उपन्यास-वनगमन- एक अंश. 1
उपन्यास-वनगमन- एक अंश. 1
उपन्यास वनगमन.
उपन्यास में प्रवेश
भरद्वाज मुनि के आश्रम में प्रभु श्रीरामजी ने प्रवेश किया और प्रणाम करते हुए जानना चाहा कि आप कृपाकर वह मुझे उस स्थान की जानकारी दें, जहाँ मैं अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ सुखपूर्वक निवास कर सकूँ.
श्रीरामजी के कथन को सुनकर मुनि भरद्वाज ने उस स्थान का पता बतलाते हुए कहा-
“दशक्रोश इतस्तातगिरिर्यस्मिन निवत्स्स्यसि : महर्षिसेवितः पुण्यः पर्वतः शुभदर्श (28-) गोलांअलानुचरितो वानर्र्षनिहेवितः : चित्रकूट इति ख्यातो गन्धमादन्संनिभः(29) अयो.चतुर्पंचाशः सर्गः वाल्मीकि
“ तात ! यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक सुन्दर और महर्षियों द्वारा सेवित परम पवित्र पर्वत है, जिस पर तुम्हें निवास करना होगा. उस पर बहुत से लंगूर विचरते हैं. वहाँ वानर और रीछ भी निवास करते है. वह पर्वत चित्रकूट नाम से विख्यात है और गन्धमादन के समान मनोहर है.
जब मुनिश्री प्रभु श्रीराम जी को चित्रकूट पर्वत की विशेषताओं के बारे में बतला रहे थे, तब वहाँ उपस्थित पवनदेव ने भी इस वार्ता को सुना और द्रुत गति से चित्रकूट की ओर रवाना हुए और उसके कान में फ़ुसफ़ुसाते हुए बतलाया कि प्रभु श्रीराम अपनी भार्या सीता जी तथा अनुज लक्ष्मण के सहित तुम्हारी ओर ही आ रहे हैं. वे यहाँ पणकूटि बनाकर निवास करेंगे.
पवनदेव की बातों को सुनकर चित्रकूट को अतिव प्रसन्नता हुई. पूरे शरीर में रोमांच हो आया. वह गंभीरता से सोचने लगा था –“प्रभु श्रीराम यहाँ पहुँचे उससे पूर्व मुझे कुछ ऐसे वातावरण की निर्मिति करनी होगी, जिससे पभु सुखपूर्वक रह सकें”. उसने ऋतुराज वसंत से प्रार्थना की कि प्रभु श्रीराम जी आगमन से पूर्व वह अपनी माया से इस स्थान को जितना सुन्दर बना सकते है, बनाने मे मेरी सहायता करें.
प्रभु श्रीरामजी के आगमन से पूर्व वसंत ने चित्रकूट पर्वत पर अपना डेरा डाला और उनके आगमन की प्रतीक्षा करने लगा.
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