-गज रथ तुरग दास अरुदासी*धेनु अलंकृत कामदुहा सी”
७/-“सनमानि सकल बरात आदर, दान बिनय बडाइ कै
प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे,पूजि प्रेम लडाइ कै
८/-“बृंदारका गन सुमन बरिसहिं,राउ जनवासेहि चले
९/-दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ, नगर कौतूहल भले
१०/-तब सखी मंगल गान करत, मुनीस आयसु पाइ कै
११/-दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि, चली कोहबर ल्याइ कै”
“पुनि जेवनार भई बहु भाँती, पठए जनक बोलाइ बराती”
१२/-“आसन उचित सबहिं नृप दीन्हे, बोलि सूपकरी सब लीन्हे
१३/-सादर लगे परन पनवारे. कनक कील मनि पान सँवारे”
जेवँत देहि मधुर धुनि गारी, लै लै नाम पुरुष अरु नारी’
सुबह उठकर माता-पिता को प्रणाम करना, अपने से बडॆ-बूढे, माता-पिता तथा गुरु को उचित सनमान देना, शादी-विवाह के समय वधु को दहेज में अनेकानेक चीजों का दिया जाना. बरात का आदरपूर्वक सम्मान करना, स्त्रियों का मंगल गान गाना, दुल्हे के लिए लहकोर लेकर आना,और खिलाना, सारे बारातियों को भोजन करने के लिए बुला भेजना, उचित सनमान देते हुए आसन देना, भोजन करने का आग्रह करना, भोजन करते समय स्त्रियां, मधुर ध्वनि से पुरुषों व स्त्रियों के नाम ले लेकर गालियाँ देने का रिवाज आदि का वर्णण गोस्वामीजी ने मानस में किया है
परम्पराओं का सांचा-ढांचा कुछ इस तरह विकसित किया गया था कि वह सकल समाज को भी साथ लेकर चलती है.. इस उदाहरण से काफ़ी हद तक उसे समझा जा सकता है. मसलन किसी परिवार में शादी-विवाह होना है. मंढा बनने और तोरण सजाने के लिए उसे बांस-बल्लियों की आवश्यक्ता होती थी तो वह बसोड से संपर्क साधता था. खाम्ब बनाने के, लिए बढई, मिट्टी के पात्र जैसे कलश-और दीप प्रज्जवलित करने के लिए दीया चाहिए तो वह कुंभकार से संपर्क साधता था. शादी की रस्में करवाने के लिए किसी योग्य ब्राहमण की तलाश करना, हर घर तक मांगलिक कार्यों की सूचना अथवा बुलावा भेजने के लिए लिए नाई को इस काम में लगाना, वाद्द-यंत्र बजाने के लिए बसोड, मंगल गीत गाने और भी व्यवहारिक रीत निभाने के लिए मोहल्ले-पडौस की महिलाओं की आवश्यकता होती थी. रिश्ते-नाते के लोगों के अलावा पूरा समाज इस आयोजन में अपनी भागीदारी का निर्वहन करता नजर आता था.
यह परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन इस बदले माहौल में काफ़ी कुछ बदल गया है. इस आधुनिकता के दौर के चलते अब लोग देर तक बिस्तर में घुसे रहते हैं. गुरुजनो एवं वयोवृद्ध कितना सम्मान पा रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है. संबंध तय होने से पहले मांग-लिस्ट थमा दी जाती है.,मंगल गान गाने और सुनने की कल्पना अब नहीं की जा सकती. “चिकनी चमेली” जैसे बोल वाले गानों पर युवा-युवतियाँ थिरकते नजर आते हैं. अब कोई आपको मनुहार करते हुए खाना परस कर नहीं खिलाता. उसकी जगह अब “बफ़े” ने ले ली है. बफ़े लेने के अपने अपने नियम कायदे हैं लेकिन लोग भोजन पाने के लिए गिद्द की तरह टूट पडते हैं., बच्चों का जन्मदिन भी अब पाश्चात्य तरीके से मनाया जाता है. उसकी उम्र के अनुसार, उतनी मोमबत्तियां जलाई जाती है और फ़िर “ हेप्पी बर्थ डॆ टू यू” कहकर तालियां बजती हैं और फ़िर बच्चा उस मोमबत्ती को फ़ूंककर बुझा देता है, जबकि भारतीय पद्दति में दीप जलाने की शिक्षा दी जाती है.
“दीपोज्योतिः परब्रह्म दीपोज्योतिर्जनार्दनः/दीपो हरतु मे पापं सांध्यदीप नमोSतु ते
शुभं करोतु कल्याण आरोग्यं सुखसम्पदम/शत्रु बुद्धि विनाशाय च दीपज्योर्नामोsतु ते “
हमारी भारतीय परम्परा में दीप प्रज्जवलित करने के महत्व को प्रतिपादित किया गया है, न कि दीप बुझाने को. यह पाश्चात्य संस्कृति की देन को हम अंगिकार करके गौरवान्वित होने तथा आधुनिक होने का भ्रम पालकर, प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं, यह सीधे-सीधे भारतीयता पर कलंक है.