मानव की मूल प्रवृत्ति ही उत्सवधर्मी है.
पाषाणयुग की बात करें, वह अपने समूह में आखेट के लिए निकलता था और किसी पशु को अपना शिकार बनाने के बाद उसके इर्द-गिर्द झूम-झम कर नाचता-गाता-खुशी मनाता था. फ़ुर्सद के समय में वह कन्दराओं में इसके चित्र भी उकेरता था. क्रमशः वह सभ्य होता गया. उसकी उत्सवधर्मिता परवान चढने लगी. उसने जाना कि छह ऋतुएं होती है. उसमे शरद ऋतु के आगमन के ठीक पहले वर्षा का अवसान हो रहा है. वर्षा ऋतु में जैसे ही पहली बौझार पडती है,पृथ्वी के अंग-अंग में नवजीवन लहलहा उठता है. धरती पर सब तरफ़ हरियाली का गलीचा बिछ जाता है. मोर के पावों में थिरकन आ जाती है. पपिहा पी..आ...पी..आ गाने लग जाता है. नदियां तरुणाई से भर उठती है.. बरसते पानी की रसधार में भींगते हुए उसने हल चलाते हुए गीत गाए. खेतों में लहलाती फ़सलें और अपने श्रमसाफ़्ल्य को अनाज के रुप में फ़लता-फ़ूलता देख वह प्रसन्नता से भर उठता है और कटाई के बाद पूरा परिवार ढोलक की थाप पर नाच उठता है. इस तरह उसने अपने आप को ईश्वर की लीलाओं से पर्वों-त्योहारों को जोडते हुए अपनी उत्सवधर्मिता को नए-नए आयाम दिए. दस कोस पर पानी और बीस कोस पर वाणी के बावजूद भारतीय समाज ने सांस्कृतिकता को विशिष्ट स्थान दिलाया. लोक-अंचल में ही संस्कृति की असली विरासत सुरक्षित है. यद्दपि अधुनिकता ने काफ़ी हद तक सांस्कृतिकता को प्रभावित किया है, इसके बाद भी हमारे लोक क्षेत्रों से जुडॆ लोग, ग्रामीण समुदाय संस्कृति के सजक-प्रहरी के रुप में नजर आते हैं. संस्कृति का यह कार्य लोक-अंचल में आसानी से दृष्टिगत होता है. चाहे वह छत्तीसगढ हो,असम हो,या फ़िर त्रिपुरा,कुंमायू,पूर्वांचल,बुंदेलखंड आदि कोई भी हो,कोई भी राज्य हो, सभी जगहों पर सांस्कृतिक विशिष्टता को संरक्षित करने के प्रयास किए जा रहे हैं.
बुंदेलखण्ड क्षेत्र हमेशा से ही लोक के प्रति सचेत रहा है.शौर्य गाथाओं,लोक-गाथाओं या फ़िर लोक-देवताओं के सहारे उसने अपनी संस्कृति को जीवित रखा है. पर्वों-त्योहारों,उत्सवों के साथ-साथ वैवाहिक कार्यक्रमों का उत्साह भी यहां देखने को मिलता है. यह एक ऎसा संस्कार है जहाँ अनेक प्रकार के रस्मों के साथ सम्पन्न किया जाता है. लडका-लडकी की बात पक्की हो जाने के बाद लगुन लिखाई, तिलक, मगरमाटी, मंडपाच्छादन, देवपूजन, तेलपूजन, चीकट ,बारात निकासी, द्वारचार, पांव पखराई, कुंवर कलेवा, भांवर, कन्यादान, बिदाई,, मुँह दिखाई,,आदि-आदि. अनेकानेक रस्मों के यह संस्कार पूरा होता है.
इन रस्मों को संपन्न करते समय घर की महिलाएं बन्ना-बन्नी के गीत गाती हैं. इनकी स्वर-लहरी सुनकर सभी लोग आनन्दित हो उठते हैं. हम यहाँ पर कुछ रस्मों पर गाए जाने वाले गीतों पर चर्चा करते चलें. यथा-
लगुन लिखाई जा चुकी है. मगरमाटी भी लाई जा चुकी है और लडकी जिसे अब बन्नी के रुप में जाना जाता है, हल्दी चढाई जा रही है. इस अवसर पर घर तथा पास-पडौस की महिलाएँ सामुहिक रुप से बन्नी कॊ आधार बनाकर गीत गाती हैं.जिसके बोल सीधे हृदय को पिघला देने वाले होते हैं. यथा-
बाबुल उडन चिरैया, तुमने काहे पोसे
वो तो उड चली देस-बिदेस
अम्मा की कोयल उड चली
(२) दिहरी बिरानी बाबुल बिटिया बिरानी
बिटिया की इक जनमी पाती रे
मोरे बाबुल बिटिया बिरानी
वधु के यहाँ लगुन-लिखाई होती है,जिसका विधिवत पूजन किया जाता है.पूजा के बाद लगुन के साथ नेग के रुप में कुछ रुपये भी रखे जाते हैं. फ़िर घर के कुछ सदस्य जिसमें वधू का भाई, मुहल्ले-पडौस के कुछ युवातुर्कों के साथ लगुन वर के घर पहुंचाई जाती है.ब लगुन के वहां पहुंच जाने के बाद उसको किसी पंडित से पूजा करवाने के बाद पढा जाता है. इसके करने के पीछे उद्देश्य यह होता है कि वर-पक्ष को इस बात की जानकारी से अवगत करवाना होता है कि फ़ला दिन आपको बारात लेकर आना होगा. लगुन के आने पर स्त्रियां इस गीत को गाती हैं
लगुन आने पर
रघुननदन फ़ूले ना समाये,लगुन आई अरे...अरे
लगुन आई मोरे अंगना
रंग बरसत है, रस बरसत है
मोरे बन्ना की लगुन चढत है
कानों में कुण्डल पहनो राजा बनडॆ
गले मुतियन की माल बिरसत है
मोरे बन्ना की लगुन चढत है
आज मोरे रामजू की लगुन चढत है.
वर पक्ष के यहाँ भी वे सारी रस्में संपन्न होती है, जो वधु के यहाँ की जा रही होती है. इधर वर पक्ष में बन्ना को मण्ढे के नीचे खांब के पास बिठाया जाता है और फ़िर तेल चढावे की रस्म शुरु की जाती है. महिलाएं सामुहिक रुप से गाती हैं. यथा-
तेल मायना
आज मोरे बन्ना(बन्नी) को तेल चढत है
तो तेल चढत है फ़ुलेल चढत है
चढ गओ तेल फ़ूल की पाँखुरिया
जीजी चढावे तेल ,बन्ना की बाहुलिया
भौजी चढावे फ़ूल की पाँखुरिया
तेलन लाई तेल, मालन लाई पाँखुरिया
(२) चढ गओ तेल फ़ुलेल चंपो तेरी दोई कलिया कौन बाई तेल चढावे,कौन राय की बेन्दुलिया (बहन का नाम)बाई तेल चढाये (भाई का नाम) राय की बेन्दुलिया
विवाह के अवसर पर गौरी-गणेश के आव्हान पूजन के पश्चात पितरों को एवं प्रकृति प्रदत्त भौतिक वस्तुओं का भी आव्हान किया जाता है. इस अवसर पर बन्ना या बन्नी की माता एवं चाची चककी पर गेहूँ पीसती जाती है एवं एक-एक पितरों का नाम लेती जाती है.साथ ही बन्ना या बन्नी नाम के साथ ही चक्की पर चांवल के दाने निमंत्रण स्वरुप फ़ेंकते जाते हैं. इस अवसर पर कुटुंब के सभी सदस्य उपस्थित रहते हैं. इस अवसर पर गाए जाने वाला गीत-यथा
“काज करो कजमन करो, आज को नेवतो पाइयो
(पितर का नाम) बाबा नेवतियो”
आज को नेवतॊ पाइयो ( एक-एक व्यक्ति के नाम का उच्चारण करते हुए इसे दोहराया जाता है)
(पितरों को नेवतने के बाद आग-पानी, बदरा-पानी, लठ्ठा-भोंगा, हवा-आँधी सबको नेवतने के बाद बन्ना के हाथों से गोबर के द्वारा चक्की का मुँह बंद कर दिया जाता है ताकि मंगल कार्य में कोई विघ्न न आने पावे.
इस के बाद बारात निकासी होती है. सभी आमंत्रित सदस्यों-रिश्तेदारों तथा परिवार और कुटुंब के सन्मानित सदस्यों को साथ लेकर बारात घर से निकलती है. इस बीच कई प्रकार की रस्में होती है.
माँ अपने बेटॆ की नजर उतारती है. नारियल की गिरि तथा गुड से मुँह मीठा कराती है. अपना दूध पिलाकर बेटे से वचन लेना नहीं भूलती कि शादी के बाद उसकी अच्छे से देखरेख करेगा. इस अवसर पर महिलाएं गीत गाती हैं.यथा-
(दुल्हा की निकासी पर गाए जाने वाला गीत)
“मझोल- मझोल चलो जइयो रे हजारी दुल्हा
तुने को के भरोसे घर छोडॆ रे हजारी दुल्हा
मैंने मइया के भरोसे घर छोडॊ रे हजारी बन्ना
तेरी मैया को नइया पतियारो रे हजारी दुल्हा
तू तो ताला लगाये कुँजी ले जैयो रे हजारी दुल्हा”
(२) बना के आँगन गेंदा फ़ूल, कुसुम रंग फ़ीको पड गओ रे
बन्ना पापा(दादा-चाचा-मामा-फ़ूफ़ा, भैया,जीजा)
सजे बरात, सजन घर खलबल मच गई रे
सजन घर खलबल मच गई रे
बन्ना के आगे तबल निशान, पतुरिया छम-छम नाचे रे
पतुरिया छम-छम नाचे रे
रुपइया खन-खन बाजे रे
(३)ऎसो सजीलो मेरो बन्ना रे, शोभा सजी सीस चांदनी बनके
कोई तो नजर उतारो, ऎसो सजीलो मेरो बन्ना रे
सीस बन्ना के सेहरा, सोहे कलगी पे जाऊँ बलिहारी रे
दिल मे कब से था अरमान, बन्ना मेरा दूल्हा बने
चन्दन के मण्डवा रुच रुच के लाओ रे.....बन्ना मेरा वधु के यहाँ बारात पहुँच चुकी है. बारात की अगवानी की जाती है. सजन-समधियों की भेंट होती है.इस अवसर भी गीत गाए जाते हैं.
ठाडॆ- ठाडॆ जनक जी के द्वार हो
रामचन्द्र दुल्हा बने
मंगल साज सजे अंगना में
कम्मर में सोहे कटार हो...रामचन्द्र.....
मुतियन चौक सुनयना पूरे
मन में हरष अपार हो.......रामचन्द्र......
बंदी बिरुदावली उच्चारे
हो रही जय जयकार....... रामचन्द्र.....
चन्दन पीढा विराजो राजा बनडॆ
पहरो नौ लख हार हो ...रामचन्द्र..... महिलाएँ गारी गाती हैं इस अवसर पर
आए मोरे सजना,सुहानो लागे अंगना
सजना के लाने मैंने पुडिया पकाई
आवे री खावे सजना(समधी)
पीछे री खावे बलमा...आए मोरे सजना...
पाँव पखराई के समय का गीत
बिच गंगा बिच जमना,तीरथ बडॆ हैं प्रयाग
बिच बिच बैठे बाबुल उनके, लेत कुमारन दान
दैयो रुप-रुपैया, छिनरिया को खनकत जाये
दैयो उजरी सी गैया, छिनरिया को खोवा खाये
चढाव चढाई के अवसर पर गीत
“सिया सुकुमारी को चढ रौव चढाव, हरे मंडप के नीचे
बेटी मैके की बेंदी उतार धरो
ससुरे की बेंदी को कर लेव सिंगार, हरे मंडप के नीचे
सिया सुकुमारी को चढ रओ चढाव, हरे मंडप के नीचे”
चढाव के बाद भावरें पडती है. इसके बाद जेवनार होता है. जेवनार के अवसर पर गाए जाने वाला गारी गीत. इसमे समधी-समधन को ताना मारा जाता है.
“बन में बघनी बियानी, सुनो भौंरा रे
ओको दूध दुहा लई, सुनो भौंरा रे
समधी नेवत बुला लई,सुनो भौंरा रे
ओकी खीर बना लई,सुनो भौंरा रे
उनने आतर चाटे,पातर चाटे,ले ले दोना नाचे”
जेवनार के बाद दुल्हा०दुल्हन को लेहकोर के लिए लेकर जाते हैं. इस अवसर पर महिलाएं समधी को ताना मारते हुए गाती हैं क्योंकि समधी की ओर से पान-बताशे बंटवाने का रिवाज है.
“पानो की बिडिया कलेजे में लग गई
कलेजे में लग गई, मेरे हियरे में लग गई
डलिया में तेरी समधन पान भी नइया
तो समधी को जियरा ठिकाने में नइया
बिदाई के अवसर पर गाए जाने वाला गीत
इस समय बिटिया को आशीष दिया जाता है
“जाओ ललि तुम फ़लियो फ़ुलियो
सदा सुहागन रैयो मोरे लाल
सास ससुर की सेवा करिओ
पति आज्ञा में रहियो.”
( बिदाई के बाद बेटी का अपने ससुराल आना, वहाँ पर भी अनेकानेक रस्में करवाई जाती है. )
लोकगीतों की महत्ता लोकजीवन में हमेशा बनी रही है. विवाह संस्कार में गाए जाने वाले गीतों में एक प्रकार का संदेश भी सम्प्रेषित होते हैं. लोकगीतों द्वारा विवाह संस्कार की गरीमा बढ जाती है. लोकगीतों के मध्यम से हमारी लोक संस्कृति, लोक परंपरा, विरासत पल्लवित,पोषित और संरक्षित होती रहेगी. ऎसा विश्वास है.
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103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) ४८०००१ श्रीमती शकुन्तला यादव.