विश्व रंगमंच दिवस की शुरुआत 1962 में अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान (आईटीआई) द्वारा की गई थी। यह आईटीआई केंद्रों और अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच समुदाय द्वारा प्रतिवर्ष 27 मार्च को मनाया जाता है। इस अवसर पर विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. हिन्दी रंगमंच दिवस हर साल 3 अप्रैल को मनाया जाता है. इस दिन को मनाने की वजह है कि साल 1868 में 3 अप्रैल को बनारस में शीतलाप्रसाद त्रिपाठी के नाटक 'जानकी मंगल' का मंचन हुआ था. हिन्दी में नाटकों की शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चंद्र से मानी जाती है.
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(o) भारतीय नाटक की उत्पत्ति व विकास(0)
इस बात के प्रमाणिक हैं हमारे वेद कि विश्व में सर्वप्रथम नाटक की उत्पत्ति तथा विकास भारत में ही हुआ था. ऋगवेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, और पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं. विद्वान लोग इन संवादों को नाटक के विकास का चिन्ह पाते हैं. अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर नाटक की रचना की गई थी.
. नाट्यकला दैवीय उत्पत्ति भी मानी जाती है. ऎसा कहा जाता है कि सतजुग के बीत जाने के बाद, त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने मंत्रणा की और यह अनुभव किया कि सतजुग में सर्वत्र सुख की वर्षा होती रही लेकिन त्रेता में, दुख के संकट भी घिरने लगेंगे. अतः इससे निजाद पाने के लिए किसी ऎसे ग्रंथ की रचना की आवश्यकता महसूस की गई जिसका अनुशीलण करने से, आदमी राहत महसूस कर सके. सारे देवता ब्रह्मलोक गए और उन्होंने ब्रह्मदेव से प्रार्थना की कि कोई ऎसी कला प्रकट करें जिससे श्रवणशक्ति और आँखों की रोशनी बढे, मन आनन्दित हो. वह पाँचवा वेद हो, मगर उन चारों वेदों की तरह न हो. उससे लाभ पाने का हक, हर जाति, हर वर्ग, हर धर्म के लोगों को हासिल हो. ब्रहमाजी ने ऋग्वेद से संवाद, सामवेद से नगमा यानि संगीत,, यजुर्वेद से स्वांग(अभिनय) और अथर्ववेद से जज्बातनिगारी(रस) जैसे कलाओं के तत्वों को मिलाकर नाटक का प्रणयन किया. शिव ने ताण्डव(नृत्य) और पारवती ने लताफ़त(नरमी) की बुदतरी की, विश्वकर्मा को हुक्म दिया गया कि वह निगारखाने(नाट्यमंच) बनाए. फ़िर इसे भरत मुनि के हवाले किया गया ताकि वो जमीन पर आकर उडते रंग-रुप में पेश करें. इस् तरह भरतमुनि को इस खुदाई फ़न, अर्थात नाट्य-शास्त्र के रचियता होने का श्रेय हासिल हुआ.
अतः यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि इस कला का प्रादुर्भाव सबसे पहले भारत में हुआ. कुछ इतिहासकार, भरतमुनि के इस काल को ४०० ई.पू. के निकट मानते हैं. इस अद्भुत ग्रंथ में संगीत, नाटक, अभिनय के नियमों का आकलन भर नहीं है,बल्कि अभिनेता, रंगमंच और प्रेक्षक,इन तीन तत्वों की पूर्ति आदि तथ्यों का विवेचन किया गया है. ३७ अध्यायों में मुनि ने रंगमंच, अभिनेता, अभिनय, नृत्य गीत, वाद्य , रसनिस्पत्ति आदि का विवेचन किया था.
इस ग्रंथ की सर्वाधिक प्रामाणिक और विद्वत्तापूर्ण टीका, श्री अभिनव गुप्तजी ने सन १०१३ में किया था. जिसमे विषय वस्तु, पात्र, प्रेक्षागृह, रसवृत्ति, अभिनय, भाषा, नृत्य, गीत, वाद्ययंत्र,,पात्रों के परिधान, प्रयोग की जाने वाली धार्मिक क्रिया,,नाटक के अलग-अलग वर्ग, भाव, शैली, सूत्रधार, विदूषक, गणिका, नायिका आदि पात्रों में किस प्रकार की कुशलता अपेक्षित है-विचार किया गया है.
संस्कृत साहित्य में अनेक उच्चकोटि के नाटक लिखे गये..साहित्य में नाटक लिखने की परिपाटी संस्कृत से होते हुए हिन्दी में आयी. संस्कृत के अलावा पालि के ग्रंथॊं में भी नाटक लिखे जाने के प्रमाण मिले हैं. अग्निपुराण, शिल्परत्न, काव्यमीमांसा तथा संगीत -मार्तण्ड में राजप्रसाद के नाटकमंडपों के विवरण प्राप्त होते हैं. इसी तरह महाभारत मे रंगशाला के उल्लेख मिलते हैं. हरिवंशपुराण में रामायण के नाटक खेले जाने का वर्णण मिलता है. पाश्चयात विद्वानो की धारणा है कि धार्मिक कृत्यों से ही नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ. इससे रंगस्थली की कल्पना की जा सकती है. दर्शकों के बैठने की उत्तम व्यवस्था थी.
संस्कृत नाटक रस प्रधान होते हैं. संस्कृतकाव्य परम्परा मे,नाटक काव्य का ही एक प्रकार है. इसमे दर्शक को अपनी आंखों से देखने और कानों से सुनने का भी रसास्वादन मिलता है. अतः इससे सहज जुडाव भी होता है. कहा गया है-“काव्येषु नाटकं रम्यम.” इन नाटको में, लेखन से लेकर प्रस्तुतिकरण तक कई कलाएं,, भावों, अवस्थाओं से युक्त, क्रियायों के अभिनय, कर्म द्वारा संसार को सुख-शांति देने वाले होने के कारण नाट्य हमारे यहां विलक्षण कृति माने गए हैं. कहा गया है-“न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला/नासौ योगो न तत्कर्म नाट्योSस्मिन्यत्र न दृष्यते”
संस्कृत नाटक के प्रमुख नाटककार कालिदास, भास, शुद्रक आदि की गणणा प्रमुख रुप से की जाती है.
हिन्दी में नाटक-
परिभाषा—“नाटक काव्य का ही एक रुप है,जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु, दृष्टि द्वारा भी दर्शक के हृदय में रसानुभूति कराती है. उसे नाटक या दृष्यकाव्य कहते है.
२.नाटक में श्रवण काव्य से अधिक रमणीयता होती है. ३.श्रवणकाव्य होने से लोकचेतना से अधिक घनिष्ठता होती है. ४.नाट्यशास्त्र में लोकचेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है.
नाटक के प्रमुख तत्व.-
१.कथावस्तु—पौराणिक, ऎतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक हो सकती है.
२-पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चरित्र, नाटक की जान होती है. कथावस्तु के अनुरुप नायक धीरोदात्त, धीर, ललित होना चाहिए.
३.रस-नाटक मे नवरसों में से केवल आठ का ही परिपाक होता है. इसमें शांत रस निषिद्द माना गया है. वीर रस या श्रृंगार-रस में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है.
४. अभिनय- (१)आंगिक अभिनय (२) वाचिक अभिनय (३)आहार्य--वेषभूषा-मेकअप-स्टेज विन्यास,तथा भरपूर प्रकाश व्यवस्था होना आवश्यक होता है.
५)सात्विक अभिनय---पात्र जब डूबकर अपना अभिनय करता है तो वह नाटक में जान डाल देता है.
लोकनाट्य अथवा नाटक का लोकजीवन से घनिष्ट संबंध है. लोकनाट्य का मंचन उत्सवों, मांगलिक कार्यों अथवा विवाह आदि के अवसर पर किया जाता है. लोकनाट्य की भाषा अत्यन्त ही सरल, सीधी-सादी और रोचकता लिए हुए होती है. नटॊं के द्वारा भी लोकनाट्य रचे जाते हैं. नटॊं द्वारा खेले जाने वाले लोकनाट्यों में कथानक, ऎतिहासिक, पौराणिक अथवा सामाजिक आधार वाले होते है, अभिनीत किए जाते हैं .इसके लिए कोई विशेष मंच बनाने की आवश्यकता नहीं पडती. नट के आसपास ,कुछ दूरी बनाकर दर्शक बैठकर अथवा खडॆ रहकर, उसके द्वारा रचे जा रहे अभिनय को निहारते है,और आनन्दित होते है..
बंगाल का लोकनाट्य” जात्रा” के नाम से जाना जाता है. बंगाल के अलावा “जात्रा”, उडिसा तथा पूर्वी बिहार में भी आयोजित किए जाते है. इसमे धार्मिक आख्यान होते हैं. राजस्थान में अमरसिंह राठौर की ऎतिहासिक गाथा का अभिनय किया जाता है. केरल में लोकनाट्य “यक्षगान” के नाम से जाना जाता है. उत्तरप्रदेश में रामलीला –रासलीला का मंचन किया जाता है. मध्यप्रदेश के मालवांचल में “मांच(मंच का अपभ्रंश), महाराष्ट्र में “तमाशा”, गुजरात में “भवई”,कर्नाटक में “यक्षगान”, तमिलनाडु में” थेरुबुडु”, बुंदेलखंड में” भंडैती”, “रहस”,कांडरा”,स्वांग, गोवा का अनोखा नाट्य-“त्रियात्र”, हरियाना का सांग, उत्तराखंड की केदार घाटी में-“चन्क्रव्यूह”, हिमाचल की निचली तराई- बिलासपुर में स्वांग, मंडी में बांठना, सिरमौर और शिमला में करियाला,, चांबा में हरण, ऊना और सोलन मे-धाजा, बिहार में बिदेसिया, अवध में रामायण, छत्तीसगध में नाचा-तथा करमा, केरल में मूडीयेटटु आदि लोकनाटिका का मंचन किया जाता है. लोकनाट्य को लेकर राजस्थान के तीन क्षेत्र चिन्हित किए गए हैं (१)उदयपुर, डूंगीपूर, कोटा, झालावाड,सिरोही (२)जोधपुर, बीकानेर, शेखावट, जयपुर(३) राजस्थान का पूर्वांचल जिसमें शेखावट, जयपुर भरतपुर, धौलपुर प्रांत आते हैं.यहाँ नाटक कई रुपों में मंचित किए जाते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि संपूर्ण भारतवर्ष में नाटक मंचित किए जाने के प्रमाण मिलते हैं ,भले ही वे अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं.
पाश्चात्य रंगमंच-
प्राचीन सभ्यता में चौथी शती ई.पूर्व यूनान और रोम के रंगमंच आकार ले चुके थे. इतिहास प्रसिद्ध डयोनीसन का थिएटर एथेंस में आज भी उस काल की याद दिलाता है. एक अन्य थिएटर है “एपोडारस “जिसका नृत्यमंच गोल आकार में है. ३६४ ई.पू. रोमवाले इट्रस्कन अभिनेताओं की मंडली अपने नगर लाए और उनके लिए “सर्कस कैक्सियस” में पहला रोमन रंगमंच तैयार किया. इस तरह रंगमंच प्रारंभिक रुप मे आया. सीजर तथा आगस्टस ने रोम को बहुत उन्नत किया. पांपेई का शानदार थिएटर तथा एक अन्य(पत्थर का) थिएटर उसी के बनवाए बताए जाते हैं.
प्रथम चरण-
१/-१)रोमीय परम्परावाल विसेंजा रंगमंच(१५८०-८५)जिसमें बाद में दीवार के पीछे वीथिकाएं जोडी गई .
२)सैवियोनेटा में स्कमोजी ने इन विथिकाओं को मुख्य रंगमंच से मिला दिया(१५८८ई)
३)इमिगो जोंस ने बाद में इन्हें रंगमंच ही बना दिया.
४)१६१८-१९ में परमा थिएटर में, रंगमंच पीछे हो गया और पृष्ठभूमि की चित्रित दीवार आगे आ गई.
लगभग दूसरी शती ईसवीं में रंगमंच कामदेव का स्थान माना जाने लगा. ईसाइयत के जन्म लेते ही पादरियों ने नाट्यशाला को हेय मान लिया. गिरजाघरों ने थिएटर का ऎसा गला घोटा कि वह आठ शताब्दियों तक पनप न सका.. उन्होंने रोमन साम्राज्य का पतन का मुख्य कारण थिएटर को ही माना. रोमन रंगमंच का अंतिम संदर्भ ५३३ ई. का मिलता है. बावजूद इसके चोरी-छिपे नाटक खेले जाते रहे. इतालवी पुनर्जागरण के साथ वर्तमान रंगमंच का जन्म हुआ. चौदहवीं शताब्दी में फ़िर से नाट्यकला का जन्म हुआ और लगभग १६वीं शताब्दी में उसे प्रौढता प्राप्त हुई. कई उतार-चढाव के बाद १८वीं-१९वीं शती में रंगमंच के विकास का आदर्श माना गया.
पुनर्जागरण का दौर सारे यूरोप में फ़ैलता हुआ एलिजाबेथ काल में इंग्लैंड जा पहुँचा. सन १५७४ तक वहां एक भी थिएटर नहीं था. लगभग पचास वषों में यह अपने चरम पर जा पहुंचा.और फ़िर इटली, फ़ांस, स्पेन तक जा पहुंचा. १५९०-१६२० का काल शेक्सपियर का काल रहा. रंगमंच विशिष्ट वर्ग का न होकर, जनसामान्य के मनोरंजन का साधन बना.
आधुनिक रंगमंच
रंगमंच
रंगमंच यानि थिएटर,वह स्थान है,जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों. रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों की युति से बना शब्द है. रंग इसीलिए प्रयुक्त हुआ कि दृष्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छ्तों और पर्दों पर विषेश प्रकार की और विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेषभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है और मंच इसीलिए प्रयुक्त हुआ कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फ़र्श से कुछ ऊँचा रहता है. दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला या नाट्यशाला कहते हैं. पश्चिमी देशों में इसे थिएटरया आअपेरा नाम दिया जाता है.
आधुनिक रंगमंच का वास्तविक विकास १९ वीं शती के उत्तरार्ध में आरंभ हुआ और एक भव्यतम रुप सामने आया.लेकिन यह स्वरुप ज्यादा दिन न टिक सका. विज्ञान के नए-नए अविष्कारों ने जन -जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला. मूक सिनेमा, फ़िर सवाक सिनेमा ने जनमानस को अपनी ओर तेजी से आकृष्ट किया. थिएटर से कुछ मोह भंग हुआ और सिनेमा का आकर्षण बढता गया. क्योंकि इसमे ग्लैमर और पैसा दोनो है.
स्वतंत्रता पश्चात १९५१ में आयोजित एक कला सम्मेलन नई दिल्ली में, विचार किया गया कि नृत्य,नाटक और संगीत की राष्ट्रीय अकादमियाँ खोली जाए. ३१ मई १९५२ में तत्कालिन शिक्षा मंत्री श्री मौलाना अब्दुल्द कलाम आजाद की उपस्थिति में अकादमी की नीव रखी गई, २८ जनवरी १९५३ को डा.राजेन्दप्रसादजी ने इस अकादमी को विधिवत उद्घाटित किया.
भारतीय नाट्य परम्परा को नित नई उँचाइयाँ देने में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,,जयशंकरप्रसाद,कमलेश्वर, जगदीशचन्द्र मथुर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रामकुमार वर्मा, मोहन राकेश, स्वदेश दीपक, नाग बोडस, हरिकृष्ण प्रेमी ,धर्मवीर भारती, नंदकिशोर आचार्य, आदि विद्वानों ने बेहतरीन नाटकों की रचना की. उनके द्वारा लिखे गए नाटकों की सर्वत्र सराहना हुई और आज भी वे जगह-जगह मंचित किए जा रहे हैं.
कई दिग्गज फ़िल्म -अभिनेता तो आज अपने चर्मोत्कर्ष पर हैं, सबके सब स्टेज कलाकर रह चुके हैं.कुछ तो सिनेमा में इतने व्यस्त हो गए हैं कि इन्हें स्टेज(रंगमंच) पर जाने का समय ही नहीं मिल पाता, बावजूद इसके उनके मन में अब भी रंगमंच को लेकर अगाथ श्रद्धा और समर्पण का भाव मौजूद है.
नाटकों की बात हो और नुक्कड नाटक पर बात न की जाए तो शायद अधुरा सा लगेगा. समय के साथ नुक्कड नाटक भी कलाकारों द्वारा खेले गए. इसमे किसी थिएटर अथवा किसी नाट्यगृह की आवश्यक्ता नहीं पडती. कलाकार जिसमे पात्रों की संख्या कम से कम “एक” या आवश्यकतानुसार कुछ ज्यादा भी हो सकती है, द्वारा गली-गली में जाकर अपने अभिनय से दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाते है, जिसे हम नुक्कड भी कह सकते हैं, वे अपनी प्रस्तुति द्वारा समाज में फ़ैल रही विसंगतियों पर कडी चोट करते हैं अथवा कोई ऎसा संदेश देना चाहते हैं जो समाज के लिए उपयोगी हो,के विषय के मूल में जाकर छिपे संदेश को जन-जन तक पहुँचाते है. इसमे कोई तामझाम नहीं करनी पडती और न ही कोई विशाल मंच बनाने की जरुरत ही पडती है. इससे यह फ़ायदा हुआ कि जो लोग नाटकों से जुड नहीं पाए अथवा समयाभाव के कारण मंच तक नहीं भी जा पाए तो उन्हें घर बैठे इसका आनन्द उठाने को मिल जाता है. अतः कहा जा सकता है कि नाट्यविधा का भविष्य आगे भी सुरक्षित रहेगा और आए दिन नए-नए नाटक मंचित किए जाते रहेंगे.