हिन्दी भाषा हमारा राष्ट्रीय गौरव है. हमारी पहिचान है. हमारा स्वाभिमान है. हमारी अस्मिता है. यह मात्र एक भाषा भर नहीं हैं. इसमें मिठास है, मिट्टी की सोंधी खुशबु है. माँ का प्यार है. हमारी आन-बान-शान है. एक जीवन-धारा है. एक सभ्यता है. हमारा गौरव है. एक जीवन शैली है. विचारों का लहलहाता सागर है. सवेदनाओं की झील है. हमारा कंठहार है. भागीरथी गंगा है. यह वह भाषा है जो सुदूर कश्मीर से कन्याकुमारी, अटक से लेकर कटक तक लोगों को एकसूत्र में बांधे हुए है. यह वह भाषा है,जिसमें हमारे शूरवीर, क्रांतिकारियों ने धूर्त अंग्रेजों को ललकारा था. यह वह भाषा है जिसमें आजादी के दीवानों ने जोशीले तराने गाए थे.
यह वह भाषा है जिसके माध्यम से देश को सांस्कृतिक एकसूत्रता प्रदान करने की आवाज बंगाल के राजा राममोहन राय, बंकिमचन्द्र चटर्जी तथा विध्यासागर जैसे दूरदर्शी नेताओं ने उठाई थी. उधर गुजरात में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आन्दोलन स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आरंभ किया और संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित होते हुए भी सारे ग्रंथ हिन्दी में लिखे. कालान्तर में महात्मा गांधी हिन्दी आंदोलन के अध्यक्ष बनकर राष्ट्रभाषा हिन्दी को बल प्रदान किया. यही कार्य गोविन्द रानाडे, तथा गोपाल हरि देशमुख ने किया. हालांकि पंजाब प्रांत में उर्दू, फ़ारसी का बोलबाला था किन्तु आर्य समाज की स्थापना के साथ हिन्दी अध्ययन तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की योजनाएं बनीं.
जलियांवाला बाग हत्याकांड के पश्चात जब अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित किया गया तो स्वागताध्यक्ष के पद से स्वामी श्रद्धानन्दजी ने अपना स्वागत भाषण हिन्दी में दिया. कांग्रेस के मंच से दिया गया यह प्रथम हिन्दी भाषण था.
१८९३ में काशी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई. सभा ने जहाँ हिन्दी को रक्षा और प्रचार का काम, किया, वहीं सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रयोग का समर्थन किया. महामना मदनमोहन मालवीय जी का सहयोग इस सभा को मिला और संयुक्त प्रान्त के सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी का प्रयोग होने लगा. १९१० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना के साथ ही हिन्दी को राष्ट्रव्यापी प्रचार को बल मिला.
आज विश्व में सर्वाधिक समझी और बोली जाने वाली हिन्दी को महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय,नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, डा,राजेन्द्र प्रसाद, राजर्षि टंडन, डा. राममनोहर लोहिया, सेठ गोविन्ददास जी ने राष्ट्रीय आंदोलन का एक हिस्सा बना दिया था. परिणाम स्वरूप ही देश के कोने-कोने में राष्ट्रीय चेतना व्याप्त हो गई क्योंकि वे जानते थे कि अंग्रेजी के माध्यम से कुछ प्रतिशत ही लोगों तक पहुँच सकते थे.
हिन्दी में कबीर, सूर, तुलसीदास, रहीम, रसखान, जयशंकर प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा, मैथिलिशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेमचन्द आदि अनेक कवियों और लेखकों ने इसे समृद्ध बनाया.
भारत एक अद्भुत देश है, जहाँ बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधर्मी मानव-समुदाय परस्पर मेल-मिलाप और सौहार्द के मिलकर रहते हुए एक गौरवशाली राष्ट्र का निर्माण करते हैं. इन सबकी मिली-जुली सामाजिक संस्कृति ही भारत की शक्ति है.
भाषा का निर्माण टकसाल में न होकर सड़कों पर होता है, चौपालों में होता है, गाँव के गलियारों में होता है और उसका शिल्पी देश का आमजन है. भाषा की समृद्धि एवं संपन्नता जन-जन की भाषा के प्रति सजगकता, सक्रीयता एवं जागरुकता पर निर्भर करती है. भाषा के विनाश एवं विकास में वही एकमात्र जिम्मेदार होता है. आज वह जिम्मेदारी खतरे में पड़ी नजर आती है. सबसे पहले मुगलों ने हिन्दी के साथ अन्य भाषाऒं के साथ संयोग-समन्वय किया. इससे हिन्दी भाषा का विभाजन नहीं हुआ, बल्कि उसकी विविधता में विकास ही हुआ. हिन्दी में उर्दू और फ़ारसी आदि भाषाऒं का सुन्दर गठजोड़ हुआ. भाषा कई आयामों में विकसित हुई. विकास के इन मूल कारणॊं को अंग्रेजों की अंग्रेजी ने कुठाराघात किया और इसे कमजोर करते हुए हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी को प्रतिष्ठित बनाने का कुचक्र रचा. काफ़ी हद तक यह कुचक्र सफ़ल हुआ,जिसका परिणाम हम सब के सामने है कि हम हिन्दी से अधिक अंग्रेजी बोलने में गर्व अनुभव करते हैं.
संविधान निर्माताओं ने १४ सितम्बर १९४९ को हिन्दी को राजभाषा घोषित किया. राजभाषा का आशय था--राजकाज की भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग. केन्द्र सरकार के कार्यालयों की भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाया जाना. इसे “आफ़िसियल लैंग्वेज” का नाम दिया गया. अंग्रेजी को सहभाषा बनाते हुए उन्होंने सोचा था कि देश में हिन्दी का प्रयोग धीरे-धीरे कम करके भारतीय भाषाओं और हिन्दी का प्रयोग होने लगेगा क्योंकि अंग्रेजी देश को दो हिस्सों में बांटती है. एक वर्ग है जो अपने को आम जनता से अलग कर अंग्रेजी भक्त होने के कारण स्वयं को खास कहता है. जबकि दूसरा वर्ग हिन्दी प्रेमी है. वह जानता है कि हिन्दी राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय सम्मान और राष्ट्रीय एकता का माध्यम है. .
२ जनवरी १९५० को भारत के संपूर्ण जनतंत्रात्मक गणराज्य बनने के साथ ही संघ की राजभाषा “हिन्दी” तथा लिपि “देवनागरी” घोषित की गई. यह संकल्प लिया गया कि अंग्रेजी का प्रयोग सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में २६ जनवरी,१९६५ में सिमट जाएगा. ऎसा नहीं हुआ, हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में अपना स्थान बना नहीं पा सकी. १९६७ में “राजभाषा संशोधन विधेयक-१९६७” के माध्यम से अंग्रेजी के प्रयोग को अनिश्चित्काल के लिए बढ़ा दिया गया, जिससे हिन्दी सिर्फ़ राजभाषा विभागों में सिमट कर रह गई. इससे पहले ७ जून १९५५ श्री बी.बी.खेर की अध्यक्षता में राजभाषा घोषित किया गया. संविधान सभा के संकल्प के बावजूद हिन्दी वास्तविक राजकाज की भाषा न बनकर सिर्फ़ “आफ़िसियल लैंगवेज” के दायरे में सिमट कर रह गयी. खेर आयोग के बाद ही केन्द्रीय हिन्दी समिति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बनी और फ़िर एक और समिति सरकारी प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रगामी प्रयोगों से संबंधित मामलों पर भारत सरकार को सलाह देने के लिए गृहमंत्री की अध्यक्षता में गठित की गई. इसके बाद गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के सचिव के अधीन एक और समिति का गठन किया गया. संसद की समितियों की कड़ी में संसदीय समिति भी गठित की गई. यह सब हिन्दी को राजकाज की भाषा के रूप में बढ़ावा देने के लिए किया गया. इसके बाद भी हिन्दी राजभाषा के रूप में “हिन्दी दिवस” “हिन्दी पखवाड़ा” या फ़िर “हिन्दी मास” तक ही सिमटी हुई है
हिन्दी के मूल में अंग्रेजों के कुठाराघात के बाद फ़िर से एक और प्रहार हो रहा है--भूमंडलीकरण का. भूमंडलीकरण के इस भयावाह दौर में किसी स्वाधीन, संपन्न और आत्मनिर्भर राष्ट्र में दूसरे देश की भाषा का विकास का पैमाना बने, यह कैसे स्वीकार्य होगा? यह भी सच है कि विश्व के किसी देश में भाषा की स्वाधीनता-स्वतंत्रता और उसकी निजता को इतने व्यापक विस्तार और बारीकी से नहीं लिया गया, जितना हमारे देश में और यह घटना आज भी जारी है.
बाजारवादी व्यवस्था में हिन्दी की अस्मिता, अस्तित्व और निजता के लिए उत्तरदायी लोगों की अभिरुचि ऎसे गंभीर और बुनियादी सवालों पर नहीं है. वे इस भाषा को विश्वव्यापी बनाने, वर्तमान समय में अन्य भाषाओं के समान विकसित एवं समृद्ध करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. वे तात्कालिकता पर इतना अधिक विश्वास करते हैं कि ये महाप्रश्न उनके लिए बेईमानी और निरर्थक हो गया हैं. उन्हें भाषागत स्वाभिमान की बात बेकार एवं गैरजरुरी लगती है. इस प्रकार एक ओर जहाँ भाषा का शिल्पी आमजन निष्क्रिय, निस्तेज है, वहीं दूसरी ओर इसे व्यापक बनाने वाले मूर्धन्य शिल्पकार घोर उदासीन नजर आते हैं.
बाजारवाद तात्कालिक आवश्यकता को सर्वाधिक अहमियत देता है. वह ऎसी संकर भाषा निर्मित करता है, जिससे केवल उसका हित संवर्धित हो सके. वह अपने लाभ के लिए आज हिन्दी भाषा का, जितना सर्वनाश कर सकता है, कर रहा है और इसके प्रति हमारी घोर उदासीनता ने हमारी पहचान को प्रश्न के घेरों में ला खड़ा कर दिया है. चांदी के चंद सिक्कों में हम अपनी पहचान खोने लगे हैं. अगर ऎसा नहीं है तो क्या कारण है कि हमें अपनी हिन्दी एवं अन्य मातृभाषा बोलने में, लिखने में संकोच क्यों होता है?. ऎसा संकोच तो चीनी रूसी, जर्मन एवं फ़्रांस के लोग नहीं करते, वे अपनी ही भाषा को प्राथमिकता देते हैं. आँकड़ॊं की ओर नजर डालें तो पता चलता है कि चीनी बोलने वाले ९० करोड़, अंगरेजी बोलने वाले ८० करोड़ और हिन्दी बोलने वाले ७० करोड़ हैं.
मेरिट रलेन जी पुस्तक “ ए गाईड टु दि वर्ल्ड लैंग्वेज” (स्टेनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,१९८७) के अनुसार अकेले चीन में एक बिलियन लोग मेंडरिन बोलते हैं और लगभग एक बिलियन ही अंग्रेजी. तीसरे स्थान पर हिन्दी-उर्दू बोलने वाले चार सौ बिलियन ही हैं. स्पेनिश और रूसी के तीन-तीन सौ मिलियन. चीन की पूरी आबादी मैंडरिन बोलती है. कुछ भाषाविद चीन के इस सर्वेक्षण को सही नहीं मानते, क्योंकि शंघाई, कैंटन, फ़ुकीन, हक्का, तिब्बती और तुर्की आदि नगरों में अन्य भाषाएं भी बोली जाती है. इस प्रकार चीन में ८० प्रतिशत लोग मैंडरिन बोलते हैं.
इस संदर्भ में डा.जयंती प्रसाद नौटियाल का एक सर्वेक्षण महत्त्वपूर्ण है. वे व्यापक दृष्टिकोण वाले थे. वे उर्दू को भी हिन्दी में शामिल करके देखते थे. इतना ही नहीं वे विभिन्न प्रदेशों की बोलियों को भी हिन्दी में सम्मिलित मानते थे. जैसे-ब्रज, अवधी, राजस्थानी आदि, परन्तु यह विषय भाषाविदों के लिए एक चुनौती है. हिन्दुस्थान में हिन्दी को कैसे परिभाषित किया जाए? यही बड़ी समस्या बन गई है. क्या ब्रजभाषा, बुंदेली, मगही, भोजपुरी, मैथिली, पंजाबी, गुजराती बोलने वाला हिन्दीभाषी नहीं है? क्या उर्दू को अलग रखा जाए, जबकि इसकी व्याकरण संरचना एक जैसी है तथा वाक्य विन्यास समान है. इन भाषाओं के बीच संवाद की समस्या भी नहीं है, ऎसे में हिन्दी की व्यापकता एवं संकीर्णता दोनों सामने आते है. भाषाविद कहते हैं कि इन बोलियों के साथ हिन्दी की समृद्धि और एकाकी हिन्दी को खड़ा करना संकीर्णता है. हमें अपनी भाषा को बोलने में गर्व होना चाहिए. भाषा की श्रेष्ठता तो इसके विचारों में है.
बाजारवाद के घोर समर्थक एवं पक्षधर अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार एवं विस्तार के लिए अधिक रुचि दिखाते है, क्योंकि इसी मे उनका लाभ है. तीन प्रतिशत भारतीय जनों के लिए इतनी सजगता और सतानवे प्रतिशत जनता के लिए इतनी उपेक्षा क्यों?. विदेशी भाषाओं को सीखने, समझने एवं व्यवहार करने में कोई समस्या नहीं है, परन्तु इन्हें अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में वरीयता प्रदान करना अत्यंत घातक एवं चिंताजनक है, अंग्रेजी अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान में संवाद की भूमिका निभाए तो स्वीकार है, परन्तु इस सिद्धांत एवं मान्यता के विरुद्द भाषाविद कहते हैं कि ऎसा संभव नहीं है. अंग्रेजी भाषा के बाजारवादी कुचक्र एवं षड़यंत्र से सावधान रहना चाहिए और हमें हिन्दी का सृजन, अध्ययन एवं प्रसार करना चाहिए. इस भाषा के हमारे देश और जनता के बीच मधुर संबंधों को फ़िर से उजागर करना चाहिए. हमारी तमाम मौलिकता अंग्रेजी की चकाचौंध में विनष्ट हो रही है. भाषा सीखनी चाहिए, परंतु प्रतिष्ठा एवं अहंकार के पोषण के लिए नहीं. हमारी मौलिकता एवं निजता की अभिव्यक्ति हमारी भाषा में निहित होती है, इसका ध्यान रखना चाहिए.
हिन्दी भाषाई नेतृत्व की आशा-अपेक्षा प्रत्येक भारतीय भाषा के रचनाकार-साहित्यकार से है. उन्हें तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद इस अहम तथ्य पर एकमत होना चाहिए. भारतीय भाषा अपनी प्रगतिशील परंपराओं का विकास करे और दूसरी भारतीय भाषाऒं तथा विश्व की विकसित भाषाओं के साथ जातीय संवाद द्वारा संसार से अपेक्षित प्रतिष्ठा एवं समृद्धि उपलब्ध करे. इस तथ्य के समर्थन में हिन्दी साहित्य के शिरोमणी मुंशी प्रेमचंद के शब्द हैं-“ राष्ट्र की बुनियाद, राष्ट्र की भाषा है. नदी, पहाड़ और समुद्र राष्ट्र नहीं बनाते. भाषा ही वह बधंन है, जो चिरकाल तक राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रहती है और इसे बिखरने, विखंडित होने एवं विभाजित होने से रोकती है”.
राष्ट्रभाषा के पुरोधा श्री अरविंद कहते है -किसी राष्ट्र अथवा मानवीय समुदाय की आत्मा के लिए यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है कि वह अपनी भाषा की रक्षा करे और उसे एक सशक्त और सजीव सांस्कृतिक बना ले. जो राष्ट्र, जाति अथवा जनसमुदाय अपनी भाषा खो देता है, वह अपना सम्पूर्ण एवं सच्चा जीवन व्यतीत नहीं कर सकता. वह आगे स्पष्ट करते हैं कि भाषा का राष्ट्र के जीवन में महत्त्व है तथा सामान्य रूप से मानव जाति के लिए भी यह अत्यधिक उपयोगी है.
श्री अरविन्द के अनुसार भाषा जाति के सांस्कृतिक जीवन का प्रतीक एवं चिन्ह है. उसके एक विचारगत और मनोगत आत्मा का संकेत है, जो उसके पीछे होती है तथा उसकी कर्मगत आत्मा को समृद्ध बनाती है. वह एक ऎसा बौद्धिक, सौंदर्यात्मक तथा अभिव्यंजक बंधन है, जो जहाँ विभाजित होता है, वहाँ उसकी शक्ति बढ़ाता है और जहाँ एकता प्राप्त हो चुकी है, वहीं उसे पुष्टि एवं बल प्रदान करता है. विशेषकर यह राष्ट्रीय और जातीय एकता को स्वचेतना प्रदान करता है.
सांस्कृतिक प्रतीक चिन्ह हिंदी भाषा की रक्षा हमें करनी होगी और उसके लिए उसकी अपनी सांस्कृतिक विविधताओं का इस प्रकार नवनिर्माण करना होगा कि उसके प्राचीन स्वरुप को अधिक तेजस्वी, अधिक घनिष्ट एवं पूर्ण रूप में अभिव्यक्ति दी जा सके. फ़िर उसे समस्त जगत के ऊपर आरोपित कर देना चाहिए, जैसा कि उसने सुदूर युगों में अधिकार किया था अथवा कम से कम प्रकाश प्रदान किया था. आज हिन्दी भाषा को ऎसा नूतन स्वरूप उपलब्ध कराना है, जिसके विराट एवं व्यापक अंतस्थल में सभी भाषाएं समा जाएं, पर विनष्ट न हों, बल्कि पुष्ट एवं विकसित हों. भाषा के प्रति ऎसी सुरक्षा एवं समर्पण हो कि किसी भी प्रकार का कुचक्र एवं षड्यंत्र काम न कर सके. ऎसे समर्पण से हम अपनी मातृभाषा की रक्षा एवं विकास कर सकेंगे, जिसके विकास में राष्ट्र, जाति एवं संस्कृति का भविष्य़ निर्भर है.
आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि कभी वह समय था जब देश में अंग्रेजों के प्रति नफ़रत का भाव आलोढ़न ले रहा था, उन्हें देश से निकाल बाहर करने के लिए आंदोलन पर आंदोलन किए जा रहे थे. अंग्रेज तो खैर चले गए लेकिन अंग्रेजी छॊड़ गए. यह बात समझ से परे है कि अंग्रेजों के प्रति नफ़रत और उनकी भाषा के प्रति इतना लगाव आखिर क्यों?. आज हिन्दी न सिर्फ़ भारत में, वरन विश्व के कोने-कोने में बड़ी संख्या में बोली जा रही है. इतना ही नहीं विश्व के लगभग १५५ देशों केविश्वविध्यालयों में पढ़ाई भी जा रही है. इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दी आज भारत की राष्ट्रभाषा भले ही नहीं बन पायी,लेकिन विश्वभाषा जरुर बन गयी है
इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. यदि सरकार हिन्दी को प्रोत्साहित करेगी तथा सभी विभाग व संस्थान हिन्दी में काम करने में हिचकेगी नहीं तो बाकी के लोग भी हिन्दी को अपनाने में झिझक महसूस नहीं करेंगे. हिन्दी दिवस पर केवल लंबे-चौड़े भाषण झाड़ना पर्याप्त नहीं होगा. इस दिशा में गंभारता से कुछ कर दिखाने की जरुरत है. हिन्दी को विज्ञान व तकनीक की भाषा बनाने के लिए ठॊस कदम उठाए जाने चाहिए. हिन्दी अपनाने वाले लोगों को तथा सरकारी कर्मचरियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. मातृभाषा में शिक्षा देने वाले स्कूलों को विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए और हिन्दी को दलगत राजनीति का मुद्दा न बनाकर देश की गरिमा के तौर पर उभारा जाए तो हिन्दी को राष्ट्र की बिंदी बनते देर नहीं लगेगी.