मायावी दुनिया.
प्रकृति की लीला कितनी विचित्र और विलक्षण है, इसे मानवी बुद्धि अभी तक समझ ही नहीं पायी है. इस प्रकार की कितनी ही अनबूझ पहेलियाँ उसके गर्भ में छिपी पडी हैं, जिन्हें शायद अब तक पूरी तरह खोजा भी नहीं जा सका है. यदि खोज भी ली जाए, फ़िर भी इनके रहस्यों का पता लगाना सामान्य बुध्दि के लिए कठिन ही नहीं, असंभव भी है, क्योंकि सामान्य बुध्दि सदा विज्ञान का सहारा लेती है और विज्ञान की पहुँच मात्र स्थूल जगत तक ही सीमित है. वह कार्य का स्थूल कारण ही बता सकता है, किन्तु जहाँ कारण सुक्ष्म हो, वहाँ विज्ञान का अवलम्बन निराशाजनक ही सिध्द होगा. इसके लिए प्रज्ञा स्तर की बुद्धि चाहिए. वही समुचित और सही कारण ढूँढ सकती है.
कांगो नदी के पूर्वी तट पर, तट से पांच किमी. दूर, एक सघन वन है. उसमें एक छॊटी-सी गुफ़ा है. गुफ़ा का प्रवेशद्वार इतना छॊटा है कि कोई व्यक्ति उसके अन्दर जाना चाहे, तो खडा-खडा प्रवेश नहीं कर सकता. भीतर जाने के लिए घुटनो के बल पर हाथों का सहारा लेकर चलना पडता है, तभी उसमें प्रवेश पा सकना संभव है. अन्दर कन्दरा चौडी और बडी होती चली जाती है. कन्दरा के मुख से करीब 30 कदम दूर दायीं दीवार पर एक पत्थर की कील जैसी संरचना उभरी हुई है. यदि कोई व्यक्ति उसे छू दे तो दीवार फ़टने जैसी आवाज अन्दर गूँजने लगती है. यह आवाज ठीक पाँच सेकण्ड तक होती है और फ़िर स्वतः बंद हो जाती है. ध्वनि तभी उत्पन्न होती है, जब उसे छॊडने के पश्चात पुनः दबाया जाए. विश्व के अनेक वैज्ञानिक उस रहस्य को जानने और समझने के लिए कई बार गुफ़ा की यात्रा कर चुके हैं, लेकिन इस गुत्थी को सुलझाने में अब तक विफ़ल ही रहे हैं.
पश्चिमी ईरान की जागरण पहाडियों में भूमिगत एक ऎसी विशाल गुफ़ा है, जिसमें प्रवेश करने पर अनेक उँचे-ऊँचे व मोटे पाषाण स्पष्ट देखे जा सकते हैं. इन स्तम्भों को देखने के उपरान्त यह स्वीकार करना काफ़ी मुश्किल हो जाता है कि यह मानवीकृत न होकर प्रकृति की कुशल कारीगरी का नमुना है. इसकी सुघडता किसी भी वास्तुकार को चुनौती देने के लिए पर्याप्त है. इस “धार पराऊ” कन्दरा में सबसे ऊँचे प्रस्तर स्तम्भ का नाम खोजी दल ने “शहंशाह” रखा. इसकी उँचाई 138 फ़ुट है. इस प्रकार के और भी अनेक स्तम्भ हैं, पर उँचाई में सब इससे कम है. सम्भवतः इसी कारण अन्वेषणकर्त्ताओं ने इसका नाम “शहंशाह” रख दिया.
अमेरिका में “क्रेटर लेक” नामक एक विशाल झील है. इसके मध्य में “विजार्ड आइलैण्ड” नामक एक छॊटा सा टापू है,जो सम्भवतः कभी किसी ज्वालामुखी के फ़टने के कारण झील के मध्य उभर आया हो, विशेषज्ञों का ऎसा ही अनुमान है.
उत्तरी आयरलैण्ड के काउन्टी एण्ट्रीम समुद्री तट पर एक आश्चर्य देखा जा सकता है. इसे देखने से प्रथम दृष्टि में ऎसा प्रतीत होता है कि उक्त संरचना किसी प्राचीन सभ्यता द्वारा निर्मित वास्तुकला का सर्वोत्तम प्रतिमान है, पर पुरातत्ववेत्ताओं का कहना है कि यह कोई मानवकृत निर्माण नहीं है, वरन निःसर्ग की कुशल इंजीनियरी का एक अच्छा प्रमाण है. गवेषणा करने वालों ने इसका नाम “जाइण्ट्स काउज वे” अर्थात “दैत्यों का पक्का मार्ग” रखा है. यह 40 हजार बहुकोणीय पाषाण-स्तम्भों की एक विशाल और विस्तृत संरचना है. इसकी सीढीनुमा संरचना के तीन खण्ड हैं- निम्न, मध्य, और ऊपरी. यह मध्य खण्ड ही है, जिसकी सुगढता को देखकर खोजियों कॊ आरम्भ में इसे किसी सुविकसित प्राचीन सभ्यता की कोई संरचना का भग्नावेष होने का भ्रम हुआ था, क्योंकि इस हिस्से के प्रस्तर स्तम्भों में इतने उच्चस्तर की शिल्पकला का प्रदर्शन देखने को मिलता है, जिससे कुछ क्षण के लिए इसके प्रकृतिकृत होने का विश्वाद कर पाना मुश्किल हो जाता है. इस भाग के सारे स्तम्भ पूर्णतः षटकोणीय हैं, अन्तर सिर्फ़ इतना है कि वे सभी एक ही व्यास के पाषाण-खण्ड न होकर उनका विस्तार 15-20 इंच व्यास वाले स्तम्भों से शुरु होकर धीरे-धीरे ऊपर की ओर व्यास बढते-बढते इस खण्ड के शीर्ष पर अधिकतम 20 इंच तक पहुँच गया है. इस प्रकार इस खण्ड को देखने से मालूम होता है, जैसे किसी कुशल कलाकार ने बडी बारीकी से पत्थर के इन शैलखण्डॊं को सुरुचिपूर्ण ढंग से परस्पर सटा-सटा कर फ़िट किया हो.
जब किसी घाटी पर किसी मनुष्य अथवा अन्य प्राणी के पहुँच जाने पर अचानक ही जोरदार धमाका हो उठे, तो इसे क्या कहेंगे? प्रकृति की कौतुकपूर्ण लीला, आश्चर्य या कोई ऎसा उपक्रम, जिसके द्वारा वह मानव अथवा मानवेतर प्राणियों को अपने निकट न पहुँचने देने की चेतावनी देती हो ?. कदाचित ऎसा ही हो, क्योंकि अब तक “रियोडीला पाज” की घाटी में घटने वाली इस अनूठी घटना का रहस्योद्घाटन करने में वैज्ञानिक और प्रकृतिविद सर्वथा असमर्थ रहे हैं. वस्तुतः यह घाटी बोलिविया के लापाज नदी के तट पर हिमाच्छादित एण्डीज पर्वत के किनारे स्थित है और पूर्णतः मिट्टी की बनी विचित्र भूल-भुलैया जैसी संरचना है. जब कभी कोई जीवधारी भूलवश इसके निकट आ पहुँचता है तो तोप जैसी धडाके के साथ भयंकर गर्जना होती है और इसी के साथ धूल का एक गुब्बार वायुमण्डल में छा जाता है, जिससे थोडॆ समय तक वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पडता. आये-दिन लोग प्रकृति के इस रहस्यमय करतब को देखने और छॆडने के लिए घाटी के आस-पास आते ही रहते हैं. तोप जैसी इसकी गगनभेदी ध्वनि के कारण स्थानीय क्षेत्र में “ग्रेण्ड कैनन आफ़ दि ग्रेण्ड केनाइन” अर्थात “भव्य घाटी का भव्य धमाका” के नाम से लोकप्रिय हो गयी है.
प्रकृति का एक कौतुकपूर्ण दृष्य देखने को मिलता है साइबेरिया में स्थित “वेली आफ़ गीजर्स” नामक तंग घाटी की यात्रा करते वक्त. सन 1941 तक इस फ़ुब्बारे की घाटी का किसी को पता न था, किन्तु इसके उपरान्त यहाँ लगभग बीस ऎसे गीजरों का पता चला है, जो अपनी रंग-बिरंगी छटा से दर्शकों का मन मोह लेते हैं. इन फ़ुब्बारों की सबसे बडी विशेषता यह है कि ये दस मिनट से छः घण्टॆ तक नियमित अन्तराल से छूटते रहते हैं. इनकी नियमितता इतनी सुनियोजित और अटल है, जिसे देख दाँतों तले उँगली दबानी पडती है. जो गीजर दस मिनट की अवधि में निःसृत होते हैं वह सदा दस-दस मिनट पर छूटते रहते हैं. ऎसी ही नियमितता अन्यों के साथ भी देखी जा सकती है. वहाँ का सबसे बडा फ़ुवारा, जिसे “ फ़सर्ट बोर्न”(first born) का नाम दिया गया है, हर घण्टॆ पर विभिन्न रंग के फ़ुहारों के साथ जमीन से निकलता रहता है. यह जल के चालीस फ़ुट ऊँचे स्तम्भ का निर्माण करता है और इससे छिटकने वाली फ़ुवारों की ऊँचाई पाँच सौ फ़ुट तक चली जाती है. पूरी घाटी में इन गीजरों के छूटने और मिटने का क्रम बडॆ ही लयबद्ध ढंग से होता रहता है.
ईश्वर ने मनुष्य को जानने-समझने की बुद्धि दी है. उसके द्वारा कई अवसरों पर वह ऎसी पहेलियों को सुलझा भी लेता है, जो आरम्भ में जटिल जान पडती है, पर हर बार वह ऎसा कर ही लेगा, इसे दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. अनेक मौकों पर स्थूल क्रिया के मूल में कारण स्थूल न होकर सूक्ष्म होते हैं. इन कारणॊं को सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ही समझा जा सकता है. सूक्ष्म बुद्धि अध्यात्म- अवलम्बन के बिना सम्भव नहीं. अतः यदि मनुष्य को सृष्टि की इन रहस्यमय गुत्थियों का उत्तर पाना है, तो अध्यात्म का आश्रय लेना ही पडॆगा, सिरजनहार की निराली कारीगरी.
प्रकृति की कारीगरी पर विचार किया जाए, तो हम पाते हैं कि वह सृष्टि का एक अद्भुत इंजीनियर है. उसने निर्माणॊं की दुनिया में एक-से-बढकर एक ऎसी कृतियाँ गढी हैं, जिन्हें देखकर अचम्भा होना स्वभाविक है. उन्हें देखकर मन में एक प्रश्न सहज ही आकार लेने लगता है कि इन रचनाओं के पीछॆ निःसर्ग का भला क्या प्रयोजन होगा? क्या वह मात्र कौतुक-कौतुहल पैदा करने के लिए ही इनका सृजन हुआ है अथवा उद्देश्य कुछ और ही है? गंभीर मन्थन के बाद जो निष्कर्ष निकलता है कि सम्भवः उसका ध्येय प्रेरणा देना हो कि वह अपनी गतिविधियाँ प्रकृति की तरह रचनात्मक बनाये, ध्वंसात्मक नहीं
इन्हें सम्भावनाओं को प्रकट करता हुआ भूमध्य सागर में सारडीनिया नामक एक द्वीप है. उसके उत्तर-पूर्व में कैपोडी ओरसो “भालू अन्तरीप” स्थित है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस अन्तरीप का मुख्य आकर्षण वहाँ भालूनुमा एक विशाल संरचना है. जब कोई भी पर्यटक इस “केप अन्तरीप” की चोटी पर पालू गाँव के रास्ते से आता है, तो वह प्रकृति की इस अद्भुत कारीगरी देखकर आश्चर्य में पड जाता है. भालू एक विशाल चट्टान से विनिर्मित है, जिसे पास से देखने पर ऎसा प्रतीत होता है, मानो वह उस टापू और समुद्र के विहंगम दृष्य को देखने में तल्लीन है.
थीसली,ग्रीस में पिण्डस पर्वत की तराई में एक छोटा शहर है-“कलाम्बका”. इसकी पृष्ठमूमि में उत्तर की ओर विशाल चट्टानी स्तम्भों के तीन समूह हैं. ये विशाल स्तम्भ देखने में ऎसे प्रतीत होते हैं, मानो कोई बौद्ध स्तूप हों. इन समूहों में स्तूपों के अतिरिक्त और भी कितनी ही संरचनाओं की वैसर्गिक अनुकृतियाँ बनी हुई हैं.इसमें से दो,यात्रियों का ध्यान विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित करते हैं. ये हैं वहाँ के विशाल स्तूप एवं अगणित कँगूरे वाली गढियाँ. इस सम्पूर्ण प्राकृतिक निर्माण को तनिक हटकर देखने से ऎसा आभास मिलता है, जैसे रजवाडॊं की यह छॊटी-छॊटी गड्गियाँ हैं और उन्हीं के निकट उनके पृथक-पृथक शिक्षाओं और सिद्धान्तों का उद्घोष करते उनके अपने-अपने स्तम्भ. इस स्प्रस्तर रचना को “मिटिओरा” के नाम से पुकारा जाता है. ग्रीक में इसका अर्थ “गगनचुम्बी” होता है.
स्तम्भों में से कई-कई तो 1800 फ़ुट ऊँचे हैं. इन स्तूपों की शोभा को चार चाँद लग गए, जब प्रकृतिगत निर्माणॊं के ऊपर मनवीकृत संरचनाएँ खडी हो गईं. निर्माणॊं में विशेषता यह है ,कि जब तक इन्हें ध्यानपूर्वक नहीं देखा जाए,तब तक यह ~झात नहीं होता कि इनके ऊपर मानवकृत संरचना विनिर्मित है. ऎसे मठ वहाँ के खम्बों में बीस से अधिक है. इनका निर्माण 14 वीं एवं 15वीं सदी में किया गया था और ये 19 वीं शताब्दी तक आबाद रहे. अब ये खाली पडॆ हुए हैं प्रकृति की अद्भुत कारीगरी भूमध्य सागर में सारडीनिया नामक एक द्वीप है. उसके उत्तर-पूर्व में कैपोडी ओरसो अर्थात “भालू अन्तरीप” स्थित है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस अन्तरीप का मुख्य आकर्षण वहाँ की भालूनुमा एक विशाल रंरचना है. जब भी कोई पर्यटक इस “केप अन्तरीप” की चोटी तक पालू गाँव के रास्ते आता है तो वह इस अद्भुत कारीगरी को देखकर आश्चर्य में पड जाता है. भालू एक विशाल चट्टान से विनिर्मित है, जिसे पास से देखने पर ऎसा प्रतीत होता है, मानो वह उस टापू और समुद्र के विहंगम दृष्य को देखने में निमग्न है.
प्रकृति की इंजीनियरी का ऎसा ही एक नमूना दक्षिणी चीन के युन्नान प्रान्त में देखने को मिलता है. उक्त प्रान्त की राजधानी कुनमिंग से लगभग ६० मील दक्षिण-पूर्व में एक ऊँचे पठार पर पत्थरों का एक सघन जंगल है. पत्थरों के इस जंगल को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं. “पत्थरों का जंगल” इस नाम से तनिक आश्चर्य अवश्य होता है, किंन्तु उसे देखने के बाद नाम की सार्थकता सत्य जान पडती है. वस्तुतः वह हरीतिमा रहित अरण्य है. जब कोई पर्यटक दूर से अकस्मात उस ओर दृष्टि दौडाता है, तो ऎसा प्रतीत होता है, जैसे कोई विस्तृत वन सामने फ़ैला हुआ हो.-ऎसा वन जिसमें पेडॊं की टहनियाँ और पत्ते न हों, सिर्फ़ तने शेष रह गए हों. भिन्न-भिन्न आकार और ऊँचाई वाले पाषाण-स्तम्भों से युक्त यह प्रथम दृष्टि में किसी वन का भ्रम पैदा करता है.
थीसली, ग्रीस में पिण्डस पर्वत की तराई में एक छोटा सा शहर है- “कलाम्बका”. इसकी पृष्ठभूमि में उत्तर की ओर विशाल चट्टानी स्तम्भों के तीन समूह हैं. ये विशाल स्तम्भ देखने में ऎसे प्रतीत होते हैं, मानो कोई बौद्ध स्तूप हों. इनमें से दो पहाडियाँ, यात्रियों का ध्यान विशेष रुप से अपनी ओर आकर्षित करती हैं. ये हैं वहाँ के विशाल स्तूप एवं अगणित कँगूरे वाली गडीयाँ. और उन्हीं के निकट उनके पृथक-पृथक शिक्षाओं और सिद्धांतों का उद्घोष करते उनके अपने-अपने स्तम्भ. इस विशाल प्रस्तर रचना को “मिटिओरा” के नाम से पुकारा जाता है. ग्रीक में इसका अर्थ “गगनचुम्बी” होता है. स्तम्भों में से कई-कई तो १८०० फ़ुट ऊँचे हैं.
प्रकृति के वास्तुशिल्प का एक अच्छा उदाहरण “फ़्रसासी गुफ़ाओं” के रुप में देखा जा सकता है. ये कन्दराएँ इटली में एसीनो नदी से लगे पहाड पर स्थित है. इन गुफ़ाओं की सबसे बडी विशेषता उनमें स्थित अनेकानेक कक्ष हैं. हर कक्ष की अपनी-अपनी विशिष्ठताएँ हैं. उन्हीं के आधार पर उनका नामकरण किया गया है. उदाहरण के लिए, उसका एक भाग ऎसा है, जिसमें सिर्फ़ चमगादड रहते हैं. इस आधार पर उस प्रकोष्ठ का नाम “ ग्रोटाडिले नोटोले” अर्थात “चमगादडॊं की गुफ़ा”रखा गया है. उसके एक अन्य कक्ष का नाम “ग्रोटॊ ग्रेण्डॆ डेल वेण्टॊ” अर्थात “ग्रेट केव आफ़ विण्ड” है. कन्दरा के इस भाग में अनेकों प्रकोष्ठ है. इनका आकार-प्रकार इतना बडा है कि उनमें बडॆ-बडॆ मठ समा जायें. विशाल गुफ़ा का यह प्रकोष्ठ “साला डिले कैण्डॆलाइन” कहलाता है. उक्त नाम उस हिस्से में स्थित उन अगणित छोटे-छोटे मोमबत्तीनुमा निर्माणॊं की ओर इंगित करता है जो देखने में ऎसे प्रतीत होते हैं, मानो वही जल-जलकर उस भाग को प्रकाशित कर रहे हों. इस कारण उसका नाम “मोमबत्ती वाला कमरा” रखा गया है.. एक अन्य कक्ष “साला डेल इनफ़िनिटॊ” या “ रुम आफ़ इनफ़ाइनाइट” कहलाता है. इस प्रकोष्ठ में बडॆ एवं विशाल सुसज्जित स्तम्भ हैं, जो गुफ़ा की छत को सँभाले हुए हैं. इन्हें देखने पर ऎसा लगता है, जैसे प्रकृति ने विशाल खम्भों का निर्माण कर विस्तृत छत को दृढता प्रदान की हो, ठीक वैसे ही जैसे मानवी निर्माणॊं में देखा जाता है. इनमें से अकेले ग्रोटा ग्रेण्डे डॆल वेण्टॊ की लम्बाई आठ मील है. उल्लेखनीय है कि फ़्रासासी गुफ़ाओं के प्रत्येक कक्ष एक दूसरे से सम्बद्ध हैं,उसी प्रकार जिस प्रकार विशाल इमारतों में कमरे परस्पर जुडॆ होते हैं.
संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरैडी नदी के तट पर उसके दक्षिण-पूर्व में “ उटाह” नामक स्थान है. यहाँ एक नेशनल पार्क है, जो “मेहराबों वाला पार्क” के नाम से प्रसिद्ध है. इस पार्क की विशेषता है यह है कि यहाँ छॊटॆ-बडॆ कितने ही आकर्षक पत्थरों के मेहराब हैं. इन्हें देखने पर प्रकृति की कलाकारिता पर आश्चर्य होता है, जिसने कुशलतापूर्वक इन्हें गढकर खडा किया. इनमें से कई इतने नाजुक और पतले हैं, कि विश्वास नहीं होता कि लम्बे समय से ये अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. इस पार्क का सबसे लम्बा मेहराब “लैण्डस्केप आर्च” है. विश्व का यह अपने प्रकार का सबसे बडा आर्च है,जिसकी लम्बाई २९१ फ़ुट है.
प्रकृति की कृतियों में कांगो(दक्षिण अफ़्रीका) की कन्दराओं की चर्चा न की जाए, तो उल्लेख अधूरा होगा. माना जाता है कि कन्दरा प्रस्तर युग में आदि मानवों का निवास रही होगी. यह अनुमान उनकी दीवारों पर उत्कीर्ण तस्वीरों के आधार पर विशेषज्ञ लगाते हैं, किन्तु जिन कारणॊं से यह विश्व-प्रसिद्ध बनीं, वे कारण मानवीकृत चित्र नहीं है, वरन प्रकृति की विलक्षण कारीगरी है. विशेष दर्शनीय है वहाँ के “क्रिस्टल पैलेस”, “डेविल्स वर्कशाप” एवं तहखाना. इसमें कहीं पर्दे की आकृति जैसी रचना है, तो कहीं बडॆ-बडॆ बबूले जैसा निर्माण, कहीं बाँसुरी, तो कहीं लम्बी-लम्बी सुइयाँ. एक स्थान पर ड्रमों जैसी ध्वनि भी निरन्तर निकलती रहती है, जैसे यह सभी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रहे हों.
कैलोफ़ोर्निया में नेवादा के निकट एक घाटी है “डॆथ वेली” या मृत्य घाटी. इस घाटी का आकर्षण वहाँ की भूमि में विनिर्मित सुन्दर बिहड हैं. इसे देखने से ऎसा आभास होता है, जैसे किसी कुशल शिल्पी ने अपने सधे हाथॊ से इसे तराशा हो. इसका नाम “मृत्यु घाटी” इसलिए रखा गया है, क्योंकि गर्मियों में वहाँ का तापमान अति उच्च हो जाता है. बावजूद इसके छोटॆ-छॊटॆ जीवधारी वहाँ मजे से रहते हैं.
प्रकृति की ये रचनाएँ अपनी मूक वाणी में मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि वह अपने सृजन और सृजनात्मक गतिविधियों में चाहे तो समाज का नवनिर्माण कर सकते हैं, पर दुःख की बात है कि निःसर्ग के इस महत्वपूर्ण सन्देश की उपेक्षा करते हुए इन दिनों निर्माण में न जुटकर, ध्वंस को गले लगाते हुए ऎसे कार्यों में संलग्न है, जो थके मन को कुछ राहत देने की तुलना में विषाद का हलाहल पिलाने में व्यस्त है. हम संहारक नहीं सर्जक बनें--दुखद समाज को सुखद संसार में बदलने का यही एकमात्र उपाय है.
१०३,कावेरी नगर,छिन्दवाडा(म.प्र.) ४८०००१ गोवर्धन यादव ०९४२४३५६४०० मायावी दुनिया.
प्रकृति की लीला कितनी विचित्र और विलक्षण है, इसे मानवी बुद्धि अभी तक समझ ही नहीं पायी है. इस प्रकार की कितनी ही अनबूझ पहेलियाँ उसके गर्भ में छिपी पडी हैं, जिन्हें शायद अब तक पूरी तरह खोजा भी नहीं जा सका है. यदि खोज भी ली जाए, फ़िर भी इनके रहस्यों का पता लगाना सामान्य बुध्दि के लिए कठिन ही नहीं, असंभव भी है, क्योंकि सामान्य बुध्दि सदा विज्ञान का सहारा लेती है और विज्ञान की पहुँच मात्र स्थूल जगत तक ही सीमित है. वह कार्य का स्थूल कारण ही बता सकता है, किन्तु जहाँ कारण सुक्ष्म हो, वहाँ विज्ञान का अवलम्बन निराशाजनक ही सिध्द होगा. इसके लिए प्रज्ञा स्तर की बुद्धि चाहिए. वही समुचित और सही कारण ढूँढ सकती है.
कांगो नदी के पूर्वी तट पर, तट से पांच किमी. दूर, एक सघन वन है. उसमें एक छॊटी-सी गुफ़ा है. गुफ़ा का प्रवेशद्वार इतना छॊटा है कि कोई व्यक्ति उसके अन्दर जाना चाहे, तो खडा-खडा प्रवेश नहीं कर सकता. भीतर जाने के लिए घुटनो के बल पर हाथों का सहारा लेकर चलना पडता है, तभी उसमें प्रवेश पा सकना संभव है. अन्दर कन्दरा चौडी और बडी होती चली जाती है. कन्दरा के मुख से करीब 30 कदम दूर दायीं दीवार पर एक पत्थर की कील जैसी संरचना उभरी हुई है. यदि कोई व्यक्ति उसे छू दे तो दीवार फ़टने जैसी आवाज अन्दर गूँजने लगती है. यह आवाज ठीक पाँच सेकण्ड तक होती है और फ़िर स्वतः बंद हो जाती है. ध्वनि तभी उत्पन्न होती है, जब उसे छॊडने के पश्चात पुनः दबाया जाए. विश्व के अनेक वैज्ञानिक उस रहस्य को जानने और समझने के लिए कई बार गुफ़ा की यात्रा कर चुके हैं, लेकिन इस गुत्थी को सुलझाने में अब तक विफ़ल ही रहे हैं.
पश्चिमी ईरान की जागरण पहाडियों में भूमिगत एक ऎसी विशाल गुफ़ा है, जिसमें प्रवेश करने पर अनेक उँचे-ऊँचे व मोटे पाषाण स्पष्ट देखे जा सकते हैं. इन स्तम्भों को देखने के उपरान्त यह स्वीकार करना काफ़ी मुश्किल हो जाता है कि यह मानवीकृत न होकर प्रकृति की कुशल कारीगरी का नमुना है. इसकी सुघडता किसी भी वास्तुकार को चुनौती देने के लिए पर्याप्त है. इस “धार पराऊ” कन्दरा में सबसे ऊँचे प्रस्तर स्तम्भ का नाम खोजी दल ने “शहंशाह” रखा. इसकी उँचाई 138 फ़ुट है. इस प्रकार के और भी अनेक स्तम्भ हैं, पर उँचाई में सब इससे कम है. सम्भवतः इसी कारण अन्वेषणकर्त्ताओं ने इसका नाम “शहंशाह” रख दिया.
अमेरिका में “क्रेटर लेक” नामक एक विशाल झील है. इसके मध्य में “विजार्ड आइलैण्ड” नामक एक छॊटा सा टापू है,जो सम्भवतः कभी किसी ज्वालामुखी के फ़टने के कारण झील के मध्य उभर आया हो, विशेषज्ञों का ऎसा ही अनुमान है.
उत्तरी आयरलैण्ड के काउन्टी एण्ट्रीम समुद्री तट पर एक आश्चर्य देखा जा सकता है. इसे देखने से प्रथम दृष्टि में ऎसा प्रतीत होता है कि उक्त संरचना किसी प्राचीन सभ्यता द्वारा निर्मित वास्तुकला का सर्वोत्तम प्रतिमान है, पर पुरातत्ववेत्ताओं का कहना है कि यह कोई मानवकृत निर्माण नहीं है, वरन निःसर्ग की कुशल इंजीनियरी का एक अच्छा प्रमाण है. गवेषणा करने वालों ने इसका नाम “जाइण्ट्स काउज वे” अर्थात “दैत्यों का पक्का मार्ग” रखा है. यह 40 हजार बहुकोणीय पाषाण-स्तम्भों की एक विशाल और विस्तृत संरचना है. इसकी सीढीनुमा संरचना के तीन खण्ड हैं- निम्न, मध्य, और ऊपरी. यह मध्य खण्ड ही है, जिसकी सुगढता को देखकर खोजियों कॊ आरम्भ में इसे किसी सुविकसित प्राचीन सभ्यता की कोई संरचना का भग्नावेष होने का भ्रम हुआ था, क्योंकि इस हिस्से के प्रस्तर स्तम्भों में इतने उच्चस्तर की शिल्पकला का प्रदर्शन देखने को मिलता है, जिससे कुछ क्षण के लिए इसके प्रकृतिकृत होने का विश्वाद कर पाना मुश्किल हो जाता है. इस भाग के सारे स्तम्भ पूर्णतः षटकोणीय हैं, अन्तर सिर्फ़ इतना है कि वे सभी एक ही व्यास के पाषाण-खण्ड न होकर उनका विस्तार 15-20 इंच व्यास वाले स्तम्भों से शुरु होकर धीरे-धीरे ऊपर की ओर व्यास बढते-बढते इस खण्ड के शीर्ष पर अधिकतम 20 इंच तक पहुँच गया है. इस प्रकार इस खण्ड को देखने से मालूम होता है, जैसे किसी कुशल कलाकार ने बडी बारीकी से पत्थर के इन शैलखण्डॊं को सुरुचिपूर्ण ढंग से परस्पर सटा-सटा कर फ़िट किया हो.
जब किसी घाटी पर किसी मनुष्य अथवा अन्य प्राणी के पहुँच जाने पर अचानक ही जोरदार धमाका हो उठे, तो इसे क्या कहेंगे? प्रकृति की कौतुकपूर्ण लीला, आश्चर्य या कोई ऎसा उपक्रम, जिसके द्वारा वह मानव अथवा मानवेतर प्राणियों को अपने निकट न पहुँचने देने की चेतावनी देती हो ?. कदाचित ऎसा ही हो, क्योंकि अब तक “रियोडीला पाज” की घाटी में घटने वाली इस अनूठी घटना का रहस्योद्घाटन करने में वैज्ञानिक और प्रकृतिविद सर्वथा असमर्थ रहे हैं. वस्तुतः यह घाटी बोलिविया के लापाज नदी के तट पर हिमाच्छादित एण्डीज पर्वत के किनारे स्थित है और पूर्णतः मिट्टी की बनी विचित्र भूल-भुलैया जैसी संरचना है. जब कभी कोई जीवधारी भूलवश इसके निकट आ पहुँचता है तो तोप जैसी धडाके के साथ भयंकर गर्जना होती है और इसी के साथ धूल का एक गुब्बार वायुमण्डल में छा जाता है, जिससे थोडॆ समय तक वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पडता. आये-दिन लोग प्रकृति के इस रहस्यमय करतब को देखने और छॆडने के लिए घाटी के आस-पास आते ही रहते हैं. तोप जैसी इसकी गगनभेदी ध्वनि के कारण स्थानीय क्षेत्र में “ग्रेण्ड कैनन आफ़ दि ग्रेण्ड केनाइन” अर्थात “भव्य घाटी का भव्य धमाका” के नाम से लोकप्रिय हो गयी है.
प्रकृति का एक कौतुकपूर्ण दृष्य देखने को मिलता है साइबेरिया में स्थित “वेली आफ़ गीजर्स” नामक तंग घाटी की यात्रा करते वक्त. सन 1941 तक इस फ़ुब्बारे की घाटी का किसी को पता न था, किन्तु इसके उपरान्त यहाँ लगभग बीस ऎसे गीजरों का पता चला है, जो अपनी रंग-बिरंगी छटा से दर्शकों का मन मोह लेते हैं. इन फ़ुब्बारों की सबसे बडी विशेषता यह है कि ये दस मिनट से छः घण्टॆ तक नियमित अन्तराल से छूटते रहते हैं. इनकी नियमितता इतनी सुनियोजित और अटल है, जिसे देख दाँतों तले उँगली दबानी पडती है. जो गीजर दस मिनट की अवधि में निःसृत होते हैं वह सदा दस-दस मिनट पर छूटते रहते हैं. ऎसी ही नियमितता अन्यों के साथ भी देखी जा सकती है. वहाँ का सबसे बडा फ़ुवारा, जिसे “ फ़सर्ट बोर्न”(first born) का नाम दिया गया है, हर घण्टॆ पर विभिन्न रंग के फ़ुहारों के साथ जमीन से निकलता रहता है. यह जल के चालीस फ़ुट ऊँचे स्तम्भ का निर्माण करता है और इससे छिटकने वाली फ़ुवारों की ऊँचाई पाँच सौ फ़ुट तक चली जाती है. पूरी घाटी में इन गीजरों के छूटने और मिटने का क्रम बडॆ ही लयबद्ध ढंग से होता रहता है.
ईश्वर ने मनुष्य को जानने-समझने की बुद्धि दी है. उसके द्वारा कई अवसरों पर वह ऎसी पहेलियों को सुलझा भी लेता है, जो आरम्भ में जटिल जान पडती है, पर हर बार वह ऎसा कर ही लेगा, इसे दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. अनेक मौकों पर स्थूल क्रिया के मूल में कारण स्थूल न होकर सूक्ष्म होते हैं. इन कारणॊं को सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ही समझा जा सकता है. सूक्ष्म बुद्धि अध्यात्म- अवलम्बन के बिना सम्भव नहीं. अतः यदि मनुष्य को सृष्टि की इन रहस्यमय गुत्थियों का उत्तर पाना है, तो अध्यात्म का आश्रय लेना ही पडॆगा, सिरजनहार की निराली कारीगरी.
प्राकृति की कारीगरी पर विचार किया जाए, तो हम पाते हैं कि वह सृष्टि का एक अद्भुत इंजीनियर है. उसने निर्माणॊं की दुनिया में एक-से-बढकर एक ऎसी कृतियाँ गढी हैं, जिन्हें देखकर अचम्भा होना स्वभाविक है. उन्हें देखकर मन में एक प्रश्न सहज ही आकार लेने लगता है कि इन रचनाओं के पीछॆ निःसर्ग का भला क्या प्रयोजन होगा? क्या वह मात्र कौतुक-कौतुहल पैदा करने के लिए ही इनका सृजन हुआ है अथवा उद्देश्य कुछ और ही है? गंभीर मन्थन के बाद जो निष्कर्ष निकलता है कि सम्भवः उसका ध्येय प्रेरणा देना हो कि वह अपनी गतिविधियाँ प्रकृति की तरह रचनात्मक बनाये, ध्वंसात्मक नहीं
इन्हें सम्भावनाओं को प्रकट करता हुआ भूमध्य सागर में सारडीनिया नामक एक द्वीप है. उसके उत्तर-पूर्व में कैपोडी ओरसो “भालू अन्तरीप” स्थित है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस अन्तरीप का मुख्य आकर्षण वहाँ भालूनुमा एक विशाल संरचना है. जब कोई भी पर्यटक इस “केप अन्तरीप” की चोटी पर पालू गाँव के रास्ते से आता है, तो वह प्रकृति की इस अद्भुत कारीगरी देखकर आश्चर्य में पड जाता है. भालू एक विशाल चट्टान से विनिर्मित है, जिसे पास से देखने पर ऎसा प्रतीत होता है, मानो वह उस टापू और समुद्र के विहंगम दृष्य को देखने में तल्लीन है.
थीसली,ग्रीस में पिण्डस पर्वत की तराई में एक छोटा शहर है-“कलाम्बका”. इसकी पृष्ठमूमि में उत्तर की ओर विशाल चट्टानी स्तम्भों के तीन समूह हैं. ये विशाल स्तम्भ देखने में ऎसे प्रतीत होते हैं, मानो कोई बौद्ध स्तूप हों. इन समूहों में स्तूपों के अतिरिक्त और भी कितनी ही संरचनाओं की वैसर्गिक अनुकृतियाँ बनी हुई हैं.इसमें से दो,यात्रियों का ध्यान विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित करते हैं. ये हैं वहाँ के विशाल स्तूप एवं अगणित कँगूरे वाली गढियाँ. इस सम्पूर्ण प्राकृतिक निर्माण को तनिक हटकर देखने से ऎसा आभास मिलता है, जैसे रजवाडॊं की यह छॊटी-छॊटी गड्गियाँ हैं और उन्हीं के निकट उनके पृथक-पृथक शिक्षाओं और सिद्धान्तों का उद्घोष करते उनके अपने-अपने स्तम्भ. इस स्प्रस्तर रचना को “मिटिओरा” के नाम से पुकारा जाता है. ग्रीक में इसका अर्थ “गगनचुम्बी” होता है.
स्तम्भों में से कई-कई तो 1800 फ़ुट ऊँचे हैं. इन स्तूपों की शोभा को चार चाँद लग गए, जब प्रकृतिगत निर्माणॊं के ऊपर मनवीकृत संरचनाएँ खडी हो गईं. निर्माणॊं में विशेषता यह है ,कि जब तक इन्हें ध्यानपूर्वक नहीं देखा जाए,तब तक यह ~झात नहीं होता कि इनके ऊपर मानवकृत संरचना विनिर्मित है. ऎसे मठ वहाँ के खम्बों में बीस से अधिक है. इनका निर्माण 14 वीं एवं 15वीं सदी में किया गया था और ये 19 वीं शताब्दी तक आबाद रहे. अब ये खाली पडॆ हुए हैं
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