कैलाश के स्मरण मात्र से शिवजी का दिव्य स्वरूप आँखों के सामने तैरने लगता है. यह वही स्थान है जहाँ देवों के देव महादेव अर्थात शिवशंकर माता पार्वतीजी एवं अपने गणॊं के साथ विराजते हैं.
इस पर्वत को ब्रह्माण्ड का एक्सिस भी कहा जाता है. आकाश और पृथ्वीके बीच का एक ऎसा बिंदु जहाँ चारों दिशाएं आपस में मिलती है. इसे मेरू पर्वत के नाम से भी जाना जाता है. अपने में अनेक रह्स्यों को समेटे हुए यह पर्वत दुनियां का श्रेष्ठतम पवित्र स्थान है, जहाँ से अलौकिक शक्तियों का निरंतर प्रवाह बना रहता है. इसके शिखर पर ॐ की प्रतिध्वनि गूंजती रहती है. इस पवित्र पर्वत की ऊँचाई 6714 मीटर र्है. ऊँचाई में भले ही यह माउण्ट ऎवरेस्ट सरीखा नहीं है परन्तु इसकी आकृति एक विशाल शिवलिंग की तरह है. शायद यही कारण है कि यह हिन्दुओं के लिए अत्यन्त पवित्र और पूज्यनीय बना हुआ है. पर्वतों से बने शोड़षदल कमल की आकृति में घिरी यह शिवाकृति पूरे वर्ष भर बर्फ़ की सफ़ेद चादरों से घिरी रहती है. सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलज और कर्णाली या घाघरा नदियों से यह घिरा हुआ है. इसकी तलहटी में सूर्य के आकार वाली मानसरोवर झील है, जो अपने दिव्य जल के लिए जानी जाती है. इसे क्षीरसागर भी कहा जाता है, जिसमें स्वयं नारायण अपनी पत्नि लक्ष्मी के संग निवास करते हैं. ऎसा माना जाता है कि शेषनाग वहाँ स्वयं उपस्थित रहकर भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी पर छाया बनाए रखते हैं. इस तीर्थ को सुवर्णपर्वत और रजतगिरि भी कहा जाता है. पौराणिक जनश्रुतियों के अनुसार शिव और ब्रह्मा आदि देवगण, मरीच आदि ऋषि एवं रावण, भस्मासुर आदि ने यहाँ कठोर तप किए थे. एक कथा के अनुसार लंका पति रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए अपने शीश यहीं पर चढ़ाए थे. एक दूसरी कथा के अनुसार रावण ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत को अपने कंधे पर उठा लिया था. अपनी दिग्विजय यात्रा में पाण्डवों ने इस प्रदेश पर विजय प्राप्त की थी और युधिष्ठर को इस प्रदेश के राजा ने उत्तम घोड़े, सोना,रत्न और याक के पूँछ के बने काले और सफ़ेद चामर भेंट में दिए थे. यह वही स्थान है जहाँ जगतगुरु शंकराचार्यजी ने अन्तिम साँसें ली थीं. जैन धर्म में भी इस स्थान का विशेष महत्व है. वे कैलाश को अष्टापद भी कहते हैं. कहते हैं कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने इसी स्थान में निर्वाण प्राप्त किया था. बौद्ध जनश्रुति के अनुसार कैलाश पृथ्वी के मध्य भाग में स्थित है. उसकी उपत्यका में रत्नखचित कल्पवृक्ष है. इसे पृथ्वी में पर अवस्थित स्वर्ग भी कहा गया है.
कैलाश –मानसरोवर जाने के अनेक मार्ग हैं, किंतु उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा से अस्ककोट, खेल,गर्विअंग, लिपूलेह,खिंड, तलकाकोट होकर जाने वाला मार्ग अपेक्षाकृत सुगम है. यह भाग 544 किमी( 338 मील) लंबा है और इसमें अनेकों उतार-चढ़ाव है. जाते समय सरलकोट तक 70 किमी (44 मील) की चढ़ाई है, उसके आगे 74 किमी (46 मील) उतराई है. मार्ग में अनेक धर्मशालाएं और आश्रम हैं, जहाँ यात्री ठहर सकता है. गर्विअंग में आगे की यात्रा के निमित्त याक, खच्चर, कुली आदि मिलते हैं. तकलाकोट तिब्बत स्थित पहला ग्राम है, जहाँ प्रति वर्ष ज्येष्ठ से कार्तिक तक बड़ा बाजार लगता है. तकलाकोट से तारचे जाने के मार्ग में ही मानसरोवर मिलता है.
कैलाश की परिक्रमा तारचेन से आरंभ होकर वहीं समाप्त होती है। तकलाकोट से 40 किमी (25 मील) पर मंधाता पर्वत स्थित गुर्लला का दर्रा 4,938 मीटर (16,200 फुट) की ऊँचाई पर है। इसके मध्य में पहले बाइर्ं ओर मानसरोवर और दाइर्ं ओर राक्षस ताल है। उत्तर की ओर दूर तक कैलाश पर्वत के हिमाच्छादित धवल शिखर का रमणीय दृश्य दिखाई पड़ता है। दर्रा समाप्त होने पर तीर्थपुरी नामक स्थान है जहाँ गर्म पानी के झरने हैं। इन झरनों के आसपास चूनखड़ी के टीले हैं। प्रवाद है कि यहीं भस्मासुर ने तप किया और यहीं वह भस्म भी हुआ था। इसके आगे डोलमाला और देवीखिंड ऊँचे स्थान है, उनकी ऊँचाई 5,630 मीटर (18,471 फुट) है। इसके निकट ही गौरीकुंड है। मार्ग में स्थान स्थान पर तिब्बती लामाओं के मठ हैं।
यात्रा में सामान्यत: दो मास लगते हैं और बरसात आरंभ होने से पूर्व ज्येष्ठ मास के अंत तक यात्री अल्मोड़ा लौट आते हैं। इस प्रदेश में एक सुवासित वनस्पति होती है जिसे कैलास धूप कहते हैं। लोग उसे प्रसाद स्वरूप लाते हैं।
मानसरोवर झील (दाएं) इसके पश्चिम में राक्षसताल तथा उत्तर में कैलाश पर्वत है. (उपग्रह से लिया गया चित्र,)
मत्स्य पुराण में कैलाश पर्वत का वर्णन.
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सृष्टी के आरंभ में ब्रह्माजी ने केवल एक पुराण की रचना की थी, जिसमें एक अरब श्लोक थे. अपनी विशालता के चलते इसे पढ़ने में कठिनाइयां होती थी. अतः इस पुराण को सरल तरीके से समझाने के लिए महर्षि वेदव्यास ने इस विशाल पुराण को 18 पुराणॊं में विभक्त करते हुए इसे आसान बना दिया.
अठारह पुराणॊ के नाम तथा उनमें लिखे गए श्लोकों की संख्या निम्नानुसार हैं.
(1)ब्रह्मपुराण- दस हजार (2) पद्म पुराण-५५ हजार (3) विष्णु पुराण-२३ हजार (4) शिव पुराण-२४ हजार (5) भागवत पुराण-१८ हजार (6) नारद पुराण-२५ हजार (7) मार्कण्डेउ पुराण-9 हजार (8) अग्नि पुराण- 15,400 (9) भविष्य पुराण- 14,500 (10) ब्रह्मवैवर्त पुराण- 18 हजार (11) लिंग पुराण-11 हजार (12) वराह पुराण-24 हजार (13) स्कंद पुराण- 81 हजार एक सौ (14) वामन पुराण- 10 हजार(15) कुर्म पुराण-17 हजार (16) मत्स्य पुराण- 14 हजार (17) गरुड़ पुराण-19 हजार (18) ब्रह्माण्ड पुराण-12 हजार.
इस तरह मत्स्य पुराण सोलहवां पुराण है जिसमें 290 अध्याय तथा 14 हजार श्लोक हैं. इस ग्रंथ में मत्स्य अवतार की कथा के अलावा तालाब, बागीचा, कुआं, बावड़ी, पुष्करिणी, देव मन्दिर की प्रतिष्ठा, वृक्ष लगाने की विधि, भूगोल का विस्तृत वर्णन, ऎरावती नदी का वर्णन, हिमालय की अद्भुत छटा का एवं कैलाश पर्वत का वर्णन, गंगा जी की सात धाराओं के वर्णन के साथ ही राजा पुरुरवा की रोचक कथा भी शामिल है..
आइए-इसी क्रम में हम मत्स्यपुराण में वर्णित कैलाश-मानसरोवर के बारे में विस्तार से जानकारियों प्राप्त करते चलें-
तस्याश्रमस्योत्तरतस्त्रिपुरारिवेषेवितः * नानारत्नमयैः श्रृंगै कल्पद्रुमसमन्वितैः मध्ये हिमवतः पृष्ठे कैलासो नाम पर्वतः * तस्मिन निवसति श्रीमान कुबेरः सह गुह्यकैः अपस्रोSनुगतो राजा मोदते ह्यलकाधिपः * कैलाशपादसम्भूतं पुण्यं शीतजलं शुभम मन्दोदकं नाम सरः पायस्तु दधिसंनिभम * तस्मात प्रवहते दिव्या नदीः मन्दाकिनी शुभा दिव्यं च नन्दनं तत्र तस्यास्तीरे महद्वनम * प्रागुत्तारेण कैलासाद दिव्यं सौगन्धिकं गिरिम सर्वधातुमायं दिव्यं सुवेलं पर्वतं प्रति * चन्द्रप्रभो नाम फ़िरिः यः शुभ्रो रत्नसंनिभः तत्समीपे सरो दिव्यमच्छोदं नाम विश्रुतम * तस्मात प्राभवते दिव्या नदी ह्यच्छोदिका शुभा तस्यास्तीरे वनं दिव्यं महच्चैत्ररथं शुभम * तस्मिन गिरौ निवसति मणिभ्रदः सहानुगः यक्षसेनापतिः शूरो गुह्यकैः परिवारितः * पुण्या मन्दाकिनी नाम नदी ह्यच्छोदिका शुभा महीमण्डलमध्ये तु प्रविष्ठा सा महोदधिम
उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत के पृष्ठ-भाग के मध्य में कैलाश नामक पर्वत स्थित है. उस पर त्रिपुरासुर के संहारक शंकरजी निवास करते हैं. उनके शिखर नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं तथा उस पर कल्पवृक्ष शोभा पा रहे हैं. उस पर्वत पर श्रीमान कुबेर गुह्यकों के साथ निवास करते हैं. इस प्रकार अलकापुरी के अधीश्वर राजा कुबेर अप्सराओं द्वारा अनुगमन किए जाते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं. कैलाश के पाद ( उपत्यका) से एक मन्दोदक नामन सरोवर प्रकट हुआ है, जिसका जल बड़ा पवित्र, निर्मल एवं शीतल है. उसका जल दही के समान उज्ज्वल है,. उसी सरोवर से मंगलमयी दिव्य मन्दाकिनी नदी प्रवाहित होती है. वहां उस नदी के तट पर नन्दन नामक दिव्य एवं महान वन है. कैलाश की पूर्वोत्तर दिश में चन्द्रप्रभ नामक पर्वत है, जो रत्न-सदृश चमकदार है. वह सभी प्रकार की धातुओं से विभूषित तथा अनेकों प्रकार की सुगन्ध से सुवासित दिव्य सुबेल पर्वत तक फ़ैला हुआ है. इसके निकट अच्छोद (अच्छावत) नाम से विख्यात एक दिव्य सरोवर है, उससे अच्छोदिका नाम की कल्याणमयी दिव्य नदी उद्भूत हुई है. उस नदी के तट पर चैत्रारथ नामक दिव्य एवं सुन्दर महान वन है. उस पर्वत पर शूरवीर्सेनापति मणिभद्र गुह्यकों से घिरे हुए अपने अनुयायियों के साथ निवास करते हैं. पुण्यमती मन्दाकिनी तथा कल्याणक्रिणी अच्छॊदा- ये दोनों नदियां पृथ्वी-मण्डल के मध्यभाग से प्रवाहित होती हुई महासागर में मिली है
कैलासदक्षिणॆ प्राच्यां सर्वौषधिं गिरिम मनःशिलामयं दिव्यं सुवेलं पर्वतं प्रति * लोहोतो हेमश्रृंगस्तु गिरिः सूर्यप्रभो महान तस्य पादे महद दिव्यं लोहितं सुमहत्तरः * तस्मात प्रभवते पुण्य़ो लौहित्यस्च नदो महान दिव्यारण्यं विशोकं च तस्य तीरे महद वनम* तस्मिन गिरौ निवसति याक्षो मणिधरो वशी सौम्यैः सुधार्मिकैश्चैव गुह्यकैः परिवारितः * कैलासात पश्चिमोदीच्यां कुकुद्द्द्मानौषधीगिरिः कुकुद्मिति च रुद्रस्य उत्पत्तिश्च कुकुद्मिनः * तदंजनं त्रैककुदं शैलं त्रिककुदं प्रति सर्वधातुमयस्तत्र सुमहान विध्युतो गिरिः * तस्य पादे माहद दिव्यं मानसं सिद्धसेवितम तस्मात प्रभवते पुण्या सरयूर्लोकपावनी * यस्यास्तीरे वनं दिव्यं वैभ्राजं नाम विश्रुतम कुबेरानुचरस्तस्मिन प्रद्देतितनयो वशी * ब्रह्मधाता निवसति राक्षसोSनन्तविक्रमः
कैलाश के दक्षिण-पूर्व दिशा में लाल वर्णवाला हेमश्रृंग नामक एक विशाल पर्वत है. वह दिव्य सुवेल पर्वत तक फ़ैला हुआ है. उसकी कान्ति सूर्य के समान है. यह मंगलाप्रद पर्वत सभी प्रकार की औषधियों से सम्पन्न तथा मैनशिल नामक धातु से परिपूर्ण है. उसके पाद-प्रांत में एक विशाल दिव्य सरोवर है, जिसका नाम लोहित है. वह पुष्पमय लोहित्य (ब्रह्मपुत्र) नामक महान नद का उद्गमस्थल है. उस नद के तट पर विशोक नामक एक दिव्य एवं विस्तृत वन है. उस पर्वत पर मणिधर नामक यक्ष इन्द्रियों को वश में करके परम धार्मिक एवं सौम्य-स्वाभाव वाले गुह्यकों के साथ निवास करता है. कैलाश की पश्चिमोत्तर दिशा में ककुदामान नामक पर्वत है, जिस पर सभी प्रकार की औषधियां सुलभ हैं. यह अंजन-जैसा काला तथा तीन शिखरों से सुशोभित है. उस कुकुदमान पर्वत पर भगवान रुद्र के गण कुकुदमी (नन्दीकेश्वर) की उत्पत्ति हुई है, वहीं समस्त धातुओं से सम्पन्न वैध्युत नामक अत्यन्त महान पर्वत है, जो त्रिककुद पर्वत तक विस्तृत है. उसके पाद-प्रांत में सिद्धों द्वारा सेवित एक महान दिव्य मानस सरोवर है. उस सरोवर से लोकापावनी पुण्य-सलिला सरयू निकली हुई है, जिनके तट पर (वरुणका) वैभ्राज नामक प्रसिद्ध दिव्य वन है. उस वन में प्रहेतिका पुत्र ब्रह्मधाता नामक राक्षस निवास करता है. वह जितेन्द्रिय, अनन्त पराक्रमी और कुबेर का अनुचर है.
कैलाश की पश्चिम दिशा में संपूर्ण औषधियों से संपन्न वरुण नामक दिव्य पर्वत है. यह पर्वतश्रेष्ठ सुवर्ण आदि धातुओं से विभूषित, भगवान शंकर का प्रियपात्र, शोभाशाली, स्वर्ण-सदृश, चमकीला और स्वर्णमयी दिव्य शिलाओं के संपन्न है. वह अपने स्वर्ण-सरीखे चमकदार सैकड़ों शिखरों से आकाश को छूता हुआ-सा दीख पड़ता है. वहीं श्रृंगवान नाम का एक महान दिव्य पर्वत है, जो समृद्धिशाली एवं दुर्गम है. उस पर्वत पर ध्रूमलोचन भगवान शिव निवास करते हैं. उस पर्वत के पाद-प्रांत में शैलोदका नाम की नदी प्रवाहित होती है. उसे चक्षुकी भी कहते हैं. वह उन दोनों पर्वतों के बीच से बहती हुई पश्चिम-सागर में जा मिली है. कैलाश के उत्तर दिशा में हिरण्यश्रृंग नामका अत्यन्त विशाल पर्वत है, जो हरिताल से परिपूर्ण पर्वत श्रेष्ठ गौरतक फ़ैला हुआ है. इस कल्याणकारी पर्वत पर दिव्य औषधियां प्राप्त होती है. इसके पादप्रान्त में बिन्दुसर नामक अत्यन्त रमणीय़ दिव्य सरोवर है, जो सुवर्ण के समान बालुका से युक्त है. यहीं पर राजर्षि भगीरथ ने वर्षों तक तप किया था. इसलिए त्रिपथगा( गंगादेवी सर्वप्रथम यहीं प्रतिष्ठित हुई थीं और सोम पर्वत के पाद से निकलकर सात भागों में विभक्त हो गयीं. उस सरोवर के तट पर अनेकों मणिमय यज्ञस्तम्भ तथा स्वर्णमय विमान शोभा पा रहे थे. वहां देवताओं के साथ इन्द्र ने यज्ञों का अनुष्ठन कर सिद्धि लाभ किया था. वहाँ दिव्य छायापठ तथा नक्षत्रों का मंडल विध्यमान है. वहां त्रिपथगा गंगादेवी रात में चमकती हुई दीख पड़ती है.
आगे के श्लोकों में गंगाजी का भगीरथ के पीछे-पीछॆ जाना, रास्ते में पड़ने वाले स्थानों के बीच से गुजरते हुए, उन स्थानों को पवित्र एवं पुण्यमय बनाती हुई वह उस स्थान पर जा पहुंचती है, जहां उसके पूर्वज ऋषि के श्राप से जलकर भस्म हो गए थे. उन सभी को मोक्ष प्रदान करते हुए वह समुद्र मे पहुंच कर लीन हो जाती है.
किसी समय कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं को अपनी शारिरीक क्षमता को सिद्ध करने लिए डाक्टर से प्रमाण-पत्र लेना पड़ता था और आवश्यक कागजाद तैयार कर चीन से वीजा लेना होता था. लेकिन भारत के ऊर्जावान प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदीजी ने चीन से अपनी राजनीतिक सुझ-बूझ से इसे आसान बना दिया है और एक सरलतम रास्ता खोज निकाला जिस पर चलते हुए कैलाश-मानसरोवर की यात्रा सुगमतापूर्वक की जा सकती है.
हजारों साल पहले रचे गए इस पुराण में वर्णित नदियों के नाम, उनके बहने की दिशा, रास्ते में पड़ने वाले जनपदों के नाम, वहां के संपूर्ण इतिहास की बारीक-बारीक जानकारियों हमें प्राप्त होती है. निःसन्देह इन अद्भुत पुराणॊं का पठन-पाठन हम भारतीयों को जरुर करना चाहिए. इसे पढ़ते हुए यह तो स्पष्ट होता है कि उन दिनों भारत अपने ज्ञान और कौशल में कितना निपुण था. तभी तो वह जगतगुरु कहला पाया.