प्रेम करने के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती. ठीक इसी तरह कविताएँ-कहानियाँ लिखने के लिए भी उम्र का बंधन नहीं होता. प्रख्यात उपन्यासकार थामस हार्डी आजीवन उपन्यास लिखते रहे. उन्होंने अस्सी वर्ष की उम्र में कविताएँ लिखना शुरु किया था.
यदि मैंने तीन दशक से कुछ अधिक समय तक कविताएँ लिखने के बाद कहानियाँ, लघुकथाएँ, लेख-आलेख, यात्रा वृत्तांत तथा उपन्यास लिखना शुरु किया, तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता.
अपने जीवन के अठहत्तर (78) वे मोड़ पर आते-आते मेरे दो नए कहानी संग्रह ( पूर्व में चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.), लगभग पाँच लेख-आलेखों का संग्रह, तथा रामकथा पर उपन्यास प्रकाशित होने जा रहे है. रामकथा पर आधारित उपन्यास तीन खण्डॊं में लिखा जा रहा है. प्रथम खण्ड-"वनगमन", दूसरा-"दण्डकारण्य की ओर" और तीसरा और अन्तिम खण्ड "लंका की ओर" है. "वनगमन" प्रकाशित हो चुका है. इस प्रथम खण्ड की भूमिका डा.राजेश श्रीवास्तव (निदेशक रामायण केंद्र भोपाल एवं मुख्य कार्यपालन अधिकारी, म.प्र.तीर्थ एवं मेला प्राधिकरण, अध्यात्म मंत्रालय, म.प्र.शासन,भोपाल) तथा डा. श्री दीपक पाण्डॆय ( सहायक निदेशक, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली ) ने लिखी है. दूसरे खंड-" दंडकारण्य़ की ओर" पर मारीशस के प्रख्यात उपन्यासकार/लघुकथाकार श्री रामदेव धुरंधर एवं साहित्य अकादमी भोपाल के निदेशक श्री.विकास दवे जी ने भूमिका लिखी है. दूसरा खंड प्रेस में है. शायद इसी माह उसके प्रकाशित होकर आने की संभावना है. तीसरे खण्ड पर लेखन कार्य जारी है.
कभी कंप्युटर की शक्तियों को नकारते हुए या कहें अज्ञानतावश मैंने उसे सीखने (आपरेट) में रुचि नहीं दिखाई, जबकि यह घर में उपलब्ध था. बावजूद इसके मैंने उसे कभी छूने तक की कोशिश भी नहीं की. यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे कालान्तर में, उम्र के पैसठवें पड़ाव पर थाईलैंड जैसे अपरिचित-अनचिन्हें देश में भ्रमण करने का सुअवसर मिला. मैंने देखा, मेरे अधिकांश सहयात्री लैपटाप में दर्ज अपनी रचनाएं सुनाते, जबकि मुझे डायरी के पन्ने पलटने पड़ते थे.
इस घटना ने मुझे अंदर तक झझकोर दिया . ऐसा होना स्वभाविक भी था. मैंने निर्णय लिया कि अब इसे सीखकर ही रहूँगा. परिणाम यह हुआ कि अब मेरा सारा काम कंप्युटर पर ही होता है. डाक से भेजी जाने वाली रचनाएँ, जहाँ हफ़्ते-दस दिन में अपने गंतव्य पर पहुँचा करती थीं, अब पलक झपकते ही विश्व के किसी भी कोने में पहुँच जाती हैं. इंटरनेट के माध्यम से मेरी रचनाओं को एक बड़ा आकाश मिला.तथा देश-परदेश की पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिलने लगा.
आज, अपने जीवन के अठहत्तरवें मोड़ पर, लेखनी के दरिया किनारे बैठकर, जब मैं लहरों को गिनता हूँ तो मुझे बरबस ही मुझे अपना बचपन याद हो आता है.
17-07-1944 (सतरह जुलाई सन उन्नीस सौ चौवालिस) को मेरा जन्म पुण्य-सलीला माँ ताप्ती के उद्गम स्थल मुलताई (जिला बैतुल) में हुआ. सदियों से यह स्थान धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक चेतना का संगम-स्थल रहा है.
माँ भगत्भक्त थीं. वे बड़े ही अनन्य भाव से रामचरित मानस, सुख सागर, शिवपुराण जैसे धार्मिक ग्रंथों को नियमित रूप से बांचती थीं. कभी स्वास्थ ठीक नहीं है का बहाना बनाकर, वे मुझसे कहतीं, आज तुम पढ़कर सुनाओ. मैं भी उसी लय में पढ़ने की कोशिश करता. पिता को भी पढ़ने में गहरी रुचि थी. वे किताबें खरीद कर लाया करते थे. विशेषकर गीता प्रेस से प्रकाशित छोटी-छोटी पुस्तकें ( पाकिट बुक्स.) मेरे लिए खरीद कर लाते, ताकि मेरा जुड़ाव किताबों से हो सके. गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तकों का कोई अधिक मूल्य भी नहीं होता था. एक पैसे से दसों रुपयों तक की पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हो जाया करती थीं. फ़िर घर की आलमारी में चंद्रकांता संतति, सुखसागर सहित अनेक कृतियाँ रखी हुईं होती थीं मुझे पढ़ने का अवसर मिला. कहूँ कि किताबों को पढ़ने का शौक, मुझे अपने घर की पाठशाला में रहते हुए ही मिला है, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
कक्षा चौथी का विद्यार्थी था मैं उन दिनों. श्री सुंदरलाल देशमुख नए-नए शिक्षक होकर आए थे. उनके आगमन के साथ ही शाला की दीवारों पर स्वनाम धन्य महापुरुषों के चित्र, तथा उनके उपदेशॊं से रंगी जाने लगी. मुख्य सभागार में एक बड़ा-सा आर्च था, जिसमें पं जवाहरलाल नेहरू तथा महात्मा गांधी से चर्चा में निमग्न बनाए गए थे. मैं एक ओर तटस्थ भाव से खड़ा रहकर उन्हें चित्र बनाता देखता था.इसी तरह कक्षा पाँचवी में हमारे कक्षा शिक्षक श्री नाथूलाल पवांर भी चित्रकारी करने में दक्ष थे. कक्षा पांच में ड्राईंग एक विषय था. वे चित्र बनाना सिखाते थे. इस तरह मेरी रुचि चित्रकारी की ओर भी जाग्रत हुई.
कक्षा नौंवीं का विद्यार्थी था मैं. उम्र यही चौदह-पंद्रह के आसपास रही होगी, मैं कविता लिखने लगा था. तब शायद मै नहीं जान पाया था कि कविता आखिर होती क्या है?. बस ,मन में जो भी विचार उत्पन्न होते,उन्हें जस-की-तस कागज पर उतार लिया करता था.
उन दिनों मुलताई में केदारनाथ भार्गव हाई स्कूल, जिसका संचालन म्युनिसिपल किया करती थी, सरकारी स्कूल बन गया था. श्री एस.व्ही.पौराणिक नए-नए प्राचार्य होकर आए थे. वे कवि हृदय थे. उनके आते ही स्कूल की सारी गतिविधियाँ में व्यापक परिवर्तन आया. प्रतिदिन, प्रार्थना के बाद विद्यार्थियों को "सुविचार" कहने के लिए बुलाया जाता और उसे ब्लैक बोर्ड पर भी लिखने को कहा जाता था.
वे जानते थे कि विद्यार्थियों में किस तरह साहित्य के प्रति उत्सुकता जगाई जानी चाहिए,. अतः उसी वर्ष से, सेशन के अंत में हर शाला से एक हस्तलिखित स्मारिका तैयार की जाने लगी, जिसमें उस कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की अपनी स्वयं की लिखी बाल-कहानी, कहानी, कविता, संस्मरण आदि का समावेश होता था. इतना ही नहीं उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र का वर्गीकरण करते हुए सचिवों का चुनाव भी कर दिया था. प्रत्येक कक्षा का एक सचिव होता था. मुझे भी साहित्य-सचिव बनाया गया था. कक्षा शिक्षकों को उपाध्यक्ष बनाया गया और वे स्वयं इसके अध्यक्ष बने. प्रत्येक शनिवार को शाला के विशाल सभाग्रह में साहित्यिक कार्यक्रम बिना किसी रुकावट के होने लगे.
उस सभाग्रह में ही एक लायब्रेरी हुआ करती थी. शीशा जड़ी आलमारियों में बंद पुस्तकों और लेखकों के नाम पढ़कर, मेरे कोमल मन में, एक विचार ने जन्म लिया कि मैं भी लेखक बनूँगा और एक दिन मेरे नाम की लिखी पुस्तकें भी एक दिन यहाँ होगी. साहित्य-सचिव चुने जाने के साथ ही इस बात का उल्लेख करना मुझे जरुरी लगता है, वह यह कि श्री.एनलाल जैन हमें संस्कृत पढ़ाया करते थे. वे भी कवि-हृदय थे. कापी की जाँच करते समय उन्हें पृष्ठ भाग पर लिखी कविता दिखाई दीं. उन्होंने केवल उसे पढ़ा ही नही, बल्कि मुझे प्रोत्साहित करते हुए लगातार लिखते रहने को कहा. इस तरह कविता से मेरा रिश्ता कभी नहीं टूटा, बल्कि कविता से मेरा रिश्ता साल-दर-साल गाढ़ा और दिनो-दिन अधिक आत्मीय होता गया.
भारतीय अस्मिता के साहित्यकार कवीन्द्र रवीद्रनाथ ठाकुर को पढ़ते हुए एक सूत्र हाथ लगा. वे अपनी कविताओं के साथ चित्र बनाकर उसमें प्राकृतिक रंग भरा करते थे. मैं भी कविता के साथ चित्र बनाता और उसमें रंग भरने लगा. उस समय की बनाई गई डायरी आज भी मेरे पास एक धरोहर के रूप में सुरक्षित है. जब भी मैं उसके पन्ने पलटता हूँ तो उन दिनों की दिव्य स्मृतियाँ मानस-पलट पर थिरकने लगती है.
मनुष्य का सब कुछ बदलता रहता है. उसी प्रकार, कविता भी बदलती रहती है. उसकी कुछ चीजें नहीं बदलती और वह है उसकी भीतरी शक्ति...उसकी आत्मा..उसकी निजता...उसकी पहचान,,उसका कवितापन. और उसकी धड़कने.
उस काल-खंड में मेरे द्वारा लिखी गई कविताएँ और बाद में लिखी गईं कविताओं में जमीन-आसमान का अंतर अवश्य है, लेकिन उसकी भीतरी शक्ति और माधुर्य आज भी देखे जा सकते हैं. नागपुर नवभारत समाचार पत्र में जब पहली बार मेरी कविता प्रकाशित हुई, वह दिन मेरे लिए अद्भुत दिन था. प्रसन्नता से लकदक भरा दिन.. पैर तो जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. मित्रों से बधाइयाँ अलग मिल रही थी. सबसे ज्यादा प्रसन्नता माता-पिता को हो रही थी.वे खुश थे.बेहद खुश.
मैंने दो विषयों में दक्षता के साथ, मैट्रीक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की थी. प्रथम श्रेणी में आने वाले मेरे अन्य मित्रों में श्री अशोक जैन, लक्ष्मीकांत ठाकुर, विजय पाटिल तथा अरुणाचलम मुदालियार थे. मुझे छोड़कर प्रायः सभी ने कालेज में एडमिशन ले लिया था. गाँव छोड़कर शहर में जाकर पढ़ाई के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है. उसे उस समय मेरा परिवार उठाने में असमर्थ था. नागपुर मेरी ननिहाल है. रहने की व्यवस्था तो वहाँ हो गई थी. मैंने धनवटे नेश्नल कालेज में एडमिशन ले लिया और पार्ट-टाईम जाब की तलाश करने लगा. संयोग से मुझे जल्दी ही धंतोली स्थित एक रेफ़्रीजिरेटर सुधार करने वाली दुकान पर तीस रुपया माह से जाब मिल गया. मुझे करना कुछ नहीं होता था. बस फ़ोन अटेण्ड करना, बिगड़े रेफ़्रीजिरेटरो के आवक-जावक को नोट करना और साथ ही मैकनिकों पर सुपरविजन रखना होता था. दुकान दिन के ग्यारह बजे के बाद खुलती और मेरा कालेज सुबह की शिफ़्ट में लगता था. इस तरह पढ़ाई चल निकली.
बी.ए.( फ़ाइनल) में आते ही मेरा चयन डाक विभाग में हो गया. यह मेरे लिए खुशी का समय था. डाक घर में चयन होने के बाद मुझे देश की चर्चित और गौरवशाली परंपरा की धनी नगरी, जबलपुर में पोस्टिंग मिली. यह मेरा सौभाग्य ही है कि जहाँ मुलताई में मुझे माँ ताप्तीजी का और यहाँ आकर मुझे माँ नर्मदा जी का पावन तट मिला. बड़ौदा पोस्टल ट्रेनिंग से लौटकर मैंने 15 पन्द्रह फ़रवरी सन् 1965 में जबलपुर के प्रधान डाकघर में ज्वाईनिंग दी थी.
उन दिनों केन्द्र सरकार में नौकरी पाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. एक सौ दस रुपया मासिक सेलरी के अलावा उस पर मिलने वाला डी.ए. मिलाकर मुझे अपनी पहली तन्खाह पर एक सौ चालिस रुपया पचास पैसे मिले थे. सरकारी नौकरी में इतनी बड़ी सेलेरी और किसी अन्य विभाग में नहीं थी. डाक-विभाग में नौकरी पाकर जहाँ एक ओर मैं प्रसन्नता से लकदक हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर मेरे जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाली और जीवन को खुशियों से भर देनी वाली बहुत बड़ी खुशी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी.
मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह छिन्दवाड़ा निवासी श्री श्रीमती चंपाबाई + श्री बुटूलाल यादव जी की सुश्री शकुन्तला यादव के संग होना सुनिश्चित हुआ. इस दिन वसंत पंचमी का पावन पर्व था. 5 मार्च सन् 1965 दिन शुक्रवार को हमारा पाणिग्रहण संस्कार हुआ. मेरे जीवन में वसंत का प्रवेश तो उसी दिन हो चुका था, जिस दिन हमारे विवाह की बात वसंत पंचमी के दिन पक्की की गई थी. सुंदर-सुगढ़-सुशील और संस्कारी पत्नी को पाकर मैं बहुत खुश था. बेहद खुश.
घर-गृहस्थी को सुचारु रूप से संचालित करने के साथ ही उसे गीत-संगीत में गहरी रुचि थी. पारंपरिक गीतों को सहेज कर रखना और गाना उसकी रुचियों में एक था. गायन के अलावा कविताएं लिखना, लेखादि लिखना और पढ़ना उसकी आदत का एक अभिन्न हिस्सा रहा. उसकी कई कविताएं-लेखादि विभिन्न पत्र-पत्रिकाऒ में प्रकाशित हुए हैं. इसके साथ ही उसके स्वयं के लिखे गीत आकाशवाणी छिन्दवाड़ा से समय-समय पर प्रसाधित होते रहे.हैं.
प्रधान डाकघर में कार्य की अधिकता के कारण साहित्यिक गतिविधियाँ कुछ धीमी गति से चलने लगी थीं. बावजूद इसके समय-समय पर होने वाले कवि-सम्मेलनों तथा देश के ख्यातिनाम साहित्यकारों जैसे सेठ गोविन्ददास, आचार्य रजनीश, व्यंग्य शिल्पी हरिशंकर परसाई आदि को सुनने और मिलने का अवसर हाथ से जाने नहीं देता था. उस समय के ख्यातनाम गीतकार-संपादक नई दुनिया श्री राजकुमार सौमित्र जी (नई दुनिया ) में प्रकाशित होने वाले स्तंभ " राही निकुंज" में मेरी कविताएं समय-समय पर प्रकाशित होती रहती थीं.
जबलपुर रीजन लायब्रेरी का सदस्य और लायब्रेरियन से पनपी दोस्ती के कारण किताबें पढ़ने का शौक बराबर बना रहा. रांघेय राघव मेरे सर्वाधिक पसंदीदा लेखक रहे हैं.
संयोग से मुझे म्युचल ट्रांसफ़र मिल गया और मैं छिन्दवाड़ा संभाग के अंतरगत आने वाले जिला बैतुल में आ गया. यहाँ आने के बाद मेरी लेखनी की नदी, जो कार्य की अधिकता के कारण ठहर-सी गई थी, बह निकली.
बैतुल के कवि-मित्रों के साथ आए-दिन काव्य-गोष्ठियाँ आयोजित होतीं. मैं उसमें उत्साह से भाग लेता. कवि मित्रों के अलावा मेरे एक अभिन्न मित्र थे श्री शंकर प्रसाद श्रीवास्तव थे. वे बैतुल के जे.एच कालेज में हिंदी विभागाध्यक्ष थे, वे एक जाने-माने संगीतज्ञ थे. एक बार उन्होंने प्रख्यात नृत्यांगना सितारा देवी जी का कार्यक्रम आयोजित किया. उन्होंने उझे अपना सहयोगी बनाया.इस तरह मैं पूरे एक सप्ताह का अवकाश लेकर उनसे जुड़ा रहा. कार्यक्रम आशातीत सफ़ल रहा. इस आशातीत सफ़लता के बाद हम किसी अन्य कार्यक्रम के निर्धारण की सोच ही रहे थे, कि मेरा तबादला मेरे जन्म स्थान मुलताई में हो गया. यह मेरे लिए सर्वाधिक खुशी का विषय था. मैं यहाँ पूरे चार साल रहा.
मुलताई में कवियों की संख्या बहुत तो थी,लेकिन कोई मंच नहीं था. तत्कालीन डाकपाल श्री एस.डी.श्रीवास्तवजी भी एक कवि थे. हमने आपस में परामर्श किया और सबका सहयोग लेकर "मुलताई साहित्य समिति" का गठन किया.यह संस्था आज भी सक्रीय है. वर्तमान में मित्र श्री विष्णु शंकर मंगरुलकरजी इसके अध्यक्ष हैं. संस्था के गठन के बाद होने वाले खर्चों का उत्तरदायित्व तत्कालीन तहसीलदार सुंदरलाल मुद्गल जी ने उठाया. प्रधानपाठक श्री रामेश्वर खाड़े जी ने स्कूल का हाल उपलब्ध करवाया. इस तरह संस्था सुचारु रुपेण चलने लगी. मित्र सूरजपुरी, रामचंद्र देशमुख, श्री एनलाल जैन "स्वदेशी", श्री नरेन्द्रपाल सिंह, श्री बृजमोहन शर्मा "ब्रजेश" श्री विष्णु मंगरुलकर एवं अन्य कवि गोष्ठियोंमें उत्साह से भाग लेते. प्रख्यात कवि चंद्रसेन विराट भी यहाँ रहे हैं, वे भी अपनी उपस्थिति एवं सहयोग बनाए रखते थे. मानस के रचियता संत तुलसीदास जी की जयंती पर हमने एक बड़ा कार्यक्रम रखा जिसमें मानस मर्मज्ञ, मूर्धन्य विद्वान, मनीषी, चिंतक एवं प्रख्यात साहित्यकार श्री बलदेव प्रसाद मिश्र जी को आमंत्रित किया था.समिति का यह अयोजन पिछले अन्य कार्यक्रमों से सबसे बड़ा और अभूतपूर्व था.
शहर मुलताई के गौरव- स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री रामजीराव पाटिल, श्री बलवंत खन्नाजी, श्री सोम्मार पुरी गोस्वामी, डाक्टर श्री भोजराज खाड़े, समाजसेवी श्री पर्वतराव खाड़े जी का भरपूर सहयोग समिति को मिला करता था. इसी तरह गायकी में विशेष दक्षता रखने वाले श्री खेमलाल यादव, काका फ़कीरचंद यादव, भिक्कुलाल यादव ( भाई), श्री भिक्कूलाल यादव (पिताश्री.) सागरमल ओसवाल, श्री गेन्दपुरी आदि की टोली थी, जिनकी मण्डली आए दिन भजन की शानदार प्रस्तुति दिया करती थी और होली के पावन पर्व पर इनके द्वारा विशेष रूप से गायी जाने वाली फ़ाग समूची बस्ती में धमाल मचाया करती थी, को सुनने के अनेक अवसर आए. इस तरह मैं आंचलिक गीतों और लोकगीतों से परिचित हो पाया.
मुलताई निवासी तथा फ़िल्मों में काम करने वाले कलाकार श्री पी.कैलाश (फ़िल्म अभिनेता दिलीपकुमार के साथ फ़िल्म "आदमी" में जानदार अभिनय के लिए जाने जाते थे ). श्री शैल चतुर्वेदी जी (हास्य कवि ) इस शहर की एक खास सख्सियतियों में से एक थे. इस समय वे काका हाथरसी के साथ मंचों पर धमाल मचा रहे थे. बाद में शैलजी ने अनेक फ़िल्मों में हास्य अभिनेता के रूप में काम किया. पी.कैलाश और शैलजी का जब भी मुलताई आगमन होता, वे कैलाश शर्मा, शंभु प्रधान, शर्मा मास्साब, सुंदरलाल यादव (बड़े भाई) तथा सूरजपुरी के साथ मिलकर थियेटर किया करते थे.
इस बीच मेरा चयन अंग्रेजी मोर्स के लिए हो गया और मैं प्रदेश की राजधानी भोपाल आ गया. भोपाल में रहते हुए मुझे दो बार आकाशवाणी से अपनी कविताओं के प्रसारण का अवसर मिला. मोर्स के प्रशिक्षण के समापन अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम आयोजित किया गया,जिसकी अध्यक्षता पोस्टमास्टर जनरल श्री वेलणकर जी भोपाल कर रहे थे. मैंने मोर्स पर आधारित कविता- "नदी के डैश-डाट", पढ़ी. कविता से प्रभावित होते हुए उन्होंने मुझे पुरस्कृत किया और प्रशस्ति-पत्र भी दिया था.
प्रशिक्षण के बाद मेरी पोस्टिंग छिन्दवाड़ा हो गयी. छिन्दवाड़ा शुरु से ही राजनीति और साहित्य का केंद्र रहा है. प्रसिद्ध रंगकर्मी श्री गंगाधरराव थोरात जी (प्राचार्य) के मकान के ठीक सामने मैंने अपने लिए मकान किराए पर उठाया था. पड़ौस में कवि बाबा संपतराव धरणीधर, कहानीकार श्री हनुमंत मनगटे, श्री मनोहर घाटे ( इतिहास विशेषज्ञ-इन्साइक्लोपिडिया ) कवि श्री केशरीचंद चंदेल " अक्षत" जी एवं श्री लक्ष्मीप्रसाद दुबेजी का निवास था. इनके रहते हुए ’बरारीपुरा" शहर छिन्दवाड़ा में अपनी एक विशेष पहचान बना चुका था. या यह कहें, वह उस समय का स्वर्णिम काल था. आए दिन साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते. गजलों के बेताज बादशाह श्री गोपाल कृष्ण सक्सेना " पंकज" अपने अंदाज में हिंदी में गजलें कहते. वयोवृद्ध साहित्यकार/गीतकार पं.रामकुमार शर्माजी अपने मधुर कंठ से बेहतरीन गीत सुनाया करते थे. इनके अलावा सलीम जुन्नारदेवी, गीतान्जलि "गीत", राजेन्द्र मिश्रा "राही", प्रमोद उपाध्याय,, रत्नाकर "रतन", शिवशंकर शुक्ला, शिवराम विश्वकर्मा "उजाला, मन्नुलाल जैन "झकलट", ओमप्रकाश नयन, राजीव मोघे, सुश्री कमला वर्मा आदि सहित अनेक कवियों से गहरा जुड़ाव होता गया. आए दिन गोष्ठियां होती रहतीं. राजेन्द्र मिश्रा" राही" एक उमदा कवि होने के साथ-साथ अच्छा मंच-संचालक भी है. इसी बीच हमने एक संस्था "चक्रव्यूह" का गठन किया. शीघ्र ही इस मंच ने जिले में अपनी विशिष्ठ पहचान बना लिया था. मैं इस संस्था का दो साल साहित्य- सचिव भी रहा.
देश और परदेश में छिन्दवाड़ा को विशेष ख्याति दिलाने वाले और इसी माटी में जन्में प्रख्यात साहित्यकार (स्व.) श्री विष्णु खरे जी के योगदान को कैसे विस्मृत किया जा सकता है?. आपने कई महाविद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया और अनेकों देशों की यात्राएं की थीं. मात्र सोलह वर्ष की आयु में ही आप कविताएं लिखने लगे थे. कम उम्र में ही आपने विश्व विख्यात कवि " टी.एस.एलियट" की कविताओं का अनुवाद किया. महान हंगरी कवि " अत्तिला योजेफ़ " की रचनाओं का अनुवाद और हंगरी के ही नाटककार" फ़ेरेन्त्स करिन्थी "के नाटक "पियानो" पर समीक्षा आलेख लिखा. आपकी कई रचनाओं का अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है. अनेक सम्मानों से सम्मानित खरेजी नवभारत टाईम्स आफ़ इण्डिया, नई दिल्ली में प्रधान संपादक भी रहे.
मेरी पत्नी श्रीमती शकुन्तला यादव जी के हार्ट का आपरेशन एम्स में होना था. इस दौरान आपसे (खरे जी) सौजन्य भेंट हुई, जो उत्तरोत्तर प्रगाढ़ और आत्मीय होती गई. नवभारत टाईम्स अपार्टमेंट के अपने आवास पर आपने हम पति-पत्नी को भोजन पर भी आमंत्रित किया था. जब भी उनका छिन्दवाड़ा आगमन होता, अपने आने की सूचना वे मुझे देना नहीं भूलते थे. एक बार तो सपत्नीक आपका आगमन हुआ. आप मेरे आवास पर भी आए. वे अपनी पुस्तक लेखन का अधिकांश कार्य छिन्दवाड़ा में रहते हुए ही किया करते थे. आपने मुझे अपनी बिटिया सुश्री अनन्या ( सिने-टीवी कलाकार) के विवाह समारोह में आने के लिए आमंत्रण-पत्र भिजवाया था. इस समारोह में मेरी मुलाकात प्रख्यात साहित्यकार अशोक वाजपेयी जी, हंस पत्रिका के संपादक राजेन्द्र यादव आदि साहित्यकारों से हुई थी.
इसी तरह छिन्दवाड़ा के गुड़ी में जन्में श्री लीलाधर मंडलोई जी ने भी साहित्य-जगत में अपनी विशिष्ठ पहचान बनाई है. आप आकाशवाणी के निदेशक तथा दूरदर्शन के निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं.अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित श्री मंडलोई जी की दर्जनों पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं.
चक्रव्यूह संस्था के बैनर तले मैंने एक कार्यक्रम प्रमुख डाकघर छिन्दवाड़ा में " पाति" विषय को लेकर आयोजित किया. अपनी चोंच में चिठ्ठी दबाए कबूतर का चित्र बनाया. कार्यक्रम आशातीत सफ़ल हुआ. कार्यक्रम में हर एक प्रतिभागी को इस चित्र की छाया-प्रति सौजन्य भेंट में दी गई.
किन्ही कारणों से "चक्रव्यूह" को बंद करना पड़ा. तदनन्तर "हिन्दी साहित्य सम्मेलन" का गठन हुआ". अपनी सक्रीय भागीदारी का निर्वहन करते हुए मुझे उपाध्यक्ष भी बनाया गया. मेरी रचनाएं समाचार-पत्रों, देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ ही डाक-विभाग से निकलने वाली पत्रिका "डाक-तार" में नियमित रुप से प्रकाशित होते रहे. डाक विभाग ने अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता का आयोजन किया.उसमें मेरी कहानी "रजनीगंधा" ने प्रथम स्थान पाया. यात्रा संस्मरण में मेरा एक आलेख-" दक्षिण भारत की सुरम्य यात्रा" पुरस्कृत हुई.
कविता के अनन्त प्रवाह में अनुशासन एक बेड़े की तरह होता है. जिसे एक काल-खण्ड और मंजिल पार करने के बाद छोड़ देना पड़ता है. आगे की यात्रा के लिए दूसरी नाव और मंजिल तलाशनी होती है. मेरे साथ जाने-अनजाने में यह हुआ और मैं कहानी लेखन की ओर मुड़ गया. तीन दशक से कुछ ज्यादा समय से मैं कहानियाँ लिख रहा हूँ.
प्रदेश तथा देश की स्तरीय पत्रिकाओं- यथा- रुपांबरा (कोलकाता), कथा-बिंब(मुंबई), झंकृति (धनबाद.), दुनिया (नागपुर), पूर्वा (नागपुर.), पंजाबी-संस्स्कृति (हिसार), प्रगतिशील- आकल्प (मुंबई), इरावती( धर्मशाला.), द्वीप लहरी ( पोर्ट ब्लेयर.) आलाप (बैकुंठपुर.), अक्षर-खबर (कैथल), साहित्य -संपर्क ( कानपुर) नागरिक उत्तरप्रदेश (लखनऊ), सीनियर इण्डिया ( दिल्ली), खनन-भारती (नागपुर), सामर्थय ( कानपुर), अहल्या (हैदराबाद.), सरस्वती-सुमन (देहरादून), पृथ्वी और पर्यावरण (ग्वालियर.), तूलिका (भोपाल), समरलोक (भोपाल), कृति परिचय (भोपाल), अक्षर-शिल्पी (भोपाल), तथा साहित्य जनमत (गाजियाबाद) में तथा अन्य पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित हुईं. वर्तमान में सात सौ से अधिक पत्रिकाओं में मेरे लेख, आलेख, लघुकथाएं, यात्रा-संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं. इतना ही नहीं विभिन्न विषयों पर एक सौ अस्सी से अधिक आलेख शीघ्र ही पुस्तकाकार में आने वाले हैं.
मेरी कहानी जूती, फ़ांस और जंगल पुरस्कृत हुईं. धनिया नामक कहानी जो करीब तीस-पैतीस पृष्ठों में फ़ैली है, आल इंडिया प्रतियोगिता में उसे दूसरा स्थान मिला. इतना ही नहीं मुझे इस कहानी पर तीन हजार रुपया नगद पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुए. मैंने करीब पच्चीस पुस्तकों पर समीक्षा आलेख भी लिखे हैं. प्रायः मेरे लेख-आलेख. कविता, लघुकथा और कहानियों पर अठारह ई-बुक्स भी बन चुकी हैं
सन 2002में मुझे पदोन्नति मिली और मैं छतीसग्ढ़ के कवर्धा पोस्टआफ़िस में (H.S.G.1).पोस्टमास्टर पदस्थ हुआ. एक डाक सहायक के पद से पोस्टमास्टर के पद तक की यह यात्रा रोमांचित करती है. कवर्धा में रहते हुए देशबंधु समाचार पत्र के संपादक /लेखक/पत्रकार श्री ललित सुरजन जी सहित अनेक कथाकारों,और कवियों से मेरी सौजन्य भेंट होती रही. उस समय "हरिभूमि" अखबार बिलासपुर से प्रकाशित होता था. उसमें मेरी चार माह में पांच कहानियाँ प्रकाशित हुई. संपादक महोदय ने मेरी कहानियों को अखबार का पूरा पृष्ठ दिया था.
अपनी यात्रा के इस सफ़लतम पड़ाव पर पहुँचकर मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लेने का मानस बना लिया.पारिवारिक जिम्मेदारियां लगभग समाप्त हो चुकी थीं. बड़ा बेटा डा.आलोक कुमार ने सागर विश्वविद्यालय में एम.काम में प्राविण्य सूची (टाप पोजिशन) में स्थान पाया और लोक सेवा आयोग की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर महिला पोलिटेक्निक कालेज में व्याखाता के पद पर पदस्थ हो गया था वर्तमान में वह प्राचार्य के पद पर पदस्थ है. उसकी लिखित दो पुस्तकें "माडर्न आफ़िस मैनेजमेंट" पर तथा हिंदी में एक पुस्तक "टैली" पर प्रकाशित हो चुकी है. बड़ी बहू श्रीमती सुशीला यादव डाकघर में पदस्थ है. छोटा बेटा रजनीश " गुडविल अकाउन्ट्स अकादमी" का संचालक.है, जहाँ वह बच्चो को "टैली" का प्रशिक्षण देता है. छोटी बहू श्रीमती शैली यादव शिक्षिका है. बेटी अर्चना आई.टी.आई में व्याख्याता के पद पर पदस्थ है. दामाद श्री पप्पु यादव का अपना व्यवसाय है और साथ ही वह नगराध्यक्ष भी है. पत्नी श्रीमती शकुन्तला यादव को लोकगीतों-भजनों में महारथ हासिल हैं. उनके लोकगीत आज भी आकाशवाणी से प्रसारित होते हैं. उन्होंने महिलाओं का एक संगठन भी खड़ा किया था, जो समाजसेवा को समर्पित था.
यह अवसर मेरे लिए सर्वथा उचित था कि मुझे सेवानिवृत्ति लेकर साहित्य-साधना में जुट जाना चाहिए. दो वर्ष पूर्व मैंने सेवा-निवृत्ति ले लिया. नौकरी करते हुए जहाँ समय का अभाव था. आज समय ही समय है. जमकर पढ़ने और लिखने और भ्रमण करने में और पूरे प्राणपन से लगा रहता हूँ.
सेवानिवृत्ति के ठीक तीन माह बाद मेरा पहला कहानी संग्रह-"महुआ के वृक्ष" पंचकूला हरियाणा से प्रकाशित होकर आया. प्रख्यात कवि डा.शिवकुमार "मलय" के मुख्य आतिथ्य और पंडित रामकुमार शर्माजी की अध्यक्षता तथा पाठक मंच के संयोजक मित्र श्री ओमप्रकाश सोनवंशी "नयन" के संचालन में इस संग्रह का विमोचन हुआ. इस संग्रह पर मुझे स्थानीय साहित्यकारों के सहित देश के नामचीन साहित्यकारों की ओर से लगभग पैसठ समीक्षाएं प्राप्त हुईं थी.
शहर छिन्दवाड़ा के ऐतिहासिक टाउन-हाल के विशाल सभाग्रह में प्रख्यात साहित्यकार/कहानीकार श्री हनुमंत मनगटे जी की अध्यक्षता में, तथा ओमप्रकाश "नयन" के कुशल संचालन में समीक्षा-गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें स्थानीय रचनाकारों, बुद्धिजीवियों सहित अनेक गणमान्य नागरीकों ने बड़ी संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी. इस समीक्षा गोष्ठी में भोपाल के वरिष्ठ कथाकार मित्र श्री मुकेश वर्मा, वरिष्ठ कवि श्री बलराम गुमास्ता, कवि मित्र श्री मोहन सगोरिया और नागपुर से सुश्री इंदिरा "किसलय" जी की गरिमामय उपस्थिति ने इस गोष्ठी को भव्यता प्रदान की थी.
सन 2007-08 मेरे लिए बेशकीमती सौगातें लेकर आया. मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन भोपाल में होने वाली "चौदहवीं पावस व्याख्यानमाला" का आयोजन-" महयसी महादेवी वर्मा जी", " श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी जी" तथा " श्री हरिवंश राय बच्चन जी" की जन्म शताब्दी पर केन्द्रीत था, होने जा रहा था. इस आशय का पत्र मित्र श्री (स्व.) प्रमोद उपाध्यायजी लेकर मेरे आवास पर आए और उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मुझे भी इस आयोजन में सम्मिलित होने के लिए जाना चाहिए था. यह वह समय था जब मैं मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन में उपाध्यक्ष पद से त्याग-पत्र देकर स्वतंत्र लेखन कर रहा था. आग्रह इतना जबरदस्त था कि मैं उपाध्याय जी का प्रस्ताव अस्वीकार नहीं कर पाया और उनके साथ भोपाल गया.
वहाँ जाकर मुझे देश के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकारों को सुनने और मिलने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ. द्विमासिक पत्रिका के संपादक तथा हिंदी भवन भोपाल के मंत्री-संचालक माननीय श्री कैलाशचन्द्र पंतजी से भेंट हुई. आपने मुझसे छिन्दवाड़ा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की जिला इकाई खोलने का आग्रह किया. यह केवल मेरे लिए आग्रह ही नहीं था, बल्कि यूं कहे वह मेरे लिए एक तरह से आदेश ही था, जिसे मैं अस्वीकार नहीं कर सका.
आपकी प्रेरणा से मैंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई छिन्दवाड़ा का गठन किया. 28-10-2007 को वयोवृद्ध साहित्यकार/गीतकार पं.श्री रामकुमार जी शर्मा की अध्यक्षता में एवं मान.श्री कैलाशचंद्र पंतजी के मुख्य आतिथ्य एवं नगर के गणमान्य नागरिकों,साहित्यकारों तथा स्वजनों की गरिमामयी उपस्थिति में राष्ट्रभाषा पचार समिति,जिला इकाई छिन्दवाड़ा की विधिवत स्थापना हुई. तब से लेकर आज तक, हमारी समिति अनेक सफ़ल कार्यक्रम संपन्न कर चुकी है. हिंदी भवन से जुड़ाव और दादा पंतजी से आशीर्वाद पाकर फ़िर मैंने पीछे पलटकर नहीं देखा और प्रगति के सोपान लगातार चढ़ता चला गया. बड़े विनय भाव से मैं इस सफ़लता का श्रेय यदि किसी को देना चाहूँगा तो वह स्व,श्री प्रमोद उपाध्याय जी को देना चाहूँगा कि उन्होंने अनायास ही मुझ जैसे साधारण कोच को, सुपर-फ़ास्ट राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन से जोड़ दिया था..
मेरा दूसरा कहानी संग्रह "तीस बरस घाटी" का प्रकाशन हुआ. इस कृति का विमोचन हिंदी भवन भोपाल में देश के चर्चित गीतकार/कवि/ सांसद मान. श्री बालकवि बैरागी जी के हस्ते विमोचित हुआ.
वर्धा के मित्र श्री नरेन्द्र ढंढारे जी ने "मारीशस यात्रा" का कार्यक्रम बनाया और मुझसे आग्रह किया कि मैं भी इस यात्रा में शामिल होऊँ. प्रख्यात लेखक गिरिराज किशोर जी ने मारीश्स की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिखा है "-पहला गिरमिटिया".जिसे मैं पढ़ चुका था और पढ़ने के बाद मानस बना कि कभी ऐसा मौका मिला, तो मैं एक बार मारीशस जरुर जाऊँगा. कल्पना वर्षों कल्पना ही बनी रही. लेकिन एक ऐसा सुअवसर भाई ढंढारे ने उपलब्ध करा दिया था, उसे मैं खोना नहीं चाहता था.
हिंदी भवन भोपाल में एक मिटिंग में मुझे जाना था. मिटिंग में मैंने अपनी ओर से एक लिखित प्रस्ताव दिया और उसमें उल्लेख किया कि हिंदी समिति वर्धा ने मारीशस की यात्रा का टूर प्रोग्राम बनाया है. यदि हिंदी भवन से हमें आर्थिक सहायता मिल जाए, तो हम कुछ हिंदी के संयोजक उस देश की यात्रा पर जा पाएँगे. प्रस्ताव स्वीकृत हुआ कि पांच संयोजकों को हिंदी भवन न्यास ने पच्चीस-पच्चीस हजार रुपया देना स्वीकार किया है. इसके साथ ही तीन शर्ते भी जोड़ दी गईं. पहली शर्त यह थी कि किसी भी सदस्य को नगद राशि नहीं मिलेगी. दूसरी शर्त यह थी कि जिनके पास-पासपोर्ट बन चुके होंगे, वे ही राशि पाने के हकदार होंगे. और तीसरी शर्त यह थी कि यात्रा से लौटने के बाद ही उक्त राशि उनके खाते में ट्रांसफ़र कर दी जाएगी. मेरा पासपोर्ट पहले ही बन चुका था. मुझे मिलाकर बुरहानपुर के मित्र श्री संतोष परिहार, खण्डवा के मित्र श्री शरद जी जैन, श्रीमती वीणा जैन, जबलपुर से श्री राजकुमार "सुमित्र" जी के नाम तय किए गए. किन्हीं कारणों से सुमित्र जी अपना पासपोर्ट का रिनिवल नहीं करवा पाए. अतः उनका जाना नहीं हो पाया. इस तरह हम चार मित्र मारीशस की यात्रा पर गये. मुझे जाता हुआ देखकर श्री नर्मदा प्रसाद कोरी ने भी तत्काल पासपोर्ट बनाया और हमारे साथ हो लिए.
मुझे यह बतलाते हुए अत्यन्त ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि मारीशस की यात्रा, मात्र यात्रा नहीं थी, बल्कि यह यात्रा मिनि भारत कहलाने वाले मारीशस की यात्रा थी. यहाँ आकर हमें कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि हम किसी पराए देश में आ गए हैं.
इस यात्रा के पड़ाव में मुझे अभिन्न मित्र के रूप में मारीशस के प्रख्यात उपन्यासकार/ लघुकथाकार श्री रामदेव धुंरंधर जी से बड़ी आत्मीयता के साथ मुलाकात हुई. साथ ही अनेक साहित्यकारों से भी मुलाकत हुई. उनसे मित्रवत व्यवहार आज भी कायम है. यहाँ से लौटकर मैंने मारीशस की यात्रा पर एक लंबा यात्रा-वृत्तांत भी लिखा है. मित्रता के इसी सिलसिले में आगे चलकर मैंने श्री धुरंधरजी का साक्षात्कार लिया है, जिसे कई पत्र-पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया है.
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति को और अधिक विस्तार देने के लिए हमने 23 मार्च 2008 को छिन्दवाड़ा की तहसील सौसर में समिति की एक शाखा की आधारशिला रखी. सुश्री अनु कामोने जी ने संयोजक का त्तथा साहित्य-सचिव का पदभार श्री एस.आर शेंदे जी ने ग्रहण किया. सौंसर शाखा का विधिवत उद्घाटन 23 जनवरी 2008 को हुआ था, इस दिन सुभाषचंद्र बोस की पावन जयन्ती थी. इसी तरह दादा श्री पंत जी अनुसंशा और सहमति पाकर मैंने कालान्तर में मुलताई, बैतुल, सिवनी,अमरवाड़ा, लोधीखेडा में रा.भा.प्र.समिति की इकाइयां खोली.
माह फ़रवरी मे 2008 को मुझे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की कर्मभूमि सेवाग्राम (वर्धा) जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. यहाँ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा द्वारा दो दिवसीय कार्यक्रम अयोजित किया गया था. ":हम भारतीय अभियान" के अंतर्गत. देश-प्रदेश के अनेक गणमान्य तथा विदेशों से भी हिंदी प्रेमी उपस्थित हुए थे. संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष मान.श्री मधुकर राव चौधरी जी ने हिंदी के उत्थान तथा उन्नयन के साथ-साथ देशप्रेम की भावनाओं से ओतप्रोत " सप्तपदी" का निर्माण किया था. इस सप्तपदी में वृक्षारोपण को भी शामिल किया गया था.
जैसा कि मैंने पूर्व में ही इस बात का उल्लेख किया है कि मुझे चित्रकारी का बहुत शौक रहा है. इस शौक के चलते मैं पोस्टकार्ड पर अपने मित्रों के जन्म-दिन पर कोई सुंदर-सा चित्र बनाकर उन्हें शुभकामनाएं प्रेषित किया करता था. खासकर र्दीपावली के पावन अवसर पर एक प्रज्ज्वलित दीपक की आकृति बनाकर, करीब-करीब पांच सौ साहित्यकार मित्रों को शुभकामनाएं प्रेषित करता था. यह क्रम करीब बीस वर्षों से कुछ अधिक समय तक चलता रहा. फ़िर अन्य कारणॊं से मैंने ग्रिटींग-कार्ड बनाना बंद ही कर दिया था. दीपावली के दिन प्रख्यात गीतकार/ सांसद कवि बालकवि बैरागी जी का फ़ोन जरुर आता और वे कहते "गोवर्धन भाई...मुझे पता है कि तुमने ग्रिटींग कार्ड बनाना बंद जरुर कर दिया है, लेकिन मैंने तुम्हारे नाम दीपावली ग्रिटींग कार्ड डाक से लिख भेजा है." बैरागी जी का हस्त-लिखित अंतरदेशीय पत्र प्राप्त होता, जिसमें दीपावली पर मनभावन कविता लिखी होती. उनसे प्राप्त होने वाले सभी अंतरदेशीय पत्र आज भी मेरे पास, एक अमूल्य-निधि के रूप में सुरक्षित रखे हैं. भीलवाड़ा के मित्र श्री फ़तहसिंह लोढ़ाजी (यतीन्द्र साहित्य सदन) ने मेरे द्वारा भेजे गए ,कई वर्षों पुराने ग्रिटिंग कार्डों को अपने पास सुरक्षित रखा है.
मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मेरी रचनाधर्मिता का मूल्यांकन करते हुए करीब पैतीस साहित्यिक संस्थाओ ने मुझे सम्मानित किया है. हिंदी के उन्नयन और प्रचार प्रसार के लिए मैंने कई यात्राएं की हैं. चुंकि घुम्मकड़ी मेरे स्वभाव में है. इसी के चलते मैंने भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक की यात्राएं की हैं. यात्रा के क्रम में थाईलैण्ड, मारीशस, इंडोनेशिया, मलेशिया, बाली, नेपाल, भुटान आदि देशों की यात्राएं की हैं. इसी घुम्मकड़ स्वभाव के चलते मेरी मुलाकत प्रो.श्री राजेश्वर अनादेव जी से हुई. चालिस देशों की यात्राएं आप कर चुके हैं. मेरा अपना मानना है कि इनके पैर एक जगह कभी नहीं टिकते. वे निरन्तर यात्रा में ही बने रहते हैं. इनके साथ भी मैंने अनेक यादगार यात्राएं की हैं.
रायपुर (छ.ग.) की यात्रा को मैं भुलाए नहीं भूल सकता. सृजनगाथा सम्मान मंच के संयोजक श्री जयप्रकाश मानस जी ने मेरे नाम एक पत्र लिखा. पत्र दिसंबर 2007 को लिखा गया था. पत्र में लिखा गया था कि रायपुर (छ.ग) में दो दिवसीय कार्य्रक्रम 16-17 फ़रवरी 2008 को "अंतरराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन- 2008" का आयोजन किया गया है, जिसमें मुझे सम्मानित किया जाएगा. पत्र पाकर प्रसन्नता तो बहुत हुई थी,लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि मानस जी से इससे पूर्व न तो कभी मुलाकात हुई थी और न ही कोई पत्र-व्यवहार ही हुआ था. वे मुझे कैसे जानते-पहिचानते हैं"?. ऐसे अनेक प्रश्न मेरा पीछा करते रहे. एक दिन मैंने उन्हें फ़ोन लगाया. बात हुई और मैने जानना चाहा कि मेरा चुनाव आपने किस आधार पर किया है?. इस समय वे फ़ोरव्हील ड्राईव कर रहे थे, मेरे प्रश्न के जवाब में उन्होंने इतना ही कहा कि अपने बेटे रजनीश से कहें कि वह कंप्युटर पर "सृजनगाथा डाट काम" खोले. सब पता चल जाएगा. मैंने "सृजनगाथा डाट काम" का पोर्टल खुलवाया. देखकर आश्चर्य हुआ कि मेरी दसों कहानियाँ उस पोर्टल पर दर्ज है. कहानियों के माध्यम से मुझे "मानस" एक जौहरी के रूप में मिले.
अपने साहित्यिक मित्र श्री राजेन्द्र यादवजी के साथ मैं रायपुर गया. देश-विदेश से अनेक रचनाधर्मियों का वहाँ मेला लगा हुआ था. यहाँ रहते हुए मेरा परिचय अनेक साहित्य-धर्मियों से हुआ. इस क्रम में "छतीसगढ़ समग्र के संपादक डा.श्री सुधीर शर्मा जी, नारी प्रधान पत्रिका "नारी का संबल" की संपादिका सुश्री शकुन्तला तरार, न्यु जर्सी अमेरिका की प्रख्यात लेखिका सुश्री देवी नागरानी जी, तथा युगीन काव्या पत्रिका के सम्पादक श्री हस्तीमल हस्ती से अविस्मरणीय मुलाकातें हुई. इनकी पत्रिकाओं में मेरी कहानियां,लेख-आलेख समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं.
सुश्री देवी नागरानीजी को मैंने अपना कहानी संग्रह-" तीस बरस घाटी" भेंट में दी थी. वे न्यु जर्सी अमेरिका से यहाँ पहुँची थीं. यहीं से उनसे मेरी मित्रता प्रगाढ़ हुई. मेरे कुछ कविताएँ, लघुकथाओं को आपने अपनी सिंधी भाषा में, न केवल अनुवाद किया बल्कि निकट भविष्य में उन्होंने अपने प्रकाशित होने वाले संग्रहों में उन्हें स्थान भी दिया है. मैंने भी उनकी पाँच-छः कृतियों पर समीक्षा आलेख लिखे है. सुश्री देवीजी ने कंप्युटर के माध्यम से मेरा साक्षात्कार भी लिया है, जिसे यहाँ की कई पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया है. अभी हाल ही में आपका एक संग्रह-"तेरी मेरी बात" का प्रकाशन हुआ है, इस संग्रह में आपने मेरे एक आलेख को स्थान दिया है. वर्तमान समय में भी आपसे पत्र-व्यवहार बना हुआ है.
साहित्य सृजन की इस यात्रा में "युनाईटॆड किंगडम" की प्रख्यात कवयित्रि /कहानीकार तथा इंद्रजाल पत्रिका की संपादक सुश्री शैल अग्रवाल से आत्मीय परिचय हुआ. इन्द्रजाल पत्रिका "लेखनी" में मेरी रचनाएं अनवरत प्रकाशित हो रही हैं. दुबई से पूर्णिमा वर्मन जी से सौजन्य भेंट भोपाल में हुई थी. वे भी वहाँ से इन्द्रजाल पत्रिका " अभिव्यक्ति" का प्रकाशन कर रही हैं. कनाड़ा से सुश्री स्नेह ठाकुर, केनेड़ा से ही सुश्री सुधा ओम ढिंगरा से भी साहित्य-लेखन के माध्यम से परिचय हुआ. सुश्री शैलजी के दो कहानी संग्रह- "सुर-ताल" तथा " मेरी चयनित कहानियाँ" पर मैंने समीक्षा आलेख लिखे है. ब्रिटेन की प्रख्यात लेखिका सुश्री दिव्या माथुर जी का कहानी संग्रह -" पंगा तथा अन्य कहानियाँ", अमेरिका की सुश्री इला प्रसाद जी का कहानी संग्रह " "आधी अधूरी रोशनी का पूरा सच", सुश्री स्नेह ठाकुर जी के उपन्यास-"कैकेयी"-चेतना शिखा" उपन्यास मुझे मेल के माध्यम से प्राप्त हुए हैं. घनघोर व्यस्तताओं के चलते मैं अभी इन पुस्तकों पर समीक्षा आलेख नहीं लिख पाया. आशा है, इन पुस्तकों पर मैं शीघ्र ही समीक्षा-आलेख लिख लूँगा.
जीवन में सदा सुख-ही-सुख मिलेगा, यह जरुरी नहीं है. कभी दुःख की काली छाया के भीतर से भी प्रवेश करना होता है. सन् 2020 के माह अप्रैल की 27 तारीख को कुछ ऐसा ही दिन आया, जब मुझे मेरी जीवन-संगनी श्रीमती शकुन्तला से सदा-सदा के लिए विछोह की असह्य वेदना को झेलना पड़ा. शाम के चार बजे वे अनंत-यात्रा पर प्रस्थान कर गयीं. एक वसंत जो मेरे जीवन में आज से पचपन वर्ष पूर्व अवतरित हुआ था, बहुत दूर जा चुका था, फ़िर कभी वापिस न आने के लिए. अब पतझर का मौसम है. ईश्वर का विधान समझना नश्वर मनुष्य के वश की बात नहीं है. उनकी मर्जी के आगे कभी किसी का वश नहीं चलता.
विछोह के इस पीड़ा-दायक पथरीले मार्ग पर चलते हुए मुझे इस बात पर, यह सोच कर संतोष मिलता है कि भले ही आज वह आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उसके गाए गए गीत ,जिनकी रिकार्डिंग करके मैंने सुरक्षित रख लिया था, सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह, यहीं-कहीं आसपास है. आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले गीतों को सुनकर लगता है कि वह स्टूडियों में बैठीं रिकार्डिंग करवा रही होगी. कुछ विडियोज जो बच्चों के रिकार्ड कर रखे हैं, देखकर उनकी उपस्थिति का अहसास होने लगता है. वह मेरी बड़ी प्रेरणा-स्त्रोत रही हैं. यही कारण है कि मैं अपनी सृजन-धर्मिता का निर्वहन अच्छी तरह से कर पाया. दिव्य स्मृतियों को नमन.
उम्र के अठहत्तरवें ( 78) वर्ष में प्रवेश करते हुए मेरे दो कहानी संग्रह -" खुशियों वाली नदी" तथा " बेपर आवाजें" प्रकाशन के लिए प्रेस में हैं. पहले संग्रह "खुशियों वाली नदी "पर दिल्ली के मित्र श्री जगदीश व्योमजी तथा बड़ौदरा की कहानीकार श्रीमती रानु मुखर्जी, तथा "बेपर आवाजें" पर सिडनी (आस्ट्रेलिया) के प्रो. श्री राय कोकणा जी तथा रायपुर के प्रख्यात साहित्यकार- मित्र श्री जयप्रकाश रथ "मानस" भूमिका लिख रहे है. आशा है दोनों संग्रह फ़रवरी-मार्च तक प्रकाशित हो जायेंगे.
इन अठहत्तर (78) वर्षों की धूप-छांह, तो कभी मटमैले समय में, मैं जो कुछ भी लिख पाया, वह सब आपके सामने है. सब कुछ तो आसानी से लिखा जा सका, लेकिन "अपने समय को लिखते हुए" में मैंने जाना और महसूस किया कि कितना कठिन होता है, अपने स्वयं के बारे में लिखना.
समय के इस चक्र-चाल में यह जरुरी नहीं है कि आप कितना जिये. यहाँ जरुरी यह है कि आपने कितनी सार्थक जिंदगी जी. आपने इस समाज को क्या दिया? इस देश को क्या दिया?.आदमी के पैदा होने के साथ ही हमारे ऊपर मातृ-ऋण, पितृ ऋण, समाज और देश का ऋण होता है, आपने अब तक कितने ऋणों की भरपाई की?.
मैं जानता हूँ कि इस सेतु-बंध में मेरी भूमिका वीर हनुमान तथा कुशल इंजिनियरों- नल-नील की-सी भले ही नहीं रही हो. लेकिन मैं सदा से ही अपनी उपस्थिति, उस गिलहरी के तरह पाता हूँ, जो अपने शरीर को पानी में भिंगोती, रेत में लोट-पोट होती और शरीर से लिपटी रेत के कणॊं को समुद्र में डुबकी लगाकर छोड़ आती थी. इस छोटे-से जीव के रूप में मैं जो कर पाया, यह मेरे लिए परम संतोष एवं आत्म-संतुष्टि के लिए पर्याप्त है.
अंत में मैं यह बताने से भी अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ कि मैं अब भी सब कुछ नहीं जानता और यही न जानना मुझमें अनंत-स्फ़ूर्ति भर देता है. मैं यह तो नहीं जानता कि जो बातें मेरे लिए बेहद जरुरी और महत्वपूर्ण थीं और हैं.उसे लिखना मेरे लिए बहुत जरुरी था. मेरे अंतस में उठते उद्गार भले ही अत्यन्त साधारण प्रतीत लगते हों, लेकिन उनमें अभिमान/अहं का भाव नाम मात्र को भी नहीं है.
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ. क्षमा प्रार्थी इसलिए कि मैंने अपने बारे में कुछ ज्यादा ही लिख दिया है, यदि नहीं लिख पाता तो शायद बात अधुरी रहती.