कविता की दुनिया:- कवियों द्वारा निर्मित एक ऎसे अनोखी और विराट दुनिया, जिसमें पूरा अखिल ब्रह्मांड समाया हुआ है. यहाँ वह सब कुछ है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. तभी तो किसी ने कहा है कि- जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि. प्रश्न उठना जालमी है कि आखिर कविता होती क्या है, इसका जन्म कहाँ, कब और कैसे हुआ?. कहते हैं कि कविता का जन्म महर्षि वाल्मिक के समय में हुआ था. एक समय वे तमसा नदी से स्नान कर वापिस लौट रहे थे. इसी बीच एक क्रौंच पक्षी का जोड़ा मैथुन क्रिया में निमग्न था. पक्षी के वध के लिए घात लगाए बहेलिये ने उन पर बाण का संधान किया, जिससे एक क्रौंच पक्षी मारा गया. और दूसरा अपने प्रिय के वियोग में क्रंदन करते हुए विलाप करने लगा. महर्षि ने इसे देखा और तत्काल श्राप दे दिया. श्राप देते समय उनके मुख से ये श्लोक निकले.
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।
निषाद, त्वम् शाश्वतीः समाः प्रतिष्ठां मा अगमः, यत् (त्वम्) क्रौंच-मिथुनात् एकम् काम-मोहितम् अवधीः
हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है ।
उपरोक्त वाक्य जो आठ-आठ अक्षरों के चार चरणॊं, कुल बतीस अक्षरों से बना था. इस छंद को श्लोक नाम दिया गया. यही श्लोक काव्य-रचना का आधार बना.
साहित्य के पुरोधा आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है. सृष्टि के पदार्थ या व्यापार विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष, नेत्रों के सामने नाचने लगते है. उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने से बुद्धि से काम लेने की जरुरत नहीं पड़ती. कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते है.
आचार्य विश्वनाथ कहते हैं कि “वाक्यम रसात्मकं काव्यम” अर्थात रस की अनुभूति कर देने वाणी काव्य है. पंडितराज जगन्नाथ का मत है कि- “लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंध काव्यानाम यातु” यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है. आचार्य श्रीपति के शब्दों में-“ शब्द अर्थ बिन दोष गुण अंहकार रसवान : ताको काव्य बखानिए श्रीपति परम सुजान”.
महर्षि वाल्मिक के प्रसंगानुसार कविता में केवल एक ही रस “करूणा” का नहीं रहता बल्कि उसमें श्रृंगार, हास्य, रौद्र, वीर, भयानक, विभत्स, अद्भुत और शांत रस भी अन्तरनिहित होता है. अतः आचार्य विश्वनाथ जी का कथन ““काव्यम रसात्मकं काव्यम”-सही साबित होता है.
काव्य की इस रहस्यमय दुनिया में प्रवेश करते हुए मुझे देशज कवियों के अलावा विश्व के अनेकानेक कवियों की कविताओं को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. प्रायः सभी की कविताओं में घर परिवार, अनिश्चितताएं, अनिर्णय, दुनिया की जरुरतें, साहस, विफ़लताएं, स्वपन-प्रेम, आत्मग्लानियां, हताशाएं, सुख-दुख, निर्ममता, इंसानियत, हैवानियत, खूंखार दरिन्दों के जुल्म आदि के पुट देखने को मिलते है. यह सब पढ़ते हुए मुझे नीदा फ़ाजली जी का एक शेर याद आता है. वे कहते हैं- इन्सान में हैवान यहाँ भी है, वहाँ भी, अल्लाह निगहबान, यहाँ भी है, वहाँ भी है, खूंखार दरिन्दों के फ़कत नाम अलग है, शहरों में बयाबान, यहाँ भी है, वहाँ भी है. रहमान की कुदरत हो, या भगवान की मूरत, हर खेल का मैदान, यहाँ भी है, वहाँ भी है, हिन्दू भी मजे में हैं, मुसलमां भी मजे में है, इन्सान परेशान, यहाँ भी है, वहाँ भी है, उठता है दिलोजां से धुँआ दोनों तरफ़ ही, ये मीर का दिवान, यहाँ भी है, वहाँ भी है.
प्रकृति ने हर इन्सान को कवि हदय बनाया है. यह बात अलग है कि हर कोई कविता नहीं लिख सकता. फ़िर कविता लिखना इतना आसान भी नहीं है कि हर कोई उसमें निष्नात हो जाए. शायद इन्हीं भावनाओं को रेखांकित करती हुई चेकोस्लाविकी कवियत्री ने एक जगह लिखा है-: फ़िर फ़ूलदान में मैंने एक गुलाब लगाया...एक मोमबत्ती जलाई...और अपनी पहली कविताएँ लिखना शुरु किया...जागो, मेरे शब्दों की लपट...ऊपर उठो...चाहे जल जाएं मेरी उँगलियाँ.
इस आलेख में मैंने विश्व के कुछ चुनिंदा देशों के कवियों के साथ-साथ यहाँ के कुछ कवियों का भी चुनाव किया है. इन कविताओं को पढ़कर आपको यह महसूस होगा कि समूचे विश्व में एक से हालात हैं, जिनसे विरुद्ध खड़े होकर उसने अपने स्वर मुखरित किए हैं.
हंगरी कवि -- अत्तिला योजेफ़ (1905-1937)
लोग मुझे चाहेंगे. - अच्छे और बुरे को लेकर मैं मथापच्ची नहीं करता / काम करता हूं और खटता हूं, बस / बनाता हूं मैं पंखे से चलने वाली नावें, चीनी मिट्टी के प्याले-प्लेटें / बुरे वाक्तों में बुरी तरह, औसत वक्तों में अच्छी तरह / अनगिनत हैं मेरे कारखाने,सिर्फ़ मेरी प्यारी / उनकी फ़िक्रमंदी करती है, उनका हिसाब-किताब रखती है. / मेरी प्यारी ही उस सबका हिसाब-किमाब करती है / उसमें विश्वास है, लेकिन पंथ और सौगंध के सम्मुख वह चुप रहती है./ मुझे दरख्त बनाओ, यकीनन कौआ, तभी मुझ पर घोंसला डालेगा / जब आसपास और कोई दरख्त न हो
फ़िनिश कवि - आउलिक्की ओकसानेन
दूसरा पल --कहीं है दूसरा पल, / दूसरी तरह की जलवायु, / दूसरा समुद्र, दूसरा द्वीपसमूह / कुछ ऎसा, जिसे जीते हुए अनुभव किया जाता है / जब गहराइयों का पानी परावर्तित होता है / तरंगों में गोता लगा गए शुष्क मेघ / कहीं है दूसरा भ्रमण / अज्ञात पक्षियों की दुनिया / हल्का सा सरकंडे का पुल ग्रीष्मों और पक्षियों के घोंसलों के ऊपर से, / शांत आकाश, सुखद संध्या, / देश जहाँ गीत सो रहे हैं / नक्षत्रों के किनारों पर, अप्रत्याशित से भयभीत हुए बिना,
कवि-२ किर्सी कुन्नास ( अनुवाद:सईद शेख)
पेड़ ढोते हैं प्रकाश---पेड़ ढोते हैं प्रकाश / लेकिन मौन एक हल्का सा पक्षी / उड़ता है पानी के ऊपर से / पेड़ ढोते हैं प्रकाश / लेकिन धूसर पंख उठता है पानी और आकाश से / मौन, हल्का सा पक्षी / बैठ जाता है पेड़ों पर और सुलगा देता है अपना घोंसला, / आग के रूप में प्रकाश उठता है आकाश की ओर / न ही ढो सकता है कोई भी अपने हृदय को हल्केपन से / क्योंकि प्रेम होता है पीड़ामय / ठीक जैसे पक्षी का एकमात्र गीत.
कोरिया कवि. - रा.हीदुक ( Ra Heeduk) (अनुवाद-दिविक रमेश)
एक और पत्ता. अपना दर्द छिपाने को / तोड़ती रही हूं पत्ते / इसीलिए नंगे हैं वृक्ष / और इसीलिए इतना थोड़ा पक्षी-गीत / पर कैसे छिपा सकती हूं सूखे पत्ते से / सीमेंट के फ़र्श का भद्दापन ? / कैसे खत्म कर सकती हूं कोलाहल / पक्षी-गीत से भरी गली का ? तब भी नहीं थमेंगे मेरे होंठ हिलने से / सो करती हूं इकठ्ठा पत्ते और पक्षी गीत / एक और पत्ता गिरता है मेरे पैर पर / उड़ जाता है वह पक्षी जिसकी आवाज खो गई थी.
यूनान कवि. कंस्तान्तिन कवाफ़ी (अनुवाद-अनिल जनविजय)
दिसम्बर 1903 ….. जब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की / तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आंखों की, दिलदार की / तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी / तेरी आवाज गूंजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी / सित्म्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में / मेरी जुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है / रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में / कहना चाहूं जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है.
फ़्रांस कवि लुई आरागों. ( अनुवाद हेमन्त जोशी
पूर्वाग्रह…… मैं चमत्कारों के बीच नाँचता हूं / हजारों सूर्य रंगते हैं आकाश / हजार दोस्त, हजार आंखें या एक चश्म / अपनी निगाहों से मुझे देते हैं आकार / राहों पर जैसे रोया हो तेल / सायबान के बाद से खोया है खून / ऎसे मैं कूदता हूं एक दिन से दूसरे तक / बहुरंगी गोल और खूबसूरत / जैसे धनुष का जाल हो या रंगों की आग / जब लौ का रंग है हवा-सा / जीवन ओ ! शांत स्वचलित वाहन / और आगे दौड़ने का आनन्दमायी संकट / मैं जलूंगा रोशनी की आग से.
कवि-२ (२) पाल एल्युआर.
मेरे नयन / शांत कभी थे ही नहीं / सागर के उस विस्तार को देखते हुए / जिसमें मैं डूब रहा था / अंततः सफ़ेदे झाग उठा / भागते कालेपन की ओर / सब मिट गया.
रुस कवि युन्ना मोरित्स. (अनुवाद-शीतांशु भारती.)
वहां है- हवा,सूरज,तारे और चाँद / वहां है-हवा, पत्तियों की डालियाँ / तारों में आसमान / वहाँ है-हवा, ऊंचाइयाँ लम्बाइयाँ / और गहराइयाँ. / वहाँ है प्रेम, वहाँ है-हवा, हवा, हवा / वहाँ है सब जो मैं आपको देना चाहती हूं. // बाकी आप सुन लीजिए / गाने वाली चिड़ियों से, फ़ुर्तीली छिपकलियों से / विवश हो जाएं कहने को / चीतल, हाथी, चमगादड़ / घोंघें संग ततलियां . /और बाबा आदम के जमाने की / समुद्री मछलियाँ // बात कीजिए / छुड़मुड़यों से, गुल्बहारों से / सुनिए, इन्हें भोर से सांझ तक. / पर मैं न दूँगी आपको / किसी भी घोर यातना के डर से / किसी पुनरजन्म के वादों पे / किसी अनोखी खुशी के बदले / मैं नहीं दुँगी वो रोशनी / जो भाईचारे के इस बंधन को कस के बाँधती है / जो एक दूसरे से प्रेम करना सिखाती है.
ब्रिटिश कवि- हैराल्ड पिंटर ( अनुवाद व्योमेश शुक्ल)
लोकतंत्र ....कोई उम्मीद नहीं / बड़ी सावधानियां खत्म / ये दिख रही हर चीज की मार देंगे / अपने पिछवाड़े की निगरानी कीजिए. (२) बम- ...और कहने के लिए शब्द बाकी नहीं है / हमने जो कुछ छोड़ा है सब बम है / जो हमारे सरों पर फ़ट जाते हैं / हमने जो कुछ छोड़ा है सब बम है / जो हमारे खून की आखिरी बूंद तक सोख लेते हैं. / जो कुछ छॊड़ा है सब बम है / जो मृतकों की खोपड़ियां चमकाया करते हैं.
क्यूबा कवि. निकोलस गियेने. (अनुवाद श्रीकांत)
कविता पहेलियां. दातों में, सुबह,/ और रात चमड़ी में / कौन है, कौन नही / नीग्रो / उसके एक सुन्दर स्त्री न होने पर भी / वही करोगे, जो उसका हुक्म होगा / कौन है, कौन नहीं / भूख / गुलामों का गुलाम / और मालिक के संग जुल्मी / कौन है, कौन नहीं ./ गन्ना / छुपा लो उसे एक हाथ से / ताकि दूसरा कभी जाने भी नहीं / कौन है, कौन नहीं / भीख / एक इंसान जो रो रहा है / एक हंसी के साथ जो उसने सीखी थी / कौन है, कौन नहीं.
चीन कवि छाओ-छाओ - ईसवी सन 155-20 (अनुवाद- त्रिनेत्र जोशी)
कब्रिस्तान का गीत.- दर्रे के पूरब में शूरवीर / सशत्र तैयार गद्दारों को दंडित करने के लिए / पहले मंगचिन में एकत्र होते हैं / लक्ष्य है श्येनयांग / पर सहयोगी टुकड़ियों मे आपस में ठनी है / अनिर्णय की स्थिति-मुर्गावियों जैसी अपनी तू-तू-मैं-मैं / ताकत और जीत को बेताब, होते हैं परास्त / और एक दूसरे के खून के प्यासे / हवाइ के दक्षिण में एक नौजवान हथिया लेता है राजसी पद्वी / उत्तर में एक राजा बना लेता है अपनी अलग मोहर / शस्त्रों से लेस लोग चलते हैं भड़भड़िये / मौते बेहिसाब / चारों तरफ़ फ़ैलती हैं बेरंग पड़ रही हड्डियां छितर-बितर / हजारों ली तक भी नहीं सुनाई पड़ती कुक्कुट की बांग / प्रति सैकड़ा बच पा रहे हैं एकाध / सोचने भर से दरक उठते है दिल.
लैटिन कवि पाब्लो नेरुदा (अनुवाद-वंदना देवेन्द्र.)
मैं कुछ चीज समझता हूँ. तुम पूछोगे: वे नीले फ़ूल कहां गए? और / अहिपुष्प पंखुरियों का तत्व विज्ञान और / अपनी शब्दावली दुहराती रन्ध्रों, / चिड़ियों को सबक सिखाती बरसात ? / मैं तुम्हें सभी सूचनाएं दुँगा, / मैं एक उपनगर में रहा, मेड्रिड के एक घण्टियों, / घड़ियों और पेड़ों के उपनगर में, / वहाँ से आप मध्य स्पेन का खुश्क चेहरा देख सकते हैं: एक चमड़ा समुद्र जैसा कुछ / मेरा घर फ़ूलों का घर कहा जाता था / क्योंकि इसके हर एक कोने-आंतरों में जेरेनियम फ़ूलते थे: / यह बच्चों और कुत्तों से बसा एक बढ़िया आवास था / कुछ याद है राउल / / तुम्हें रफ़ेल ? / फ़ेड्रेको, क्या तुम्हें याद है / मेरे छज्जों पर जून की रोशनी / फ़ूलों को तुम्हारे कंठ में उतार देती थी?
( ii ) आज की रात लिख सकता हूँ- ( अनुवाद- मधु शर्मा ) --लिख सकता हूं आज की रात / सबसे उदास पंक्तियाँ / लिखूँ, जैसे-“ रात है तारों भरी, / तारे हैं नीले, टिमटिमाटे कहीं दूर / रात को हवा चक्कर काटती है, आकाश में और गाती है / आज की रात लिख सकता हूँ , सबसे उदास कविताएँ. / मैंने प्यार किया उसे, कभी-कभी उसने भी किया मुझे प्यार / आज की रात जैसी उन रातों में, बाँहों में थामे होता था उसे मैं / कितनी ही बार चूमा उसे मैंने, इस अन्तहीन आकाश तले / उसने मुझे प्यार किया कभी-कभी मैंने भी किया उसे प्यार / कोई कैसे न करता उसकी बड़ी-बड़ी शांत आँखों से प्यार / आज की रात लिख सकता हूँ सबसे उदास कविताएँ / सोचते हुए कि नहीं है वह मेरे पास
इस्ताम्बुल कवि नाजिम हिकमत (अनुवाद- चन्द्रबली सिंह)
पाल रोबसन से ……. वे हमें अपने गीत नहीं गाने देते है, रोबसन / ओ गायकों के पक्षिराज नीग्रो बन्धु, / वे चाहते हैं कि हम अपने गीत न गा सकें / डरते हैं, रोबसन / वे पौ के फ़टने से डरते हैं / देखने / सुनने / छूने से / डरते हैं./ वैसा प्रेम करने से डरते हैं / जैसा हमारे फ़रहाद ने प्रेम किया (निश्चय ही तुम्हारे यहां भी तो कोई फ़रहाद हुआ, रोबसन, नाम तो उसका बताना जरा?) / उन्हें डर है / बीज से / पृथ्वी से / पानी से / और वे / दोस्त के हाथ की याद से डरते हैं / जो हाथ कोई डिसकाउंट, कमीशन या सूद नहीं मांगता / जो हाथ उनके हाथों से किसी चिड़िया-सा फ़ंसा नहीं / डरते है, नीग्रो बन्धु / वे हमारे गीतों से डरते हैं, रोबसन
कजाकिस्तान कवि ऎवे कुनानावेव ( अनुवाद-महाश्वेता देवी.)
मनुष्य मल से भरा बोरा है- / जब तुम मरते हो, मल से भी अधिक दुर्गन्ध तुम से आती है / तुम्हें गर्व है कि तुम मुझसे ऊपर हो / किन्तु यह तुम्हारे अन्धकार का चिन्ह है / कल तुम बालक थे / किन्तु अब तुम्हारे ढलते दिन हैं / तुम्हें विश्वास हो गया कि तुम समान स्थिति में नहीं रह सकते / जीवों से प्यार करो / और ईश्वरीय रहस्य को समझो / इस जीवन में इससे अधिक विस्मय / और क्या हो सकता है.
(२) मैंने तुम्हें पिल्ले से कुत्ता बना दिया / और जब वह मेरे पैर में काटता है / मैंने किसी को लक्ष्य-भेद करना सिखाया / और उसने चतुराई से मुझे ही निशाना बनाया.
पोलिश कवि- विस्वावा शेम्बोर्स्का. (अनुवाद-अब्दुल बिस्मिल्लाह)
वियतनाम- ....तुम्हारा नाम क्या है औरत? मैं नहीं जानती / तुम कब पैदा हुई, कहाँ घर है तुम्हारा ?- / मैं नहीं जानती / तुमने धरती पर गढ्ढा क्यों खोदा? - मैं नहीं जानती / तुम कब से यहाँ छिपी हुई हो ? मैं नहीं जानती / तुमने दोस्ती की डोर क्यों तोड़ दी ? मैं नहीं जानती / क्या तुम नहीं जानती, कि हम तुम्हें, कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे?~ मैं नहीं जानती / तुम किसके पक्ष में हो? मैं नहीं जानती / यहाँ तो युद्ध हो रहा है, तुम्हें चुन लेना चाहिए अपना पक्ष !- मैं नहीं जानती / क्या तुम्हारा गाँव अब भी बचा है? मैं नहीं जानती / क्या ये बच्चे तुम्हारे है? / हाँ.
अफ़्रीका कवि जोफ़्रे रोचा ( अनुवाद-राजा खुगशाल)
जेसा मेंडेज से अंतिम बातचीत (लंबी कविता के कुछ अंश) ....मैं जानता था जेसा / जानता था कि तुम पैदा हुए थे / कांति के साथ कदम बढ़ाने के लिए / सच्चे और गहरे अर्थों में वीर थे तुम / तुम सच्चे अर्थों में प्यार थे संघर्ष के / मैं अच्छी तरह जानता हूं जेसा / विप्लव और प्रेम की कौंध थे तुम / स्वतंत्र चेता और मुक्त हृदय /. पूरी तरह समर्पित थे अपने कर्म के प्रति / शांति से सोओ योद्धा, ओ योद्द्धा / जब खत्म करुँगा मैं इन अनाश्वयक बातों को / जो महज एक बाधा है / तुम्हारी वीरतापूर्ण नींद में / इस देश की मिट्टी में / जहाँ दुश्मन की बंदूकों से धराशायी हुए तुम / शांति से सोओ / अब कभी नहीं सनसनाओगे तुम / उन सतहों पर / जिन्हें उघाड़ने की कोशिशें की तुमने / निश्वय ही विजय की ओर बढ़ रहा है / क्रांति का परचम / जबकि मुझे दुख है सिर्फ़ अपना / मैं नतसिर हूं / उस महान की महानता के सन्मुख / अलविदा जेसा मेंडेज / हमेशा के लिए अलविदा.
जापान कवि ओना नो कोमाची. ( अनुवाद-मधु शर्मा)
(एक) यदि वह एक सपना था / फ़िर से देखुंगी मैं तुम्हें / क्यों छॊड़ दिया जाए अधूरा ही / जागा हुआ प्रेम (दो) कोई तरीका नहीं उसे देख पाने का / चाँद के बिना इस रात में / पड़ी हूं मैं जागती हुई अच्छा में जलती / दौड़ती है आग सीने में / दिल धड़कता है. (तीन) साँझ के धुंधले उजाले में / गाती है चिड़िया मेरे पहाड़ी गाँव की / कोई नहीं आएगा आज की रात / इस सुर को बचाने. (चार.) कितने अदृष्य तरीके से / बदला करते हैं रंग / इस दुनिया में / इंसानी दिल के फ़ूल.
श्रीलंका कवि डब्ल्यू ए. अबेसिंधे ( अनुवाद- रमेश चन्द्र शाह )
जंगल में बुद्ध- बज्रकठोर पर्वत हुआ / मुलायम पंखुड़ी सा / विकराल चेहरा चट्टान का /जगमगा उठा है जीवित रक्त माँस से / रेशम से भी स्निग्ध जिस का स्पर्ष / शिलीभूत तमिस्रा / प्रपात बन फ़ट पड़ी प्रकाश का / बोधि का किरणॊं से नहलाते जग-जग को / कब से अधमुंदे नयन / बुलबुलों की तरह वर्षो-शताब्दियों को / मेटते महाकाल में / इस गहन कान्तार के निर्जन में / करुणामय...ध्यानलीन...हे महाबुद्ध / इस पुरातन वृक्ष तले जाने कब से बैठे हुए / अपनी मैत्री और विश्व-प्रेम के साथ / आओ हमारे इस मनुष्य-लोक के बीचोबीच / दुःखों से दग्ध इस धरा को-नहलाओ हे महाभिषग / बोओ बीज मैत्री के / हमारे दिलों के / बंजर बियाबान में.
वियतना कवि दियु न्हान- (अनुवाद-प्रेम कपूर / कुसुम जैन.)
जन्म-.....जन्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु / ऎसा ही होता आया है हमेशा से / इनसे जितना भी दूर जाने का प्रयास करो / कसती ही जाएगी इसकी गाँठ / इस प्रकार अज्ञान ले जाएगा तुम्हें बुद्ध की ओर / और कठिनाइयाँ ध्यान की ओर / न ही ध्यान की ओर / शांत रहो / शब्द तो कोरी बातें हैं
कवि (२) न्युएन त्राइ
स्वपन भंग........स्वर्णिम स्वप्न से जागने पर नहीं रहता शेष / लगता है सब कुछ हो जैसे रिक्त / अच्छा होगा पहाड़ पर बनाएं एक कुटी / उसमें रहें, पढ़ें, प्राचीन ग्रंथ और हों संतुष्ट / जंगल में खिलते फ़ूलों को सुनते हुए
कवि(३) वान हान्ह....
.मानव जीवन-- क्षणभंगुर है मानव-जीवन विद्युत की तरह / आज जन्म है तो कल मृत्यु / वसन्त के हरियाले वृक्ष / हो जाते हैं पत्रहीन शरद में / अतः उत्थान या पतन की क्या चिंता / ओस की बूंद सी है उन्नति व अवनति / जो घास पर मोती जैसी लगती है.
कवि(४) न्गुएन फ़ि रवान्ह
यदि प्रेम है मुझसे तो भी / सोचो अपने देस के बारे में / न सहने दो अन्याय / अपनी पितृ-भूमि को
जापान कवि. - ककिनोमोतो हितोमारो ( अनुवादक:प्रमोद पाण्डॆ)
उलझे शैवाल से / एक गहन प्रेम में / मैं और मेरी प्रेम-परी / सोया करते थे साथ-साथ / लिपटे-सिकुड़े-सिमटे / लेकिन कितनी कम रातें थी हमें मिली / जब हम दोनों थे साथ-साथ / दूर-दूर तक गया अनवरत / मेरा काला अश्व मुझे ले गया / दिग-दिगंत छोड़ता पीछे / मुझको वह ले गया प्रिया तीर / आह ! / हे रक्तिम पर्ण वृक्ष में पल के / पतझर में झर रहे पहाड़ी पर / क्षण भर रोको झरता यह पत्तों का / ताकि / मैं देख सकूं / अपनी प्राण प्यारी का निवास.
कवि-२ ओनो नो कोमाची.
प्रिय मेरा मुझको नहीं मिला ! / मिलन की विह्वलता / यह अमानिशा / है बढ़ा रही / मेरे वक्षस्थल से होकर जाती है अग्नि-शिखा / करती है भस्मीभूत हृदय को / जब उसका चिन्तन करती हूं / जो शायद यह कल्पना करे / उसका चेहरा देख रही हूं. / अगर जानती / बस यह था इक स्वपन / मैं कभी न जागी होती...
क्यूबा कवि - जोस मार्ती. ( अनुवाद प्रमोद पाण्डे )
ग्वाटेमाला की लड़की.-- आह ! कह लेने दो मुझको, वह मधुर कथा / उस छाया में, मैं खड़ा जहाँ इस समय / यह कथा उसी ग्वाटेमाला की लड़की की, / जिसने त्यागे थे प्राण / प्रेम की वेदी पर / उसके शव पर थे हार, / कुमुदिनी पुष्पों की / सब सुरभि रूप वे पुष्प / चमेली जिनके चारों ओर गुंथी / हमने था उसको दफ़नाया / रेशम के उस ताबूत में / उसने अपने प्रेमी को / दी थी छॊटी सी शीशी / थी जिसमें मधुर सुगंध भरी , पर / लौटा वह विवाह करके बस / तभी प्राण त्यागे थे उसने, / जिसकी हूँ मैं कथा कह रहा / वे कांधों पर ले गए उसे / सब पंडित और पुजारी थे / आए थे कितने युगल, उसे श्रद्धांजलि देने, / चढ़ा- चढ़ाकर पुष्प हार / धीरे-धीरे / जब सांझ ढली, / उस कब्र खोदने वाले ने / था मुझे बुलाया / और कहा. देख लो / यही अन्तिम अवसर / वह ग्वाटेमाला की लड़की / जिसने त्यागे थे प्राण / प्रेम की बेदी पर.
जर्मन कवि - मे.आयिम ( अनुवाद- अमृत मेहता.)
विदा.---- क्या हों अन्तिम शब्द / सुखी रहो फ़िर मिलेंगे / कभी न कभी कहीं न कहीं / क्या हो अंतिम कारज / एक अन्तिम पत्र एक अंतिम फ़ोन-वार्तालाप / एक गीत मंद स्वर में? / क्या हो अंतिम इच्छा / माफ़ करना / भूलना नहीं मुझे/ प्यार करता हूं तुझे ? / क्या हो अंतिम विचार? / धन्यवाद? / धन्यवाद.
हंगरी कवि- - फ़ेरेंत्स यूहास. ( अनुवाद- सुरेश सलिल )
सोना.---औरत अपने छीजते जाते बालों के जूड़े में / सधे हाथों सहेजती हुई / फ़िर एक चम्मच और पाव रोटी का एक एक गुम्मा / गिरा देते है उनके फ़ेले, मैले कुचैले हाथों में / हँसते हुए / उनकी सींकिया-सुर्ख घींचों का घेरा / भफ़ाती रकाबियों पर झुकता है / पवित्र जल पर गुलाब के फ़ूलों की भाँति / और सुर्ख गुलाब खिल उठते हैं / मसालेदार कुहासे में / चमक उठती है उनकी आँखों की पुतलियाँ. जैसे दस दुनियाएँ अपनी खुद की रोशनी में / अकबका गई हों / तिरने लग जाते हैं शोरबे में / आहिस्ता-आहिस्ता चक्कर लगाते / प्याज के सुनहरे छल्ले.
चेक कवि - मिरोस्लाव होबुल
हठधर्मिता का सिंड्रोम--- हवा में खड़ा है एक दैत्याकार वायुयान / पूँछ झुकाए / शहर के ऊपर / इतना भारी कि भर न पाए उड़ान / किसी सगर्भा व्याध पतिंगा की भाँति / अपने रहस्यमय निकास-मार्ग से / छतों को तोड़ता हुआ अपने मुर्दे / ऊपर जो घटित है / देखकर भी हम उसकी अनदेखी करते हैं / पेशियों की ऎंठन में कैसी तो हठधर्मिता है / हम से ऊपर मूर्तिवत हो गए हैं हम / संभव नहीं है कि अपनी गर्दने / पाँच डिग्री दायें या बांयें भी मोड़ सकें / राजनेताओं के रवैये की तरह / शहर के ढंग-ढर्रे से / पोशीदातौर पर चकित हैं हम /’ कि, देखिए, किस तरह ढेर होती जा रही है / जागते रहने की शहर की कोशिशें
आईसलैण्ड कवि. - सिगुरदुर पालसन ( अनुवाद कुसुम जैन)
(१) शीशे के भीतर दिखते हैं बड़े / वे आंसू, जिन्हें दिखना नहीं चाहिए / बाहर तनी पर टंगी चादरें / अब और नहीं बिछेगीं.
(२) जीवन और भी है / जो जिये जाते हैं / शुभकामनाएं और भी हैं / दी जाती हैं औरों को / याद नहीं अब / चाँद की वे किरणें / दिखाई देती थीं / जो बर्फ़ के आर-पार / सुबह की निस्तब्धता में बैठ / पी रहा हूं गर्म काफ़ी / कुछ अलग है यह चाँद / जिसे पहले कभी नहीं देखा / नया है इसका फ़ीकापन / जैसे दुकान से रोटी खरीदती औरत / मुझे नहीं जानती.
जर्मन कवि - बर्तोल्त ब्रेख्त (अनुवाद-अनिल पेटवाल)
जनरल तुम्हारा टैंक बड़ा शक्तिशाली है / ये जंगलों को तबाह करता है / और सैकड़ों लोगों को रौंद सकता है / मगर इसमें एक कमी है, / ये बिना चालक के काम नहीं कर सकता / तुम्हारे पास बड़े शक्तिशाली बम बरसाने वाले जहाज हैं. / ये तूफ़ानों से ज्यादा तेज उड़ सकते हैं / कई हाथियों को अपने भीतर ले जा सकते हैं / मगर इनमें एक कमी है / ये बिना मैकेनिक किसी काम के नहीं / जनरल, आदमी बड़े काम की चीज है / वो उड़ सकता है, और बड़ी आसानी से मार भी सकता है / मगर उसमें एक कमी है / वो सोच सकता है.
पुर्तगाल कवि जार्ज डे लिमा ( 1893-1953) (अनुवाद-पियूष दईया)
दिन उतरा नहीं है / मैंने देखा जहाजों को जाते और आते / मैने देखा दुर्दशा को जाते और आते / मैंने देखा चर्बीले आदमी को आग में / मैंने देखा सर्पीलाकारों को अंधेरे में / कप्तान, कहां है कांगो ? / कहा है संत ब्रैडानक टापू? / कप्तान कितनी काली है रात ! ऊँची नस्लवाले कुत्ते भौंकते हैं अंधेरे में / ओ ! अछःऊतों, देश कौन सा है / कौन सा है देश जिसकी तुम इच्छा रखते हो ? / मैंने लिया वनस्पतियों से जंगली शहद / मैंने लिया नमक पानियों से, मैणे रोशनी ली आकाश से / मेरे पास केवल काव्य है, तुम्हें देने को / बैठ जाऒ, मेरे भाइयों.
रुमानिया कवि- लूसीयन बलागा (1895-1961) (अनुवाद – पियूष दईया)
मैं नहीं पेरुंगा संसार की पिंजूलियां अजूबों को / और मैं नहीं मरुंगा / तर्कणा से / रहस्यों को जिन्हें मैं मिलता हूं अपने मार्ग के साथ साथ / फ़ूलों, आंखों, ओठॊं और कब्रों में / दूसरों की रोशनी / डुबोती है छिपे हुए गहरे जादू को / अथाह अंधेरे में / मैं बढ़ाता हूं संसार की पहेली / अपनी रोशनी के संग / जैसे चांद अपनी धवल शहतीरों संग / बुझाता नहीं बल्कि बढ़ाता है/ रात के झिलमिलाते रहस्यों को. मैं समृद्ध करता हूं गहराते क्षितिज को / महान राज की कंपकपियों से / वह सब जिसे जानना कठिन है / बन जाता है एक अरूझा बुझौवल / ऎन मेरी आंखों तले / क्योंकि बराबर प्यार करता हूं मैं / फ़ूलों, ओठों, आंखों और कब्रों को.
इराक कवि (१) टून्या मिखाइल ( अनुवाद-गीत चतुर्वेदी )
( I ) मैं हड़बड़ी में थी--- कल मैंने एक देश खो दिया / मैं बहुत हड़बड़ी में थी / मुझे पता ही नहीं चला / कब मेरी बाहों से फ़िसल कर गिर गया वह / जैसे किसी भुल्लकड़ पेड़ से गिर जाती है / कोई टूटी हुई शाख ( लंबी कविता का अंश)
( ii ) मोची—एक हुनरमंद मोची / अपनी पूरी उम्र / ठोंकता है कील / और चमकाता है चमड़े को / भांत-भांत के पैरों के लिए / पैर जो चलते हैं / पैर जो मारते हैं ठोकर / पैर जो लगाते हैं छलांग / पैर जो करते हैं अनुसरण / पैर जो दौड़ते हैं / पैर जो शामिल होते है भगदड़ में / पैर जो भहरा जाते हैं / पैर जो उछलते हैं / पैर जो यात्रा करते हैं ./ पैर जो शांत पड़े रहते हैं./ पैर जो कांपते हैं / पैर जो नाचते हैं / पैर जो लौटते है / जीवन मोची के हाथ में पड़ी / कुछ कीलें ही तो हैं.
कवि(२) सादी यूसुफ़ (अनुवाद- अशोक पांडॆ) ( लंबी कविता का अंश) अमेरिका, अमेरिका से..... हम बंधक नहीं है, अमेरिका / हम ईश्वर के सैनिक नहीं तुम्हारे सिपाही / हम निर्धन लोग हैं, हमारी है धरती वह जिसके देवता डुबा दिये गए हैं / बैलों के देवता / आगों के देवता / दुःखों के देवता, जो मिट्टी / और रक्त को गीत में गूंथ देते हैं / हम निर्धन लोग हैं, हमारा देवता है निर्धन / जो उभरता है किसानों की पसलियों से भूखा और चमकीला और ऊँचा उठाता है अपना सिए / अमेरिका हम मृतक हैं ./ आने दो अपने सिपाहियों को / जो भी एक मनुष्य का वध करे, उसे करने दो उसका उद्धार / हम डूबे हुए हैं, प्यारी लेडी ! / हम डूबे हुए लोग हैं / आने दो पानी को.
ईरान-डेनमार्क मूल की कवि- शीमा काल्बासी ( अनुवाद अशोक पांडॆ)
अफ़गान की स्त्रियों के लिए- मैं टहल रही हूं काबुल की गलियों में / रंगी हुई खिड़कियों के पीछे / टूटॆ हुए दिल और टूटी हुई स्त्रियां हैं. / जब उनके परिवारों में कोई पुरुष नहीं बचा / रोटी के लिए याचना करतीं वे भूख से मर जाती हैं / एक जमाने की अध्यापिकाएं., चिकित्सिकाएं और प्रोफ़ेसर / आज बन चुकीं चलते-फ़िरते मकान भर / चन्द्रमा का स्वाद लिए बगैर / वे साथ लेकर चलती हैं, अपने शरीर, कफ़न सरीखे बुर्कों में ( लंबी कविता के अंश)
इजरायल कवि- (१) आमीर ओ”र ( अनुवाद अशोक पांडॆ)
भाषा कहती है- भाषा कहती है : भाषा के पहले / एक भाषा होती है, वहीं के धिसे हुए निशान होती है भाषा / भाषा कहती है: सुनो, अभी / आप सुनते हैं / गूंजता है कुछ / खामोशी ले लो और खामोश हो रहने का जतन करो / शब्द ले लो और बोलने की कोशिश करो / भाषा के परे, भाषा का एक घाव है / जिसमें से बहता जाता है, बहता जाता है संसार / भाषा कहती है : है, नहीं है, हैं / नहीं है, भाषा कहती है: मैं / भाषा कहती है चलो तुम्हें बोला जाए,/ चलो तुम्हें छुआ जाय, आ के बोलो ना,/ तुम बोल चुके हो.
कवि (२) येहूदा आमीखाई ( अशोक पांडॆ) ( लंबी कविता का अंश)
हिब्रू और अरबी भाषाएं लिखी जाती हैं पूर्व से पश्चिम की तरफ़ / लैटिन लिखी जाती है पश्चिम से पूर्व की तरफ़ / बिल्लियों जैसी होती हैं भाषाएं / आपको चाहिए कि उन्हें गलत तरीके से न सहलाएं / बादल आते हैं समुद्र से / रेगिस्थान से गर्म हवा / पेड़ झुकते हैं हवा में / और चारों तरफ़ हवाओं में पत्थर उड़ते हैं / चारों हवाओं तलक वे पत्थर फ़ेंकते हैं / इस धरती को फ़ेंकते है एक दूसरे पर / लेकिन धरती वापस गिरती है धरती पर.
तुर्की कवि आकग्यून आकोवा ( अनुवाद गीत चतुर्वेदी) ( लंबी कविता का अंश)
शांति क्या है मेरी जान---तुम जानती हो मेरी जान / शांति क्या होती है / क्या यह कोई पुल है जो एक परछाई पड़ते ही भहरा जाता है / कोई कंपनी है जो दिवालिया हो जाती है / इससे पहले कि उसके शेयर लोगों तक पहुंचे / क्या यह दो युद्धों के बीच का चायकालीन अवकाश है या / लोहार के सामने कहे गए उस बच्चे के आखिरी शब्द / जिसकी साइकिल खराब हो गई हो. / बताओ मेरी जान / शांति क्या वह खत है जो आईंस्टीन ने रूजवेल्ट को लिखा था / लाउसेन से मुस्तफ़ा कमाल के नाम आया टेलीफ़ोन है / या वह गली है जिसका कूड़ा / बुहार ले गया विज्ञान. ( लंबी कविता.)
कवि(२) नाजिम हिकमत
इस तरह से— मैं खड़ा हूं बढ़ती रोशनी में, / मेरे हाथ भूखे, दुनिया सुन्दर / मेरी आंखे समेट नहीं पातीं पर्याप्त पेड़ों को / वे इतने उम्मीद भरे हैं, इतने हरे / एक धूप भरी राह गुजरती है शहतूतों से होकर, / मैं जेल-चिकित्सालय की खिड़की पर हूं / सुंधाई नहीं दे रही मुझे दवाओं की गंध / कहीं पास ही में खिल रहे होंगे कार्नेशन्स / यह इस बात की तरह है / गिरफ़्तार हो जाना अलग बात है / खास बात है आत्म समर्पण न करना.
चेकोस्लोवाकिया कवि - येरोस्लाव साइफ़र्त. ( अनुवाद- अशोक पांडॆ)
गीत. बिदा के समय / हम हिलाते हैं रुमाल ./ हर रोज कोई चीज खत्म हो रही है / कोई सुन्दर चीज खत्म हो रही है / हवा को फ़ड़फ़ड़ाता है / लौटता हुआ हरकारा कबूतर / हम हमेशा लौट रहे होते हैं / उम्मीद के साथ या उसके बिना / जाओ, आँसू सुखा लो अपने / और मुस्कुराओ, अलबत्ता जल रही है अब भी तुम्हारी आँखें / हर रोज कोई चीज खत्म हो रही है / कुछ सुन्दर चीज खत्म हो रही है.
स्वीडिश कवि - टामस ट्रांसट्रामर ( अनुवाद- किरण अग्रवाल)
सीमा के पीछे मित्रों को.— (१) मैंने तुम्हें इतनी होशियारी से लिखा / लेकिन जो मैं नहीं कह सका / भर गया और बड़ा हो गया गरम हवा के बैलून की तरह / और अन्ततः रत्रि आकाश से होकर दूर उड़ गया. (२) अब मेरा पत्र सेंसर के पास है / वह अपना दीपक बारता है / इसकी चमक में मेरे शब्द कूदते हैं / जैसे तार जाल में बंदर / इसको खड़खड़ाते हुए, अपने दांतों को अनावृत करने के लिए रुकते हुए.
सीरिया कवि – अली अहमद सईद. ( अनुवाद- सुरेश सलिल)
मैं भौंचक हूं, मेरी वतन / हर बार मुझे तुम एक मुख्तलिफ़ शक्ल में नजर आते हो / अब मैं तुम्हें अपनी परेशानी पर ढो रहा हूं / अपने खून और अपनी मौत के दरमियान / तुम कब्रिस्तान हो या गुलाब ? / बच्चों जैसे नजर आते हो तुम मुझे, अपनी अंतड़ियां घसीटते / अपनी ही हथकड़ियों में गिरते-उठते / चाबुक की हर सटकार पर एक मुख्तलिफ़ चमढ़ी ओढ़ते / एक कब्रिस्तान या एक गुलाब ? / तुमने मेरा कत्ल किया, मेरे नग्मों का कत्ल किया / तुम कत्लेआम हो या इंकलाब ? / मैं भौंचक हूं मेरे वतन / हर बार तुम मुझे मुख्तलिफ़ शक्ल में नजर आते हो..
पाकिस्तान कवि अंजुम सलीमी (अनुवाद- प्रेम कपूर)
अधूरा आदमी हूं मैं.../ पूरा चांद मुझे समुंदर बना देता है / आंखें हजूम से सोहबत करती है , और मैं? / मुझे तनहाई ने बनाया है / रफ़ाकतें मुझे तोड़ देती है / मैं जमा हो रहा हूं / वक्त मुझे मिलने आयेगा / मैंने अपनी सरगोशियां दीवारों में रख दी है / खाली कमरा मुझ से भरा हुआ है / मुझे अभी दस्तक मत दो.
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मारीशस कवि राज हीरामन
चाचा रामगुलाम---- ..चाचा थे, अब तुम चाचा न रहे / देश के तुम अब दादा बन गए / पिता तुम सिर्फ़ नवीन के थे / देश के अब राष्ट्रपिता बन गए / देश तो जंजीरों में थी बंधी / तुम ने एक-एक कड़ी थी तोड़ी / तुमने सबको आजाद किया / देश को तुमने आबाद किया.
(२) किस हवा में दम है- किसमें इतना दम है / जो इस दीप को बुझा सके /अमावस्या में यह जन्मा है / आंधियों से यह खेला है / तूफ़ानों में यह पला है / दिवाली में यह जला है / किसमें इतना दम है / जो इस दीप को बुझा सके.
न्यू जर्सी अमेरिक देवी नागरानी.
धीरे-धीरे शाम चली आई / भीनी-भीनी खुशबू छाई / इण्द्रधनुषी रंग मेरे मन का / मैं उसकी परछाइ.,छाई / धीरे-धीरे शाम चली आई / बूँद पड़े बारिश की सौंधी / महक मिट्टी की भाई,भाई / धीरे-धीरे शाम चली आई / भीगी मेरे मन की चादर / प्यास पर न बुझ पाई, पाई / धीरे धीरे शाम चली आई / कल तक जो बीज थे मैंने बोये / हरियाली अब छाई, छाई / आँगन में कुछ फ़ूल खिले हैं / रँगत मन को भाई, भाई / धीरे धीरे शाम चली आई / सुर से सुर मिल राग यह मालकौंस रस बरसाई / धीरे धीरे शाम चली आई / सातरँगों की सरगम कारी / कोयल ने है गाई, गाई / धीरे धीरे शाम चली आई / महकाए मन मेरा देवी / भोर न ऎसी आई.
भारतीय कवि
कवि प्रदीप ( रामचन्द्र द्विवेदी.)
/ तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी / आज सभी के लिए हमारा यही कौमी नारा है. आज हिमाचल की चोटी से फ़िर हम ने ललकरा है / दूर हटो ऎ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है. / जहां हमारा ताजमहल है और कुतुब-मीनारा है / जहां हमारे मन्दिर मस्जिद सिखों का गुरुद्वारा है / इस धरती पर कदम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है / शुरु हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठॊ हिन्दुस्तानी
सुभद्रा कुमारी चौहान.
आ रही हिमालय से पुकार / है उदधि गरजता बार बार / प्राची पश्चिम भू नभ अपार / साब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त / वीरों का कैसा हो वसंत / फ़ूली सरसों ने दिया रंग / मधु लेकर आ पहुंचा अनंग / वधु वसुधा पुलकित अंग अंग / है वीर देश में किन्तु कंत / वीरों का कैसा हो वसंत / भर रही कोकिला इधर तान ./ मारु बाजे पर उधर गान / है रंग और रण का विधान / मिलने को आए आदि अंत / वीरों का कैसा हो वसंत / गलबाहें हों या कृपाण / चलचितवन हो या धनुषबाण / हो रसविलास या दलितत्राण / अब यही समस्या है दुरंत / वीरों का कैसा हो वसंत
संपतराव धरणीधर.
कुछ ऎसा होने वाला है / धरती का बेटा अब फ़सल चांद पे बोने वाला है./ सूरज के गर्वीले घोड़े अब अंतरिक्ष तक/ सिमित न रह पायेंगे / गांव-गांव और गली गली ये ऊर्जा से लादे जाएंगे./ पीठ पर अपने हम सब तक आएंगे जाएंगे / तुम देखोगे,बंजारे से ये जो घूम रहे हैं / सर पर अपने झिलमिल तारे/ये बुध ये शुक्र शनि / गढ़ने वाले हैं कल धरती की धानी चूनर पर / सलभे गोट किनारे. / कालिदास के मेघ अब गीत प्रणय के त्याग-अमन की बात सुनाने वाले हैं / बेकस मजलूमों का संदेश नया / इंद्रासन तक पहुंचाने वाले हैं / कि धन वैभव ये सारा का सारा / अब कुबेरों के महलों तक संचित रहना मुश्किल है./ क्योंकि राम गिरि की कुटिया में / वो बीमार यक्ष ज्यों का त्यों पीढ़ित है / पातालों से लेकर गहन व्योम के शिखरों तक / ये मेदिनी पुत्र वीर,एक नया धर्म / एक नया कर्म. एक नया विश्व / अपने लघु कंधो पर ढोने वाला है.
विष्णु खरे. लालटेन जलाना. (लंबी कविता के कुछ अंश)---
-लालटेन जलाना उतना आसान बिल्कुल नहीं है / जितना उसे समझ लिया गया है / अव्वल तो चीन-चार संकरे कमरों वाले छोटे-से मकान में / कम से कम, तीन लालटेन की जरुरत पड़ती है / और रोज किसी को भी राजी करना मुश्किल है कि / वह तीनों को तैयार करे / और एक ही आदमी से हर शाम / यह काम करवा लेना तो असंभव है / घर में भले ही कोई औरत न हो / सिर्फ़ एक बाप और तीन संताने हों तो भी न्यायोचित ढंग से/ बारी-बारी तीनों से लालटेन जलवाना कठिन नहीं / यह जरुर है कि जब दिया-बती की बेला आए / तो यह न मालूम हो के लालटेन पीपे या शीशी में तेल नहीं है. / और शाम को साढ़े छः बजे निकलना पड़े मिट्टी के तेल के लिए.
चंद्रकांत देवताले.
माँ पर नहीं लिख सकता कविता. ---माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता / अमर चूँटियों का एक दस्ता / मेरे मस्तिस्क में रेंगते रहता है / मां वहाँ हर रोज चुटकी-दो चुटकी आटा डाल देती है /जब भी मैं सोचना शुरू करता हूं / यह किस तरह होता होगा / घट्टी पीसने की आवाज / मुझे घेरने लगती है./और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनियां में ऊँघने लगता हूं./जब कोई भी मां छिलके उतारकर / चने,मूंगफ़ली या मटर के दाने / नन्हीं हथेलियों पर रख देती है /तब मेरे हाथ मेरी जगह पर/ थरथराने लगते हैं /मां ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए / देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे / और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया /मैंने धरती पर कविता लिखी है / चन्द्रमा को गिटार में बदला है / समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया / सूरज पर कभी कविता लिख दूंगा / मां पर नहीं लिख सकता कविता.
स्व. डा.हुकुमपाल सिंह “ विकल “
अनकहती कहती नदी.( लंबी कविता के कुछ अंश)----पानी पा सूखी जाती है / मुझमें बहती हुई नदी / सच कहने से कतराती है / सच-सच कहते हुई नदी / परम चिरन्तर थी जो नदी / अन्तस में गंगा सी बहती / घाट-घाट से प्राण बोध की / हरी भरी कविता सी कहती / आज वही नदिया पानी में / भूली पानी के छन्दों को / लगी तोड़ने पानी में ही / पय पानी से अनुबन्धों को / नेह और विश्वास किनारे जब से / अपने को बिखरा पाती है / अनकहती कहती नदी. / घाट घाट बैठे मछुआरे / सारे मर्यादाएं खोते / घाट घाट का पीकर पानी / पानी में वह पानी बोते / जो पानी अपने पानी को / पानी में ही आग लगाता / पानी लगे पानी मांगने पानी / पानी में वह प्यास उगाता / पानी के द्वारा पानी को / होते देख इस तरह पानी / पानी पानी हो जाती है / पानी रहती हुई नदी
चंद्रसेन विराट \
गंगाजल अपमानित होता है— यदि आसूं को तुम पानी कहते हो / तो गंगाजल अपमानित होता है / पीड़ा ब्रह्मा की आदि-भावना है / आसूं ही उसका पहला बेटा है / वह अंतरात्मा से धावित पोषित / उसने प्रभु का आशीष समेटा है / यदि भरी आंख पर मुस्कुराते हो तुम / सागर का दिल अपमानित होता है / सौंदर्य नयन से पी लो कब रोका / लेकिन तुम उसको मांसल परस न दो / लजवन्ती का अंकुर न मुरझ जाये / निरखो केवल छूले की हाविस न हो /. यदि दृष्टि वासनामय रखते हो तुम / दृग का काजल अपमानित होता है.
स्व, भगवत रावत.\
चोर की चोरी / साहूकारी साहूकार की / दासता दास की / और अफसर का अफसरी / बेईमानी बेईमान की / दरिद्रता स्वाभिमानी की / ग़रीब की ग़रीबी / और तस्कर की तस्करी / दिन दूनी रात चौगुनी / फल फूल रही / कमाई कुकरम की / और अजगर की अजगरी / मज़े में हैं यहाँ सब / हे बाबा तुलसीदास / कविताई ससुरी अब / कहाँ जाय का करी।
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