समय की कोख से ---------------------
समय सदा परिवर्तनशील होता है. समय की कोख से कोई सभ्यता जन्म लेती है, फ़लती-फ़ूलती है, नए-नए आविष्कार होते हैं और आपसी कलह से अथवा प्राकृतिक प्रकोपों की वजह से वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है, यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है. पुरातत्ववेत्ता इनकी खोज करते हैं और इसके प्रमाण भी जुटाते रहते हैं. आश्चर्य इस बात को लेकर होता है कि तथाकथित नयी सम्यता उस प्राचीनतम सभ्यता का या तो माखौल उडाती है अथवा दकियानूसी कहकर अपनी पीठ थपथपाती है. महाभारत अथवा रामायण कालीन युग ही बात करें- कई घटनाएं सामने आती है- मसलन रथियों-महारथियों द्वारा किसी शक्ति का संचालन कर आग बरसना, पानी बरसाना, सशरीर स्वर्ग की यात्रा करना, विमान द्वारा यात्रा करना अथवा श्री कृष्ण द्वारा सुदर्शनचक्र चलाकर शत्रु की गर्दन काटना, अदृष्य हो जाना आदि-आदि, इन सब घटनाओं को काल्पनिक बताया जाता है और यह कहा जाता है कि उस युग में वर्णित इतिहास असम्भव से भी असम्भव है, उस युग में मानव का बौद्धिक स्तर इस योग्य था ही नहीं कि वह कोई चमत्कारिक कार्य कर सकता था.
सच पूछा जाए तो बौद्धिक दृष्टि, विज्ञान, तकनीक, उद्दोग, वाणिज्य, वास्तुकला, स्थापत्य, विमान आदि समस्त क्षेत्रों में जैसी प्रगति प्राचीन काल में हुई ,वैसी स्थिति तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को कई शताब्दियाँ लग जाएंगी.
“चैरियट्स आफ़ गाड्स” नामक पुस्तक में सुप्रसिद्ध जर्मन इतिहासवेत्ता डा.एरिचवन डनिकेन ने सारे संसार का पर्यटन किया और उन तथ्यों का संग्रहण संकलन किया,जिन्हें इस युग में आश्चर्य की संज्ञा दी जाती है. इस अध्ययन का निष्कर्ष विद्वान लेखक ने भी इसी तरह के शब्दों में निकाला है और लिखा है” जहाँ से हमारा इतिहास लिखा गया है उसके पूर्व वैदिक युग की सभ्यता, संस्कृति और वैज्ञानिक उपलब्धियाँ आज की अपेक्षा सैकडॊं गुणा अधिक थी. हमारे पूर्वजों की शक्ति, सामर्थ्य, बौद्धिक और आत्मिक क्षमताएँ ऎसी थीं जिनका वर्णन कर सकना भी असंभव है. उस युग का तकनीकी ज्ञान भी अब से किसी भी स्थिति में कम न था.”
मिस्र के पिरामिडॊं को ही ले लें. यदि उस युग में विज्ञान और तकनीक का कोई विकास नहीं था तो मिस्र में यह पिरामिड बडॆ-बडॆ शहर, मन्दिर,मूर्तियाँ, सडकें, पानी निकास की नालियाँ, चट्टाने काटकर बनाए गए मकबरे, और भयंकर आकार-प्रकार के पिरामिड कहाँ से आए गए ?. इन सबका कोई पूर्व इतिहास नहीं मिलता. इसका अर्थ मिस्र के विशेषज्ञ भी यह निकालते हैं कि तब इस तरह की क्षमताएँ सामान्य बात रही होगी. किसी ने उस सभ्यता के विनाश और भविष्य में परिघटित मानवीय सामर्थ्यों की कल्पना ही न की होगी, इसीलिए सम्भवतः वह इतिहास लिखने के आदि नहीं रहे. एक कल्पना यह भी है कि किसी भयंकर युद्ध(महाभारत) जिसमें अणु आयुध भी प्रयुक्त हुए हों, रेडियो धर्मिता, जल-प्रलय, हिम-प्रलय, भूस्खलन या ज्वालामुखियों ने उस सभ्यता और उसके इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया हो. जहाँ-तहाँ जो सामग्री बच गई हो वही आज पुरातत्व अवशेषों में देखी जा सकती है.
तत्कालीन शारीरिक क्षमता, बुद्धिमत्ता, कला-कौशल के प्रतीक के रुप में “च्योप्स के पिरामिड” को लिया जा सकता है, जहाँ यह पिरामिड बना है, वह स्थान अत्यधिक ऊबड-खाभड क्षेत्र है, उसे समतल बनाने में ही भयंकर परिश्रम करना पडा होगा, फ़िर यही स्थान क्यों चुना गया ?. इसे प्रागैतिहासिक युग की सूक्ष्मतम बौद्धिक सामर्थ्य का प्रतीक कह सकते हैं. यह स्थान महाद्वीपों तथा समुद्रों को ठीक दो बराबर-बराबर भागों में विभक्त करता है. स्पष्ट है कि यह कार्य न तो सागर नापकर किया जा सकता है और न ही धरती. तो फ़िर बहुत सुधरे किस्म के यन्त्रों से प्राप्त जानकारियों को गणित में बदलकर स्थान ज्ञात किया गया होगा. यह स्थान गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बिल्कुल मध्य में जो है, जो यह दर्शाता है कि तब के लोग नक्षत्र विध्या में भी पारंगत थे. चुम्बकीय-बलों से अच्छी तरह परिचित थे.
“च्योप्स” के इस दैत्याकार पिरामिड में 26 लाख पत्थर के सुन्दर डिजाइल किए हुए पत्थर लगे हैं. इसकी फ़िटिंग इतनी साफ़ है को दो पत्थरों के बीच की अधिकतक झिरी 1/1000 इंच से भी कम अर्थात नहीं के बराबर है. इसमें जो गैलेरी है उसकी दीवारें सुन्दर रंगों से पेंट की हुई है. 1 ब्लाक पत्थर का वजन 12 टन का है. आज के स्तर से हिसाब लगाया जाए तो प्रतिदिन अधिक से अधिक दस पत्थर-ब्लाक ही चढाए जा सकते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि 26 लाख पत्थर, 2 लाख 60 हजार दिनों में अर्थात 712 वर्षों में इसका निर्माण सम्भव है, जबकि पिरामिड में उसके एक ही निर्माता का नाम “ फ़राह खुफ़ू” अंकित है.
इस विशाल निर्माण पर आश्चर्य कर लेना एक बात हुई, पर विचारक को तो तब तक सन्तोष नहीं जब तक वस्तुस्थिति की समीक्षा न हो. इस आश्चर्य के पीछे निम्नांकित प्रश्न उभरते हैं और आज के बौद्धिक दम्भ से उसका समाधान चाहते हैं.
(1) 12 टन के पत्थर बनाने के लिए खान से कम से कम 15 टन भार के पत्थर तो निकाले ही गए हैं, यदि उस समय डायनामाइट जैसे तत्व और उपकरण न थे तो इतने भारी वजन के ब्लाक खानों से निकालन कैसे सम्भव हुआ ?.
(2) यह पिरामिड काहिरा और अलेक्जेण्ड्रिया के मध्य बने हैं. गाडी व घोडॊं का प्रचलन भी सन 1600 ई. माना जाता है. फ़िर यह भारी पत्थर बिना किसी सशक्त यातायात साधन के खान से पिरामिड क्षेत्र तक कैसे ढोए गए ?.
(3) मिस्र रेगिस्थानी प्रदेश है जहाँ ताड के अतिरिक्त कोई और लकडियाँ उपल्ब्ध नहीं. इतने भारी भार के पत्थर सिवाय रोलर्स से और किसी तरह स्थान्तरित नहीं हो सकते. इतने बडॆ कार्य के लिए इतने रोलर कहाँ से आये ?. ताड वृक्ष वहाँ के निवासियों का मुख्य आहार-आभार है, वे उसे काट नहीं सकते फ़िर क्या यह रोलर समुद्री मार्ग से आयात किए गये ?. यदि ऎसा हुआ तो क्या तब जलयान नहीं थे ?.
(4) अरब विशेषज्ञों ने इन पिरामिडॊ, भूमिगत शहरी खण्डहरों और इन पिरामिडॊं के निर्माण में लगी जन-शक्ति का अनुमान करते हुए अरब की जनसंख्या 5 करोड निश्चित की है जब कि वहाँ नील डेल्टे के दाएँ-बाएँ बाजू का ही एकमात्र क्षेत्र कृषि की उपज के योग्य है. सो भी अधिकांश नील ही वहाँ पैदा की जाती है. आज से 5000 वर्ष पूर्व समूचे विश्व की आबादी 2 करोड अनुमानित की गई है. फ़िर उससे पूर्व यह 5 करोड आबादी अकेले मिस्र में कहाँ से आ गई ?.उनके भोजन की व्व्यवस्था क्या पडौसी देशों से होती थी ?.
(5) उस युग में विद्दुत नही थी, टार्च नहीं थे, जबकि पिरामिड की सैकडॊं फ़ीट लम्बी सुरंगों की विधिवत रंगाई-पुताई हुई है. मशालों से वहाँ के मजदूरों का दम घुट सकता था. दीवारें काली हो सकती थी. अतएव उनका प्रयोग कदापि न होने की बात एक स्वर से पुरातत्ववेत्ता भी स्वीकर करते हैं. फ़िर प्रकाश की व्यवस्था कैसे हुई ?.
(6) पत्थरों की इतनी अच्छी कटाई कैसे हुई कि दो पत्थर जोडने पर झिरी 1/1000 इंच से भी कम अर्थात हर पत्थर एक-दूसरे से चिपक कर बैठा हो ?.
इस युग को विज्ञान और तकनीक का युग कहते हैं, वजन उठाने वाली अच्छी से अच्छी क्रेनें, सामान ढोने के लिए यातायात के साधन, उन्नत निर्माण यंत्र, अच्छी से अच्छी इंजीनियरी जो भाखडा जैसे बाँध विनिर्मित कर सके, पर यह पिरामिड उन्नत विज्ञान के वश की बात नहीं ?. तब फ़िर यह आश्चर्यजनक रचना कैसे समभव हुई ?. एक ही उत्तर मिलेगा. तब के लोग आज के लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त, समर्थ,बुद्धिमान और हर क्षेत्र में विकसित थे. तब न समुद्री भागों से अपितु वायुमार्गों से भी विमान चलते थे, इसके पुष्ट प्रमाण हैं. भारद्वाज संहिता का “वैमानिक प्रकरण”, जिसमें विमान की विकसित तकनीक का वर्णन है, यह तो प्रमाण है ही, पुरातत्व विभाग ने वह स्थान भी खोजे हैं जो आज की अपेक्षा अधिक सुरक्षित “एरोड्रम तथा हवाई पट्टी” के रुप में प्रयुक्त होते थे.
दमिश्क की “ टौरेस आफ़ वाल बैक” जो कि छत पर बना एक सुन्दर प्लेटफ़ार्म है. यह स्थापत्य कला का भी एक आश्चर्य है इसमें 65-65 फ़ुट और 2000 टन तक के पत्थर प्रयुक्त हुए हैं. इतना वजन या तो एलेक्ट्रान शक्ति चालित क्रेन उठा सकती है या फ़िर हनुमान जैसे प्रचण्ड बलधारी महापुरुष जो सुमेरु को उठाने में भी सक्षम रहे थे. दोनों में से कोई बात हो, पहाड ऊँट के नीचे नहीं आता, ऊँट ही पहाड के नीचे आता है. आज का मनुष्य उस ऊँट की तरह है जो यह समझता है हमसे ऊँचा कोई है ही नहीं, जब वह इस तरह के पहाडॊं के समीप से गुजरता है तब कहीं दर्प चूर होता है और यह मानने को विवश होना पडता है कि आत्मिक-आध्यात्मिक, धार्मिक दृष्टि से समुन्नत होकर भौतिक उपलब्धियाँ न केवल अविकसित की जा सकती है अपितु उनका यथार्थ और मनुष्य जीवन के लिए हितकारक उपभोग भी तभी सम्भव है. अकेला विज्ञान उस शेर की तरह है जो शक्तिशाली तो है, पर उसकी नर-भक्षी नीति विश्व सभ्यता के विनाश का ही कारण बनती जा रही है.
“टेरेस आफ़ बाल बैक” के प्रति अपना विश्वास व्यक्त करते हुए रसियन विद्वान अगरेस्ट का भी अनुमान है कि निश्चित ही यह अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा था जहाँ दूसरे देशों के भी जहाज आते-जाते थे. टिहानको की कृत्रिम पहाडी छत भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है. 4784 वर्ग क्षेत्र में पूरी पहाडी को इस तरह समतल बनाया गया है कि उसमें एक सूत भी ऊँचाई-निचाई का अन्तर नहीं मिलता. टिहानको नगर सुमेरिन सभ्यता का वैसा ही विकसित अंग माना जाता है जैसे सिन्धु घाटी की “हडप्पा व मोहिन जोदडॊ”. सबसे अधिक उन्नति राजा “कुमुन्दजित” के समय हुई. “सुमेरु” से बना शब्द सुमेरियन तथा “कुयुन्दजित” से “कुमुन्दजित” दोनों ही स्पष्टतः भारतीय नाम है और इस बात के प्रमाण है कि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत विश्व शिरोमणि था. अन्य देशों को यहाँ से न केवल आत्म-विद्ध्या के साथ-साथ भवन निर्माण, कलाकारी, विमान विद्ध्या, कृषि और वाणिज्य, भाषा, साहित्य और गणित आदि पढने यहाँ संसार भर के लोग आते थे. पश्चिमी विद्वान “ग्रीक” सभ्यता को अति प्राचीन बताते हैं. इतिहास पूर्व युग में वहाँ की संख्या की दृष्टि से 10,000 सबसे बडी संख्या प्रयुक्त होती थी, इसके बाद से अनन्त शब्द प्रयुक्त होता था, जबकि कुमुदजित पहाडी पर एक गणना अंकित है जिस पर 195955200000000 संख्या अंकित है. यह संख्या किसलिए लिखी गई, किस तरह किसलिए निकाली गई है, यह तो ज्ञात नहीं, पर इतना स्पस्ट है कि इतनी बडी संख्या या तो किन्ही ग्रह-नक्षत्रों की दूरी ज्ञात करने के लिए निकाली गई होगी, तब फ़िर गणित के क्षेत्र में आज से ऊँची स्थिति का अनुमान स्वाभाविक है. भारत से जहाँ भी सभ्यता गई, यह तथ्य सर्वत्र विद्धमान है. असीरियन सम्राट असुर बनीपाल के पुस्तकालय में बहुत बढिया किस्म की मिट्टी से बनाई गई 12 टिकियों में पूरा एक ग्रंथ अंकित है. इसमें भावनाओं की सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति का प्रमाण है. इसकी प्रतिलिपि एकेडियन लिपि में “हमुराबी राजा” के सग्रंहालय में भी मिलती है. इसका अर्थ यह हुआ कि उस युग में भाषा, गणित और इतिहास की शोधें, उनका प्रकाशन भी होता था अपितु वह प्रयत्न भी किए जाते थे, जिनमें विद्ध्या का सर्वत्र प्रसार होता था. पुरातत्व की यह शोध सामग्री, यह आश्चर्यजनक निर्माण और उपलब्धियाँ निःसंदेह इस बात के प्रमाण है कि हमारे पूर्वज किसी भी क्षेत्र में हमसे कम नहीं थे. विद्धया-बुद्धि, कला-कौशल, आवास-निर्माण, विज्ञान तकनीक, शरीर- स्वास्थ्य, विमानन, वाणिज्य, कृषि आदि में उनकी उपलब्धियाँ हमारी अपेक्षा बहुत अधिक बढी-चढी थी, फ़िर भी उनका मूल ध्येय आत्मनिर्माण जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति था. आज स्थिति उल्टी है. आत्म-तत्व की शोध के लिए जब कि विराट ज्ञान उपलब्ध है तब वह भौतिक साधनों की मृग-मरीचिका में भटक गया है फ़िर भी स्वयं को सही तथा पूर्वजो को पिछडा हुआ मानने के दम्भ पर उसे तनिक भी लज्जा नहीं आती.
सराक्यूज की रोती हुई प्रतिमा.
गोवर्धन यादव
आपने अपने जीवन में किसी औरत को/आदमी को अनेकों बार रोते हुए देखा होगा. वह क्यों रो पडी/पडा, उसके रोने के पीछॆ क्या कारण थे, आदि के बारे में जाना जा सकता है. लेकिन यदि कोई बेजान मूर्ति अथवा बेजुबान वस्तु रोने लगे तो इसे क्या कहेंगे? आश्चर्य अथवा घोर आश्चर्य.? शायद हम इसे घोर आश्चर्य की श्रेणी में ही रखना चाहेंगे.
25 अगस्त 1953 कॊ अमेरिका में घटी घटना के अनुसार सराक्यूज की पत्थर की एक मूर्ति रो पडी. उसकी आँखों से कई दिनों तक लगातार आँसुओं का प्रवाह होता रहा.. इस घटना की भनक पडते ही सारे अमेरिका में हलचल मच गई. सैंकडॊं आदमियों ने मूर्ति के आँसुओं का परीक्षण किया. हजारों ने दर्शन किए, लाखों नास्तिकों को भी अपना विश्वास परिवर्तित करने के लिए विवश होना पडा. वैज्ञानिक आधार पर इन आँसुओं का विश्लेशन किया गया तो यह पाया गया कि मूर्ति की आँखों से स्त्रवित आँसुओं और मनुष्य के आँसुओं में कोई अन्तर नहीं है.. इस घटना का आँखों देखा सत्य विवरण और उसके अद्भुत प्रभावों का प्रमाण सहित वर्णन डच विद्वान फ़ादर ए.सोमर्स एस.एम.एम ने अच्छी प्रकार स्वयं मूर्ति का परिक्षण करके लिखा. फ़ादर एच.जोंगेन ने उसका अनुवाद कर विश्व के शेष भागों तक पहुँचाया.
घटना का पूर्वारम्भ 21 मार्च 1953 को हुआ था. उस दिन सराक्यूज में कुमारी एण्टोनियेटा और श्री ऎंग्लो जेन्यूसो का पाणिग्रहण संस्कार हुआ था. इस अवसर पर उन्होंने अपने अभ्यागतों को अनेकानेक उपहार दिए. उस सामग्रियों में एण्टोनियेटा को एक छॊटी सी मूर्ति उपहार में मिली, ठीक मीरा के गिरधर-गोपाल की मूर्ति की तरह, जिसे जेन्यूसो के भाई और भाभी ने भेंट में दी थी. दो इंच की यह छॊटी-सी मूर्ति प्लास्टर की बनी हुई थी, अन्दर से खोखली और ऊपर एनामल(पालिश) की हुई थी. एण्टॊनियेटा को वह मूर्ति बडी प्यारी लगी. कहते हैं, भावनाएँ जब एक बार किसी वस्तु पर ठहर जाए अथवा आरोपित हो जाय तो वह प्राणवान हो उठती है. फ़िर भावनाओं की शक्ति भी अपरिमित हो जाती है. गृहस्थ मीरा का भी यही हाल था. जब वे अपने गिरधर-गोपाल की मूर्ति के समीप होती, तो नृत्य करने लग जाती थीं. उनमें खो सी जाती थी ठीक यही हाल एण्टॊनियेटा के साथ भी हो रहा था. अब वह उसके लिए कोई साधारण सी मूरत नहीं थी, बल्कि वह उसकी इष्टदेवी (मेडॆना) बन गई थी. उसने उस मूरत को अपने सिरहाने लगा लिया था. जिस तरह एक बालक किसी कष्ट अथवा पीडा की अवस्था में माँ को भावनाओं का बल देकर पुकारता है और वह हजार काम छॊड कर दौडी चली आती है. ठीक उसी तरह एण्टॊनियटा जब भी कभी दुखी होती, अपनी साथिन मूर्ति से भावनात्मक वार्तालाप करती. अपना दुखडा सुनाती. ऎसा करते हुए उसे अपार प्रसन्न्ता होती/ बडा संतोष मिलता. .
एक समय ऎसा भी आया जब एण्टॊनियेटा गर्भवती हुई. गर्भ जैसे-जैसे बढता गया, वैसे-वैसे उसका शारीरिक कष्ट न जाने क्यों बढने लगा. वह सूख कर कांटा हो गई. आँखें धंस गई और एक दिन उसकी देखने की शक्ति चली गई. जुबान ने भी अब बोलने से इन्कार कर दिया था. उसे रह-रहकर मिरगी के दौरे आते और वह मृत तुल्य हो जाती.
उसकी जाँच कुशल डाक्टर से करवाई गई. जाँच में पता चला कि उसके भ्रूण में जहर फ़ैल गया है और वह लगातार बढता ही जा रहा है. डाक्टर समझ नहीं पा रहे थे, कि ऎसी अवस्था में उसका किस तरह इलाज किया जा सकता है.?. इस विकट परिस्थितियों में एण्टॊनियेटा अपनी संगी-साथी मेडॆना की मूर्ति को अपलक देखती. उसकी आँखों से आँसू झरने लगते. वह भाव-विव्हल हो जाती और अपने हाथ जोड्ते हुए मन ही मन प्रार्थना करती और शिकायत भरे लहजे में कहती- हे प्रभु! यदि तेरी सृष्टि मंगलमय है, तूने प्यार से मनुष्य को बनाया है तो क्या तेरे लिए यह उचित है, कि अपने ही बन्दों को इतना कष्ट दें ?
कहते हैं कि परमात्मा बडा न्यायकारी है. वह अपने न्याय के लिए जीवात्मा को बार-बार तपाता है, कष्ट देता है और विभिन्न योनियों में पहुँचाते हुए जरा भी विचलित नहीं होता, किन्तु उसका हृदय भी उतना ही विशाल है. उसके हृदय में करुणा का सागर का लहलहा रहा होता है. अपने भक्तों की पुकार सुनकर उसका भी मन द्रवित हो उठता है. वे जानते थे कि एन्टॊनियेटो के प्रारब्ध में अभी और कष्ट उठाना बाकी है, शायद इसलिए वे उसकी कष्ट भोगने के सम्बन्ध में हस्तक्षेप नहीं कर पा रहे थे,लेकिन उनकी अनन्त करुणा उस दिन रुक न सकी और वह पत्थर की आँखें फ़ोडकर निकल ही पडीं.
एन्टॊनियेटा के भाई जेन्यूसो को अपनी ड्यूटी पर जाना था. वे उसे अकेला छॊडकर जा चुके थे. पलंग पर निःसहाय पडी-पडी, भयानक पीडा को झेलते हुए, वह अपलक दृष्टि से उस मूर्ति पर अपनी नजरे गडाए हुए थी. यह घटना 29 अगस्त 1953 की थी. और यह दिन एन्टॊनियेटा के लिए सबसे भारी कष्टदायक सिद्ध हुआ. वह बार-बार अपने कष्ट के निवारण के लिए उस मूर्ति से मन ही मन प्रार्थना कर रही थी. तभी सहसा एक चमत्कार हुआ. मूर्ति के आँखों से आँसू बहने लगे. उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसके कष्ट से द्रवीभूत होकर कोई बेजान मूरत रो भी सकती है. उसे ऎसा भी भ्रम हुआ कि वह कोई स्वपन देख रही है. उसने अपना सब कुछ निरीक्षण किया और पाया कि वह स्वपनावस्था में नहीं देख रही है, वरन सचमुच में ही मूर्ति की आँखों से आँसू ढुलक रहे हैं.
कई दिन बाद आज पहली बार उसकी चीख सुनाई दी गई. वह जोर से चिल्लाई – “मेडेना रो रही है”. पडौस की दो स्त्रियों ने उसकी चीख सुनी और दौडी चली आयीं. इन्होंने देखा की मेडेना सचमुच में रो रही है. दोनो महिलाओं ने मूर्ति के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की और फ़िर बाहर निकल गईं. देखते-देखते सारे मुहल्ले में खबर दौड गई. जिसने सुना वही भागा. मूर्ति उपहार में देने वाली जेन्यूसो की भाभी ने भी आकर देखा, तब तक मूर्ति के इतने आँसू निकल चुके थे, जिससे सिरहाने का बिस्तर काफ़ी भींग चुका था.
प्रारम्भ में लडकियाँ और स्त्रियों ही यह दृष्य को देखने दौडीं. कुछ लडके भी आये. पडौस में रहने वाली एक सिपाही की पत्नि ने यह दृष्य देखा और अपने पति को बतलाया कि वाया डेगली ओरटी में एण्टोनियेटा की मेडॆना की आँखों में आँसू झर रहे हैं. सिपाही ने जाकर सारी घटना को देखा और हेडक्वार्टर जाकर इसकी सूचना पुलिस को दी. इस बीच सारा घर स्त्री-पुरुषॊं से भर चुका था. कई स्त्रियाँ प्रार्थनाएँ कर रही थी और मूर्ति थी कि उसकी आँखों से बरसने वाले अश्रु-कण कम न होते थे.
उसी दिन दोपहर को डाक्टर मारियो मेसीना, जो वाइआ कारसो में रहते थे, स्वयं घटना का निरीक्षण करने पहुँचे. उन्होंने जाकर मूर्ति को उठा लिया. दीवार जहाँ वह टंगी थी, उसे अच्छी तरह देखा कहीं कुछ भी गीला या पानी की बूँदें तक न थी. मूर्ति की छाती और पेट भी सूखे थे. यह जो ताज पहने थी, उसे भी हटाकर साफ़ कर दिया. अच्छी तरह जब झाड-पोंछ कर मूर्ति को पुनः रखा गया तो भी आँसूओं का वही प्रवाह अविरल गति से पुनः बह निकला.
डा.मारियो भी स्वयं भावातिरेक से चिल्ला उठे- “ मेडॆना सचमुच में रो रही है”.. उन्होंने बाहर आकर सैकडॊं लोगों को बताया-“ यह एक अलौकिक प्रसंग है, जबकि न तो आँखें धोका दे रही हैं और न ही बुद्धि साथ. क्या विज्ञान इसका कोई सार्थक उत्तर दे सकता है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ?.केवल इतना ही कहा जा सकता है कि भगवान की माया सचमुच में विलक्षण है.”
अब तक जेन्यूसो भी घर आ गया था. मूर्ति के रुदन को देखकर अपने पत्नि के प्रति दर्द की सहानुभूति कुछ ऎसी उमडी कि वह भी दहाड मार कर रो पडा. उस दिन सैकडॊं-हजारों आँखें मूर्ति के साथ रोई और भगवान की प्रतिमा मानो इसलिए और रोये जा रही थी कि मुझ पर विश्वास करने से अच्छा होता, आप लोग संसार के दुःख और दुःखों के कारण ढूँढते और उन्हें मिटाते.
उधर पुलिस हरकत मे आ गयी थी. उच्च-पदाधिकारियों ने मीटिंग बुलाई. मीटिंग मे निष्कर्ष निकला कि हो न हो इस खेल में किसी शरारती तत्व का हाथ होना चाहिए. उन्होंने ने तय कर लिया था कि उस मूर्ति को यहीं थाना लाया जाये और उसकी डाक्टरी और वैज्ञानिक परिक्षण करवाया जाय.
करीब रात के दस बजे पुलिस का एक दल जेन्यूसो के मकान पर जा पहुँचा. जेन्यूसो सहित उस मूर्ति को अधिकार में ले लिया गया. रास्ते में मूर्ति के आँसुओं का इतना बडा प्रवाह था कि कि सिपाही जिसके हाथ में मूर्ति थी, उसकी भारी वर्दी भींग गई. थाने में मूर्ति का परीक्षण किया गया. जहाँ से भी सम्भव था खोलकर उसे देखा, साफ़ किया गया, पर आँखों से मनुष्य जैसे आँसू कहाँ से आ रहे हैं, इस बात का अन्तिम निर्णय नहीं निकाला जा सका. पुलिस अधिकारियों की भी आँखें गीली होने लगी. उन्होंने प्रार्थना कीं और मूर्ति जहाँ लगी थी, सादर वहाँ पहुँचा दिया. “यह एक ऎसी विलक्षण घटना है जिसका कोई उत्तर पुलिस के पास नहीं है”. ऎसा कहकर पुलिस ने येन्यूसो को भी मुक्त कर दिया.
30 अगस्त को सारे प्रान्त में खबर तेजी से फ़ैल गई. लोग अखबारों और पत्रकारों से पूछताछ करने लगे. “ला सिसीलिया” दैनिक पत्र के सम्पादक ने भी इस घटना का विस्तृत निरीक्षण किया और अपने रविवासरीय अंक में बडॆ विश्वास के साथ लिखा-“ हम स्वयं मेडॆना के बहते आँसू देख चुके हैं. सायरेक्यूस स्टेशन आगन्तुक दर्शनार्थियों के लिए छॊटा पड रहा है . इस घटना ने सर्वत्र तहलका मचा दिया है, लगता है परमात्मा अपने विश्वास को प्रकट करने के लिए ही आँसुओं को अभिव्यक्त कर रहा है. यह वह क्षण है, जब हम सव विचारशील लोग यह सोचने पर विवश होते हैं, कि सचमुच विज्ञान से भी बडी कोई ताकत संसार में है, जो दिखाई न देने पर भी मानवीय शक्ति से प्रबल है. तब उसके हस्तक्षेप से परे कुछ भी न होना चाहिए.”
इस प्रकार का एक बयान मिस्टर मासूमेकी ने भी प्रकाशित कराया. बाद में इस मूर्ति के दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों की सुविधा और सुरक्षा के लिए जो कमेटी बनाई गई, वह उसके अध्यक्ष भी नियुक्त किए गए. इस तरह सैकडॊं प्रामाणिक व्यक्तियों ने रोती हुई मूर्ति का आँखों देखा हाल छापा. इसी दिन “ ला सिसीलिया डेल लेनेडी” अखबार के एक रिपोर्टर ने अखबार को टेलीफ़ोन में बताया कि----“मेडेना के आँसू बन्द नहीं हो रहे हैं. यह एक महान आश्चर्य है जिसके रहस्य का पता लगाया ही जाना चाहिए. यदि यह सच है कि मूर्ति के आँसुओं का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है तो हमे उस सत्ता की खोज के लिए भी प्रयत्न करना चाहिए जो पदार्थ विज्ञान को भी नियन्त्रण में रख सकती है, उस पर स्वतन्त्र आधिपत्य स्थिर कर सकती है.” इसी तरह के अनेक सुझाव और परामर्श भिन्न-भिन्न पेशों के अनेक लोगों ने व्यक्त किए. इधर मूर्ति के दर्शनों के लिए हजारों लोग खिंचे चले आ रहे थे.
मूर्ति रुदन के चौथे और अन्तिम दिन “ ला सिसीलिया” के इस कथन---“ मेडेना के दर्शनार्थियों की भीड जिस तेजी से बढ रही है, यह रहस्य उतना ही उलझता जा रहा है. यह निर्विवाद है कि वहाँ कोई मनगढन्त कहानी, हिपनोटिज्म अथवा जादुगरी की कोई सम्भावना नहीं है, तो फ़िर आँसुओं के बहने का वैज्ञानिक कारण क्या है, उसका पता लगाया ही जाना चाहिए.” –पर सरकारी तौर पर तीव्र प्रतिक्रिया अभिव्यक्त की गई.
उसी दिन दस पुरोहितों (प्रीस्ट्स) के एक दल (डेलीगेशन) ने भी यह घटना देखी. फ़ादर वेंसेन्जो ने रोती हुई प्रतिमा के कैमरा फ़ोटॊ लिए. बाद में और भी बहुत से फ़ोटॊ लिए गए. उसी दिन इटालियन क्रिश्चियन लेबर यूनियन के अध्यक्ष प्रो.पावलो अलबानी ने भी सारी घटना की दुबारा ब्योरेवार जाँच की, और उन्होंने पाया कि यह आँसू किसी क्रत्रिम उपकरण की देन नहीं है, वास्तविक मूर्ति के ही आँसू है. आँखों के अतिरिक्त मूर्ति का कोई अंग गीला नहीं मिला. उसी दिन सरकारी तौर पर एक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का गठन किया गया, उसमें पुलिस के आधिकारी, विशेषज्ञ और वैज्ञानिक भी थे और उनसे घटना का निश्चित उत्तर देने को पूछा गया.
एक सितम्बर 1953 का दिन. फ़ादर ब्रूनो, जाँच विशेषज्ञ और पुलिस अधिकारी उस मकान में पहुँचे, जहाँ वह आँसू बहाने वाली प्रतिमा रखी थी. बडी मुश्किल से पुलिस की सहायता से सब लोग मूर्ति तक पहुँच सके. भीड का कोई आदि था और न ही अन्त. जिन चार व्यक्तियों की देख-रेख में परीक्षण प्रारम्भ हुआ वह-(1) जोसेफ़ ब्रूनो पी.पी.(2) डा, मैकेल केसैला, डाइरेक्टर आफ़ माइक्राग्रेफ़िक डिपार्टमेण्ट (3) डा फ़ैंक कोटजिया असिस्टेण्ट डाइरेक्टर (4) डा.लूड डी.उर्सो थे. इनके अतिरिक्त निस सैम्पारिसी, चीफ़ कान्स्टेबुल प्रो.जी.पास्किवलोनो डी.फ़्लोरोडा, डा.ब्रिटिनी (केमिस्ट) फ़ैरिगो उम्ब्रर्टॊ (स्टेट पुलिस के ब्रिगेडियर) तथा प्रेसीडेण्ट आफ़िस के प्रथम लेफ़्टिनेन्ट कारमेलो रमानों भी थे.
जब चारों वैज्ञानिक और विशेषज्ञों ने आवश्यक जाँच के कागज तैयार कर लिए, तब उन्होंने मूर्ति देने के लिए एण्टोनियेटा से प्रार्थना की. मूर्ति अलमारी में एक कागज में लिपटी हुई थी. एण्टोनियेटा के शारीरिक लक्षण तेजी से बदल रहे थे. डाक्टर का उपचार भी काम कर रहा था, अब तक उसकी आँखों में प्रकाश भी आ चुका था और जुबान का लडखडाना भी बन्द हो चुका था. डाक्टर उसे भगवान की कृपा मान रहे थे, क्योंकि चार दिन पूर्व तक उस पर किसी दवा का प्रभाव नहीं हो रहा था.
उसने मूर्ति का द्वार खोल दिया. उक्त विशेषज्ञों ने दाईं और बाईं दोनो आँखों से, पिपेट की सहायता से,“ एक-एक सी.सी.(One C.C.) आँसू इकठ्ठा किए. इन्होंने सब तरफ़ से परीक्षण किया पर आँसू कहाँ से आ रहे हैं, यह न जान सके, पर इधर इण्टॊनियेटा भी चंगी हो चुकी थी और आँसुओं की भी वह अन्तिम किश्त थी, जिसे जाँच कमेटी एकत्रित कर सकी थी, बस तभी अचानक मूर्ति की आँखों से आँसू आने बन्द हो गए.
अगले दिन आँसुओं का विश्लेषण (एनालिसिस) किया गया. प्रो. ला. रोजा ने लिखा
श्री पूज्य एम.डी. कास्ट्रो, प्रीस्ट आफ़ सेण्टिगो डी.सूडाड रिकाल स्पेन, आपकी प्रार्थना पर वह सब कुछ लिख रहा हूँ---कमीशन ने आँसू इकठ्ठे किए हैं, मूर्ति दो पेंचों के द्वारा जुडी हुई थी. मूर्ति का प्लास्टर बिल्कुल सूखा हुआ था, आँसुओं का निरीक्षण आर्कबिशप क्यूरियो द्वारा नियुक्त कमीशन ने किया है, माइक्रो किरणॊं से देखने पर इन आँसुओं में वे सभी तत्व पाये गए हैं, जो तीन वर्ष के बच्चे के आँसुओं में होते हैं, यहाँ तक कि क्लोरेटियम के पानी का घोल, प्रोटीन व क्वार्टरनरी साफ़ झलक दे रहा था. मेरी पूर्ण जानकारी में मेरे हस्ताक्षर साक्षी हैं. हस्ताक्षर प्रो.एल. रोजा
बाद में मूर्ति बनाने वाला कारीगर भी आया. उसने अपने हाथ से बनाई हुई अनेक मूर्तियों के बारे में बताया, जो बाजार में बिकीं, पर उनमें से किसी के साथ ऎसी कोई घटना नहीं हुई.
अन्ततः वैज्ञानिक हैरान रहे, कि जब तक एण्टॊनियेटा को अत्यधिक पीडा रही, मूर्ति क्यों रोती रही और डाक्टरी सहायता के बावजूद भी जो अच्छी न हुई थी. वह कैसे अच्छी हुई और असहाय का कष्ट दूर होते ही मूर्ति के आँसू क्यों बंद हो गए ?. इसका कोई निश्चित निष्कर्ष वे न निकाल सके पर उन्होंने यह अवश्य स्वीकार किया कि इस विज्ञान से भी बढकर कोई भावनाओं का विज्ञान अवश्य है, जब तक मनुष्य उस पर विश्वास नहीं करता, उसे जानता नहीं, तब तक उसकी मूल समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं.