भगवान राम भारत के प्राण है, राम का चरित्र भारतीय संस्कृति की आत्मा है. बिना श्रीराम के चरित्र के भारत निष्प्राण है. भारतीय जनमानस के रोम- रोम मं प्रभु श्रीराम बसे हुए हें. भवसागर से पार उतरने का प्रमुख साधन राम नाम ही है. संत कवि तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीरामजी की कथा को जिस रूप में प्रस्तुत किया वह हमारे जनमानस को बहुत भायी. तत्कालीन समय में यह बड़ा दुष्कर कार्य था. उन्होंने वर्ण-व्यवस्था तथा अन्य पारम्परिक व्यवस्थाओं के आधार पर, जो देशकाल के अनुरूप थी, संस्कृति को हमारे सामने रखा. प्रजा का क्या कर्तव्य होना चाहिए?.राजधर्म क्या है?, जनहित की भावना कैसी होनी चाहिए?, समाज की व्यवस्था किस प्रकार होनी चाहिए?-, यह सब उन्होंने हमारे सामने रखा. गोस्वामी जी का यह सबसे पहला और महत्वपूर्ण कार्य था.
वे बहुश्रुत थे. संस्कृत के महान विद्वान थे. परन्तु उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए प्रचलित जनभाषा को अपनाया. जनभाषा के माध्यम से उन्होंने “मानस” के रूप में एक महान ग्रंथ संसार को दिया. यह उनकी सबसे प्रमुख देन थी. उस समय की परिस्थिति में भारतीय संस्कृति का स्वरूप और उसका विवेचन प्रस्तुत करना. इससे पहले भी भारतीय संस्कृति के मनीषियों ने अपने विचार प्रस्तुत किये थे. भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में, और उसी प्रकार वाल्मीकि, व्यास,कालिदास, शंकराचार्य आदि ने अपने-अपने युगों में भारतीय संस्कृति के बारे में लिखा. मध्ययुग में अनेके मनीषी ऐसे हुए जिन्होंने यह कार्य किया. कबीर और उनके समकालीन मनीषियों तत्पश्चात जो सन्त हुए,उन्होंने इस बारे में बहुतकार्य किये. आधुनिक काल में स्वामी दयानंद, महात्मा तिलक,महर्षि अरविंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी आदि ने भारतीय संस्कृति का विवेचन हमारे सामने प्रस्तुत किया.
तुलसीदास जी के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि किस माध्यम से भारतीय संस्कृति को वे हमारे सामने रखें. वे शंकराचार्य की तरह, संस्कृति के मात्र दार्शनिक पक्ष को ही उपस्थित करना नहीं चाहते थे. इसलिए उन्होंने काफ़ी गम्भीरता से विचार करने के पश्चात उन्होंने एक लोकरंजक कथा को इसके लिए चुना. यह लोकरंजन कथा थी श्रीराम और रावण की कथा थी. इसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति का पूरा स्वरूप हमारे सामने उपस्थित कर दिया. इसका आधार हमारी संस्कृति का प्राचीनतम रूप ही था, जो धीरे-धीरे विकसित होता हुआ आ रहा था. वैदिक और पौराणिक संस्कृति का जो स्वरूप विकसित होते-होते १६ वीं शती तक आ चुका था, उसको उन्होंने ग्रहण किया. परन्तु उसके साथ ही जो अन्य विचारधाराएं उस समय की थी, उन्हें भी आपने अपने ग्रंथ में प्रस्तुत किया.
तुलसीदास जी का सबसे बड़ा कार्य “समन्वय” का था. प्रायः सभी जानते हैं कि उस समय और उनके पहले से समाज में कई प्रबल प्रवृत्तियाँ चली आ रही थीं, उसमें चार प्रमुख थी.पहली थी-वैदिक-पौराणिक धारा, जो हमारी भारतीय संस्कृति का मेरुदंड कही जा सकती है. दूसरी विचारधारा थी - तन्त्र समप्रदाय की. तीसरी थी-निर्गुण विचारधारा जो उनके समक्ष बड़े रूप में विद्यमान थीं. चौथी विचारधारा-सूफ़ी विचारधारा थी, जो मध्य एशिया तथा ईरान से आयी थी. महात्मा तुलसीदास जी ने उस समय अपने मूल वैदिक स्त्रोत को तो ग्रहण किया ही, परन्तु देशकाल के अनुरूप जो अन्य धाराओं में अच्छा था, उसे भी ग्रहण करने का प्रयास किया. प्राचीन काल से लेकर समन्वय की भावना इस देश में काम करती रही है. सबसे बड़ा समन्वय उस समय हुआ जब सुरों और असुरों की संस्कृति का मेल-मिलाप का भाव पैदा हुआ. असुरों की संस्कृति के अनेक तत्वों को सुरों ने ग्रहण किया.इस प्रकार एक समन्वित दृष्टिकोण हमारे सामने प्रस्तुत हुआ, जो आद्य-ऐतिहासिक काल में देखने को मिलता है. उसके बाद गुप्तकाल में एक बड़ा भारी समन्व्य हुआ. वैदिक-पौराणिक विचारधारा, बौद्ध और जैन विचारधाराएं, चार्वाक विचारधारा-इन सबका समन्व्य गुप्तकाल मे हुआ, जो हमारे इतिहास का “ स्वर्ण-युग” था.
जब हम गोस्वामी जी की रचनाओं को उपरोक्त माध्यम से देखते हैं तो ज्ञात होता है उन्होंने वास्तव में राष्ट्रहित का एक बहुत बड़ा कार्य किया. वे किसी दरबार के नहीं थे. काश, यदि वे राजदरबारी होते तो शायद ही इतनी निर्भिकता के साथ लिख पाते. और एक जीवन दर्शन का जो निर्माण उन्होंने करना चाहा था,वह नहीं कर पाते. उन्होंने निर्भीकता के साथ भारतीय संस्कृति को हमारे सामने रखा. समय के अनुसार संस्कृति में परिवर्तन होता आया है, उसे ध्यान में रखते हुए वे उसकी जटिलताओं का परिष्कार करते रहे. यह सब देखते हुए एक सहज प्रश्न यहां उपस्थित होता है कि क्या ऐसी ही सरलता हमें वाल्मिकी की रामायण में पाते हैं? वाल्मिकी रामायण में भी तो भौतिक प्रवृत्तियों के ऊपर आध्यात्मिक प्रवृत्ति की विजय का उद्घोष है. हमारे यहां कभी भी बौतिक प्रवृत्तियों को अनावश्यक नहीं माना गया. भौतिक आवश्यकता अनिवार्य है, परन्तु उनके ऊपर आध्यात्मिकता को महत्त्व प्रदान करना महर्षि वाल्मिकी और तुलसीदास को अभिप्रेत था. प्रभु श्रीराम जी का जो स्वरूप वाल्मिकी के ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है वह एक उदात्त मानव का रूप है. इसी उदात्तता को गोस्वामीजी ने भी ग्रहण किया.
मन में एक प्रश्न सहज ही उठता है कि भारतीय संस्कृति के जिस स्वरूप में प्रस्तुत करने और उसका विवेचन करने के लिए गोस्वामीजी ने रामजी के चरित्र का चुनाव क्यों किया?. जिस समय उन्होंने “मानस” की रचना की, उस समय इस कार्य के लिए और भी माध्यम हो सकते थे. वे प्राकृत जन को ले सकते थे या फ़िर भगवान के किसी अन्य अवतार को ले सकते थे. परन्तु उन्होंने प्रभु राम जी को लिया, क्योंकि प्रभु श्रीराम मर्यादा-पुरुषोत्तम थे. अतः तुलसीदास जी ने यही युक्तिसंगत समझा और राम-चरित को ही संस्कृति की व्याख्या हेतु माध्यम बनाया. उन्हें रामजी का उदात्त लोक-संग्राहक रूप विशेष रूप से भाया. उन्होंने देखा कि राम, पुरुषोत्तम होते हुए भी, आदर्श-जीवन-दर्शन के लिए सबसे उपयुक्त हैं. उन्होंने यह भी देखा कि राम-चरित ने केवल भारत बल्किभारत के बाहर भी दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में रामकथाएं अनेकों रूप में प्रचलित हो चुकी थीं. इन सब बातों को देखकर उन्होंने राम-चरित की संस्कृति के विवेचन हेतु अत्यधिक उपयुक्त समझा.