लक्ष्मण डॆहरिया जी की चतुष्पतियों पर भूमिका
लक्ष्मण डॆहरिया जी की चतुष्पतियों पर भूमिका
रामकथा को गद्य में कहना सदैव एक बड़ी चुनौती रही है. शायद यही कारण है कि रामायणकारों ने रामकथा की भावाभिव्यंजना के लिए काव्य को ही प्रमुख आधार चुना. मित्र श्री लक्ष्मण प्रसाद जी डेहरिया ने इसी विधा को प्रमुखता से आधार बनाकर रामकथा को लिखने का सार्थक प्रयास किया है.
सच ही कहा गया है- रामजी की गाथा का मधुर गायन हो, वाचन हो अथवा श्रवण, जिस तरह भी, जितनी बार भी, जिस किसी भी विधा में किया जाए, सदैव मनोहर होता
श्री डेहरियाजी ने प्रभु श्रीरामजी के जन्म से लेकर राज्याभिषेक तक का वर्णन बड़ी ही खूबसूरती के साथ चतुष्पदी के माध्यम से किया है. अपने जन्म से लेकर युवा होते तक श्रीराम राजमहलों में ही रहते है. जैसे ही वे युवावस्था को प्राप्त होते है. उनके जीवन में एक टर्निंग पाइंट आता है. यहीं टर्निंग पाइंट अथवा घटनाक्रम राम को श्रीराम बनने का मार्ग प्रशस्त करता है.
महाराज दशरथ जी अपने प्रिय पुत्र श्रीराम का राज्याभिषेक करने का मन बनाते हैं. वे स्वयं राम को अपना मनोगत कह सुनाते हैं. राज्याभिषेक का समाचार सुनकर संपूर्ण अयोध्या में उत्सव का माहौल है. लेकिन राम अयोध्या का अधिपति बनना नहीं चाहते, उनका मन तो वनश्री की शोभा में ही रमता है. वन उन्हें अत्यन्त ही प्रिय हैं. असुर रावण का वध करने के उद्देश्य से ही उन्होंने जन्म लिया था. वे जानते थे कि एक बार अयोध्या के सिंहासन पर विराजित हो जाने के पश्चात चाहकर भी वे अयोध्या की सीमा से शायद ही बाहर निकल पाएंगे. और न ही रावण जैसे दुर्दांत का वध कर पाएंगे. पितृभक्त राम में इतना साहस नहीं था कि वे अपने पिता की अवज्ञा कर सके. दुविधा में फंसे राम जानते थे कि वनवास का रास्ता माता कैकेयी जी से ही होकर जाता है. वे माता कैकेयी जी के कक्ष में जाते है और दो वर मांगने का अनुरोध करते हैं. पहले में भरत का राज्याभिषेक और दूसरे में स्वयं के लिए चौदह वर्ष का बनवास.
राजनीति में निष्नात, विलक्षण प्रतिभा की धनी, आगत तथा विगत को गहराई से समझने वाली माता कैकेय़ी जी इस प्रयास में निरत रह्ती थीं कि रसाताल में जा रहे भारतीय संस्कृति को, भारत के सनातन धर्म को कैसे बचाया जा सकता है?. वे स्वयं क्षत्राणी थीं. वे कई बार महाराज दशरथ जी के साथ युद्ध के मैदान में गई भी थीं,लेकिन समूची दानवी सेना को नष्ट नहीं कर पायी थीं. इसका दुःख तो उन्हें बराबर बना रहा. उनकी पारखी नजरों ने राम की शक्तियों को पहचान लिया था. वे जानती थी कि केवल और केवल मेरा बेटा राम ही उस दुर्दांत रावण का वध कर सकता है. वे इस पक्ष में नहीं थीं कि अभी राम का राज्याभिषेक हो. वे उन्हें वन भेजना चाहती थीं. राम को वन भेजने पर होने वाले दुष्परिणामों को वे जानती थीं कि राम के वन जाते ही महाराज जीवित नहीं बचेंगे, उन्हें वैधव्य का दारुण दुःख झेलना पड़ेगा.लोग उन्हें घरफ़ोडू, खलनायिका सहित न जाने कितने कठोर वचनों से लहुलुहान करते रहेंगे. भारत की संस्कृति तथा सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए उन्होंने कड़ा निर्णय लेते हुए राम को चौदह वर्षों के वनवास पर भेजा. यदि वे राम को वनवास पर नहीं भेजती तो वे केवल अयोध्या के अधिपति होकर रह जाते. लेकिन विमाता कैकेयी जी ने राम की कीर्ति को अयोध्या की सीमा से बाहर निकालकर समूचे संसार में पहुँचा दिया.
चौदह वर्षों के अपने वनवास काल में प्रभु श्रीराम जी प्रमुख रूप से सतरह स्थानों पर यथा- तमसा, श्रृंगवेरपुर, कुरई, प्रयाग, चित्रकूट, सतना, दंडकारण्य, पंचवटी, नासिक भद्राचलम, तुंगभद्रा, शबरी का आश्रम, ऋष्यमुक पर्वत, कोडीकरई, रामेश्वरम, घनुषकोडी और अंत में नुवारा एलिया (लंका) तक की यात्रा की थी. कवि ने बारी-बारी से उन स्थानों का संक्षिप्त परिचय अपनी चतुष्पदि में किया है.
श्रीराम अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर निकल पड़ते हैं, सनातन धर्म की रक्षा के लिए,मानवता के कल्याण के लिए और उच्चतम आदर्शों की स्थापना के लिए. इस यात्रा में उनके साथ होती हैं जनकनन्दिनी, आदर्श की प्रतिमूर्ति सीताजी और सुख शैय्या का त्याग करने वाले शेषावतार लक्ष्मण. श्रीराम इस यात्रा में अकेले नहीं है, उन्होंने समाज के दीन-हीन तबके को अपने साथ लिया, जो सदैव से वंचित-उपेक्षित रहे हैं. श्रीराम प्रतीकारात्मक रूप से उनसे सहयोग लेकर, न केवल अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं, बल्कि उन्हें समाज के लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध करते हुए, उनमें आत्म- स्वाभिमान की भावना भी पैदा करते है. श्रीराम जी का यही अनूठापन, उन्हें जन-जन से जोड़ता है और उन्हें मानव से ईश्वरत्व प्रदान करता है.
अयोध्या से लंका (नुवारा इलिया), तत्पश्चात अयोध्या वापसी तक की इस रोचक यात्रा को कवि लक्ष्मण डेहरिया ने अत्यन्त ही सहज और सरल शब्दों में लिखकर एक लघु रामायण की निर्मिति की है. सच ही कहा गया है कि जब तक रामजी की कृपा आप पर नहीं बरसेगी, तब तक आप उन पर एक लाईन भी लिख नहीं सकते. मुझे लगता है कि स्वयं प्रभु श्रीराम ने डेहरिया जी को एक सुपात्र के रूप में चयन किया और उन्हें रामकथा लिखने के लिए प्रेरित किया है, जिसमें वे सफ़ल भी हुए है. मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि श्री डेहरिया जी द्वारा रचित यह लघु रामायण पाठको को प्रियकर लगेगी.
श्री लक्ष्मण डेहरिया जी को उनकी इस काव्य-कृति के लिए आत्मीय साधुवाद/ बधाइयां