गांधी जी बाद देश के सबसे चर्चित नेता श्री जवाहरलाल नेहरु जी का भी छिन्दवाड़ा आगमन हुआ था. उन्होंने छॊटी बाजार के चौक में एक ओजस्वी भाषण दिया था. आपके आगमन की खुशी में समूचा शहर एकत्रित हो गया था. बड़ी संख्या में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. महिलाओं के विशाल जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं श्रीमती दुर्गाबाई मांजरेकर. क्रांतिकारियों के दिलों में जोश भरता और काफ़ी प्रसिद्धि पा चुका गीत “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा....झंडा ऊँचा रहे हमारा” और “ स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” नारे के प्रणेता श्री बाल गंगाधर तिलक के उद्घोष से समूचा शहर गूंज उठा था. महिलाओं का यह जुलूस बुधवारी बाजार होता हुआ छोटी बाजार पहुँचा. इस जुलूस का नेतृत्व कांग्रेस नेत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती राधेकुमारी वर्मा कर रही थीं. श्रीमती विद्यावती मेहता, श्रीमती केकरे, श्रीमती घाटे, श्रीमती रेखड़े, श्रीमती पार्वती आदि तिरंगा लहराते हुए साथ चल रही थीं.
15 अगस्त 1947 का वह शुभ दिन भी शीघ्र ही आया, जब हमारा देश आजाद हुआ था. शायद इंद्र देवता भी प्रसन्न थे. रिमझिम बारिश से यह पूरा अंचल भींग रहा था. जिस घर में रेडियो उपलब्ध था, वहाँ लोगों की भीड़ जमा थी. दिल्ली में होने वाले सत्ता परिवर्तन की पक-अप्रतिपल की खबरें प्रसारित हो रही थीं. साँसे रोकर लोग एक-एक शब को अपने जेहन में उतार रहे थे. पूरे नगर को तोरणॊं एवं बन्दनवार से सजाया गयाअ था और शाम को हर घरों में रौशनी की गई थी. अर्ध रात्रि को तिरंगा फ़हराकर अपनी सदियों पुरानी मुराद पूरी होता देखकर गदगद थे. यह रात जश्न की रात थी. उस रात शायद ही कोई सो पाया होगा. नगर के विभिन्न मोहल्लों से “भारत माता की जय”, महात्मा गाँधी जिन्दाबाद” के नारे सुनाई पड़ रहे थे. नगरपालिका तथा जिला कचहरी को विद्युत बल्बों से रोशन किया गया था. लोग आपस में गले मिलते हुए एक-दूसरे को बधाइयां प्रेषित कर रहे थे. खुशी के मारे सभी चेहरों पर प्रसन्नता की दमक देखी जा सकती थी.
छोटी बाजार चौक में सर्वाधिक गहमा-गहमी थी. यह वही जगह थी, जब पंडित जवाहरलाल बेहरु ने 1945 में ओजस्वी भाषण दियाअ था. महिलाएं भी बड़ी संख्या में यहाँ पहुँच चुकी थीं. महिलाओं के इस हुजूम एक जुलूस की शक्ल में बदल गया था. इस विशाल जुलूस का नेतृत्व श्रीमती दुर्गाबाई मांजरेकर जी कर रही थीं. “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा...झण्डा उँचा रहे हमारा गान को गाते हुए जुलूस आगे बढ़ रहा था. इस जुलूस में उस समय की कांग्रेसी नेत्रियाँ श्रीमती राधेकुमार्री वर्मा, श्रीमती विद्यावती मेहता, श्रीमती केकरे, श्रीमती घाटे, श्रीमती रेखड़े, श्रीमती पार्वती आदि तिरंगे को लहराते हुए चल रही थीं और बीच-बीच में ओजस्वी नारों से समूचा वातायन गुंजायमान हो उठा था. नगर की प्रमौख सड़ओं, गोलगंज, बुधवारी बाजार से होता हुआ जुलूस छोटी बाजार आकर एक सभा के रूप में परिवर्तित हो गया था.
इतिहास के इन गौरवशाली पन्नों को पलटते हुए शरीर में रोमांच हो आता है. वहीं उन तमाम घटनाओं को याद करते हुए उन गौरवशाली सपूतों के चेहरे आँखों के सामने दृष्यमान हो उठते हैं जिन्होंने, बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता को बंधनमुक्त कराने के लिए अपने प्राणॊं तक का उत्सर्ग कर दिया था. कल्पना मात्र से शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते है कि किस तरह इन सपूतों ने शारीरिक और मानसिम आघातों को झेला होगा, लेकिन ऊफ़ तक नहीं की थी. उन तमाम शहीदों की शहादत को याद करते हुए आँखों से आँसू स्वमेव झरने लगते हैं.
15 अगस्त 1947 को हम 70-72 साल पीछे छॊड़ आए है और निकट भविष्य 2022 में हम भारत की आजादी की पचहत्तरवीं साल-गिरह मनाएंगे. इन 70-72 सालों में हमने क्या खोया और क्या पाया, की मीमांसा कर पाए है? गांधीजी के उन तमाम सपनों को, जिसे वे अपनी खुली आँखों से देखा करते थे, कि मेरा भारत कुछ इस तरह होगा,जो विश्व का सिरमौर बनेगा, क्या हम उनके सपनों में रंग भर पाए हैं या हमने उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया है, गहन अध्ययन किए जाने की मांग करता है. प्रश्न एक नहीं बल्कि अनेकों उठ खड़े होते हैं कि क्या हम देश से गरीबी को पूरी तरह मुक्त कर पाएं है? क्या हम शोषित-पीड़ित मानव-जन को, जो आज भी अन्तिम छोर पर खड़ा, आशा भरी नजरों से दिल्ली की ओर मुंह उठाये टुकुर-टुकर देख रहा है, क्या हम उस तक पहुँच पाए है? क्या हम उसकी आँखों से झर-झरकर बह रहे आँसूओं को पोंछ पाए है? क्या हम भारत को, भारत की नदियों पूरी तरह से साफ़-स्वच्छ रख पाए हैं? क्या हम इन विगत वर्षों में प्रत्येक गाँव को सड़कों से जोड़ पाए हैं? गांधीजी कहा करते थे कि भारत गाँवों में बसता है, क्या हम पलटकर कभी गाँवों की ओर कदम बढ़ा पाए हैं? क्या शिक्षण संस्थाओं में उन बलिदानी महापुरुषों की स्मृतियों को अक्षुण्य रख पाए है?. क्या हम उनकी शूरवीरताओं के किस्सों को आमजन तक पहुंचा पाए हैं? यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो आज विश्वविद्यालयों से “भारत तेरे टुकड़े-टुकड़े होंगे...लेकर रहेंगें आजादी जैसे घिनौने नारे कैसे लग पाते?.
ऐसा नहीं है कि इन सत्तर सालों में कुछ नहीं हुआ है. हुआ जरुर है लेकिन उनका फ़ायदा उस अन्तिम-जन नहीं पहुँच पाया है, जिसकी की कभी कल्पना बापू सहित अन्य महान विभुतियों ने सपने संजोए थे. सत्ता की चाहत और सत्ता के घिनौने खेल आदि काल से चलते रहे हैं. सरकारें आती-जाती रही हैं. लेकिन वर्तमान में जो सत्ता प्रभाव में आयी है, उसकी राह में एक नहीं बल्कि अनेकों रोढ़े खड़े किए जा रहे है, कि जो काम हम नहीं कर पाए, ये कैसे कर पाएगी?. राजनीति के चलते ऐसा किए जाने का खेल खेला जा रहा है. ये सब तो होता ही रहेगा लेकिन वर्तमान सत्ता कुछ अवश्य करिशमा कर दिखाएगी, ऐसी एक आशा की किरण जरुर दिखाई देती है कि अब आमूल-चूल परिवर्तन निश्चित तौर पर होगा और उसके सकारात्मक परिणाम भी दिखलायी देने लगे हैं.