प्रकृति की अद्भुत संरचना
प्रकृति ने प्रत्येक जीव को उसकी दुनिया के हिसाब से परिपूर्ण बनाया है. उसे देखकर मनुष्य यह विश्वास करने को विवश होता है कि हर चेतना का निर्माण किसी उच्च चेतना के गहन चिन्तन-मनन के बाद होता है. माना कि मनुष्य की रचना परमात्मा की पूर्ण विकसित कला है, किन्तु यदि सांसारिक जीवन की सुख-सुविधाएं अभीष्ट है तो उस दृष्टि से अन्य जीवों को भी छॊटा नहीं कहा जा सकता.
१)“अनातीदी” जाति के पक्षियों में प्रकृति ने उनके पंखों के नीचे कुछ ग्रन्थियां बनाई हैं जिनसे तेल निकलता रहता है. उसके कारण ही उनके पंखों का विकास होता है तथा वे चिकने और स्वस्थ बने रहते हैं.
२). सौ फ़ुट लम्बी ह्वेल का कुल वजन १२५ टन के लगभग होता है. उसके शरीर में ३५ टन चर्बी और ७० टन मांस होता है. यदि उसे हाथियों से तौला जाए तो दूसरे पड़ले पर २० से २५ हाथी तक चढ़ाने पड़ जाएंगे. उसकी जीभ का वजन ३ टन और दिल का वजन २ मन होता है. उसके फ़ेफ़ड़े एक बार में १४,००० लीटर वायु खींचते है. नवजात शिशु का वजन ६ टन होता है और उसकी वृद्धि १ क्विंटल प्रतिदिन के हिसाब से होती है.
३) व्हेल मछली का एक नाम “इलेक्ट्रिक व्हेल” भी है. इस विध्युत शक्ति का उपयोग कर वह शिकार करती है. एक झटके में वह घोड़े को भी गिरा सकती है.
४)”बीटल” नामक कीट की आंखों पर प्रकृति ने एक चश्मा चढ़ा दिया है. ऊपर की आंखों से वह हवा में देखता है किंतु जब पानी में होता है तो नीचे की आंखों से देखने लगता है.
५) सात-आठ फ़ुट लम्बा ३ मन वजनी “शुतुर्मुर्ग” संकट के समय बालू में सिर घुसेड़ लेने की मुर्खता के लिए प्रसिद्ध ही नहीं है बल्कि तेज दौड़ने के लिए भी प्रसिद्ध है. इसकी दौड़ने की गति ६० मील प्रति घण्टा है.
६) “सूरीनाम टैड” की अंडॆ देने में और उनको सेने की क्रिया बहुत ही विलक्षण होती है. मादा अपने अंडॆ अपनी पीठ पर डालती जाती है. अंडा खाल में धंस जाता है, इसी तरह सारे अंडॆ पीठ में ही इकठ्ठे होते रहते हैं. विकसित होने पर वे फ़ुदक-फ़ुदक कर बाहर निकल जाते हैं.
७) उल्लू को रात का राजा कहा जाता है. उसे दिन में दिखाई नहीं देता. इस कमी की पूर्ति के लिए प्रकृति ने उसे ऎसे कान दिए हैं, जिनमें एक विचित्र ढक्कन लगा होता है. वह पूरी तरह कान को ढंकता नहीं है. दूर से आती आवाज को एक कान से फ़िर दूसरे से सुनता है. श्रवन के इस अन्तर से वह फ़टाफ़ट गणित लगा लेता है कि आवाज किस ओर से आ रही है.
८) “सैनिक दीमक” को जब किसी शत्रु का पता चलता है तो वे एक विशेष ध्वनि से अपने कुनबे को संकेत कर देता है. बात की बात में सारे दीमक अपना माल, असबाव बांधकर दूसरी जगह चले जाते हैं
९)अमेरिका में कुछ गिलहरियां हवा में उड़ान भर लेती हैं. इसी तरह मलाया, सिंगापुर की छिपकली और सांप उड़ानों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं.. एक समय वह था जब “टेरोडक्टाइल” नामक विशालकाय सरीसृप उन्मुक्त आकाश में उड़ा करते थे, तब तक मानवी सभ्यता अस्तित्व में नहीं आई थी.
१०) “एक्सोसिटायडी” नामक मछली अपने बच्चो को पेड़ॊं पर चढ़ाकर उड़ना सीखाती हैं. इस तरह समुचा समुदाय उड़न-दस्तों की तरह जीवन यापन करता है. इसमें “पेलभिक” मछली अत्यन्त कुशल उड़ाका होती है. वह अपने पीठ के कन्धों से “ग्लाइडर” का काम लेती हैं और किसी विशेष स्थान पर ठहरना चाहे तो पंखों को लहराती हुई ठहर भी जाती है.
११) “हैचेट” तथा “बटरफ़्लाई” नामक मछलियों के करतब देखकर मनुष्य ने हवा में उड़ान भरने की कल्पना की और वह सफ़ल भी हुआ.
१२) “ गरनार्ड” मछली सबसे उन्नत किस्म की उड़ाका होती है. वह अपने पंखों से पानी पर तैर सकती हैं और हवा में उड़ान भी भर सकती है.
१३) “सिफ़ेनेमिया” नामक मक्खी ८१६ मील प्रति घण्टा की भयंकर गति से उड़ने में सक्षम है.
१४) अफ़ीका का “गुयेरेजा कोलोवस” बंदर शरीर में तो तीन फ़ुट का होता है पर उसकी पूंछ साढ़े तीन फ़िट की होती है. हाथी जो काम स्सूंड से लेता है लगभग वैसा ही यह पूंछ से लेता है.
१५) दक्षिण अमेरिका के “ हाडलर” वानर का स्वर बहुत तीखा होता है. दो मील दूर तक उसकी आवाज सुनी जा सकती है.
१६) दक्षिणी अमरीका के अमेजन क्षेत्र में पाये जाने वाले “सिवाइड्स” वानर गिलहरी और उल्लू की आकृतियों के सम्मिश्रण से बने हुए अपने ढंग के अनोखे प्रतीत होते हैं.
१७)निशाचर “ डोरोकोलिस” लंबी दाढ़ी वाला साकी देखने में सुन्दर और अकल का पुतला माना जाता है. यदि इसे काम सीखा दिया जाए तो यह मनुष्य की तरह हर काम कर सकता है.
१८) “बूली” बंदर पर भेड़ जैसी ऊन होती है. मकड़ी की तरह यह हाथ-पैर और पूंछ के सहारे एक डाल से दूसरी डाल पर उछल-कूद करता रहता है और उल्टा-सीधा भी उतर सकता है. इसलिए इसका नाम स्पाइडर मंकी पड़ा.
१९) अरब देशों में पाए जाने वाले बंदर “ वेबून” का मुंह कुत्ते की तरह होता है. वे पेड़ों पर चढ़ने की अपेक्षा जमीन पर रहने में सुख, सरलता का अनुभव करते हैं.
२०)”चिम्पैजी” बुद्धिमान होता है और न जाने कितनी ही गुत्थियां सुलझाने और अड़चनों का हल आसानी से निकाल लेता है.
२१)”गोरिल्ला” वनमानुषॊं में अग्रणी है. उसकी उँचाई छः फ़ुट से नौ फ़ुट तक जा पहुंचती है. इसका वजन ४०० से ६०० पौण्ड होता है. यह दो-ढाई इंच मोटी लोहे की छड़ आसानी से तोड़-मरोड़ कर फ़ेंक सकता है.
२२)इस जाति का दूसरा “चिम्पैजी” अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान होता है. यह अकारण बेतुकी हरकतें नहीं करता और अपने परिवार के साथ सुख और सुरक्षापूर्वक जीवनयापन करता है,
२३) जर्मनी में कुछ समय पूर्व एक ऎसा घोड़ा “ क्लेवर हान्स” पाया गया था जो जर्मन भाषा में पूछे गए हर छोटे-मोटे प्रश्नों का उत्तर अपनी टाप के खटके मार कर हल कर लेता था.
२४)तंजानिया (अफ़्रीका) में पशु अभियन्ता मि.जार्ज के मकान के पास पेड़ पर एक गिलहरी ने अपना घोंसला बना लिया था. उसे शराब का चस्का लग गया था. वह चुपके से आती और घर में रखी शराब की बोतलों के कार्क खोलकर मद्दपान का आनन्द लेती थी.
२५) “शिशुमार” नामक मत्स्य जाति का, जल का बहुत ही प्रेमी और सहयोगी प्रकृति का होता है. यदि यह थलचर होता और इसे पालतु बनाकर प्रशिक्षित किया जाता तो वह कुत्तों से भी अधिक स्नेही सहयोगी सिद्ध होता. शिशुमार कोई तीस तरह की ध्वनियां अपने मुख से निकाल सकते हैं. इसे “सिटासियन” वंश का व्हेल जातीय समझा जाता है. इसे दिशा बोध और शब्द ज्ञान की अच्छी जानकारी होती है. २५ गज दूरी से फ़ेंकी गई वस्तु को वह तेजी से पकड़ सकता है. पालतू शिशुमार थके हुए गोताखोरों को उनकी कमर में बंधी रस्सी मुंह में पकड़कर, जहाज तक पहुंचा देने में अपना कौशल दिखा सकता है.
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दुष्यंतकुमार यादव (छात्र कक्षा XII), मकान नं. २७, कामठी विहार कालोनी,छिन्दवाड़ा(म.प्र.) संपर्क-08989757700