हमारा सौर-मण्डल
खगोल विज्ञानिकों के अनुसार अपनी धरती को एक गैस बादल से समुद्र का, पिण्ड गोलक का, रूप धारण करने वाले समय तो प्रायः 11 अरब वर्ष हुए हैं. सौर-मण्डल के अन्य सदस्यों का जन्म भी प्रायः एक साथ ही हुआ, इसमें उनकी आयु भी वही मानी जाएगी.
हमारी धरती सौर-मण्डल के बीच में नहीं है, वरन एक कोने में पड़ी है. ठीक इसी प्रकार हमारा सौरमण्डल भी माअन्दाकिनी आकाश गंगा के ठीक मध्य में अवस्थित न होकर एक कोने में पड़ा है. सूर्य प्रति सेकेण्ड २२० किमी की गति से अपने सौर-मण्डल साहित आकाश गंगा केन्द्र की परिक्रमा करता है.
सौर-मण्डल के कुछ सदस्यों में कुछ ग्रह है, कुछ उपग्रह. सूर्य को छॊड़कर नौ ग्रह है- बुध- शुक्र- पृथ्वी- मंगल बृहस्पति- शनि- यूरेनस नैप्चून-और प्लेटो. सूर्य से बुध की आधिकतम दूरी 297 लाख कि.मी., शुक्र 1090 लाख किमी.,पृथ्वी 1521 किमी., मंगल 2491 किमी, बृहस्पति 8957 किमी, शनि 15070 किमी, यूरेनस 30040 लाख किमी तथा नैपच्यून 45370 किमी की दूरी पर अवस्थित हैं.
पुराणिक आख्यानों के अनुसार कभी पृथ्वी चटाई की तरह चपटी बिछी हुई थी. विद्वान आर्यभट्ट ने पहली बार पाँचवीं शताब्दी में पृथ्वी को गोल गेंद की तरह बताया. बारहवीं शताब्दी में भास्कराचार्य ने उसमें आकर्षण शक्ति होने की बात जोड़ दी. प्राचीन ज्योतिष विज्ञान धरती को स्थिर और सूर्य को चल मानता था. सहज बुद्धि भी यही सोच सकती थी, किन्तु पीछॆ पृथ्वी को भ्रमणशील बताया गया तो बताने वालों को उपहासास्पद ही नहीं माना गया, वरन उन्हें नास्तिक कहकर नास्तिकता के अपराध में सूली पर चढ़ा दिया गया,किंतु तथ्य तो तथ्य है. सत्य की कितनी ही उपेक्षा की जाय उसे स्वीकारना ही पड़ता है.
सूर्य सौर-मण्डल का केन्द्र है. उसका व्यास पृथ्वी से 109 गुना, वजन 3,30,000गुना तथा घनफ़ल 13,00,000 गुना बड़ा है. इसी तरह हमारी धरती उत्तर से दक्षिण तक 7896 मील तथा पूर्व से पश्चिम तक 7926 मील है. इसका 71 प्रतिशत भाग समुद्र में डूबा हुआ है. समुद्र की गहराई 35 हजार फ़ीट है तथा भू-तल के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ 29 हजार फ़ुट तक ऊँचे है. सूर्य की परिक्रमा करने में पृथ्वी को 58 करोड़ 46 लाख मील के यात्रा एक वर्ष में पूरी करनी होती है. वह 66,600 मील प्रति घण्टा की गति से अपनी कक्षा में भागती है, साथ ही स्वयं भी लट्टू की भाँति 24 घण्टॆ में अपनी धुरी पर घूम लेती है.
कहा जाता है कि आदिम काल का मनुष्य अनगढ़ गुफ़ाओं में रहता था, पर अब पर्वतीय प्रदेशों में ऎसे भव्य भवन ढूँढ निकाले गए हैं जो प्राकृतिक अनगढ़ नहीं है, वरन मनुष्यों द्वारा उच्चस्तरीय कला-कौशल के साथ बनाए गए हैं.. प्रश्न उठना लाजमी है कि उसने इतनी जल्दी इतनी सफ़लतापूर्वक स्थान कैसे ढूँढ निकाले.?. इसका समाधाना उस मानचित्रों से मिलता है जो अतीव पुरातन है और पृथ्वी एवं समुद्र की सही स्थिति में उपलब्ध है. नवीन शोधकर्त्ताओं ने सम्भवतः इन्हीं मानचित्रों से सहायता ली है और खोज का काम शीघ्रतापूर्वक समग्र रूप से सम्पन्न किया.
अब से पचास-साठ वर्ष पूर्व धरती का वायुमण्डल 7.8 मील की ऊँचाई तक माना जाता था. कभी 100-150 मील तो कभी 250-300 मील बताई जाने लगी, विज्ञान की भाषा में इसे “आयनोस्फ़ियर” कहा जाता है. इससे भी ऊँची लहराती, झूमती, रंगीन, ज्योतियाँ देखी गईं जिन्हें वैज्ञानिकों की भाषा में “आऊरोकल लाइट्स-मेरूज्योतियाँ” कहा गया. इसका अस्तित्व वायुमण्डल के बिना सम्भव नहीं.अस्तु वायुमण्डल की सीमा 700 मील ऊँचाई तक मानी गई.
आयनोस्फ़ियर की उपस्थिति पृथ्वी के ऊपरी धरातल पर रेडियो-तरंगों के प्रसारण के कारण है. इसके कारण अन्य ग्रहों के प्रभाव पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाते. सूर्य में होने वाले परिवर्तनों का इस आयन मण्डल (आयानोस्फ़ियर) पर भी प्रभाव पड़ता है. सूर्य की आल्ट्रावायलेट विकीरण तथा विद्धुत प्रभावित कणॊं की शक्तिशाली धाराएँ, जो सूर्य के ऊपरी धरातल से तेजी से निकल रही है, उस समय, जब सूर्य पर कोई परिवर्तन होते हैं, हलचलें होती हैं, तो उसका प्रभाव आयन मण्डल के कवच को प्रभावित करता है.. उस समय पृथ्वी का वातावरण अचानक बदलने लगता है, उस समय पृथ्वी पर सबसे अधिक संख्या में चुम्बकीय तूफ़ान, आयन मण्डल में जलजलाहट तथा रेडियो सम्बन्धों के कटाव होते हैं. इसी समय मध्यरात्रि में अक्षांशों तक में ध्रुवीय आभाएँ, विचित्र प्रकाश रश्मियाँ अदि देखे जाते हैं
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