स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भी इस बात पर गंभीरता से विचार-विमर्ष चलता रहा था कि भारत की राष्ट्रभाषा किसे माना जाए ? तब हिंदी एक ऐसी भाषा के रूप में विकसित हो रही थी, जिसमें समूचे देश को एकता के सूत्र में बांधने की संभावनाएं थीं. कई स्वनाम धन्य देशभक्तों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिंदी का जोर-शोर के साथ प्रचार-प्रसार किया..समय के साथ हिंदी पूरे देश की संपर्क भाषा के रूप में विकसित जरुर हुई. तथा देश को एकता के सूत्र में भी बांधने में उसकी अहम भूमिका रही, लेकिन शिक्षा जगत में खासकर उच्च शिक्षा में इसे माध्यम के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया गया.
भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतांत्रिक बहुभाषा-भाषी का देश है यहाँ सैकड़ों बोलियाँ आज भी बोली जाती है. भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची की बात करें तो कुल बाईस भाषाएं- असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, गुजराती, डोगरी, तामिल, तेलुगु, नेपाली, पंजाबी, बांगला, बोड़ी, मणिपुरी,, मराठी,, मलयालम, मैथिली, संथाली, संस्कृत, सिंधी,तथा हिंदी को मान्यता है, जिसमें हिंदी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. किंतु संघीय भाषाऒ के संख्या चौदह है, इसमें संघ की राजभाषा हिंदी है, संविधान में हिंदी के प्रचार-प्रसार तथा उसके संवर्धन की व्यवस्था तो है, किंतु सहभाषा के रूप में नियत कालावधि तक स्वीकृत अंग्रेजी को सहभाषा का दर्जा देते हुए भी उसके संवर्धन या समृद्धि का कोई संकेत नहीं है.जबकि यह आशा की गई थी कि सन 1965 तक हिंदी संपूर्ण राष्ट्र में राजभाषा उपयुक्त स्थान ग्रहण कर लेगी, फ़िर उसके सहयोग के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता नहीं रहेगी. दुःख इस बात का है कि पन्द्रह वर्ष बीत जाने के बाद भी अंग्रेजी महारानी बनी बैठी है. तत्कालीन प्रधान मंत्री लालबहादुर शात्री जी ने हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के बारे में ठोस फ़ैसला लेने की कोशिश की, लेकिन तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शनों के बाद अंग्रेजी का राजभाषा के तौर पर इस्तेमाल जारी रहा.
केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में कहा था कि राजभाषा हिंदी को देश की एकता का अहम हिस्सा बनाया जाये, उनके अनुसार राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल होना चाहिए, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर परस्पर संवाद के लिए अंग्रेजी के बजाय हिंदी में संवाद होने से देश की एकता बढ़ेगी. इससे पहले भी शाह ने सन 2019 में “ एक देश-एक राष्ट्रभाषा” की बात कही थी. सभी जानते हैं कि तमिलनाडु की सियासत तो सदा से ही हिंदी विरोधी रही है. तमिलनाडु ही क्यों, केरल कर्नाटक, पश्चिम बंगाल ने भी हिंदी के विरोध का झण्डा उठा लिया. सियासी लाभ के लिए हिंदी का विरोध करने वाले इन नेताओं को दिल्ली की सत्ता में काबिज होने के लिए हिंदी की सीढ़ियों के इस्तेमाल से परहेज नहीं होता. सत्ता पाने तक के लिए वे हिंदी का इस्तेमाल करते हैं, और जीतते ही विरोध में खड़े हो जाते हैं.
आज भी हिंदी के पश्न पर निराशापूर्ण वातावरण निर्मित करने के लगातार कोशिशें की जा रही हैं. भारत में हिंदी, हिन्दुस्तान और हिंदू पर चारो ओर से आक्रमण हो रहे हैं. इन तीनों का नाम लेते ही आप साम्प्रदायिक की गिनती में आ जाते हैं. लेकिन यह भूला दिया जाता है कि एक सौ पच्चीस करोड़ वाले इस विस्तृत भूखण्ड में आज भी हिन्दी बोली और समझी जाती है. जो भाषा अपनी प्रकृति और सहजता के कारण राष्ट्र की जनता द्वारा ग्राह्य की जा रही है, वह राष्ट्रभाषा का पद स्वयमेव प्राप्त कर लेगी. किसी सत्ता की स्वीकृति उस भाषा के लिए जरुरी नहीं होती, जिसे राष्ट्र अंगीकार कर लेता है. क्या यह सकारात्मक संकेत नहीं है कि दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन के बाद भी भारत की दो प्रतिशत आबादी ही अंग्रेजी भाषा सीख सकी? यह तब हुआ जब सरकारी नौकरी के लिए अंग्रेजी का बंधन था और शिक्षा व्यवस्था पर ब्रिटिश सत्ता का पूरा नियंत्रण था. इसके विपरीत हिंदी का क्रमिक विकास उस अवधि में प्रारंभ हुआ जब देश पर विदेशी शासक थे- हले मुगल और बाद में अंग्रेज. लेकिन देश की जनता ने, न फ़ारसी को अपनाया और न ही अंग्रेजी को. आजादी के संघर्ष में जूझते देश में हिंदी विकसित होती रही.
हिंदी की इस विकास यात्रा की विधिवत शुरुआत का श्रेय तो महात्मा गांधी को जाता है. उन्हीं के प्रयास से ही दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हुई. इन संस्थाओं ने प्रचारक तैयार किये जो देश के सुदूर अंचलों में जाकर हिंदी पढ़ाते और सिखाते रहे. इसके अतिरिक्त आर्य समाज के माध्यम से गुजरात, पंजाब में हिंदी फ़ैली. संस्थागत कार्यों को जन-समर्थन इसीलिए मिल सका, क्योंकि भारतीय जनता राष्ट्र की एकात्मता में विश्वास रखती थी और हिंदी भाषा को एकता का सूत्र मानने लगी थी. हिंदी को साहित्य में भी उसी वही धाराएं दिखाई दीं जो उनके प्रदेशों में प्रवाहित हो रही थी और उनमें राष्ट्र की संस्कृति को प्रतिध्वनित होते सुन पा रही थी. लोक संस्कारों और विश्वासों की समानता ने भारतीयों के हृदय में बसी हुई एकता की लहरों ने उत्तेजना पैदा की. हिंदी संस्थाओं ने हिंदी के कार्य को राष्ट्र-कार्य मानकर पूरे समर्पण से जन भावनाओं का सम्मान किया.
हिंदी की इस विकास यात्रा में स्वतंत्रता के बाद भी अवरोध खड़े करने की कोशिशें तेज हो गई थीं. इसमें कुछ निहित स्वार्थों के साथ ही विदेशी शक्तियां भी सक्रिय है. ऐसे में हिंदी संस्थाओं पर अतिरिक्त दायित्व आ जाता है कि भारतीय मन को गुलामी के बंधन से मुक्त करें. भाषा की समृद्धि के लिए आवश्यक है कि उसमें ज्ञान-विज्ञान का विपुल भंडार निर्मित किया जाए. यह सब करते हुए हमारी दृष्टि में राष्ट्र रहना जरुरी है.
हिंदी भाषा की विकास यात्रा में अहिंदी भाषा भाषियों के योगदान को कैसे भूलाया जा सकता है?. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना एक अहिन्दी भाषी केशव बलिराम हेगड़ेवार ने की थी. वे मराठी भाषी थे, लेकिन कामकाज और संपर्क भाषा के रूप में संघ ने शुरु से ही हिंदी को अपनी भाषा बनाया. केशवचंद्र सेन बंगली भाषी थे. ब्रह्मसमाज के संस्थापक श्री सेन ने 1875 में कहा था “ हिंदी में भावी भारत की संपर्क भाषा बनने की ताकत है”. उन्होंने आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती से अपनी भेंट के दौरान “सत्यप्रकाश” हिंदी में लिखने का सुझाव दिया था. इसी प्रकार हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने का सुझाव उन्न्नीसवीं सदी में गुजरात के कवि नर्मदालाल शंकर ने 1880 में दिया था. लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने 1905 मे कहा था –“ निःसंदेह हिंदी ही देश की संपर्क और राजभाषा हो सकती है”. गांधी जी के अनन्य शिष्य विनोबा भावे ने, हर भारतीय भाषा को नागरी लिपि में लिखने के लिए सुझाव दिया था. देश के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी गुजराती हैं लेकिन वे न केवल देशी मंच पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पूरे आत्मविश्वास के सात हिंदी में खुद को अभिव्यक्त करते नजर आते हैं. ये सभी महानुभाव अच्छी तरह से जानते थे कि अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजियत इन तीनों में सबसे अधिक घातक भारतीय जनता के लिए अंग्रेजी ही है, जो हमारे संस्कार और राष्ट्रीय गौरव को ठेंस पहुँचाकर हमें अस्मिता शून्य बनाने में सक्रीय है. वे यह भी जानते थे कि अंग्रेजों के बिदा लेने के बाद अंग्रेजी और अंग्रेजित यहाँ बनी रही, तो हमारे स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वदेशाभिमान कभी उत्पन्न नहीं हो सकेगा.
हिन्दी भाषा की अपनी खूबियां हैं,. यथा -
१/- हिन्दी एक सशक्त और सरल भाषा है.(२) हिन्दी देवनागरी लिपि मे ध्वनि-प्रतीकों ( स्वर-व्यंजन) का क्रम वैज्ञानिक है (३) इसमे प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग चिन्ह है (४) इसमे केवल उच्चारित ध्वनियाँ ही लिखी जाती है.(५)जिस रुप में यह बोली जाती है, उसी रुप में लिखी भी जाती है.(६) हिन्दी जर्मनी की तरह अपने ही प्रत्ययों से नवीन शब्दों का निर्माण कर लेती है.(७) हिन्दी में क्रदंन्त क्रियायों को अधिक ग्रहण किया है, क्योंकि ये बहुत सरल एवं स्पष्ट होती है.(८) हिन्दी की संज्ञा-विभक्तियां सिर्फ़ पांच-सात ही हैं.(९)हिन्दी के सर्वनाम अपने हैं.(१०) हिन्दी में विशेषण के साथ अलग-अलग विभक्ति लगाने की जरुरत नहीं होती. (११) हिन्दी के अपने अव्यय हैं.
संस्कृत भाषा की दुहिता होने के कारण इसके पास शब्द भंडार की कमी नहीं है. अपनी सहजता और सरलता के कारण आम आदमी, चाहे वह देश के किसी कोने में रहने वाला हो, किसी भी भाषा/ बोली का बोलने वाला हो अथवा विदेश में बसा हो,उसे हिंदी समझने ,बोलने और लिखने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती. भारत की संस्कृति को जानने समझने के लिए संपूर्ण विश्व लालायित है. यही वह प्रमुख कारण है कि विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ी और पढ़ाई जा रही है. यह हिंदी का दुर्भाग्य नहीं ,अपित उन लोगों का है, जो हिंदी को नहीं अपना पाए या अपनाना नहीं चाहते. हिंदी को जानना ही देश को जानना है. उसके सनातक धर्म और संस्कृति को जानना है. ऐसा कहा भी जाता है कि जिसके पास जो अनमोल वस्तु होती है, वह अपनी अज्ञानता के कारण उसका सही मूल्यांकन नहीं कर पाता. यह सच है कि हिंदी के घोर विरोध के चलते हिंदी वह स्थान नहीं पा सकी, जिसकी की वह सच्ची अधिकारिणी थी. बावजूद इसके हिंदी किसी अमरबेल की तरह पूरे विश्व में अपना साम्राज्य स्थापित कर चुकी है. .आज भले ही हिंदी राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्राप्त नहीं कर पायी है, लेकिन वह विश्व भाषा जरुर बन गई है. विश्वभाषा बनने का गौरवशाली इतिहास हिंदी ने स्वयं अपने बलबूते पर यह कारनामा कर दिखाया है.
आज हिंदी जानने वाले अंग्रेजी से कहीं अधिक है. विश्व भाषा के रूप में विख्यात चीनी व अंग्रेजी पर दृष्टिपात करें तो तुलनात्मक दृष्टि से हिंदी को विश्व-पटल पर स्थिति का जो आलेख बनता है वह सकारात्मक चित्र प्रस्तुत करता है. हम जिस चीनी भाषा को विश्व की स्बसे बड़ी भाषा मानते हैं, उसके विषय में इन तथ्यों का पता चलता है कि जिस क्षेत्र में चीनी बोली जाती है, वह चीन की राष्ट्रभाषा व राजभाषा है, परंतु इसके जानने वाले सारे चीन में उपलब्ध नहीं है, चूँकि इसे राष्ट्रसंघ में मान्यता मिली है और चीन की राजभाषा भी यही है, इसलिए इसे जानने और समझने वालों की संख्या अधिक ही होगी. परन्तु विशेषज्ञों का मानना है कि कुल मिलाकर भी वह हिंदी भाषा की संख्या से अधिक नहीं होगी.
शब्द संख्या की दृष्टि से हिंदी एक समृद्ध भाषा है जिसमें ढाई लाख शब्द हैं, जबकि अंग्रेजी में मुश्किल से मौलिक शब्द संख्या मात्र 20 हजार के लगभग है. आज हिंदी विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है. एक वे देश जहाँ भारतीय श्रमिक दासों के रूप में लगभग सौ-देढ़ सौ वर्ष पहले गए थे,जहाँ इन देशों में प्रमुख नागरिकों के रूप में इनकी गणना की जाती है. जिसमें प्रमुख हैं- फ़ीजी, मारीशस, गुवाना, सुरीनाम, त्रिनीडाड, आदि. दूसरे हैं ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, नीदरलैंड, स्वीडन, डेनमार्क, जर्मनी, नार्वे आदि. इनमें केन्या, दक्षिणी अफ़्रीका आदि देशों के अप्रवासी भारतीयो को शामिल किया जाता है. इस प्रकार बर्मा (म्यांमार), थाईलैंड, मलेशिया, न्यूजीलैंड. अन्य देशों में फ़्रांस, जापान, चीन, रूस, लंदन,जर्मनी आदि में भी हिंदी का अध्ययन, अध्यापन व संशोधन तथा प्रचार-प्रसार निरंतर जारी है, इससे हिंदी लगभग विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों एवं लोकसेवी संस्थानों के माध्यम से प्रचार-प्रसार पा रही है.
हिंदी को विश्व-व्यापी स्वरूप देने की अभिकल्पना को और अधिक साकार करने के लिए विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं. आइए , अब तक हुए विश्व हिंदी सम्मेलनों के बारे संक्षिप्त जानकारियाँ प्राप्त करते चलें,
हिंदी भाषा का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है जिसमें विश्व भर के हिंदी विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार ,भाषा विज्ञानी, विषय विशेषज्ञ तथा हिंदी प्रेमी शामिल होते है. इस कल्पना को साकार करने में श्री मधुकर राव चौधरी के साथ तत्कालीन सांसद और हिंदी के मुखर समर्थक बाबू गंगाशरणसिंह, श्री गोपाल शेवड़े, श्री लल्लन प्रसाद व्यास का महत्वपूर्ण योगदान रहा. इस सम्मेलन के महासचिव राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रधान मंत्री श्री शंकर राव लोंढे बनाए गये थे..
प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन
नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने संभव बनाया. यह सम्मेलन 10 से 14 जनवरी 1975 में संपन्न हुआ. मारीशस के प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम मुख्य अतिथि के रूप में आए. उन्होंने दूसरे विश्व हिंदी सम्मेलन को मारीशस में करने की घोषणा की.
द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन- 28 से 30 अगस्त 1978 को मारीशस में सम्पन्न हुआ. इसमें भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व डा. कर्णसिंह ने किया.
तीसरा विश्व हिंदी सम्मेलन- श्रीमती इंदिरा गांधी के सक्रीय प्रयासों से 28 से 30 अक्टूबर 1983 को दिल्ली में सम्पन्न हुआ. इसके लिए भारत सरकार ने जो समिति गठित की थी, उसमें श्री मधुकर राव चौधरी, बाबू गंगाशरण सिंह, प्रो.सिद्धेश्वर प्रसाद, श्री मनोहर श्याम जोशी, डा. रत्नाकर पाण्डॆय की प्रमुख भूमिका रही.
चौथा विश्व हिंदी सम्मेलन - 02 से 04 दिसम्बर 1993 को पुनः मारीशस में संपन्न हुआ. यह सर शिवशागर रामगुलाम के प्रयासों से अत्यधिक सफ़ल हुआ.
पाँचवा विश्व हिंदी सम्मेलन- 04 से 08-अप्रैल 1998 त्रिनिनाड टॊबैगो (वेस्ट इंडीज) में संपन्न हुआ. इसमें मुख्य भूमिका लन्दन में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी की रही. सम्मेलन की सह-आयोजक “हिंदी-निधि त्रिनिडाड” थी और वहाँ के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री वासुदेव पाण्डॆय ने पूरा समर्थन दिया.
छटा विश्व हिन्दी सम्मेलन - 14 से 18 सितम्बर 1999 को लन्दन में हुआ. इसमें भी महत्वपूर्ण भूमिका डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने निभाई और यू.के. के हिंदी समिति “गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक समुदाय बर्मिंघम” तथा “भारतीय भाषा संगम” का यथेष्ट सहयोग मिला. डा. पद्मेश गुप्त को इस सम्मेलन का संयोजक बनाया गया.
सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन - 05- से 09-जून 2003 को सूरीनाम की राजधानी पारमारिबो में संपन्न हुआ. इसका पूरा दायित्व भारत के विदेश मंत्रालय ने उठाया. इक्कीसवें सदी में आयोजित यह सम्मेलन पहला विश्व सम्मेलन था. इसका केण्द्रीय विषय था- “विश्व हिंदी : नई शताब्दी की चुनौतियाँ.” लन्दन और सूरीनाम के सम्मेलनों की अवधि में श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे.
आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन- अमेरिका के न्यूयार्क में 13 से 15 जुलाई 2007 को संपन्न हुआ. इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने इसका उद्घाटन किया. भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के प्रतिनिधि के रूप में डा. कर्णसिह उपस्थित हुए.
नवां विश्व हिंदी सम्मेलन.- जोहांसबर्ग में -
नंवा विश्व हिंदी सम्मेलन दक्षिण अफ़्रीका के जोहान्सबर्ग में 22 से 24 सितंबर 2012 को संपन्न हुआ, इसमें भारतीय प्रतिनिधि का नेतृत्व विदेश राज्य मंत्री श्रीमती परवीन कौर ने किया. इस विश्व सम्मेलन में हिंदी भवन के मंत्री-संचालक मान.श्री कैलाशचंद्र पंत जी एवं (स्व.) श्री बाल कवि बैरागी जी (नंद रामदास बैरागी जी) को सम्मानित किया गया था.
दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन - भारत की सांस्कृतिक नगरी भोपाल में 10 से 12 सितंबर 2015 को विदेश मंत्रालय भारत सरकार द्वारा अयोजित किया गया था. इस सम्मेलन को भारत में आयोजित करने का निर्णय सितंबर 2012 को दक्षिण अफ़्रीका के जोहान्सबर्ग के नौंवे विश्व हिंदी सम्मेलन में लिया था.भोपाल के लाल परेड मैदान में माननीय विदेश मंत्री (स्व.) श्रीमती सुषमा स्वराज की अध्यक्षता में किया गया था. तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री शिवराज चौहान इस सम्मेलन के मुख्य संरक्षक थे. देश-विदेश से लगभग 5000 हिंदी प्रेमियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी. देश के यशस्वी प्रधानमंत्री मान.श्री नरेन्द्र मोदी जी ने इसका औपचारिक उद्घाटन किया था. इस सम्मेलन में मुझे भी उपस्थित रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था.
ग्यारहवां विश्व हिंदी सम्मेलन –“ वैश्विक हिंदी और भारतीय संस्कृति विषय पर 18 से 20 अगस्त 2018 को पोर्ट लुई मारिशस में आयोजित किया गया था.
बारहवां विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा फ़िजी के सहयोग से फ़िजी के नादी शहर में आयोजित किया गया था.
तेरहवां विश्व हिंदी सम्मेलन कहां होगा? इसकी अभी तक विधिवत घोषणा नहीं की जा सकी है.
और अंत में -
कलम के सिपाहियों को समर्पित महादेवी वर्माजी की एक प्रसिद्ध कविता –
कलम अपनी साध और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध // यह कि तेरी-भर न हो तो कह //और बहते बने सादे ढंग से तो बह // जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख.// और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख // चीज ऐसी बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए.