विज्ञान और धर्म
संसार में घटित होने वाली घटनाओं को तथा प्रकृति के रहस्यों को मानव सम्पूर्ण रुप से नहीं जान पाते हैं. वे अपने रोजमर्रा के अनुभव के आधार पर कुछ सीखता है कि अनेक ऎसी घटनाएं हैं, जिस पर उसका अपना वश नहीं है. स्वभावतः उसमें ऎसी धारणा पनपी कि कोई एक शक्ति ऎसी भी है जो दिखाई नहीं देती, परन्तु वह किसी भी मनुष्य से कहीं अधिक बलशाली-शक्तिशाली है. यह वह अल्पिकिक शक्ति है जिसे भय दिखाकर अथवा डरा-धमका कर अथवा किसी अन्य तरीके से वश में नहीं किया जा सकता. इस शक्ति को वश में लाने का एकमात्र उपाय है कि उसके सन्मुख सर झुकाकर पूजा-अर्चना या आराधना की जाए. इस अलौकिक शक्ति से संबंधित विश्वासों और क्रियाओं को धर्म कहते हैं.
धर्म की परिभाषा “ धर्म किसी न किसी प्रकार की अतिमानवीय( superhuman) या अलौकिक( supernatural) या समयोपरि( supersocial) शक्ति पर विश्वास है, जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति, और पवित्रता की धारणा है और जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा या आराधना है.” उपरोक्त परिभाषा प्राचीन और आधुनिक दोनों ही प्रकार के समाजों में पाए जाने वाले धर्मों की एक सामान्य व्याख्या है. प्रत्येक धर्म का आधार किसी सुपर-पावर पर विश्वास है और यह शक्ति मानव-शक्ति से अवश्य ही श्रेष्ठ है. एक बात ध्यान रखने योग्य भी है कि केवल विश्वास से ही धर्म सम्पूर्ण नहीं है. इस विश्वास का एक भावनात्मक आधार भी होता है. उस शक्ति के प्रति श्रद्धा-भक्ति या प्रेम-भाव भी धर्म का एक आवश्यक अंग होता है. अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह की धार्मिक सामग्रियां, पूजा-आराधना ,धार्मिक प्रतीक तथा विधियाँ है. मानव शास्त्र के प्रवर्तक ऎडवर्ड टायलर ने धर्म की सबसे विस्तृत तथा कम से कम शब्दों में व्याख्यायित की है. “ धर्म आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास है.” सर जेम्स फ़्रेजर के अनुसार-“ धर्म से मैं मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधन समझता हूँ, जिनके संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव-जीवन को मार्ग दिखलाती है और नियंत्रित करती है.” मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अधिक बल देते हुए” व्हानिगशीम” के अनुसार “प्रत्येक मनोवृत्ति, जो कि इस विश्वस पर या इस विश्वास से संबंधित है कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है और उनसे संबंध स्थापित संभव व महत्वपूर्ण है, धर्म कहलाती है.” “ श्री मैलिनोवस्की” धर्म के समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं को एक-सा महत्वपूर्ण मानते हैं. उनके अनुसार” धर्म” क्रिया का एक तरीका है और साथ ही एक व्यवस्था भी”. सम्प्रदाय़- किसी एक समूह द्वारा किसी विशिष्ठ शक्ति को अपना इष्ट-आराध्य मानकर पूजे जाने की परम्परा विकसित हुई-- सम्प्रदाय कहलाए गए-जैसे राधावल्लभ संप्रदाय आदि संस्कृति---किसी देश या राष्ट्र का प्राण संस्कृति होती है. अंग्रेजी शब्द “ कल्चर” का अनुवाद संस्कृति किया जाता है. परन्तु संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा का है. अतः संस्कृत व्याकरण के अनुसार ही इसका अर्थ भी होना चाहिए. सम-उपसर्गपूर्वक”कृ” धातु से भूषण अर्थ में “सुट” आगमपूर्वक “त्किन” प्रत्यय होने से “संस्कृति” शब्द सिद्ध होता है. इस तरह लौकिक, पारलौकिक, मन, बुद्धि तथा अहंकादि की भूषणभूत सम्यक चेष्टाएं एवं हलचलें ही “संस्कृति” है. (२) “संस्कृति” जीवन जीने की एक पद्दति का नाम है. संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग चीजें है. सभ्यता वेशभूषा, रहन, सहन, खान-पान आदि पक्षों तक ही सीमित है. (३) “सम” की आवृत्ति करके “सम्यक संस्कार” को ही “संस्कृति” कहा जाता है. (४)”सम्यक” कृति ही संस्कृति है. (५) वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्मग्रन्थॊं के अनुकूल लौकिक-पारलौकिक, अभ्युदय एवं निःश्रेयोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही संस्कृति, वैदिक संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है. (६) कुछ विद्वानों के मतानुसार- किसी राष्ट्र के किसी असाधारण बडप्पन के गर्व को ही संस्कृति कहना चाहिए. परम्परा:- जीवन जीने की शैली का नाम “परम्परा” है. समाज में किस तरह शांति बनी रह सके, छोटॆ-बडॆ, बुजुर्गों का आपस में कैसा व्यवहार हो. अलग-अलग धर्मों और सम्प्रदाय के लोगों के बीच में किस तरह सौहार्द प्रेम बना रहे, इन सबकी शिक्षा या तो वेदों-पुराणॊं, धार्मिक ग्रंथॊं के द्वारा पढने-सीखने को मिलती है, जिसका पालन करते रहने से अमन व चैन कायम बना रहता है. एक बच्चा अपने अभिभावक को अपने पिता के चरण स्पर्ष करते हुए देखता है. उसको ऐसा करता देख बालक भी उसका अनुसरण करता है. कहने का तात्पर्य यह है कि जैसा हम किसी को करते-देखते हैं, उसका अक्षरतः अनुसरण करने लगते हैं. फ़िर यह पीढी-दर पीढी क्रम चलता रहता है, यही है हमारी “परम्पराएं”. परम्पराओं के खण्डित होने पर पूरे समाज में, पूरे देश में अव्यवस्था फ़ैलती है. इसी को ध्यान में समाजशास्त्रियों ने कुछ नियम प्रतिपादित किए और इस् तरह सामाजिक ढांचा बना रहा. किसी हद तक संस्कृति का दोस्त बना रहा जा सकता है, बशर्ते कि वह उसकी खिलाफ़त या सीमा का उल्लंघन नहीं हो. यह बात ध्यान में रखा जाना आवश्यक होगा कि भारतीय संस्कृति अनादिकाल से प्रकृति की आराधक रही है, जिसके मूलघटक है-प्रकृति-पुरुष और पशु-पक्षी क्योंकि ये तीनों ही सृष्टि के मूर्तरुप हैं. हमारा परम्परागत विश्वास है कि जब तक इन तीनों में परस्पर सौहार्द सन्तुलन एवं भावनात्मक सह-संबंध है, तभी तक यह सृष्टि है और उसका निरन्तर विकास संभव है. मनुष्य एवं प्रकृति और वन्य-जीवों के सांमजस्य के फ़लस्वरुप भारतीय संस्कृति की समस्त सृष्टि में अलग ही छवि दृष्टिगोचर होती है. जब प्रकृति के इन तीनॊं तत्वों में परस्पर संतुलन का अभाव होता है तो प्रलय, मृत्यु, अकाल और विनाश लीला का ताण्डव नृत्य होना स्वाभाविक है. आज के भौतिकवादी इन्सान में तत्काल लाभ की प्राप्ति की इच्छा शक्ति एवं आने वाली पीढी की खुशहाली की परवाह किए बगैर पशुजगत और उनके प्राकृतिक सन्तुलन से केवल छेडछाड ही नहीं की है, बल्कि उसकी प्रजातियों तक को समाप्त कर डाला है. उदाहरणार्थ- हमने नदियों को माँ का दर्जा दिया. उसकी पूजा-अर्चना की. लोकगीतों में उसकी महिमा का बखान किया. आज क्या स्थिति है? सारी की सारी नदियाँ प्रदुषित हैं. इसके कारणॊं पर जाएं तो ज्ञात होता है कि इन पर बनने वाले बांधों ने इनके बहाव को रोक दिया. उसमें रहने वाले जीवों का तेजी से सफ़ाया कर डाला. इसके आसपास के जंगलॊं को साफ़ कर डाला और बेरहमी से जंगलों मे रह रहे वन्य जीवों को मार डाला. इन सब बातों के मूल में कहीं न कहीं लालच छिपी हुई है हमनें प्लास्टिक का मिजाद किया कि सामान ले जाने –लाने मे उपयोगी सिद्ध होगा. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज धरती की पूरी सतह प्लास्टिकमय हो गई है. कारण सभी जानते हैं-परिणाम सभी को मालुम है. क्या हमने इसकी रोक पर कोई कारगर कार्रवाई की? विकास के नाम पर बडॆ-बडॆ कल-कारखाने खडॆ किए. उनकी चिमनियों से निकलने वाली जहरीले गैस-धुआँ, क्या प्रदुषण नहीं फ़ैला रहा है? यह बात सच है कि वैज्ञानिक खोज से मानव जाति का विकास होता है,लेकिन जब हम अति कर देते हैं तो वही खोज हमारी जनलेवा बन जाती है.
हमारे ऋषि-मुनि जंगल में रहा करते थे. वे कंद-मूल खाते थे. खेती करके अन्न भी उपजाते थे, तथा यज्ञादि कर्म में लीन रहते थे. उन्होंने शब्द-परम्परा को मंत्रों में ढाला और वे वक्त पडने पर उन अमोघ मंत्रों द्वारा कभी आग तो कभी पानी तक बरसाते थे. ऎसे प्रयोग यदा-कदा ही होते थे,क्योंकि कब क्या और कहाँ किया जाना है, वे अच्छी तरह जानते थे. उसका ज्ञान –विज्ञान इतना उन्नत किस्म का था. वे मंत्रों के बल पर सुदूर ग्रहों तक आ-जा सकते थे. पृथ्वी के निकट कौन-कौन से ग्रह विद्यमान हैं, उन्हें पता था. उन्हें यह भी पता था कि किस ग्रह का स्वामी कौन है. उसका मानव जीवन पर क्या प्रभाव पडता है उन आपदाओं को दूर कैसे किया जाता है, इन सबका उल्लेख हमारे वेद-शास्त्रों मे भरा पडा है और आज हम उनको प्रयोग में लाते भी हैं. वे गाय-भैंस भी पालते थे. उनके दूध से नाना-प्रकार के पकवान बनाना भी जानते थे. गाय के मुत्र तथा गोबर की खाद का प्रयोग भी वे जानते थे. वे यह भी जानते थे कि गाय मानव-समाज के लिए कितनी उपयोगी है. इसीलिए गायों को माँ का दर्जा उस समय से प्राप्त है. वे घोर जंगल में रहते थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी हिंसक पशु को बेरहमी से मारा हो, ऎसा पढने में नहीं आता. वे पॆड-पौधों को, उनके औषधीय उपभोग के बारे में बारिक से बारिक जानकारियां उपलब्ध थी. वे ज्योतिष विज्ञान में निस्नात थे. नाना प्रकार के रोगों का शमन, वे पेड-पौधों की जड, छाल अथवा अर्क से निदान कर दिया करते थे. याद दिलाने की बात नहीं है. राम-रावण के बीच हुए युद्ध में लक्ष्मण बेहोशी (कोमा) में चले जाते हैं. वैद्य सुशेन” संजीवनी-बूटी” की तासीर जानते थे. उन्होंने वह बूटी हिमालय से हनुमान से बुलाकर उनकी वेहोशी दूर की थी. एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक वे आना-जाना सहज में ही कर लेते थे.
क्या हम कह सकते हैं कि विज्ञान और संस्कृति दो विपरीत ध्रुव हैं.? नहीं, विज्ञान और संस्कृति आपस में इतने मिले हुए थे कि उन्हें कभी अलग करके देखा नहीं गया. गाय क्यों पूज्यनीय मानी गई? क्या यह वैज्ञानिक खोज नहीं है ? वे क्यों गाय के मुत्र और गोबर का उपयोग अन्न उगाने मे करते थे? क्या वह वैज्ञानिक खोज नहीं है विवाह आदि में किस कन्या से पाणिग्रहण होता है, किससे नहीं होना है, क्या यह वैज्ञानिक खोज नहीं है? ऎसे अनेक तत्व व कारक रहे हैं जो विज्ञान और संस्कृति को आपस में जोडते ही नहीं है बल्कि यूं कहें उसे पवित्रिकरण की सीमा तक भी ले जाते हैं. दो लकडियों के परस्पर संघर्ष से आग पैदा की जाती है. यह एक उदाहरण हुआ. दूसरा यह कि जीवन यापन करने के लिए अन्न चहिए. वह कहाँ से आएगा? जमीन से अन्न उपजाना, यह भी एक वैज्ञानिक खोज ही है. यहाँ अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि अन्न उपजाना तथा अन्न को भोजन करने लायक बनाने के लिए आग का उपयोग करना, यह विज्ञान की सबसे बडी खोज रही है. शायद इन दो शक्तियों का अनुसंधान न किया गया होता तो हम आज जो विज्ञान का भव्यतम रुप देख रहे हैं, वह शायद ही संभव हो पाता.
६ विज्ञान और धर्म
संसार में घटित होने वाली घटनाओं को तथा प्रकृति के रहस्यों को मानव सम्पूर्ण रुप से नहीं जान पाते हैं. वे अपने रोजमर्रा के अनुभव के आधार पर कुछ सीखता है कि अनेक ऎसी घटनाएं हैं, जिस पर उसका अपना वश नहीं है. स्वभावतः उसमें ऎसी धारणा पनपी कि कोई एक शक्ति ऎसी भी है जो दिखाई नहीं देती, परन्तु वह किसी भी मनुष्य से कहीं अधिक बलशाली-शक्तिशाली है. यह वह अल्पिकिक शक्ति है जिसे भय दिखाकर अथवा डरा-धमका कर अथवा किसी अन्य तरीके से वश में नहीं किया जा सकता. इस शक्ति को वश में लाने का एकमात्र उपाय है कि उसके सन्मुख सर झुकाकर पूजा-अर्चना या आराधना की जाए. इस अलौकिक शक्ति से संबंधित विश्वासों और क्रियाओं को धर्म कहते हैं.
धर्म की परिभाषा “ धर्म किसी न किसी प्रकार की अतिमानवीय( superhuman) या अलौकिक( supernatural) या समयोपरि( supersocial) शक्ति पर विश्वास है, जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति, और पवित्रता की धारणा है और जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा या आराधना है.” उपरोक्त परिभाषा प्राचीन और आधुनिक दोनों ही प्रकार के समाजों में पाए जाने वाले धर्मों की एक सामान्य व्याख्या है. प्रत्येक धर्म का आधार किसी सुपर-पावर पर विश्वास है और यह शक्ति मानव-शक्ति से अवश्य ही श्रेष्ठ है. एक बात ध्यान रखने योग्य भी है कि केवल विश्वास से ही धर्म सम्पूर्ण नहीं है. इस विश्वास का एक भावनात्मक आधार भी होता है. उस शक्ति के प्रति श्रद्धा-भक्ति या प्रेम-भाव भी धर्म का एक आवश्यक अंग होता है. अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह की धार्मिक सामग्रियां, पूजा-आराधना ,धार्मिक प्रतीक तथा विधियाँ है. मानव शास्त्र के प्रवर्तक ऎडवर्ड टायलर ने धर्म की सबसे विस्तृत तथा कम से कम शब्दों में व्याख्यायित की है. “ धर्म आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास है.” सर जेम्स फ़्रेजर के अनुसार-“ धर्म से मैं मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधन समझता हूँ, जिनके संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव-जीवन को मार्ग दिखलाती है और नियंत्रित करती है.” मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अधिक बल देते हुए” व्हानिगशीम” के अनुसार “प्रत्येक मनोवृत्ति, जो कि इस विश्वस पर या इस विश्वास से संबंधित है कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है और उनसे संबंध स्थापित संभव व महत्वपूर्ण है, धर्म कहलाती है.” “ श्री मैलिनोवस्की” धर्म के समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं को एक-सा महत्वपूर्ण मानते हैं. उनके अनुसार” धर्म” क्रिया का एक तरीका है और साथ ही एक व्यवस्था भी”. सम्प्रदाय़- किसी एक समूह द्वारा किसी विशिष्ठ शक्ति को अपना इष्ट-आराध्य मानकर पूजे जाने की परम्परा विकसित हुई-- सम्प्रदाय कहलाए गए-जैसे राधावल्लभ संप्रदाय आदि संस्कृति---किसी देश या राष्ट्र का प्राण संस्कृति होती है. अंग्रेजी शब्द “ कल्चर” का अनुवाद संस्कृति किया जाता है. परन्तु संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा का है. अतः संस्कृत व्याकरण के अनुसार ही इसका अर्थ भी होना चाहिए. सम-उपसर्गपूर्वक”कृ” धातु से भूषण अर्थ में “सुट” आगमपूर्वक “त्किन” प्रत्यय होने से “संस्कृति” शब्द सिद्ध होता है. इस तरह लौकिक, पारलौकिक, मन, बुद्धि तथा अहंकादि की भूषणभूत सम्यक चेष्टाएं एवं हलचलें ही “संस्कृति” है. (२) “संस्कृति” जीवन जीने की एक पद्दति का नाम है. संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग चीजें है. सभ्यता वेशभूषा, रहन, सहन, खान-पान आदि पक्षों तक ही सीमित है. (३) “सम” की आवृत्ति करके “सम्यक संस्कार” को ही “संस्कृति” कहा जाता है. (४)”सम्यक” कृति ही संस्कृति है. (५) वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्मग्रन्थॊं के अनुकूल लौकिक-पारलौकिक, अभ्युदय एवं निःश्रेयोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही संस्कृति, वैदिक संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है. (६) कुछ विद्वानों के मतानुसार- किसी राष्ट्र के किसी असाधारण बडप्पन के गर्व को ही संस्कृति कहना चाहिए. परम्परा:- जीवन जीने की शैली का नाम “परम्परा” है. समाज में किस तरह शांति बनी रह सके, छोटॆ-बडॆ, बुजुर्गों का आपस में कैसा व्यवहार हो. अलग-अलग धर्मों और सम्प्रदाय के लोगों के बीच में किस तरह सौहार्द प्रेम बना रहे, इन सबकी शिक्षा या तो वेदों-पुराणॊं, धार्मिक ग्रंथॊं के द्वारा पढने-सीखने को मिलती है, जिसका पालन करते रहने से अमन व चैन कायम बना रहता है. एक बच्चा अपने अभिभावक को अपने पिता के चरण स्पर्ष करते हुए देखता है. उसको ऐसा करता देख बालक भी उसका अनुसरण करता है. कहने का तात्पर्य यह है कि जैसा हम किसी को करते-देखते हैं, उसका अक्षरतः अनुसरण करने लगते हैं. फ़िर यह पीढी-दर पीढी क्रम चलता रहता है, यही है हमारी “परम्पराएं”. परम्पराओं के खण्डित होने पर पूरे समाज में, पूरे देश में अव्यवस्था फ़ैलती है. इसी को ध्यान में समाजशास्त्रियों ने कुछ नियम प्रतिपादित किए और इस् तरह सामाजिक ढांचा बना रहा. किसी हद तक संस्कृति का दोस्त बना रहा जा सकता है, बशर्ते कि वह उसकी खिलाफ़त या सीमा का उल्लंघन नहीं हो. यह बात ध्यान में रखा जाना आवश्यक होगा कि भारतीय संस्कृति अनादिकाल से प्रकृति की आराधक रही है, जिसके मूलघटक है-प्रकृति-पुरुष और पशु-पक्षी क्योंकि ये तीनों ही सृष्टि के मूर्तरुप हैं. हमारा परम्परागत विश्वास है कि जब तक इन तीनों में परस्पर सौहार्द सन्तुलन एवं भावनात्मक सह-संबंध है, तभी तक यह सृष्टि है और उसका निरन्तर विकास संभव है. मनुष्य एवं प्रकृति और वन्य-जीवों के सांमजस्य के फ़लस्वरुप भारतीय संस्कृति की समस्त सृष्टि में अलग ही छवि दृष्टिगोचर होती है. जब प्रकृति के इन तीनॊं तत्वों में परस्पर संतुलन का अभाव होता है तो प्रलय, मृत्यु, अकाल और विनाश लीला का ताण्डव नृत्य होना स्वाभाविक है. आज के भौतिकवादी इन्सान में तत्काल लाभ की प्राप्ति की इच्छा शक्ति एवं आने वाली पीढी की खुशहाली की परवाह किए बगैर पशुजगत और उनके प्राकृतिक सन्तुलन से केवल छेडछाड ही नहीं की है, बल्कि उसकी प्रजातियों तक को समाप्त कर डाला है. उदाहरणार्थ- हमने नदियों को माँ का दर्जा दिया. उसकी पूजा-अर्चना की. लोकगीतों में उसकी महिमा का बखान किया. आज क्या स्थिति है? सारी की सारी नदियाँ प्रदुषित हैं. इसके कारणॊं पर जाएं तो ज्ञात होता है कि इन पर बनने वाले बांधों ने इनके बहाव को रोक दिया. उसमें रहने वाले जीवों का तेजी से सफ़ाया कर डाला. इसके आसपास के जंगलॊं को साफ़ कर डाला और बेरहमी से जंगलों मे रह रहे वन्य जीवों को मार डाला. इन सब बातों के मूल में कहीं न कहीं लालच छिपी हुई है हमनें प्लास्टिक का मिजाद किया कि सामान ले जाने –लाने मे उपयोगी सिद्ध होगा. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज धरती की पूरी सतह प्लास्टिकमय हो गई है. कारण सभी जानते हैं-परिणाम सभी को मालुम है. क्या हमने इसकी रोक पर कोई कारगर कार्रवाई की? विकास के नाम पर बडॆ-बडॆ कल-कारखाने खडॆ किए. उनकी चिमनियों से निकलने वाली जहरीले गैस-धुआँ, क्या प्रदुषण नहीं फ़ैला रहा है? यह बात सच है कि वैज्ञानिक खोज से मानव जाति का विकास होता है,लेकिन जब हम अति कर देते हैं तो वही खोज हमारी जनलेवा बन जाती है.
हमारे ऋषि-मुनि जंगल में रहा करते थे. वे कंद-मूल खाते थे. खेती करके अन्न भी उपजाते थे, तथा यज्ञादि कर्म में लीन रहते थे. उन्होंने शब्द-परम्परा को मंत्रों में ढाला और वे वक्त पडने पर उन अमोघ मंत्रों द्वारा कभी आग तो कभी पानी तक बरसाते थे. ऎसे प्रयोग यदा-कदा ही होते थे,क्योंकि कब क्या और कहाँ किया जाना है, वे अच्छी तरह जानते थे. उसका ज्ञान –विज्ञान इतना उन्नत किस्म का था. वे मंत्रों के बल पर सुदूर ग्रहों तक आ-जा सकते थे. पृथ्वी के निकट कौन-कौन से ग्रह विद्यमान हैं, उन्हें पता था. उन्हें यह भी पता था कि किस ग्रह का स्वामी कौन है. उसका मानव जीवन पर क्या प्रभाव पडता है उन आपदाओं को दूर कैसे किया जाता है, इन सबका उल्लेख हमारे वेद-शास्त्रों मे भरा पडा है और आज हम उनको प्रयोग में लाते भी हैं. वे गाय-भैंस भी पालते थे. उनके दूध से नाना-प्रकार के पकवान बनाना भी जानते थे. गाय के मुत्र तथा गोबर की खाद का प्रयोग भी वे जानते थे. वे यह भी जानते थे कि गाय मानव-समाज के लिए कितनी उपयोगी है. इसीलिए गायों को माँ का दर्जा उस समय से प्राप्त है. वे घोर जंगल में रहते थे, लेकिन उन्होंने कभी किसी हिंसक पशु को बेरहमी से मारा हो, ऎसा पढने में नहीं आता. वे पॆड-पौधों को, उनके औषधीय उपभोग के बारे में बारिक से बारिक जानकारियां उपलब्ध थी. वे ज्योतिष विज्ञान में निस्नात थे. नाना प्रकार के रोगों का शमन, वे पेड-पौधों की जड, छाल अथवा अर्क से निदान कर दिया करते थे. याद दिलाने की बात नहीं है. राम-रावण के बीच हुए युद्ध में लक्ष्मण बेहोशी (कोमा) में चले जाते हैं. वैद्य सुशेन” संजीवनी-बूटी” की तासीर जानते थे. उन्होंने वह बूटी हिमालय से हनुमान से बुलाकर उनकी वेहोशी दूर की थी. एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक वे आना-जाना सहज में ही कर लेते थे.
क्या हम कह सकते हैं कि विज्ञान और संस्कृति दो विपरीत ध्रुव हैं.? नहीं, विज्ञान और संस्कृति आपस में इतने मिले हुए थे कि उन्हें कभी अलग करके देखा नहीं गया. गाय क्यों पूज्यनीय मानी गई? क्या यह वैज्ञानिक खोज नहीं है ? वे क्यों गाय के मुत्र और गोबर का उपयोग अन्न उगाने मे करते थे? क्या वह वैज्ञानिक खोज नहीं है विवाह आदि में किस कन्या से पाणिग्रहण होता है, किससे नहीं होना है, क्या यह वैज्ञानिक खोज नहीं है? ऎसे अनेक तत्व व कारक रहे हैं जो विज्ञान और संस्कृति को आपस में जोडते ही नहीं है बल्कि यूं कहें उसे पवित्रिकरण की सीमा तक भी ले जाते हैं. दो लकडियों के परस्पर संघर्ष से आग पैदा की जाती है. यह एक उदाहरण हुआ. दूसरा यह कि जीवन यापन करने के लिए अन्न चहिए. वह कहाँ से आएगा? जमीन से अन्न उपजाना, यह भी एक वैज्ञानिक खोज ही है. यहाँ अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि अन्न उपजाना तथा अन्न को भोजन करने लायक बनाने के लिए आग का उपयोग करना, यह विज्ञान की सबसे बडी खोज रही है. शायद इन दो शक्तियों का अनुसंधान न किया गया होता तो हम आज जो विज्ञान का भव्यतम रुप देख रहे हैं, वह शायद ही संभव हो पाता.