प्रकृति के अनोखे वरदान
बच्चों,
प्रकृति ने, न केवल मनुष्य जाति को, बल्कि विश्व के समस्त प्राणियों को अनेकों वरदान दिए हैं. ये सारे प्राणी इन प्राप्त वरदानों से अपने वंश की वृद्धि करते हैं और, प्रकृति में संतुलन बनाए रखते हैं.
आइये, हम कुछ प्राणियों के बारे में संक्षिप्त में जानकारी लेते चलें, जिन्हें प्रकृति से अद्भुत वरदान प्राप्त है.
पैसिफ़िक सागर में स्टारफ़िश नामक एक मछली होती है. इनका नाम स्टारफ़िश इसलिए पड़ा कि ये तारों की तरह चमकीली होती है. इनका प्रिय भोजन सीपी है, जिनसे सच्चे मोती प्राप्त किए जाते हैं. गोताखोर समुद्र में गहराई में उतरकर इन सीपियों को ढूँढते हैं और इनमें से मोती निकालकर बाजार में बेच देते हैं. विश्व में मोतियों का बड़े पैमाने पर व्यापार होता है. जब गोताखोरों को इस बात का पता चला कि स्टारफ़िश अधिकांश सीपियों को नष्ट कर डालती हैं, तो इन्होंने उन्हें समूल नष्ट कर डालने की ठानी. उन्होंने मछलियों को पकड़-पकडकर काटना शुरु किया. हजारों मछलियाँ काट डाली गई,लेकिन इनकी संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही चली गई. अभी तक तो इनकी उपस्थिति ही चिन्ताजनक थी. अब तो उनकी आश्च्चर्यजनक वृद्धि और कष्टदायक हो गई. अन्त में यह जानने का फ़ैसला किया गया कि आखिर स्टाररफ़िशों की वृद्धि का रहस्य क्या है ?.
सावधानी से देखने पर पता चला कि जो स्टारफ़िश काट डाली गईं थी, उनका प्रत्येक टुकड़ा स्टारफ़िश बन चुका था. है न आश्चर्य की बात !. यह बात समझ से परे है कि जो मछली मार डाली गई और जिसके अनेकों टुकड़े कर दिए गए हों, वह आखिर जिन्दा कैसे हो गई ?. जीव-वैज्ञानिकों ने इस पर निरन्तर शोध-कार्य किया और अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि .ये जीव कट जाने के तुरन बाद “प्रोटोप्लाज्मा” तैयार कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लेते हैं. प्रकृति ने इस जीव को विशेषता दी है कि वह अपने किसी भी टूटे हुए अंग को तुरन्त तैयार कर सकता हैं.
“प्रोटोप्लाज्मा” तैयार कर टूटॆ अंगों को जोड़ देने में इन मछलियों के अलावा नेस सलामैसीना, आइस्टर (स्नेल घोंघा- फ़्रेश वाटर मसल (शम्बूक) साइलिम, चेटॊगैस्टर, स्लग मन्थर) पाइनोगोनाइड (समुद्री मकड़ी) आदि कृमियों में भी यही गुण पाया जाता है कि उनके शरीर का कोई भी अंग टूट जाने पर ही नहीं, वरन मार दिए जाने के बाद भी, वह अंग या पूरा शरीर उसी प्रोटोप्लाज्म से फ़िर नया तैयार कर लेते हैं.
स्टेन्टर ( एक तरह का प्राणी) अपने प्रोटोप्लाज्मा का १/६० वां अंश बाहर कर देता है और उसी से एक नया स्टेन्टर तैयार कर देता है. प्लेनेरिया और हाइड्रा नामक जीव नयी सन्तान पैदा करने के लिए अपने शरीर का कुल १/३०० वें हिस्से से ही काम चला लेता है. इन्हें गर्भ धारण करने, भ्रूण-विकास और प्रजनन जैसी कोई परेशानी नहीं उठानी पड़ती.
इसी तरह जीवित स्पंज के बारिक-बारिक टुकड़े कर पीसकर उसे कपड़छान करते हुए पानी में डाल दिया जाए. कुछ समय पश्चात उसके शरीर के सभी कोश फ़िर एक स्थान पर मिलकर, नया सपंज बनकर अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ कर देता है.. इसी तरह ट्राइटन सलामाण्डर, गोह अपने कटे हुए शरीर की क्षतिपूर्ति तुरन्त करते हुए नए अंग का विकास कर लेते हैं. अमेरिका तथा अफ़्रीका में पाए जाने वाला “शीशे का साँप” छू लेने मात्र से टूट जाता है. पर उसमें भी विशेषता यह होती है कि वह टूटॆ अंग को पुनः जोड़ लेता है..सलामेंसिनानेस, साहलिस तथा काटॊगास्टर जीव तो स्पंज की तरह ही होते हैं, उन्हें कितना ही मार डालिए, वे तुरन्त ही मरे हुए शरीर में प्रवेश करके जीवन यात्रा शुरु कर देते हैं.
हाइड्रा ( एक फ़ूल) देखने में ऎसा लगता है जैसे एक ही स्थान प फ़ूल-पत्ते इकठ्ठे हों. उसके अंग की कोई एक पंखुड़ी एक ओर बढना प्रारम्भ करती है और स्वाभाविक वृद्दि से ज्यादा बढ़ जाती है. यह अधिक बढ़ा अंग अपने आपको मूल भाग से अलग कर लेता है और एक स्वतंत्र अस्तित्व बन जाता है.. इसी तरह पैरामीशियम, यूग्लीना आदि एककोशीय जीवों में प्रजनन का यही नियम है. किसी टैंक की तरह दिखाई देने वाल “केकड़ा” भी इसी तरह अपने टूटे हुए अंग तो तुरन्त तैयार कर लेता है.
इसी तरह मिट्टी में पाए जाने वाला फ़फ़ूंद, जिसे “एक्टीनो माइसिटीज” के नाम से जाना जाता है, खुली आँखों से दिखाई नहीं देता. इन्हें शक्तिशाली खुर्दबीनों से ही देखा जा सकता है, पर उसकी इस लघुता में वह महानता छिपी है जो सारे मानव समाज के हितों की रक्षा करती है. यदि यह जीवाणु न होते तो हमारी सारी धरती मात्र सात दिनों के अन्दर मल से आच्छादित हो जाती और तब मनुष्य का जीवित रहना भी असंभव हो जाता.
जैसे ही कोई सड़ी-गली वस्तु, मल या कोई गन्दगी जमीन में गिरी यह जीवाणु दौड़ पड़ते हैं और इन गन्दगी के अणुओं की तोड़-फ़ोड़ प्रारम्भ कर देते हैं. दूसरे दिन हम उधर जाते हैं तो मल के ढेर के स्थान पर मिट्टी का ढेर दिखाई देता है. लोग उपेक्षा से देखकर निकल जाते हैं पर प्रकृति का एक बड़ा उपयोगी सिद्धान्त काम करता रहता है. यह जीवाणु इस गन्दगी के एक-एक अणु को तब तक तोड़ते-फ़ोड़ते रहते हैं, जब तक वह सारी मिट्टी में बदल नहीं जाते.