असली वारिस
गोवर्धन यादव
एक राजा अपनी रानी के साथ चौपड खेल रहा था. जीत हर बार राजा की होती. रानी हारना नहीं चाहती थी, शायद वह दिन उनके जीत के लिए निर्धारित नहीं था. अगला दांव फ़ेकते हुए रानी ने राजा को बतलाया कि ईश्वर की असीम कृपा से वे उनके यहाँ पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी. और वह मेरे जैसा ही गौर वर्ण का होगा. राजा उस समय विनोद के मूड में थे तो उन्होंने कहा- नहीं नहीं ,वह मेरे श्याम रंग जैसा ही होगा. इस बात पर काफ़ी विवाद हुआ. रानी ने इस बात पर शर्त लगाने को कहा,तो राजा ने कहा- इसमें शर्त लगाए जाने जैसी कोई बात नहीं है.कोई हारे अथवा जीते, संतान तो हमारी ही कहलाएगी. बात आई गई,हो गई.
एक दिन, रानी ने एक बालक को जन्म दिया. वह श्याम रंग का था. इस बार भी रानी की हार हुई थी. लेकिन जिद्दी रानी हर हाल में जीत दर्ज करवाना चाहती थी. उसने दाई से जानना चाहा कि इस समय राजधानी में किसके घर लडका हुआ है. दाई ने बतलाय कि एक सुनार के यहाँ लडका हुआ है,वह गौर वर्ण का है. रानी ने दाई को स्वर्ण मुद्राएं देते हुए लडका बदल देने को कहा. दाई ने बडी सफ़ाई से यह काम कर दिखाया.
राजा को खबर भिजवाई गई के आपके यहाँ पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई है. राजा दौडा आया. राजा को देखते ही रानी ने कहा- इस बार मेरी जीत हुई है. राजकुमार अपनी माँ पर गया है. समय की नजाकत को देखते हुए राजा ने कुछ नहीं कहा और वहां से चले आए.
दोनो बच्चे अपने-अपने घर में बडॆ होते गए. सुनार के घर पलने वाला लडका अपने मित्रों के साथ तलवार चलाना, घुडसवारी करना, कभी शिकार करने जाना आदि खेल खेलता रहता. कभी तो वह न्यायाधीश बनकर जटिल- से जटिल प्रकरणॊं को निपटाता था. जबकि राजा के महल में पलने वाला दिन भर तूफ़ान मचाए रहता. कभी वह अपने मित्रों के साथ मारपीट करता, कभी अपने सेवकों को भी पीट देता.गालियाँ बकना तो उसकी आदत में शुमार हो गया था. राजा-रानी उसकी हरकतों से परेशान हो उठते. रानी के मन में आता कि सही-सही बात वह राजा को कह सुनाए,लेकिन एक अज्ञातभय उसे ऐसा करने से रोक देता था.
एक बार राजा ने देशाटन पर जाने का कार्यक्रम बनाया. जाने से पूर्व उन्होंने अपने महामंत्री को चार हीरे सौंपते हुए कहा:- एक हीरे की कीमत इतनी है कि उसे बेचे जाने पर राज्य का एक वर्ष का खर्च उठाया जा सकता है. ऐसे ये चार बेशकीमती हैं,इन्हें महारानी को याद से दे देना.
महामंत्री के मन में खोट आ गई. उसने उन हीरों को महारानी को देने के बदले, अपने बागीचे में एक पेड के नीचे गढ्ढा खोदकर छिपा दिया. राजा ने लौटकर उन हीरों के बारे मे महामंत्री से पूछा, तो उसने साफ़ झूठ बोल दिया कि हीरे महारानी को चार गवाहों के सामने दे दिए गए हैं.. जब राजा ने रानी से पूछा तो उसने इस बात से इनकार करते हुए कहा कि महामंत्री ने वे हीरे मुझे दिए ही नहीं है.
राजा बडॆ ही असमंजस में था कि आखिर हीरे गए तो हए कहाँ?. वह न तो रानी के साथ कठोरता से पेश आ सकता था और न ही महामंत्री के साथ वह यह भी जानता था कि कठोरता दिखाने से कितने घातक परिणाम हो सकते हैं. उसने मन ही मन निश्चय किया कि पडौसी राजा जो उसके मित्र हैं,से मिलकर कोई कारगर हल निकाला जाए. अपने लाव-लशकर के साथ राजा को जाते हुए उस बालक ने देखा, जो इस समय न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर, किसी प्रकरण में दो पक्षॊं की जिरह सुन रहा था. उसने राजा साहब के इस तरह जाने का अभिप्राय जानने के लिए उन्हें बुला भेजा. राजा ने अपने मन की सारी बातें उस बालक से कह सुनायी. सारी बातें सुन चुकने के बाद उस बालक ने परामर्श देते हुए राजा से कहा कि इतनी छॊटी सी बात को लेकर अन्य राजा को अपने राज्य में होने वाली घटनाओं की जानकारी नहीं दी जानी चाहिए. उसने बात को आगे बढाते हुए कहा कि यदि वे आज्ञा दें तो वह दरबार में आकर इसका फ़ैसला कर सकता है.
राजा को उस बालक की बात पसंद आयी और वे अपने राज्य में लौट गए. एक निर्धारित दिन वह बालक राजदरबार जा पहुँचा. उसने रानी, महामंत्री, तथा अन्य चार गवाहों को अलग-अल्ग कमरों मे बैठने को कहा और यह कहा कि वे बुलाए जाने पस्र बारी-बारी से दरबार में पहुँचे. उसने राजा की उपस्थिति मे सबसे पहले महामंत्री को बुलवाया और सामने पडॆ कुछ पत्थरों में से चार पत्थर चुनने को कहा जो दिए गए हीरों के बराबर हो. महामंत्री ने चार पत्थर उठाकर दिए. फ़िर उसने एक गवाह को बुलाकर वैसा ही करने को कहा. उसने चार बडॆ-बडॆ पत्थर जो लगभग एक-एक किलो के थे,उठाकर दिए. इस तरह अलग-अलग गवाहों ने अपने –अपने हिसाब से पत्थर उठाकर सौंप दिए. उसने पत्थरों के चार ढेर टेबल पर लगा दिए.
इतना हो जाने के बाद उसने महामंत्री सहित उन गवाहों को भी बुला भेजा. जब सारे लोग उपस्थित हो गए तो उसने महामंत्री से कहा कि इन चारों गवाहॊं ने हीरों के बराबर पत्थरों के ढेर लगा दिए हैं. सबने अलग-अलग वजन और आकार के पत्थरों को चुना है. इससे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि आपने इनके सामने हीरे महारानी साहिबा को दिए ही नहीं,अन्यथा ये एक ही आकार-प्रकार के पत्थरों का चुनाव करते.
महामंत्री ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया कि उसने सारे हीरे महारानीजी को न देते हुए अपने बागीचे मे एक वृक्ष के नीचे छिपा दिए हैं. अपराध स्वीकर कर चुके महामंत्री को राजा ने कडी सजा सुनाते हुए जेल भेज दिया. राजा ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए उस बालक को ढेर सारे ईनाम देने चाहे तो उसने साफ़ इनकार करते हुए कहा कि एक न्यायाधीश का काम सच्चा न्याय देना होता है,न कि उसके बदले ईनाम पाना. राजा ने अपनी जगह से उठते हुए उस बालक को अपने गले से लगा लिया. ऐसा करता देख अब महारानी ने भी अपना अपराध स्वीकार करते हुए सारी घटना कह सुनायी और कहा कि यही वह बालक है,जिसे उसने दाई को प्रलोभन देकर उस सुनार के बेटे से बदली करवा लिया था. राजा को अपना असली वारिस मिल चुका था. उसने रानी को अपनी गलती स्वीकार कर लेने पर यह कहते हुए माफ़ कर दिया कि वंश परम्पराएं सदा जीवित रहती हैं,उन्हें किसी भी कीमत पर मिटाया नहीं जा सकता. (पता_१०३,कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.)४८०००१