गीता अध्ययन करने की अनेक दृष्टियां हैं. सरल मन के व्यक्ति के सामने ईश्वरीय सत्ता किस प्रकार अपने आपको उदघाटित कर रही है.-गीता को समझने के लिए एक दृष्टि यह भी है-भगवान श्रीकृष्ण गीता के उपदेश के माध्यम से अर्जुन के सामने, अपने आपको धीरे-धीरे अनावृत कर रहे हैं. श्रीकृष्ण कहते हैं-अर्जुन ! जो ज्ञान आज मैं तुम्हें दे रहा हूँ, वही ज्ञान सृष्टि के प्रारंभ में मैंने सूर्य को दिया था. अर्जुन को आश्चर्य होता है- वह कहता है-“ हे भगवन ! यह कैसे संभव है ?.आप अत्यन्त ही अर्वाचीन हैं,जबकि सूर्य बहुत ही प्राचीण. तो श्रीकृष्ण कहते हैं-“ अर्जुन, मेरी सत्ता सनातन है. मैं हर समय रहता हूँ. तुम भी हर समय रहे हो ,परन्तु तुमको उसका स्मरण नहीं है और मुझे सब याद है. वे कहते हैं-मैं ही प्रकाश हूँ और मैं ही अन्धकार. ज्ञान भी मैं ही हूँ और अज्ञान भी. मैं ही संपूर्ण सृष्टि का अध्यक्ष, रचयिता और नियंता हूँ. मुझसे परे कुछ भी नहीं है. श्रीकृष्ण में अर्जुन का विश्वास दृढतर होता जाता है और वह निवेदन करता है कि प्रभु, मैं आपको विराटता और विभूतियों के साथ देखना चाहता हूँ. श्रीकृष्ण कहते हैं-मेरे शरीर में संपूर्ण चराचर जगत को देखो. दिव्य आभूषणॊं और गंधों से युक्त अनेक नेत्रों और मुखों वाले मुझ सीमा रहित को देखो. अर्जुन को कुछ भी दिखलाई नहीं पडता. तब श्रीकृष्ण कहते हैं- “इन सामान्य नेत्रों से तुम मेरी विराटता देख नहीं सकते. इसके लिए मैं तुम्हें दिव्य प्रदान करता हूँ.” सचमुच्-ईश्वरीय सत्ता, ईश्वरीय विराटता को भौतिक नेत्रों से नहीं, ज्ञान के नेत्रों से ही देखा जा सकता है. अर्जुन के सामने अपना विराट स्वरुप प्रकट कर देने के बाद श्रीकृष्ण का अपने को उदघाटित करने का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है. श्रीकृष्ण का विराट रुप देख लेने के बाद अर्जुन के मन में श्रीकृष्ण के प्रति स्वाभाविक भक्ति जागृत होती है. अब वह वस्तुतः श्रीकृष्ण से निकटता प्राप्त करना चाहता है,परन्तु परमसत्ता की निकटता प्राप्त करने के लिए कुछ प्रयत्न अपनी ओर से करना पडता है. ईश्वर का प्रिय बनने ले लिए हमें अपने व्यक्तित्व में कुछ विशेषताएं धारण करनी पडती है. गीता के बारहवें अध्याय में श्लोक 13 से 20 तक उन मानवीय गुणॊं का वर्णण है,जो व्यक्ति को ईश्वरीय सत्ता का प्रेमपात्र बना देते हैं. द्वेषभावनाहीन, मैत्रीपूर्ण, दयालु,आसक्तिरहित,अहंकारविहीन,सुख-दुख में सम, पक्षपात रहित, मान-सम्मान-अपमान में सम, निंदास्तुति मे सम तथा स्थिर बुद्धि का होना आदि ऐसे गुण हैं,जिन्हें धारण करने वाला व्यक्ति श्रीकृष्ण को प्रिय है. जो व्यक्तिध हर्ष, शोक, ईर्ष्या, भय और उद्वेग से मुक्त है,वही परमात्मा की निकटता प्राप्त कर सकता है. जो व्यक्ति अन्दर-बाहर से पवित्र् है, अपने कार्य में प्रवीण है,कोई भी जीव जिससे व्यथित नहीं होता और न ही वह कभी किसी जीव से व्यथित होता है, ऐसा व्यक्ति श्रीकृष्ण का प्रेमपात्र बनता है. स्पष्टतः ये महान मानवीय गुण है. श्रीकृष्ण ने इन गुणॊ, की सूची में किसी से द्वेष न करने को पहला स्थान दिय है.
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम- अगर आप किसी से द्वेष करते हैं तो पहला नुकसान आप स्वयं अपने आप का करते हैं. आप बैठे-ठाले अपने मनोवैज्ञानिक उर्जा का क्षरण कराते हैं. मन की शांति नष्ट करते हैं तथा अपने स्वास्थ्य को खराब करते हैं. बरहवें अध्याय के बीसवें शोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति निष्काम –प्रेमभाव से अनुचिन्तन करेगा, वह मुझे अतिशय प्रिय् होगा. अतः श्रेष्ठ गुणॊं पर ध्यान एवं दृष्टि रखने से वे गुण व्यक्ति को प्राप्त हो जाते हैं. श्रेष्ठ लोगों के साथ रहने से आदमी की श्रेष्ठता की ओर बढता है. अच्छा साहित्य व्यक्ति को अच्छा बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं. अतः श्रेष्ठ गुणॊं का चिंतन, श्रेष्ठ व्यक्तियों का संग और श्रेष्ठ साहित्य को ही पढना चाहिए.