अकेले नहीं हैं हम
रुस के सुप्रसिद्ध खगोल विशारद आई.एस.श्क्लोव्सकी ने “इंटेलीजेन्ट लाइफ़ इन द यूनिवर्स” नामक पुस्तक न लिखी होती तो भारतीय तत्वदर्शन पर परलोकवाद सिद्धांत पूरी तरह धूल-धूसरित हो गया होता. अनेक तर्कों और वैज्ञानिक सिद्धांतॊं के आधार पर उन्होंने यह लिखा कि” हमारी आकाशगंगा क्षेत्र में, जिसमें कि अपना समस्त दौर-मण्डल भी आता है, लगभग 10 लाख ऐसे ग्रह हैं जहाँ कि धरती के समान ही बुद्धिमान और सभ्य लोग निवास करते हैं. इसमें से कई लोक तो इतने सुन्दर हैं कि जिनकी तुलना स्वर्ग से की जाती है”.
विज्ञान के महारथी अल्बर्ट आइस्टीन का मत है कि संसार मे अधिकतम वेगवाला विमान प्रकाश की गति वाला हो सकता है. इससे अधिक तीव्र गति भौतिक जगत में संभव नहीं है, अतएव जितना भी प्रयत्न करें बुद्धि सम्पदा वाले प्राणियों से सम्बद्ध इन ग्रहों मे आवागमन संभव नहीं हो सकता. हमारे सबसे समीप का तारा “प्राक्सिम सेण्टारी” है. यह विरान क्षेत्र है. यदि वहाँ जाया जाए तो एक बार की यात्रा में 4 वर्ष 4 माह लगेंगे .किन्तु जब हम “मन” नामक शक्ति की कल्पना करते हैं और उसकी गति का अनुमान लगाते हैं, तो पता चलता है कि वह एक सेकण्ड में हजारों प्रकाश-वर्ष की सीमाओं को पार कर सकता है. एक सेकेण्ड में जितनी कल्पनाएं हो सकती हैं, उसकी बडी से बडी दूरियाँ “मन” पार कर सकने में समर्थ है. इस मानसिक चेतना को कहीं ठहरा दिया जाए तो भौतिक दृष्टि से अदृष्य होने पर भी विद्दुत चुंबकीय स्पन्दनों की भांति उससे किसी भी अज्ञात स्थान की जानकारी ली जा सकती है. जब उस सुक्ष्मता से चित्तवृत्तियों का निरोध किया जाता है तो सारा ब्रह्माण्ड भ्रू-मध्य में उतर आया दिखता है.
मन की एकाग्रता को उस चरम बिन्दू तक पहुँचाना, जहाँ से विद्युतिक चुम्बकीय क्षेत्र पैदा की जा सकती है, में हमारे पूर्वज अर्थात वे ऋषि-मुनि ही थे, जिन्होंने अन्य ग्रहों की यात्राएं की और जो भी निष्कर्ष निकला, वे आज अक्षरसः सत्य पाए गए हैं. कई-कई जगह तो इस बात के प्रमाण भी मिलते हैं. जब वे सशरीर अन्य ग्रहों पर जाकर पुनः पृथ्वीलोक पर वापस आ जाया करते थे. हमने जितने भी भगवान बनाए या जिन्हें हमने ईश्वर माना, उन सभी के पास अपने-अपने वाहन होते थे. श्री गणेश का वाहन चुहा है, तो शिवशंकर का बैल, श्री विष्णु का गरुड है, तो इंद्र का ऎरावत हाथी. वाहनों के नाम किसी प्राणी विशेष के नाम से रखने का प्रयोजन यह भी रहा हो कि वे जनमानस में अपनी पैठ बनाए रख सकें और उन्हें आसानी से समझ सके कि किस देवता का वाहन कौनसा है. चन्द्रमा, मंगल, और बुध पृथ्वी के निकटतम पडौसी है. इनके बीच कितनी ही तरंगों का आदान-प्रदान चलता रहता है. इस आधार पर अभी भी वैज्ञानिक क्षेत्र की यह मान्यता है कि इन ग्रहों पर जीवन तत्वों का आदान-प्रदान( संचार) होता रहा होगा. इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि वहाँ किसी न किसी प्रकार का ऐसा जीवन होगा, जो अपने क्षेत्र में न पायी जाने वाली सामग्री को एक-दूसरे के अनुदानों के सहारे उपलब्ध कराता रहा होगा.. हमारी आकाश गंगा में प्रायः एक करोड नक्षत्र हैं .ऐसी अनगिनत आकाश गंगाएं विराट ब्रहमाण्ड में हैं. प्रत्येक आकाश गंगा में प्रायः इतने ही नक्षत्रों की संभावना है जितनी की अपनी आकाश गंगा में. इतने ग्रह-नक्षत्रों को सर्वथा निर्जीव नहीं माना जा सकता. अनुमान है कि समूचे ब्रह्माण्ड में प्रायः एक हजार तो ऎसे नक्षत्र होने चाहिए जैसे कि पृथ्वी की विकसित सभ्यता है. उनमें से कितने ही अविकसित स्तर के प्राणी हो सकते हैं, पर कितनों में ही मनुष्य कि तुलना मे अधिक बुद्धिमान प्राणी हो सकते हैं.
इस ब्रह्माण्ड के अगणित ग्रह-पिण्डॊं में से कितनों में ही जीवन होने की सच्चाई अब अन्तरिक्ष विज्ञानिकों के गले अधिक गहराई तक उतरने लगी है. अपनी इस पृथ्वी पर विकसित सभ्यता वाले अन्य अन्तरिक्षवासी कितने ही बार आते रहे हैं.
पृथ्वी पर अन्तरिक्षवासियों के आगमन के ऐसे प्रमाण क्रमशः अधिकाधिक संख्या मे मिलते जा रहे हैं, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे उनके छॊडॆ हुए परिचय-चिन्ह हैं.
प्राचीन समय में अन्य ग्रहवासियों का पृथ्वी पर समय-समय पर अवतरण होता रहा है. यह कोई कपोल कल्पना नहीं. विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं. अल्बर्ट आइन्स्टीन भी इस बात से सहमत हैं कि प्रागैतिहासिक काल में किन्हीं अति विकसित अन्तरिक्षीय सभ्यताओं का समय-समय पर पृथ्वी पर आगमन हुआ है.
अब विज्ञान जगत में एक प्रश्न उठ रहा है कि देवमानवों की भांति पृथ्वीवासी मनुष्य भी उन विकसित सभ्यता वालों के साथ सम्पर्क साधने और आदान-प्रदान का द्वार खोलने वाली यात्राएं कर सकते हैं. कुछ समय पूर्व सुदूर स्थित ग्रह-पिण्डॊं की दूरी मनुष्य की अल्प आयु तथा इस प्रयोजन के लिए अनुपयुक्त वाहनों को देखते हुए ऐसी यात्रा असंभव मानी जाती थी, पर अब वैसी बात नहीं रही और वे उपाय सोचे/खोजे जा रहे हैं, जिनके आधार पर अन्तर्ग्रही यात्रा संभव हो सके. देखना यह है कि विज्ञान के आधार पर लोक-लोकान्तरों की परम्परागत मान्यता के साथ कोई तुक बैठता है या नहीं ?. इस संदर्भ मे उडनतश्तरियों की बात बहुचर्चित है. आसमान से जमीन पर आने वाले किन्ही यानों की, उनसे उतरकर कुछ हलचल करने वाले प्राणियों की आश्चर्यजनक और कौतुहलवर्धक अनेकानेक घटनाएं पिछले दिनों चर्चा का विषय बनी. यह मात्र कल्पना नहीं वरन एक तथ्य है. समय-समय पर दिखाई पडने वाली उडनतश्तरियों के प्रमाण, उस तथ्य कि पुष्टि करते हैं. उडनतश्तरियों की बनावट, उनका अचानक लुप्त हो जाना आदि कुशल वैज्ञानिक मस्तिस्क एवं विकसित सभ्यता का प्रमाण देती है. सैकडॊं वर्षॊं से वैज्ञानिक यह जानने का प्रयत्न कर रहे हैं कि अचानक ये कहाँ से प्रकट होती है और कहाँ चली जाती हैं. पर उनके प्रयत्न अभी तक असफ़ल ही सिद्ध हुए हैं.
उडनतश्तरियाँ अनेकों बार देखी गई हैं तथा अपने रहस्य समेटे देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गईं. सन 1947 में अमेरिका के पश्चिमी तट राकोमा के निकट मोटरबोट में बैठे दो तटरक्षक एच.ए.डहल एवं फ़्रैड. के. क्राइसवेल समुद्र तट की निगरानी कर रहे थे. अचानक डहल ने दो हजार फ़ीट की ऊंचाई पर आकाश में छः फ़ुटबाल की तरह गोल आकृति की मशीनों को घूमते देखा. पांच मशीने एक के चारों ओर घूम रही थीं. वे क्रमशः नीचे उतरने लगीं और सागर से मात्र 500 फ़ुट की ऊँचाई पर आकर रुक गई. तट के रक्षक डहल ने अपने साथी की सहायता से अपने कैमरे से एक फ़ोटॊ खीचने का प्रयत्न किया. अभी कैमरे का स्वीच दबाया ही था कि आकाश में जोरदार धमाका हुआ. आकाश में उडने वाली मशीन में से बीच की मशीन फ़ट गई. मोटरबोट में सवार अंगरक्षक छलांग लगाकर पास की गुफ़ा में घुस गए. पर उनके साथ का कुत्ता वहीं मर गया. कुछ देर बाद बाहर निकाले तो देखा आकाश में उडने वाली वस्तुओं का नामोनिशान नहीं है. विस्फ़ोट से फ़टी मशीन के टुकडॆ तट पर बिखरे थे जो चमकीले तथा गरम थे. निरीक्षण को आए अनुसन्धान दल ने वाशिंगटन के उक्त टापू पर पडॆ हुए लगभग 20 टन धातु के टुकडॆ इकत्रित किए. परीक्षण पर मालुम हुआ कि धातु के टुकडॊं में अन्य सोलह धातुओं का सम्मिश्रण है तथा उनके ऊपर कैलसियम की मोटी चादर चढी है. वैज्ञानिकॊं को यह जानकर विशेष आश्चर्य हुआ कि इन धातुओं मे एक भी पृथ्वी पर नहीं पायी जाती. उन्होंने संभावना व्यक्त की कि अन्तरिक्षयान विशेष शक्तिशाली आण्विक यन्त्रों से संचालित था.
लेकन हीथ (इंग्लैण्ड) 13 अगस्त 1956 को रात्रि तीन बजे एअरफ़ोर्स के दो राडार स्टेशनों तेज गति से उडती हुई तश्तरियों को देखा. पृथ्वी से मात्र 1100 मीटर की ऊँचाई पर साढे तीन हजार किलोमीटर प्रति घंटा की गति से ये विचित्र संरचनाएं पश्चिम दिशा की ओर उड रही थीं. रायल एअरफ़ोर्स के एक लडाकू विमान ने इनका पीछा किया किंतु वे देखते-देखते अदृश्य हो गईं.
10 अक्टूबर 1966 को सायं 5 बजकर 20 मिनट पर ’न्य़ूटन इलिनाय”(अमेरिका) में पृथ्वी से मात्र 15 मीटर की ऊँचाई पर एक यान जैसी वस्तु उडती दिखाई दी . 6 मीटर लम्बी, 2 मीटर व्यास वाली “सिगार” की शक्ल वाली यह तश्तरी के अग्रभाग का छिद्र प्रवेश द्वार जैसा लगता था, तथा इसके चारों ओर हल्की नीली रंग की धुंध छाई थी. यान से ध्वनि भी सुनाई नहीं पड रही थी. कुछ मिनटॊं बाद वह वस्तु गायब हो गई.
पिछले दिनों भारत में भी उडनतश्तरियाँ देखी गईं. 3 अप्रैल 1978 को अहमदाबाद में उदयपुर विश्व-विद्यालय के प्रोफ़ेसर दिनेश भारद्वाज ने रात्री के नौ बजे तश्तरी जैसी किन्ही चीजों को उडते देखा. वे प्रकाशपुन्ज जैसी समानान्तर एक साथ उडती रही थी, अचानक विपरीत दिशा की ओर उडकर गायब हो गईं. वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्हें उल्कापिण्ड नहीं माना जा सकता, क्योंकि उल्कापिण्ड अपनी इच्छानुसार दिशा नहीं बदल सकते. इन्हें किसी कुशल मस्तिस्क द्वारा संचालित माना जाना चाहिए.
कितनी बार तो पीछा करने वाले यानों के चालकों को अपने जीवन से हाथ धोना पडा है. उनकी वैज्ञानिक क्षमता बढी-चढी है इसका अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है. मेलबोर्न 24 अक्टूबर 1978 को एक विमान चालक सहित एक उडनतश्तरी गायब हो गई. बीस वर्षीय युवा चालक “ फ़्रेडरिक वाकेटिच” ने आस्ट्रेलिया एवं तस्मानिया के बीच चार्टर्ड उडान भरी. चालक ने हवाई अड्डॆ के ऊपर से चाटर्ड रेडियो संदेश द्वारा अधिकारियों से पूछा कि 1524 मीटर की ऊँचाई पर उसी क्षेत्र में कोई दूसरा विमान तो नहीं उड रहा है. फ़्लाइट सर्विस ने नकारात्मक जवाब दिया. फ़्रेडरिक ने अधिकारियों को बतलाया कि वह 182 मील दूर 137 मीटर ऊँचाई पर किंग आइसलैण्ड के पास उड रहा है. उसे एक लम्बे आकार की वस्तु तेज गति से उडती दिखाई दे रही है तथा उसके ऊपर एक लम्बी आकार की वस्तु तेज गति से उडती दिखाई दे रही है. तथा उसके विमान के ऊपर चक्कर काट रही है. बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि किसी चीज के टकराने जैसा शोर सुनाई पडा और विमान का संपर्क नियंत्रण कक्ष से टूट गया. मेलबोर्न हवाई अड्डॆ से अनेकों जहाजों को खोज के लिए भेजा गया लेकिन चालक और यान का न तो कोई पता चला और न ही दुर्घटना का कोई चिन्ह मिला.
अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भी उडनतश्तरी देखी. अमेरिका के वैज्ञानिकों ने उडनतश्तरियों को अपने शोध का विषय बनाया. इसका नाम उन्होंने “ अन-आइडेण्टीफ़ाइड फ़्लाइंग आब्जेक्ट्स”( यू.एफ़.ओ)” रखा. जे.एल हाइनेक” ने नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में यू.एफ़.ओ. अध्ययन केन्द्र की स्थापना की. इस शोध संस्थान का कार्य उडन्तश्तरियों के रहस्यमय उडानों के संबंध मे तथ्यपूर्ण जानकारियां इकठ्ठा करना है.
जर्मन वैज्ञानिक “ एरिकबन देनिकेन” ने अपनी पुस्तक “ चैरियट्स आफ़ गाड्स” और “रिटर्नमद स्टार्स” में भी इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि अन्य ग्रहों के निवासी पृथ्वीवासियों की टोह लेने के लिए समय-समय पर उतरते रहे हैं. यहाँ के वैज्ञानिकों की तुलना में विज्ञान के क्षेत्रों में उनकी पहुँच अधिक है.
बुद्धिमता एवं सभ्यता के क्षेत्र में मनुष्य ही सबसे अग्रणी नहीं है. पृथ्वी की तुलना में विकसित सभ्यताएं भी ब्रह्माण्ड में मौजूद हैं. मनुष्य को अपनी तुच्छता समझनी चाहिए. मिथ्या गर्व की अपेक्षा ईश्वर प्रदत्त क्षमता का उपयोग मानवोचित रीति-नीति अपनाने में करना ही श्रेयस्कर है.