महात्मा गांधी जी ने कहा था-" कोई भी देश सच्चे अर्थों में जब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा नहीं बोलता. अपनी भाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है. प्रत्येक राष्ट्र की अपनी राष्ट्रभाषा उस राष्ट्र की अस्मिता की प्रतीक होती है. किसी भी राष्ट्र का प्रतिनिधित्व वहाँ की भाषा करती है जो राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता की भी संवाहक होती है".
गांधीजी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रबल पक्षधर थे. वे राष्ट्रभाषा को इतना महत्व देते थे कि किसी भी मूल्य पर वे भाषा के स्तर पर समझौते के लिए तैयार नहीं थे. वे भारत के भविष्यदृष्टा थे. मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के संबंध में गांधीजी का दृढ़ निश्चय उनकी वाणी में मुखरित हुआ है. उन्होंने अपने "मेरे सपनों का भारत" ग्रंथ में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा था-" अगर मेरे हाथ में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज ही से अपने लड़कों-लड़कियों को विदेशी माध्यम के जरिए से दी जाने वाली शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ या उन्हें बरखास्त करा दूँ. मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करुँगा. वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चले आएँगे".
अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व पर चिंतित होते हुए उन्होंने एक स्थान पर लिखा है-" अंग्रेजी आज इसीलिए पढ़ी जा रही है कि उसका व्यवसायिक एवं तथाकथित राजनैतिक महत्व है. हमारे बच्चे अँग्रेजी यह सोचकर पढ़ते हैं कि अँग्रेजी के पढ़े बिना उन्हें नौकरियाँ नहीं मिलेंगी. लड़कियों को अँग्रेजी इसलिए पढ़ाई जाती है कि इससे उनकी शादी में सहूलियत होगी. ये सारी बातें मेरी नजर में गुलामी और घोर-पतन के चिन्ह हैं. मैं इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता कि देशी भाषाएँ इस तरह कुचल दी जाएँ".
1918 को इंदौर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के सभापति पद से अपने उद्गार प्रकट करते हुए उन्होंने चेताया था -"मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी-अपनी प्रान्तीय भाषाओं को उनके योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं. हिन्दुस्थान को यदि सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो कोई चाहे, कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा हिन्दी बन सकती है. क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को कभी नहीं मिल सकता". वे न केवल हिन्दी को एक राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे, बल्कि वे उसे व्यापार, वाणिज्य, न्याय तथा प्रशासन की भी भाषा बनाना चाहते थे.
गाँधीजी मातृभाषा के प्रबल समर्थक तो थे ही, साथ ही वे विश्व की अन्यान्य भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने पर भी जोर देते थे. उनका प्रबल विश्वास था कि मातृभाषा के माध्यम से अपने चिंतन का स्पष्ट अभिव्यक्तिकरण हो सकता है, वैसे अन्य भाषाओं के माध्यम से नहीं. भाषाओं के संबंध में समय-समय पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए हैं, वे अत्यन्त ही उल्लेखनीय हैं. एक स्थान पर उन्होंने लिखा है-" युवक और युवतियाँ अँग्रेजी खूब पढ़ें, लेकिन उनसे आशा करुँगा कि वे अपने ज्ञान का प्रसाद भारत को और सारे संसार को उसी तरह प्रदान करेंगे जैसे बोस, राय और स्वयं कवि रवीन्द्रनाथ ने प्रदान किया था".
उन्होंने दक्षिण की द्रविड़ भाषाओं, पूर्व और पश्चिम की भाषाओं की संपन्नता का परिचय देते हुए अपील की कि इन समृद्ध भाषाओं से शब्द ग्रहण कर हिंदी को समृद्ध बनाना चाहिए. ये भाषाएँ संपन्न जरूर हैं, परन्तु ये राष्ट्रभाषा नहीं बन सकतीं. राष्ट्रभाषा तो केवल हिंदी ही बन सकती है. परन्तु मैं तो हिंदी के लिए मर्यादा रख देना चाहता हूँ कि वह अन्य प्रांतों की भाषाओं का स्थान न ले, वह माध्यम बने.
महात्मा गांधी की प्रेरणा से हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए सन 1918 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास की स्थापना हुई. गांधीजी की इस संकल्पना के लग्भग ग्यारह वर्ष पूर्व ही मद्रास( अब चैन्नई) में एक तमिलभाषी मनीषी ने हिन्दी प्रचार की नींव डाली. यह मनीषी कोई और नहीं, तमिल के सुविख्यात महाकवि सुब्रह्मण्य भारती जी थे. सर्वप्रथम भारती जी ने अपने संपादन में निकलने वाली पत्रिका” इंडिया” के 15 दिसंबर 1906 के अंक में तमिलभाषियों से हिन्दी सीखने की अपील की थी. महाकवि ने न केवल समूचे तमिलनाडुवासियों के प्रतिनिधि के रुप में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दी थी बल्कि राष्ट्रीय एकता के भविष्यदृष्टा के रुप में भी उन्होंने हिन्दी का पुरजोर समर्थन किया था. भारतीजी के ही नेतृत्व में 1908 में सर्वप्रथम चैन्नई के तिरुवेल्लीकेणि ( ट्रिप्लिकेन) में हिन्दी वर्गों के संचालन का श्रीगणेश हुआ था. इस घटना के दस वर्ष के बाद गांधीजी की संकल्पनाओं के अनुरुप दाक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की नींव पड़ी. इस कार्य हेतु गांधीजी ने आपने सुपुत्र देवदास गांधी को चैन्नई भेजा था.
अपने स्वराज मिशन के साथ भाषा को लेकर अपने विचार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा-" लाखों लोगों को अंग्रेजी का ज्ञान कराना उन्हें गुलाम बनाना है. मैकाले ने भारत में जिस शिक्षा की नींव रखी, उसने सबको गुलाम बना दिया है. अगर स्वराज अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय लोगों का और उन्हीं के लिए होने वाला है, तो निःसंदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी. लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों, निरक्षरों और दलितों व अंत्यजों का है और इन सब के लिए होने वाला है, तो हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है".
भारतीय भाषा समस्या के विषय पर गांधीजी के विचार बड़े निर्मल, वस्तुनिष्ठ और पूरी तरह व्यवहारिक हैं. वैसे भी उनके विचार प्रांजल और पारदर्शी होते हैं. जिस स्त्रोतों से उनके भाषा विषयक विचार उपलब्ध होते हैं, उनमें उनके लेखों का प्रमुख स्थान है, जो यंग इण्डिया, हरिजन-सेवक, हरिजन बन्धु आदि मे प्रकाशित हैं. इसके अतिरिक्त कुछ ऎसी सामग्री “इण्डियन होमरुल” जैसे पुस्तकों और तत्कालीन विभिन्न व्यक्तियों को लिखे गए उनके पत्रों से मिली है. गांधीजी ने भाषा विषय में सबसे पहले अपने विचार 1909 में अपनी पुस्तक “हिन्द-स्वराज” और होमरुल”के 18 वें परिच्छेद में यों व्यक्त किए हैं “ हर एक पढ़े-लिखे हिन्दुस्थानी को अपनी भाषा का, हिन्दु को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को पर्शियन का और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए. कुछ हिन्दुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों को हिन्दी का और कुछ पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए. उत्तर और पश्चिम में रहने वले हिन्दुस्तानी को तमिल सीखनी चाहिए. सारे हिन्दुस्थान के लिए तो हिन्दी होनी ही चाहिए. उसे उर्दू या नागरी लिपियाँ जानना जरुरी है. ऎसा होने पर हम अपने आपस में व्यवहार से अंग्रेजी को बाहर कर सकेंगे.”
गांधीजी की इन भाषिक मान्यताओं के पीछे लोक-संग्रहक संतुलन का भाव प्रमुख था. लोकभाव को अक्षत और अक्षुण्य रखते हुए उसके लिए वे कारगर तरीका अपनाने की बात कहते थे, वह यह कि भारत की प्रत्येक जाति का निवासी पहले तो अपने को ठीक से समझे, अपने जातीय संस्कार की भाषा को समझे, फ़िर दूसरे की भाषा का ज्ञान भी रखे, फ़िर सामाजिक या राष्ट्रीय सम्पर्क के लिए हिन्दी से भी अवगत हों.
गांधीजी के प्रेरणा से हिन्दी प्रचार समिति की स्थापना दिनांक 4 जुलाई 1936 को वर्धा में महात्मा गांधी के निवास स्थान पर इस समिति की पहली साधारण बैठक हुई, इसमें कुल 21 सदस्य थे. इस बैठक में जिन पदाधिकरियों का चुनाव हुआ, उसमें डा. राजेन्द्रप्रसादजी को अध्यक्ष, सेठ जमनालाल बजाज को उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष, श्री मोटूरी सत्यनारायण को मंत्री, श्रीमन्नारायणजी अग्रवाल को संयुक्त मंत्री बनाया गया. हिन्दी प्रचार समिति का कार्य गांधीजी की देखरेख में चले, इसीलिए उसका मुख्य कार्यालय वर्धा में रखा गया.
हिन्दी प्रचार समिति राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रही थी. अतः हिन्दी की जगह “राष्ट्रभाषा” शब्द लेने का प्रस्ताव पारित हुआ. राष्ट्रभाषा प्रचार सामिति की दो बैठकें 12.04.1942 तथा 21.06.1942 कॊ हुई. इन दोनों बैठकों के महात्मा गांधी, डा.राजेन्द्रप्रसाद, काका काहब कालेलकर, तथा श्रीमन्ननारायण उपस्थित थे. दिनांक 12.07.1942 को सेवाग्राम में गांधीजी की कुटी मे नवगठित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की पहली बैठक हुई. राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ने अध्यक्ष का आसन ग्रहण किया. समिति के इस बैठक में मंत्री पद के लिए भदन्त आनन्द कौसल्यायन को और सहायक मंत्री के लिए श्री रामेश्वरदयाल दुबे को चुना गया.
1946 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सामिति की रजत जयन्ती का उद्घाटन करने के पश्चात सार्वजनिक सभा को सम्बोद्धित करते हुए उन्होंने कहा था-" कुछ समय बाद हिन्दुस्थान आजाद होगा और आजाद हिन्दुस्थान की राजभाषा हिन्दी होगी. इसलिए मैं युवा पीढ़ी से अपील करता हूँ कि वे अभी से हिन्दी सीखना शुरु कर्रें और देश के आजाद होते ही शासन के समस्त कार्य-कलाप हिन्दी में सम्पन्न करें, ताकि अंग्रेजी का वर्चस्व अपने आप समाप्त हो जाए".
दक्षिण के चार प्रान्तों (केरल, तमिलनाडु, आंध्र,और कर्नाकट) छोड़कर समिति का कार्यक्षेत्र पूरे भारत में स्वीकृत किया गया. इसी संदर्भ में वर्ष 1954 से पहले मध्य-भारत राष्ट्रभाषा प्रचार समिति गठित की गई और सीतामऊ के महाराजकुमार रघुवीरसिंह इसके अध्यक्ष बने. मध्य प्रदेश का गठन होने के बाद समिति को मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति में परिवर्तन कर प्रांतीय कार्यालय इंदौर से भोपाल स्थानान्तरित किया गया. समिति के कार्यों को स्थायित्व देने के लिए मध्यप्रदेश शासन ने भूखण्ड दिया और शासन के तथा जनता के सहयोग से हिन्दी भवन भोपाल का निर्माण हुआ. समिति के संस्थापक मंत्री-संचालक श्री बैजनाथप्रसाद दुबे जी थे. 28 नवंबर 1988 को उनके निधन के बाद यह दायित्व श्री कैलाशचन्द्र पंत जी को सौंपा गया. तब से लेकर वर्तमान समय में हिन्दी भवन ने अपने अनूठे कार्यक्रमों की वजह से देश-प्रदेशों में ही नहीं अपितु विदेशों तक अपनी अमिट छाप छोड़ी है.
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम माध्यम है. यह अभिव्यक्ति आमजन की अस्मिता से लेकर राष्ट्र के आगत भविष्य निर्मांण के लिए भी हो सकती है. इसीलिए भाषा का प्रश्न केवल भाषा तक ही सीमित नहीं होता. हम जो सोचते हैं अपनी मातृभाषा में अभिव्यक्त करते हैं और यह अभिव्यक्ति हमारी पहचान बनाती है. हमनें अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई हिन्दी के माध्यम से जीती है. आमजन की भाषा की राष्ट्रीय गरीमा को प्रतिष्ठित करना एवं उसे कायम रखना है.
भारत के कोने-कोने में बोली जाने एवं समझी जाने वाली हिन्दी ही एकमात्र भाषा है.जो सरल, और वैज्ञानिक लिपि में लिखी जाने के कारण हिन्दी भाषा अत्यन्त सुव्यवस्थित, संपन्न और लोकप्रिय है. भारत के अधिकांश भागों में प्रयोग किए जाने के कारण हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त है. राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी एक प्रदेश के लोगों को दूसरे प्रदेशों के लोगों को जोड़ती है, और राष्ट्रीय एकता का भाव जगाती है. हिन्दी की इसी विशिष्टता के कारण हमारे संविधान निर्माताओं ने 14 सितम्बर 1949 को देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को, संघ की राजभाषा के रुप में स्वीकार किया तथा 26 जनवरी 1950 को संविधान में इसका प्रावधान किया.
वह गांधी, जिसने स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में हिन्दी को माध्यम बनाया, वह गांधी, जिसने नगर-नगर, शहर-शहर जाकर हिन्दी का घनघोर प्रचार-प्रसार किया, वह गांधी, जिसने हिन्दी के अलावा कई भाषाओं को सीखने का आव्हान किया था, वह गांधी, जिसने घोषणा कर दी थी कि "गांधी अंग्रेजी भूल गया", वह गांधी जिसने रामराज्य की विशाल परिकल्पना की थी, वह गांधी जो तत्काल अंग्रेजी स्कूलों और कालेजों को बंद कर देने की बात कहते थे. उसी गांधी के विचारों को भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात विस्मृत कर दिया गया और हिन्दी के समकक्ष अंग्रेजी को पन्द्रह वर्षों के लिए लाद दिया गया.
इन पन्द्रह वर्षों की अवधि को लेकर हिन्दी के प्रबल पक्षधर राजर्षि टण्डन जी ने सितम्बर 1949 में राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भारतीय संविधान-सभा में ऐतिहासिक भाषण दिया था- " हिन्दी कोई नई भाषा नहीं है. जब आयरलैण्ड ने अपना संविधान बनाया, तब उसने आयरिश भाषा को अपनाया था, जिसमें न तो अधिक साहित्य था और न ही पर्याप्त शब्दावली ही थी. किन्तु, फ़िर भी आयरलैण्ड ने उसे ही अपनाया. जबकि हमारी हिन्दी तो अत्यन्त शक्तिशाली भाषा है". उनका स्पष्ट संकेत था कि जो काम आज हो गया, वह हो गया, जरुरी नहीं कि वह पंद्रह वर्ष बाद हो सकेगा. उनकी भविष्यवाणी सही निकली. कई पंद्रह वर्ष बीत गए, हम जहाँ थे, वहीं खड़े हैं.
अपने विशाल शब्द भण्डार, वैज्ञानिकता, शब्दों और भावों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति के साथ ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में अपनी उपयुक्तता एवं विलक्षणता के कारण और बिना राजाश्रय के हिन्दी विश्व पटल पर एक प्रतिष्ठित और मान्यता प्राप्त भाषा के रूप में उभर चुकी है. बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार बहुत तेजी से हुआ है. भूमंडलीकरण के दौर में देशों के बीच की भौगोलिक दूरियाँ कम हुई है. हिन्दी केवल जनभाषा के रूप में ही नहीं बल्कि विश्व बाजार के रूप में अपने को ढाल रही है. आज वह ग्लोबल भाषा के रूप में भी अपना वर्चस्व दिखा रही है. हिन्दी आज बाजार की भाषा बन चुकी है. यही कारण है कि विदेशी कंपनियों को अपने उत्पाद की बिक्री के लिए हिन्दी का सहारा लेना पड़ रहा है. लगभग अस्सी करोड़ आमजनों द्वारा व्यवहृत और विश्व के 176 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है. हिन्दी संपूर्ण भारत के जन-जन की वाणी है. हिन्दी का अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. विश्व भाषा के रूप में हिन्दी का विकास उसके अपने गुणॊं के कारण ही हो रहा है.
हम सभी हिंदी प्रेमियों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि विश्व की तमाम भाषाओं में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा में इसका सर्वश्रेष्ठ स्थान निरुपित हो चुका है. निश्चित ही हमारे लिए यह गौरव का विषय तो है की, साथ ही हमारी जिम्मेदारियां और भी अधिक बढ़ जाती है कि हम इसे इसी क्रम में बनाए रखने के लिए सतत संघर्षशील रहें.