अद्भुत इमारतें और रहस्यमन सुरंगे,
इसमें कोई शक नहीं कि आदमी ने कन्दरा से निकलकर अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए विकास के अनेक मापदंड स्थापित किए हैं.,लेकिन उसके मन में एक भ्रम पैदा हो गया है कि उसने अपने पूर्वजों से कहीं अधिक उन्नति की है. आज वह उनसे लाख गुणा श्रेष्ठ है. और अहंकार यह कि उसने जितनी प्रगति की है, उतनी कभी भी किसी भी काल में, किसी भी समाज ने नहीं की है.
समाज में रहने वाले व्यक्तियों के बौद्धिक स्तर में अंतर हो सकता है, परन्तु औसत दृष्टि से कोई समाज कभी आज की तुलना में पिछड़ा या अविकसित नहीं रहा होगा. अधुनातन शोधों और पुरातत्व के मिले प्रमाणॊं के आधार पर इतिहासकारों को भी मानना पड़ रहा है कि उस युग का समाज आज की तुलना में बहुत अधिक विकसित रहा हो. यह बात और है कि उस युग की दिशाओं तथा प्रवृत्तियों की भिन्नता रही हो.
दिशाओं और प्रवृत्तियों की भिन्नता का अन्तर तो यों भी समझा जा सकता है. एक से एक विस्मयकारी और मनुष्य के श्रम को बचाने वाले यन्त्र इन दिनों बन रहे हैं किसी युग में मनुष्य ने आत्मिक दिशा पकड़ी हो और सुख-शांति, आनन्द, आल्हाद, प्रसन्नता की दृष्टि से वह आज की तुलना में कहीं अधिक विकसित रहा हो. किसी युग में मनुष्य अपने शरीर को बलिष्ठ पुष्ट बनाने में ही प्रवृत्त रहा हो. इस प्रकार दिशाएँ और प्रवृत्तियाँ भिन्न हो सकती है किन्तु इस भिन्नता को पिछड़ापन नहीं कहा जाना चाहिए. यदि यान्त्रिक प्रगति के आधार पर हम पिछली पीढ़ियों को पिछड़ी, अविकसित मानते हैं तो कई दृष्टियों से वर्तमान सभ्यता पुरातन युग से बहुत पिछड़ी है. उदाहरण के लिए-सेक्साह्यूमन में स्थित इनके किले की तुलना की कोई भी इमारत आज के संसार में नहीं है. इस किले की दीवारें 18 फ़ीट ऊँची हैं और छत की दीवारें 55 फ़ीट ऊँची तथा 1500 फ़ीट लम्बी है. इस छत को स्थिर रखने के लिए नीचे कोई खम्बे नहीं लगाए गए हैं, जबकि उसमें एक-एक पत्थर सौ टन वजन का है.
इस किले से करीब आधा मील दूर 11480 फ़ीट की ऊँचाई पर विशालकाय पत्थरों का एक ब्लाक बना हुआ है. यह ब्लाक इतनी ऊँचाई पर स्थित है कि चेढ़ते-चढ़ते साँस फ़ूलने लगती है परन्तु ब्लाक में 7 से 11 फ़ीट की लम्बाई-चौड़ाई वाले समकोण पत्थर प्रयुक्त किए गए हैं. बताया जाता है कि यह इमारत 33 फ़ीट ऊँची और 54 फ़ीट चौडी चट्टान को काटकर बनाई गई है. 39 फ़ीट ऊँची यह इमारत इतनी भव्य और सुन्दर है कि लगता है अभी ही इसका निर्माण हुआ है. संसार भर के वास्तुविद करीब दो हजार वर्ष पूर्व बने इनके किले और उसके पास स्थित इस इमारत को देखकर दंग रह जाते हैं.
आस्ट्रेलिया के दक्षिण-पूर्व में कोई 1500 हजार द्वीप हैं. इन द्वीपो के मध्य में सबसे बडा द्वीप है “पोनापे”, जिसका क्षेत्रफ़ल 183 वर्गमील है. पोनापे की स्थिति इस प्रकार है कि वहाँ कोई भी वजनी चीज ले जाना आसान नहीं है और न ही वहाँ कोई इमारती सामान पैदा किया जाना सम्भव ही है, परन्तु पोनापे में एक विशाल खण्डहर मिला है जो काफ़ी बडॆ क्षेत्र में फ़ैला हुआ है. आश्चर्य किया जाता है कि इतने बडॆ भवन को उस युग में जब मानव सभ्यता का शैशवकाल ही बताया जाता है, किसने और कैसे इन भवनों का निर्माण कराया होगा. जो खण्डहर मिले हैं उनकी दीवारें भी 125 फ़ुट ऊँची है और उसमें लगे कई पत्थर दस टन वजन के हैं. 2580 फ़ीट इस इमारत में 12 से 17 फ़ुट तक के कई ब्लाक है. उस जमाने मे जबकि न तो यातायात के इतने प्रचुर साधन थे और न ही इस विरान उजाड़ टापू में लोग बसते थे. किसने और किसलिए इन भवनों का निर्माण कराया होगा ?. इमारत जितने बड़े क्षेत्र में फ़ैली हुई है उसे आज के समय मे बनवाया जाए तो इतनी बड़ी, इतनी मजबूत और सुन्दर इमारत करीब 300 वर्षों में ही बन सकती है. एरिकवान डॆनिकेन ने अपनी पुस्तक “ दि गोल्ड आफ़ दि गाड्स” में कुछ ऎसी सुरंगों का उल्लेख किया है जो साउथ अमेरिका में स्थित है और हजारों मील लंबी है. ये सुरंगे कहाँ से कहाँ तक गई है, इसका कोई पता नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि ये देखने में जितनी सुन्दर है अन्दर जाने पर उतनी ही भयावह भी लगती है.
फ़िर भी पेरु और इप्रयोग में सैकड़ों मील लम्बी सुरंगों के भीतर खोजी दल जा चुके हैं. इसके बाद भी उसका अन्त नहीं आया और न ही यह पता चल सका कि उनके बनाने का ध्येय क्या था?. कुछ सौ मील, तक जहाँ कि खोजी दल ने यात्रा की, बीच-बीच में कई बाहरी द्वार भी देखे इतना ही नहीं सुरंगों के नीचे 250 और 500 फ़ुट नीचे भी दोहरी तिहरी अन्तरंग सुरंगे भी देखी गईं.
. सुरंगों की दीवारों पर विभिन्न रंगों में बानी अलग-अलग चित्र बनाये गए थे. पत्थरों पर खोदे गए अथवा धातुओं की प्लेटॊं से विनिर्मित इन चित्रों का निर्माण किन्हीं उद्देश्यपूर्ण प्रयोजनों के लिए किया गया लगता है. धातु प्लेटॊं पर इतने संकेत लिखे हुए हैं कि सुरंग की जितनी यात्रा की जा सकी, उस भाग के संकेतों को ही संकलित किया जाए तो एक विशाल लाइब्रेरी बन सकती है. एक खोजी दल, जिसमें एरिचवान डेनीकेन भी सम्मिलित थे, उन सुरंगों में गए तो दल के सभी सदस्यों ने बडॆ विचित्र अनुभव किए. डेनीकेन ने लिखा है कि- “ हम लोग अपने हेलमेट पर जो बैट्री लगाकर गए थे वह सुरंग में घुसते ही बुझ जाती थी. एकाध व्यक्ति की बैट्री खराब भी हो सकती है पर सभी यात्रियों की बैट्रियाँ खराब हो गई हो ऎसा नहीं कहा जा सकता. वस्तुतः ऎसा सुरंग के भीतर होने वाले रेडिएशन प्रक्रिया के कारण होता था”.
“सुरंगों के जिस भाग की हमने यात्रा की उसकी दीवारें बेहद चिकनी थीं- मानो संगमरमर की बनी हों. कही–कहीं दीवारों पर पालिश जैसी चमक सी थी. छतों पर प्लेट्स लगी हुई थीं जिन्हें उकेरने में सदियाँ लगी हों. ऎसा आभास होता था. इन सुरंगों में एक बात बहुत ही विचित्र देखने में आयी, वहाँ न विद्दुत यंत्र काम कर रहे थे और न ही कोई चुम्बाकीय यन्त्र. यहाँ तक कि दिशाओं का ज्ञान कराने वाला कुतुबनुमा भी बन्द हो गया था. दीवारों पर खुदे हुए चित्रों का हम फ़ोटॊग्राफ़ भी नहीं ले सके क्योंकि व्वहाँ हमारे कैमरे भी काम नहीं कर रहे थे”.
“सुरंग के बगल में कहीं-कहीं कमरेनुमा गैलरियाँ भी थीं. कहीं-कहीं बहुत बड़े कमरे थे जिन्हें हाल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. ऎसे एक हाल को हमने नापा तो उसकी लम्बाई 183 गज और चौड़ाई 164 गज थी. इन कमरों का क्या उपयोग होता होगा अनुमान लगाना कठिन है. इतने बडॆ हाल में 12-13 हजार व्यक्ति आसानी से बैठ सकते हैं”.
“ऎसे ही एक छॊटॆ हाल में हमने एक नरकंकाल पड़ा देखा. उस कमरे में प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी फ़िर भी कमरे में अन्धकार नहीं था. लगता था प्रकाश दीवारों से आ रहा था. नरकंकाल इस ढंग से रखा हुआ था जैसे किसी मेडिकल कालेज की प्रयोगशाला में छात्रों को पढ़ने के लिए रखा जाता हो. इन गैलेरियों के निर्माण का भी कोई उद्देश्य या रहस्य मानवी समझ से परे था”.
103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480-001 गोवर्धन यादव. 094243-56400