इतिहास गवाह है कि हिन्दी साहित्य एवं भारतीय संस्कृति, आध्यात्म एवं दर्शन ने समूचे विश्व को सदैव आकर्षित किया है. भारतीय वांग्मय का पूरा सांस्कृतिक वैभव हिन्दी के ही माध्यम से जन-जन तक पहुँचा है. हिन्दी का क्षेत्र काफ़ी विस्तृत रहा है. यहाँ तक कि इसमें संस्कृत साहित्य की परम्परा और लोक भाषाओं की वाचिक परम्परा की संस्कृति भी समाविष्ट रही है. स्वतंत्रता संग्राम में भी हिन्दी और लोक भाषाऒं ने घर-घर स्वाधीनता की लौ जगाई थी. यह मात्र मुक्ति के लिए नहीं वरन सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा हेतु भी थी. हिन्दी राष्ट्रीय आंदोलनों और भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में न केवल भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है अपितु विश्व मानव संस्कृति में भी इसकी अपनी सहभागिता रहती है और अपने अनूठे योगदान से समृद्ध भी करती रहती है.
सन 1935 में बेल्जियम में जन्में फ़ादर बुल्के ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में भारत आए. फ़्रेच-अंग्रेजी, फ़्लेमिश, आयरिश भाषाओं पर अधिकार होने के बावजूद आपने हिन्दी की दिव्यता को पहचाना. उन्होंने न सिर्फ़ हिन्दी सीखी बल्कि संस्कृत सीखकर वे यहीं रच-बस गए और इस तरह वे रामायण के प्रकांड विद्वान भी कहला. “रामकथा-उद्भव और विकास” पर आपने डी.फ़िल की उपाधि प्राप्त की. वे कहते थे-“ संस्कृत माँ, हिन्दी गृहणी और अंग्रेजी नौकरानी है”.
श्रीमदभग्वदगीता और अभिज्ञानशाकुन्तलम से प्रभावित होकर जे.विल्किंसन व जार्ज फ़ास्टर ने क्रमशः हिन्दी सीखी और इनका अनुवाद अंग्रेजी में किया. सन 1800 के दौरान स्काटलैंड के जान बोधानिक गिलक्रिस्ट ने देवनागरी और उसके व्याकरण पर कई पुस्तकें लिखी. श्री एल.एफ़. रुनाल्ड ने 1873 से 1877 तक भारत प्रवास के दौरान हिन्दी व्याकरण पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया और लन्दन से इस इस विषय पर पुस्तक प्रकाशित कराई. इंग्लैण्ड के विद्वान डा.आर.एस. मेक-ग्रेगर कहते हैं- “विदेशी विध्यार्थी यह जानकर प्रायः आश्चर्यचकित रह जाता है कि आज हिन्दी-साहित्य आबदार चमकीले जवाहरातों से ठूँस-ठूँसकर भरा एक ऎसा खजाना है जो निरन्तर बढ़ रहा है”. एक अंग्रेज यात्री अपनी भारत यात्रा के भमण के बाद लिखा था-“ तीर्थ-स्थानों में, पर्यटन-केन्द्रों में, व्यापारिक मंडियों में साधु-संतों में, सार्वजनिक उत्सवों में, कवि-पंडितों में, राज-दरबारों में आदान-प्रदान की भाषा हिन्दी रही है”.
बात सच है कि भाषा का निर्माण टकसाल में न होकर सड़कों पर होता है...चौपालों में होता है...गाँवों के गलियारों में होता है और उसका शिल्प होता है उस देश का आमजन. भाषा की स्मृद्धि एवं संपन्नता के प्रति सजगता, सक्रीयता एवं जागरुकता भी उसी जन पर निर्भर करती है. वही (जन) उसका सर्जक होता है, विध्वंसक होता है और वही जिम्मेदार भी होता है.
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम माध्यम है. यह अभिव्यक्ति आमजन की अस्मिता से लेकर राष्ट्र के आगत भविष्य के लिए भी हो सकती है, इसीलिए भाषा का प्रश्न केवल भाषा तक ही सीमित नहीं होता. हम जो भी सोचते है, अपनी मातृभाषा में अभिव्यक्त करते है और यही अभिव्यक्ति हमारी पहचान बनाती है. हमने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई हिन्दी के माध्यम से ही जीती है. आमजन की भाषा की राष्ट्रीय गरिमा को प्रतिष्ठित करना एवं उसे कायम रखना हमारा उत्तरदायित्ब बनता है.
भारत के कोने-कोने में बोली जाने एवं समझी जाने वाली हिन्दी ही एकमात्र भाषा है. सरल और वैज्ञानिक लिपि में लिखी जाने के कारण हिन्दी भाषा अत्यन्त सुव्यवस्थित, संपन्न और लोकप्रिय है. भारत के अधिकांश भागों में प्रयोग किए जाने के कारण हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त है. राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी एक प्रदेश के लोगों को दूसरे प्रदेशों के लोगों से जोड़ती है, एवं संपर्क स्थापित करती है और राष्ट्रीय एकता का भाव जगाती है. हिन्दी की इसी विशिष्टता के कारण हमारे संविधान निर्माताओं ने 14 सितम्बर 1949 को देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को, संघ की राजभाषा के रुप में स्वीकार किया तथा 26 जनवरी 1950 को संविधान में इसका प्रावधान किया.
हिन्दी भाषा की एक नहीं, अनेक खूबियाँ है.
१/- हिन्दी एक सशक्त और सरल भाषा है. (२) हिन्दी देवनागरी लिपि मे ध्वनि-प्रतीकों (स्वर-व्यंजन) का क्रम वैज्ञानिक है (३) इसमे प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग चिन्ह है (४) इसमे केवल उच्चारित ध्वनियाँ ही लिखी जाती है.(५) जिस रुप में यह बोली जाती है, उसी रुप में लिखी भी जाती है. (६) हिन्दी जर्मनी की तरह अपने ही प्रत्ययों से नवीन शब्दों का निर्माण कर लेती है. (७) हिन्दी में क्रदंन्त क्रियायों को अधिक ग्रहण किया है, क्योंकि ये बहुत सरल एवं स्पष्ट होती है .(८) हिन्दी की संज्ञा-विभक्तियां सिर्फ़ पांच-सात ही हैं. (९) हिन्दी के सर्वनाम अपने हैं. (१०) हिन्दी में विशेषण के साथ अलग-अलग विभक्ति लगाने की जरुरत नहीं होती. (११) हिन्दी के अपने अव्यय हैं.
स्वाधीन भारत की नींव को सुदृढ़ करने के लिए गांधीजी ने जितने काम किए, उनमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का काम भी प्रमुख स्थान रखता है, लेकिन गांधीजी की भाषिक मान्यताओं पर विमर्श करने से पूर्व यह भी जानना आवश्यक है कि क्या गांधीजी से पूर्व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवाज किन लोगो ने उठाई थी? हाँ, गांधीजी से पूर्व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिशे की गई थी. प्रख्यात फ़्रांसीसी विद्वान गार्साद तासी ने सन १८५२ के फ़्रांस के अपने भाषण मे हिन्दुओं-हिन्दुस्थानी को हिन्दुस्थान की लोक या सार्वदेशीय़ भाषा के रुप में रखा था. अंग्रेजी के प्रसिद्ध कोश “ हिंदुस्थानी जाब्सन” में जिसका प्रकाशन सन १८८६ में लंदन में किया गया था, हिंदुस्थानी को सभी भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रभाषा माना गया, फ़िर तो गियर्सन जैसे अनेक लोग हिन्दी के सार्वदेशिक रुप को लेकर आगे आए.
स्वदेशी लोगों में सबसे पहले राजा राममोहन राय ने एक भाषण में संकेत दिया था कि श्री पेठे, जो मुंबई के कालेज में अध्यापक थे, ने मराठी में “राष्ट्रभाषा” नाम की पुस्तक सन १८६४ में लिखी, जिसमें हिन्दी भारत की आवश्यक भाषा के रुप में स्वीकार किया. बंगाल के महान धार्मिक नेता केशवचन्द्र ने अपने “सुलभ समाचार” नामक पत्र में भारत की एकता के लिए हिन्दी अपनाने की पूरी वकालत की थी. यही नहीं, श्री सेन ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सक्रीय सहयोग भी दिया. वैदिक धर्म के अनन्य प्रचारक और विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती ने, जो पहले संस्कृत में ही प्रचार करते थे, ४८ वर्ष की अवस्था में उन्हीं “सेन” के कहने से हिन्दी सीखी और उसी में सारा कार्य करने लगे. गुजराती के लल्लुजी”लाल” ने हिन्दी के प्रथम व्यवस्थित ग्रंथ “ प्रेमसागर” की रचना की. १८७० के आसपास मराठी विद्वान हरिगोपाल पाण्डे ने “ भाषा तत्व-दीपिका “संज्ञक” हिन्दी व्याकरण लिखा. प्रख्यात बंगला साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी ने बंगाल के प्रसिद्ध साहित्यिक-पत्र “बंग.दर्शन” में १८१७ में एक आलेख लिखा, जिसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के बारे में अपने विचार दृढ़ता से व्यक्त किए. बंगाली शिक्षाविद भूदेव मुखर्जी ने प्रशासन से टक्कर लेकर बिहार की कचहरियों में नागरी तथा कैथि लिपियों को प्रवेश दिलाया और “ “आचार- प्रबन्ध” नामक अपनी पुस्तक में हिन्दी के सभी भारतीय भाषाऒं की एकता का साधन-सूत्र बतलाया.
सन १९०० तकआते-आते अनेक बंगाली, मराठी, गुजराती, हिन्दी समर्थकों और प्रचारकों की भीड़ खड़ी हो गई,जिसमे योगेन्द्रनाथ बसु अमृतलाल चक्रवर्ती ,सदाशिवराव, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, सेठ गोविन्ददास आदि प्रमुख हैं. इस प्रयासों से बल पाकर जब राष्ट्रनायक जैसे “महिमंड” व्यक्तित्व के धनी गांधीजी ने हिन्दी भाषा के प्रश्न को राजनैतिक दृष्टि से सामने रखा और उन्हीं के प्रयासों से जब इसे संविधान में “राष्ट्रभाषा” का पद मिला तो यह मान लिया गया कि वे इस क्षेत्र के अपूर्व नेता है.
भारतीय भाषा समस्या के विषय पर गांधीजी के विचार बड़े निर्मल, वस्तुनिष्ठ और पूरी तरह व्यवहारिक हैं. वैसे भी उनके विचार प्रांजल और पारदर्शी होते हैं. जिस स्त्रोतों से उनके भाषा विषयक विचार उपलब्ध होते हैं, उनमें उनके लेखों का प्रमुख स्थान है, जो यंग इण्डिया, हरिजन-सेवक, हरिजन बन्धु आदि मे प्रकाशित हैं. इसके अतिरिक्त कुछ ऎसी सामग्री “इण्डियन होमरुल” जैसे पुस्तकों और तत्कालीन विभिन्न व्यक्तियों को लिखे गए उनके पत्रों से मिली है. गांधीजी ने भाषा विषय में सबसे पहले अपने विचार १९०९ में अपनी पुस्तक “हिन्द-स्वराज” और होमरुल”के १८ वें परिच्छेद में यों व्यक्त किए हैं “ हर एक पढ़े-लिखे हिन्दुस्थानी को अपनी भाषा का, हिन्दु को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को पर्शियन का और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए. कुछ हिन्दुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों को हिन्दी का और कुछ पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए. उत्तर और पश्चिम में रहने वले हिन्दुस्तानी को तमिल सीखनी चाहिए. सारे हिन्दुस्थान के लिए तो हिन्दी होनी ही चाहिए. उसे उर्दू या नागरी लिपियां जानना जरुरी है. ऎसा होने पर हम अपने आपस में व्यवहार से अंग्रेजी को बाहर कर सकेंगे.” गांधीजी की इन भाषिक मान्यताओं के पीछे लोक-संग्रहक संतुलन का भाव प्रमुख था. लोकभाव को अक्षत और अक्षुण्य रखते हुए उसके लिए वे कारगर तरीका अपनाने की बात कहते थे,
अंग्रेजी जिसे कुछ लोग भ्रम-वश विश्व भाषा समझे बैठे हैं, ऎसा श्रेय पाने की कल्पना भी नहीं कर सकती क्योंकि वह जड़, दुराग्रह, अवैज्ञानिक, अविकसित और अटपटी भाषा है जिसके दोष सदा ही बड़े-बड़े विद्वानों को चिंतित और परेशान करती रही है. आर्थर मेक-डोनल भी कुछ इसी तरह का मत रखते थे. वे कहते हैं-“ यूरोपीय लोग 2500 वर्ष बाद इस विज्ञानिक युग में भी वही वर्णमाला का प्रयोग कर रहे हैं जो हमारी भाषा की सभी ध्वनियों को व्यक्त करने में अक्षम है. अभी तक हम उसे अव्यवस्थित वर्णक्रम से चिपके हुए हैं. सर आर्थर विलियम जोन्स भी कहते हैं-“ अंग्रेजी वर्णमाला और वर्तनी ऎसी बुरी तरह अधकचरी है कि प्रायः अत्यंत हास्यास्पद तक हो जाती है. दस कदम आगे बढ़ते हुए रिचर्ड लैडरर महाशय ने तो झल्लते हुए यहाँ तक कह डाला था “क्रेजी इंग्लिश” और उन्होंने “पागलपन की भाषा अंग्रेजी” नामक एक ग्रंथ ही लिख डाला.
संसार में कुल मिलाकर लगभग 2800 भाषाएं हैं. इनमे 13 ऎसी भाषाएं हैं, जिनके बोलने वालों की संख्यां 8 करोड से अधिक है. ताजा अंकडॊं के अनुसार संसार की भाषाओं में, हिन्दी भाषा को द्वितीय स्थान प्राप्त है. भारत के बाहर वर्मा, श्रीलंका, फ़ीजी, मलाया, दक्षिण और पूर्वी अफ़्रीका में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या ज्यादा है. एशिया महादेश की भाषाओं में हिन्दी ही एक ऎसी भाषा है, जो अपने देश के बाहर भी बोली और लिखी जाती है, क्योंकि यह एक जीवित और सशक्त भाषा है.
ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत में हिन्दी जानने वालों की संख्या सौ करोड़ है. भारत के बाहर पाकिस्थान, इजराइल,ओमान, इक्वाडोर, फ़िजी, इराक, बांगलादेश, ग्रीस, ग्वालेमाटा, म्यांमार, यमन, त्रिनीदाद, सउदी अरब, पेरु, रुस, कतर,, मारीशस, सूरीनाम, गुयाना, इंग्लैण्ड आदि में बोली जाती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा की मान्यता मिलने जा रही है. वर्तमान में अंग्रेजी, फ़्रेंच, चीनी, रुसी एवं स्पेनिस भाषाओं को राष्ट्रसंघ की मान्यता प्राप्त है.
संसार में हिन्दी ही एक ऎसी भाषा है, जिसे विदेशियों ने सर्वप्रथम विश्वपटल पर रखा. हिन्दी के शोधार्थी डा.जुइजिपियोतैस्सी तोरी ने फ़्लोरेंस विश्वविद्धयालय इटली में रामचरितमानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन 1911 में शुभारंभ किया. भारत की संस्कृति ने उन पर इतना असर डाला कि स्वदेश “इटली” छोडकर जीवनपर्यंत बीकानेर में रहे. साम्यवादी देशों में तुलसीकृत रामचरित मानस की लोकप्रियता देख, स्टालिन ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अकादमीशियन अलकसई वरान्निकोव द्वारा रुसी भाषा में पद्दानुवाद कराया, जिसमें साढ़े दस वर्ष लगे. तुलसीभक्त वेल्जियम में जन्में फ़ादर रेवरेण्ड कामिल बुल्के जिन्होंने हिन्दी के कारण भारत की नागरिकता ली. तुलसी की काव्यकृति हनुमानचालीसा का रोमानियन भाषा में, बुकारेस्ट में प्रो. जार्ज अंका ने डा. यतीन्द्र तिवारी के सहयोग से अनुवाद किया.
अमेरिका के कई विश्वविद्दालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है. यथा- पेनस्टेटयेल, लायोला, शिकागो, वाशिंगटन, ड्यूक, आयोवा, ओरेगान, मिशिगन, कोलंबिया, हवाई इलिनाय, अलवामा, युनिवर्सिटी आफ़ बर्जिनिया, युनि.आफ़ मीनेसोटा, फ़्लोरिडा, वैदिक वि.वि.सिराक्यूज, केलिफ़ोर्निया वि.वि., वर्कले युनिवर्सिटी आफ़ टेक्सास, रटगर्स, एमरी, नार्थ केरोलाइना स्टेट,एन.वाय.यू.इन्डियाना, यूसीएलए, मेनीटावा,लाट्रोव तथा केलगेरी विश्वविद्धालय आदि जहां हिन्दी की शिक्षा दी जाती है.
आधुनिक चीन में हिन्दी की विधिवत शुरुआत सन 1942 में यूनान प्रांत पूर्वी भाषा और साहित्य कालेज में हिन्दी विभाग की स्थापना के साथ हुई. यह वह समय था जब सारा संसार द्वितीय विश्वयुद्ध की चपेट में था. ऎसी स्थिति में अपनी सुरक्षा के लिए हिन्दी विभाग एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होता रहा. तीन वर्षों बाद सन 1945 में हिन्दी विभाग यूनान प्रांत से स्थान्तरित होकर छॊंगछिन में आ गया और साल भर बाद हिन्दी चीन की राजधानी में स्थित पीकिंग वि.वि. के विदेशी भाषापीठ में आसीन हुई और तबसे यहीं फ़ूलती-फ़लती रही. यहां हिन्दी के अलावा संस्कृत, पालि, और उर्दू भाषा साहित्य का अध्ययन-अध्यापन होता है. 1939 से 1959 तक का समय विकास की दृष्टि से बेहतरीन रहा. बाद के वर्षों में काफ़ी शिथिल पडा.. 1960-1979 तक का समय चीनी जनता और समाज के कठिनाइयों भरे दिन थे, हिन्दी विभाग सिकुडकर छोटा हो गया. 1980-1999 का यह दौर परिवर्तन का दौर रहा. हिन्दी की मशाल को प्रज्जवलित करने में तीन प्राध्यापकों का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता. वे हैं प्रो.यीनह्युवैन, प्रो.लियो आनवू और प्रो. चिनतिंनहान. इन तीनो विद्वानों ने अपनी लगन ,कर्मठता और आदर्श के बल पर हिन्दी के लिए जितना कार्य किया वह प्रेरणादायक है.
जापान में विदेशी भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन के दो प्रमुख केन्द्र हैं. तोक्यो युनि. आफ़ फ़ारेन स्टडीज एवं ओसाका युनि.आफ़ फ़ारेन स्टडीज. इन दोनों ही वि.वि. में सन 1011-1021 से ही हिन्दुस्थानी भाषा के रुप में हिन्दी-उर्दू की पढाई का सिलसिला प्रारंभ हो गया था. इसकी नींव डालने वाले विद्वान श्री.प्रो.रेइची गामो तथा प्रो.एइजो सावा हैं. 1911 में डिग्रीकोर्स आफ़ हिन्दुस्तानी एण्ड तमिल शुरु हो गया था. सन 1909 से 1914 के मध्य प्रसिद्ध सेनानी मोहम्मद बरकतउल्ला इस विश्वविद्धालय में “हिन्दुस्थानी भाषा” के विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रुप में नियुक्त किए गए. ये दोनो वि.वि. सरकारी विश्वविद्धयालय हैं, जहाँ 4 वर्षीय पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं. आरम्भ में प्रो. देई ने तोक्यो में तथा प्रो.एइजो स्ववा ने ओकासा में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की नींव डाली. ये विद्वान प्रोफ़ेसर हिन्दी के साथ ही उर्दू भी पढ़ाते थे. सन 2003 में सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रो. तोसियो तनाका का “विश्व हिन्दी सम्मान” से सम्मानित किया गया
तोकियो और ओसाका के राष्ट्रीय वि.वि. के अतिरिक्त अन्य कई गैर सरकारी वि.वि. और शिक्षा संस्थान भी हैं, जहाँ वैकल्पिक विषय के रुप में प्रारंभिक और माध्यमिक कक्षाओं तक हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था है. ताकुशोक वि.वि. के प्रो. हेदेआकि इशिदा, सोनोदा वीमेन्स युनिवर्सीटी के प्रो. उचिदा अराकि और ताइगेन हशिमोतो, तोमाया कोकुसाई वि.वि. के प्रो. शिगोओ अराकि और मिताका शहर में स्थित एशिया-अफ़्रीका भाषा के प्रो. योइचि युकिशिता का नाम अत्यंत प्रसिध्द है.
मारिशस में भारतीय मजदूरों के आगमन के साथ ही इस भूमि पर हिन्दी का प्रवेश हुआ. जिन मजदूरों को भारत के भोजपुर इलाके से यहाँ लाए गए थे “गिरमिटिया” कहलाए. वे अपने साथ झोली में रामचरित मानस, हनुमानचालिसा, महाभारत जैसे पवित्र ग्रंथ लेकर आए. इन्हें विरासत में समृद्ध साहित्य, धर्म, और संस्कृति का ज्ञान था. अपनी जमीन से उजड़े-उखड़े इन मजदूरों को नयी जमीन, यातना शिविर में अपने को जीवित रखने, स्थापित करने और अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए भोजपुरी और हिन्दी का सहारा ही सबसे बड़ा अवलंबन था. मजदूरी की क्रूर नियति से दुखी और हताश ये मजदूर, कभी विरहा, कभी कजरी तो कभी हनुमानचालीसा की पंक्तियों से अपनी आंतरिक शक्ति बचा रखने और रात में रामचरितमानस का पाठ उनकी थकान मिटाकर हौसला बढ़ाते. कई अवरोधों के बावजूद बैठकें चलती और भाषा के साथ संस्कृति और धर्म को गति देते रहे. हिन्दू महासभा, आर्यसभा, हिन्दी प्रचरिणी सभा तथा अन्य संस्थानों के सहयोग तथा पण्डित विष्णुदयाल और डा. शिवसागर रामगुलाम के नेतृत्व में भारतीय संस्कृति और इसकी वाहक हिन्दी अपनी उत्कृष्टता पाने में सफ़ल हुई. आज महात्मा गांधी संस्थान और इन्दिरा गांधी सांस्कृतिक केन्द्र, भाषा प्रचार और सांस्कृतिक गतिविधियों को विस्तार दे रहे हैं. भारत सरकार के सहयोग से अब हिन्दी स्पीकिंग यूनियन तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर संस्थान भी इस सांस्कृतिक अभियान में जुड़ गए हैं, तथा हिन्दी सचिवालय की स्थापना में नया आयाम मिला है.
थाईलैण्ड में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन का कार्यक्रम सबसे पहले थाई-भारत सांस्कृतिक आश्रम से शुरु हुआ जिसकी स्थापना सन 1943 में स्वामी सत्यानन्दपुरीजी ने की थी. आचार्य डा. करुणा कुसलासायजी पहले थाई विद्वान थे, जो हिन्दी पढ़ने भारत आए थे. महात्मा गांधी से सारनाथ में मिले और जब वे लौटे तो थाई-भारत सांस्कृतिक आश्रम में ही हिन्दी पढ़ाना शुरु किया और बैंकाक के भारतीय दूतावास में नौकरी शुरु की.
सन 1989 में सिल्पाकोव वि.वि. के पुरातत्व विज्ञान संकाय के प्राच्य भाषा विभाग मे एम.ए.संस्कृत पाठ्यक्रम बनाया गया. उस समय आचार्य डा. चमलोडां शारफ़ेदनूक हिन्दी शिक्षक थे. सन 1966 में शिलपाकोन वि.वि. के पुरातत्व विज्ञान संकाय के प्राच्य भाषा विभाग के संस्कृत अध्यापन केन्द्र की, भारतीय आगन्तुक डा. सत्यव्रत शास्त्री के द्वारा स्थापना की गई. 1993 में थमसात वि.वि. में थाईलैण्ड के भारतीय व्यापारियों के सहयोग से भारत अध्ययन केन्द्र की स्थापना हुई. डा. करुणा कुशलासाय, डा. चिरफ़द प्राकन्विध्या एवं आचार्य डा. चम्लोंग शरफ़दनूक तीनों ने हिन्दी कक्षाएं चलायी.
इस संबंध में वास्तविकता यह है कि गुट निर्पेक्ष राष्ट्रों के मुखिया भारत, संसार की उभरती अर्थ-शक्तिभारत, परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र भारत, संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक भारत, एवं संसार के सबसे बड़े बाजारों में एक भारत से निकटता बढ़ाने के लिए विश्व का हर देश ललायित है. यही कारण है कि विश्व के अनेक देश अपने यहाँ हिन्दी शिक्षण की उच्चस्तरीय व्यवस्था कर रहे हैं. इस देशों में अमरीका, रुस, इंगलैण्ड, फ़्रांस, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे विश्व के प्रभावशाली देश भी शामिल हैं. इतना ही नहीं प्रवासी भारतीयों ने अपनी संस्कृति के रक्षा के लिए हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था विश्व में बड़े व्यापक स्तर पर की है. वे हिन्दी की सुरक्षा, प्रतिष्ठा एवं प्रचार के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं.
विदेशों में पचास से अधिक देशों के 600 से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जा रही हैं। भारत से बाहर जिन देशों में हिन्दी का बोलने, लिखने-पढने तथा अध्ययन और अध्यापक की दृष्टि से प्रयोग होता है, उन्हें हम इन वर्गों में बांट सकते हैं. (1). जहाँ भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या जैसे- संयुक्त अरब अमरीरात (दुबई) अफगानिस्तान, कतर, मिस्र, उजबेकिस्तान, कज़ाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि।
हिन्दी विश्व के सर्वाधिक आबादी वाले दूसरे देश भारत की प्रमुख भाषा है तथा फारसी लिपि में लिखी जाने वाली भाषा उर्दू हिन्दी की ही एक अन्य शैली है। लिखने की बात छोड़ दें तो हिन्दी और उर्दू में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता सिवाय इसके कि उर्दू में अरबी, फारसी, तुर्की आदि शब्दों का बहुलता से इस्तेमाल होता है। एक ही भाषा के दो रूपों को हिन्दी और उर्दू, अलग-अलग नाम देना अंग्रेजों की कूटनीति का एक हिस्सा था।
इस प्रकार हिन्दी आज भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है। आज हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। अब तक भारत और भारत के बाहर सात विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। अब तक दस विश्व हिन्दी सम्मेलन क्रमश: नागपुर (1975), मॉरीशस (1976), नई दिल्ली (1983), मॉरीशस (1993), त्रिनिडाड एंड टोबेगो (1996), लंदन (1999), सूरीनाम (2003), न्यूयार्क (यू.एस.ए) 2007, जोहानसबर्ग (२०१२), भोपाल (2015). में हो चुके हैं. ग्यारहवाँ विश्वहिन्दी सम्मेलब अब मारीशस में संपन्न हुआ.
यह इस बात से प्रमाणित हो जाता है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी को पीछे ढकेलने वाली शाजिशों के बावजूद हिन्दी भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि भारत के लगभग 170 स्वयंसेवी संगठन हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन निष्ठा के साथ एवं अधिक सुनियोजित ढंग से कर रहे हैं. जहाँ तक विश्वभाषा के रुप में हिन्दी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का प्रश्न है, शंकरदयाल सिंह के निम्नाकिंत शब्द इसे भली भांति स्पष्ट करते हैं-“ जिस भाषा की पढाई विश्व के 123 से अधिक विश्वविद्यालयों में हो रही हो, 50 से अधिक देश जिस भाषा का प्रयोग किसी न किसी रुप में कर रहे हों तथा जिसके बोलनेवालों की संख्यां करोड़ों तक पहुँच चुकी हो, वह भाषा विश्वभाषा (अंतरराष्ट्रीय) ही कहलाएगी.