कार्तिक-मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी को “गोवत्सद्वादशी”, त्र्योदशी को “धनतेरस” तथा धन्वन्तरि जन्मोत्सव, चतुर्दशी को नरकचतुर्दशी तथा अमावस्या को दीपावली व्रत, दूसरे दिन गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट मनाए जाने की परम्परा है. अतः यह कहा जा सकता है कि कार्तिक मास अन्य मासों से उत्तम है.स्कन्दपुराण (१/१४) में उल्लेखित है कि---
“मासानां कार्तिकः श्रेष्ठो देवानां मधुसूदनः**तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ” अर्थात भगवान विष्णु एवं विष्णुतीर्थ के समान ही कार्तिकमास को श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है. कार्तिक मास कल्याणकारी मास माना गया है. स्कान्दपुराण(३६-३७) के एक श्लोक १/३६-३७ के अनुसार
-“न कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम* न वेदसदृशं शास्त्र न तीर्थ गंगाया समम.” सामान्यरुप से तुलाराशि पर सूर्यनारायण के आते ही कार्तिक मास प्रारम्भ हो जाता है.इस मास का महात्म पद्मपुराण तथा स्कान्दपुराण में बहुत विस्तार से उपलब्ध है.
गोवत्सद्वादशी के दिन गोमाता का पूजन किया जाता है. इस दिन किसी पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करके व्रत का संकल्प करना होता है. इस व्रत में एक समय भोजन किया जाता है, परन्तु भोजन में गाय के दूध या उससे बने पदार्थ तथा तेल में पके पदार्थ नहीं खाया जाना चाहिए. सांयकाल गाएं जब चरकर वापस आएं तो बछडे सहित गौ का गंध, पुष्प, अक्षत, दीप, उडद के बडॊं के साथ पूजन करना चाहिए.
एक कथा के अनुसार महर्षि मृगु के आश्रम में भगवान शंकर के दर्शनों की अभिलाषा से करोडॊ मुनिगण तपस्या कर रहे थे. भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने एक लीला रची. वे एक बूढे ब्राह्मण के रुप में, और मां भगवती गाय के प्रकट हुईं और भृगु से कहा कि वे स्नान करके लौटेंगे तब तक आप हमारी गाय की रक्षा करें. ऎसा कहकर वे चल दिए. थॊडी देर बाद वे एक व्याघ्र के रुप में प्रकट होकर गाय को डराने लगे. सामने शेर देखकर गाए कांपने लगी और जोरों से रंभाने लगी. मुनि ने ब्रह्मा से प्राप्त घंटॆ को बजाना शुरु किया,जिससे व्याघ्र तो भाग गया और उसके स्थान पर स्वयं शिव प्रकट हो गए. ब्रह्मवादी ऋषि ने उनका पूजन किया. जिस दिन शिव ने यह लीला की थी,उस दिन कार्तिकमास की कृष्णपक्ष की द्वादशीथी, इसीलिए यह व्रत ”गोवत्सद्वादशी “ के रुप में मनाया जाने लगा.
एक अन्य कथा के अनुसार राजा उत्तानपाद ने पृथ्वी पर इस व्रत को प्रचारित किया. उनकी रानी सुनीति इस व्रत को किया करती थी, जिसके प्रभाव से ध्रुव जैसा पुत्र उन्हें प्राप्त हुआ. आज भी माताएं पुत्र -रक्षा और संतानसुख के लिए इस व्रत को करती हैं.
कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी” धनतेरस” कहलाती है. यह यमराज से सम्बन्ध रखने वाला व्रत भी है. ऎसी मान्यता है कि धनतेरस के दिन जो दीपदान करता है,उसकी असामयिक मृत्यु नहीं होती. इसी त्र्योदशी तिथि को धन्वन्तरि का प्राकट्य माना जाता है. क्षीरसागर का मन्थन करते समय भगवान धन्वन्तरि संसार में समस्त रोगों की औषधियों को कलश मे भरकर प्रकट हुए थे. इस दिन उनका पूजन करके लोग दीर्घ जीवन तथा आरोग्यलाभ के लिए मंगलकामना करते हैं.
चतुर्दशी को” नरकचतुर्दशी” के नाम से भी जाना जाता है. एक कथा के अनुसार वामनावतार में भगवान श्रीहरि ने सम्पूर्ण पृथ्वी नाप ली. बलि के दान और भक्ति से प्रसन्न होकर वामनभगवान ने उनसे वर मांगने को कहा. उस समय बलि ने प्रार्थना की कि कार्तिक कृष्ण त्र्योदशी सहित इन तीन दिनों में मेरे राज्य का जो भी व्यक्ति यमराज के उद्देश्य से दीपदान करेगा उसे यमयातना न हो और इन तीन दिनों में दीपावली मनानेवाले का घर लक्ष्मी कभी न छोडॆ. भगवान ने कहा-“एवमस्तु”. जो मनुष्य इन तीन दिनों में दीपोत्सव करेगा, उसे छोडकर मेरी प्रिया लक्ष्मी कहीं नहीं जाएगी.” जैसा कि आप जानते ही हैं कि अमावस्या को दीपावली के रुप में यह पर्व अपने ही देश में नहीं वरन अन्य देशों में भी धूमधाम से मनाया जाता है. इस पर विस्तार से लिखने की आवश्यकता नहीं है. अन्नकूट-महोत्सव- कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को अन्नकूट-महोत्सव मनाया जाता है. इस दिन गोवर्धन की पूजा-अर्चना करने की परम्परा है. प्रातःकाल घर के द्वारदेश माने आंगन में गौ के गोबर का गोवर्धन बनाकर,वृक्षा-शाखादि से संयुक्त और पुष्पों से सुशोभित कर पूजा की जाती है. अनेक स्थानों में इसे मनुष्य के आकार का भी बनाते है.पूजा-अर्चना के बाद यथासामर्थ्य भोग लगाया जाता है.
इस महोत्सव की कथा इस प्रकार है- द्वापर में व्रज में अन्नकूट के दिन इन्द्र की पूजा होती थी. श्रीकृष्ण ने गोप-ग्वालों को समझाया कि गाएं और गोवर्धन प्रत्यक्ष देवता हैं, अतः तुम्हें इनकी पूजा करनी चाहिए,क्योंकि इन्द्र को कभी दिखाई ही नहीं देते और न ही आप लोगों के द्वारा चढाया गया अन्न ही गृहन करते हैं. फ़लस्वरुप उनकी प्रेरणा से सभी व्रजवासियों ने गोवर्धन का पूजन किया. स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन का रुप धारण कर उस पकवान को ग्रहण किया.
जब इन्द्र को यह बात ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त क्रुद्ध होकर प्रलयकाल के सदृश मुसलाधार वृष्टि करने लगे. यह देखकर श्रीकृष्णजीने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण किया, उसके नीचे सब व्रजवासी, ग्वालबाल, गाएं, बछडॆ आदि आ गए. लगातार सात दिनों तक वर्षा होती रही, लेकिन व्रज पर कोई प्रभाव नहीं पडा. ब्रह्माजी ने जब इन्द्र को श्रीकृष्ण के परमब्रह्म परमात्मा होने की बात बतायी तो लज्जित इन्द्र ने व्रज आकर श्रीकृष्णजी से क्षमा मांगी. इस अवसर पर ऎरावत ने आकाशगंगा के जल से और कामधेनु ने अपने दूध से भगवान का अभिषेक किया,जिससे वे “गोविन्द” कहे जाने लगे.
गर्गसंहिता में इस बात का उल्लेख मिलता है. अवतार के समय भगवान ने राधा से साथ चलने को कहा. तो राधाजीने कहा कि वृंदावन, यमुना और गोवर्धन के बिना मेरा मन पृथ्वी पर नहीं लगेगा. यह सुन श्रीकृष्णजी ने अपने ह्रदय की ओर दृष्टि डाली थी,जिससे तत्क्षण एक सजल तेज निकलकर “रासभूमि” पर जा गिरा था और वही पर्वत के रुप में परिणत हो गया था. यह रत्नमय पर्वत सुन्दर झरनों, कदम्ब आदि वृक्षों और कुओं से सुशोभित था. यह देखकर राधाजी बहुत प्रसन्न हुईं.
इस संदर्भ में एक और कथा मिलती है. भगवान की प्रेरणा से शाल्मलीद्वीप मे द्रोणांचल की पत्नि से गोवर्धन का जन्म हुआ. भगवान के जानु से वृन्दावन और उनके वामस्कन्ध से यमुनाजी प्रकट हुईं. गोवर्धन को भगवदरुप जानकर सुमेरु, हिमालय आदि पर्वतों ने उसकी पूजा की और उसे गिरिराज बना उसका स्तवन किया.
एक समय तीर्थयात्रा के प्रसंग मे पुलस्त्यजी वहां आए. गोवर्धन को देखक्रर वे मुग्ध हो उठे और द्रोण के पास जाकार उन्होंने कहा- “मैं काशीनिवासी हूँ. एक याचना लेकर आपके पास आया हूँ. आप अपने इस पुत्र को मुझे दे दें. मैं इसे काशी मे स्थापित कर तप करुंगा. द्रोण उनके अनुरोध को ठुकरा नहीं पाए. तब गोवर्धन ने मुनि से कहा- “मैं दो योजन ऊँचा और पांच योजन चौडा हूँ. आप मुझे कैसे ले चल सकेंगे?” मुनि ने कहा कि मैं तुम्हें अपने हाथ पर उठाए चला चलुंगा.
गोवर्धन ने कहा-“महाराज ! एक शर्त है. यदि आप मार्ग में मुझे कहीं रख देंगे तो फ़िर मैं उठ नहीं सकूंगा”. मुनि ने शर्त स्वीकार कर लिया और उसे उठाकर काशी के लिए प्रस्थान करने लगे. मार्ग में व्रजभूमि मिली, जिस पर गोवर्धन की पूर्वस्मृतियां जाग उठी. वह सोचने लगा कि भगवान श्रीकृष्ण राधाजी के साथ यहीं अवतीर्ण होकर बाल्य और कैशोर आदि की बहुत सी लीलाएं करेंगे और मैं इस अद्भुत और रसमयी लीला के बगैर रह न सकूंगा. मन में ऎसा विचार आते ही उसने अपना भार बढाना शुरु कर दिया. इधर मुनि को लघुशंका की प्रवृत्ति हुई. उन्होंने उसे उसी स्थान पर रख दिया और जब वापिस लौटे तो वे उसे हिला भी न सके. इस बात पर मुनि को क्रोध हो आया और उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि तुम प्रतिदिन तिल-तिल घटते जाओगे. उसी शाप से गिरिराज गोवर्धन आज भी तिल-तिल घटता ही जा रहा है.
एक कथा और भी पढने को मिलती है. एक ब्राह्मण अपना ऋण वसूलने के लिए मथुरा आ रहा था. लौटते समय उसने एक गोल पत्थर उठाकर अपने झोले में रख लिया. मार्ग में एक राक्षस मिला और उसे खाने दौडा. मरता क्या न करता. उसने उस पत्थर से राक्षस पर प्रहार कर दिया. पत्थर लगते ही नीच योनि से उसे छुटकारा मिल गया और उसकी काया दिव्य हो उठी. उसी समय आकाश से एक दिव्य विमान आया और वह गोलोक में चला गया.
यमद्वितिया(भैयादूज)- कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया”यमद्वितिया” या “भैयादूज” कहलाती है. इस दिन यमुना-स्नान, यम पूजन और बहन के घर भाई का भोजन करने का विधान है और शास्त्रीय मतानुसार मृत्यु देवता यमराज की पूजा होती है.
कथा- यम और यमुना भगवान सूर्य की संतान है. दोनों भाई-बहनों मे अतिशय प्रेम था. परंतु यमराज यमलोक की शासन-व्यवस्था में इतने व्यस्त रहते थे कि यमुना के घर ही नहीं जा पाते थे. एक बार यमुना यम से मिलने आयीं. बहन को आया देख यमदेव बहुत प्रसन्न हुए और बोले-“ बहन मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे जो भी वरदान मांगना चाहो मांग लो. यमुना ने कहा-“ भैया ! आज के दिन जो मुझ में स्नान करेगा उसे यमलोक न जाना पडॆ.”.यमराज ने कहा-“ बहन ! ऎसा ही होगा.”. उस दिन कार्तिक मास की शुक्ल द्वितिया थी. इसीलिए इस तिथि को यमुनास्नान का विशेष महत्व है.
\कार्तिक मास की शुक्लपक्ष की द्वितिया तिथि को यमुना ने अपने घर अपने भाई को भोजन कराया . इसीलिए इस तिथि का नाम “यमद्वितिया” पडा.
कार्तिक मास की शुक्ल षष्ठी पर “सूर्यषष्ठी-महोत्सव”, शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी-महोत्सव,, नवमी को अक्षयनवमी, शुक्ल एकादशी को देवोत्थापनी एकादशी, तथा तुलसी-विवाह, शुक्ल चतुर्दशी को बैकुण्ठचतुर्दशी तथा पूर्णिमा को कार्तिक-पूर्णिमा के नाम से समारोहपूर्वक पर्व मनाए जाने का महात्म्य पढने को मिलता है.
मित्रों—दीपावली के पर्व के बारे में आप सब कुछ जानते हैं और उसे भव्यता के साथ मनाते भी आ रहे हैं. उससे जुडी कथाएं भी आप जानते ही हैं,फ़िर भी यहां उद्दृत करने का आशय सिर्फ़ इतना है कि आप उसमे छिपी बातों को गहराई से परखें-देखें और समझे. उपरोक्त बातों की गहराई में हम जब उतरते हैं तो पाते हैं उसमे गाय है, जंगल हैं, ऋषिमुनि हैं, जंगली जानवर है, नदियां है, पहाड है, और इन सबके बीच हम अपनी चिर-परिचित संस्कृति-धर्म आदि का निर्वहन करते हुए लोकजीवन भी हैं. लोकजीवन और लोक साहित्य के माध्यम से हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं की झांकिया आज भी हमें दृष्टिगोचर होती है. इन परम्परागत लोक-जीवन प्रक्रियाओं पर ही हमारी संस्कृति टिकी हुई है.
प्रारंभ में हमारी जीवन प्रक्रिया सरल-सहज थी. प्रकृति की तरह निश्छल और पवित्र थी. आदिम मनुष्य के लिए कुदरत में चारों ओर सुख की सृष्टि थी. चिडियों की चहचहाहट, फ़ूलों की मुस्कान, बादलों की रिमझिम, नदियों की कल-कल, इन्द्रधनुषी रंगों की छटा,कुलमिलाकर ये सब प्रकृति को मनुष्य से जोडते थे. इनमें आनन्द के सभी मूल स्त्रोत थे--ध्वनि, रंग, दृष्य बिंब, क्रिया और गतिशीलता आदि सब कुछ. लेकिन आज परिदृष्य बदल गया है. प्रकृति की घोर उपेक्षा हो रही है. विकास के नाम पर विनाश परोसा जा रहा है और हम मूक दर्शक की तरह सब कुछ देखने, सुनने और सहने के लिए विवश हैं.
मोहनदास करमचंद गांधीजी ने कहाथा कि यदि भारत से गाय, गंगा और गांव हटा दें, तो कुछ भी नहीं बचता है. बात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं हैं लेकिन उस समय कहा गया आज सामने दिखलायी दे रहा है. गाय की रक्षा-सुरक्षा, मां मानकर की गई होती तो आज बच्चे कुपोषण का शिकार होने पर मजबूर न होते. गाय होती तो बेहतरीन खाद खेतों में पडती और स्वस्थ बीज हम आज खा रहे होते .फ़र्टिलाइजर की जरुरत ही न पडती. घी तो आज पांच सौ रुपया देने के बाद भी असली मिल पाएगा इसमें,शक होता है.. छोटी-मोटी पहाडियां तो कभी की विकास के नाम पर बलि चढ गईं. अब विकास के नाम पर जंगल काटकर सडके बनाई जा रही हैं, जिससे वन्यजीवों के विलुप्त होने का खतरा मंडाराने लगा है. नदियां आज जरुरत से ज्यादा प्रदुषित हो गई हैं. उनका पानी पीने योग्य नहीं बचा. फ़लस्वरुप बहुत सी ज्ञात –अज्ञात बिमारियां सिर उठा रही है.
यह सब देखकर हमें कृष्ण याद आते हैं. और याद आना भी चाहिए. केवल कृष्णजन्म मनाने और आरती उतारने से भला होने वाला नहीं है. हमें आज उनकी सीख को जीवन में उतारना होगा और उनके द्वारा बतलाए मार्ग का अनुररण करना होगा. कृष्णजी ने खेल-खेल में उन गूढ रहस्यों को हम सब पर काफ़ी पहले उजागर कर दिया था. उस पर विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि आज उन रास्तों पर चलने और आगे बढने का संकल्प लेना होगा.
यदि हम ऎसा कर पाए तो स्वर्ग, धरा पर उतरा पाएंगे.
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