समय सदा परिवर्तनशील होता है. समय की कोख से कोई सभ्यता जन्म लेती है, फ़लती-फ़ूलती है, नए-नए आविष्कार होते हैं और आपसी कलह से अथवा प्राकृतिक प्रकोपों की वजह से वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है, यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है. पुरातत्ववेत्ता इनकी खोज करते हैं और इसके प्रमाण भी जुटाते रहते हैं. आश्चर्य इस बात को लेकर होता है कि तथाकथित नयी सम्यता उस प्राचीनतम सभ्यता का या तो माखौल उडाती है अथवा दकियानूसी कहकर अपनी पीठ थपथपाती है. महाभारत अथवा रामायण कालीन युग ही बात करें- कई घटनाएं सामने आती है- मसलन रथियों-महारथियों द्वारा किसी शक्ति का संचालन कर आग बरसना, पानी बरसाना, सशरीर स्वर्ग की यात्रा करना, विमान द्वारा यात्रा करना अथवा श्री कृष्ण द्वारा सुदर्शनचक्र चलाकर शत्रु की गर्दन काटना, अदृष्य हो जाना आदि-आदि, इन सब घटनाओं को काल्पनिक बताया जाता है और यह कहा जाता है कि उस युग में वर्णित इतिहास असम्भव से भी असम्भव है, उस युग में मानव का बौद्धिक स्तर इस योग्य था ही नहीं कि वह कोई चमत्कारिक कार्य कर सकता था.
सच पूछा जाए तो बौद्धिक दृष्टि, विज्ञान, तकनीक, उद्दोग, वाणिज्य, वास्तुकला, स्थापत्य, विमान आदि समस्त क्षेत्रों में जैसी प्रगति प्राचीन काल में हुई ,वैसी स्थिति तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को कई शताब्दियाँ लग जाएंगी.
“चैरियट्स आफ़ गाड्स” नामक पुस्तक में सुप्रसिद्ध जर्मन इतिहासवेत्ता डा.एरिचवन डनिकेन ने सारे संसार का पर्यटन किया और उन तथ्यों का संग्रहण संकलन किया,जिन्हें इस युग में आश्चर्य की संज्ञा दी जाती है. इस अध्ययन का निष्कर्ष विद्वान लेखक ने भी इसी तरह के शब्दों में निकाला है और लिखा है” जहाँ से हमारा इतिहास लिखा गया है उसके पूर्व वैदिक युग की सभ्यता, संस्कृति और वैज्ञानिक उपलब्धियाँ आज की अपेक्षा सैकडॊं गुणा अधिक थी. हमारे पूर्वजों की शक्ति, सामर्थ्य, बौद्धिक और आत्मिक क्षमताएँ ऎसी थीं जिनका वर्णन कर सकना भी असंभव है. उस युग का तकनीकी ज्ञान भी अब से किसी भी स्थिति में कम न था.”
मिस्र के पिरामिडॊं को ही ले लें. यदि उस युग में विज्ञान और तकनीक का कोई विकास नहीं था तो मिस्र में यह पिरामिड बडॆ-बडॆ शहर, मन्दिर,मूर्तियाँ, सडकें, पानी निकास की नालियाँ, चट्टाने काटकर बनाए गए मकबरे, और भयंकर आकार-प्रकार के पिरामिड कहाँ से आए गए ?. इन सबका कोई पूर्व इतिहास नहीं मिलता. इसका अर्थ मिस्र के विशेषज्ञ भी यह निकालते हैं कि तब इस तरह की क्षमताएँ सामान्य बात रही होगी. किसी ने उस सभ्यता के विनाश और भविष्य में परिघटित मानवीय सामर्थ्यों की कल्पना ही न की होगी, इसीलिए सम्भवतः वह इतिहास लिखने के आदि नहीं रहे. एक कल्पना यह भी है कि किसी भयंकर युद्ध(महाभारत) जिसमें अणु आयुध भी प्रयुक्त हुए हों, रेडियो धर्मिता, जल-प्रलय, हिम-प्रलय, भूस्खलन या ज्वालामुखियों ने उस सभ्यता और उसके इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया हो. जहाँ-तहाँ जो सामग्री बच गई हो वही आज पुरातत्व अवशेषों में देखी जा सकती है.
तत्कालीन शारीरिक क्षमता, बुद्धिमत्ता, कला-कौशल के प्रतीक के रुप में “च्योप्स के पिरामिड” को लिया जा सकता है, जहाँ यह पिरामिड बना है, वह स्थान अत्यधिक ऊबड-खाभड क्षेत्र है, उसे समतल बनाने में ही भयंकर परिश्रम करना पडा होगा, फ़िर यही स्थान क्यों चुना गया ?. इसे प्रागैतिहासिक युग की सूक्ष्मतम बौद्धिक सामर्थ्य का प्रतीक कह सकते हैं. यह स्थान महाद्वीपों तथा समुद्रों को ठीक दो बराबर-बराबर भागों में विभक्त करता है. स्पष्ट है कि यह कार्य न तो सागर नापकर किया जा सकता है और न ही धरती. तो फ़िर बहुत सुधरे किस्म के यन्त्रों से प्राप्त जानकारियों को गणित में बदलकर स्थान ज्ञात किया गया होगा. यह स्थान गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बिल्कुल मध्य में जो है, जो यह दर्शाता है कि तब के लोग नक्षत्र विध्या में भी पारंगत थे. चुम्बकीय-बलों से अच्छी तरह परिचित थे.
“च्योप्स” के इस दैत्याकार पिरामिड में 26 लाख पत्थर के सुन्दर डिजाइल किए हुए पत्थर लगे हैं. इसकी फ़िटिंग इतनी साफ़ है को दो पत्थरों के बीच की अधिकतक झिरी 1/1000 इंच से भी कम अर्थात नहीं के बराबर है. इसमें जो गैलेरी है उसकी दीवारें सुन्दर रंगों से पेंट की हुई है. 1 ब्लाक पत्थर का वजन 12 टन का है. आज के स्तर से हिसाब लगाया जाए तो प्रतिदिन अधिक से अधिक दस पत्थर-ब्लाक ही चढाए जा सकते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि 26 लाख पत्थर, 2 लाख 60 हजार दिनों में अर्थात 712 वर्षों में इसका निर्माण सम्भव है, जबकि पिरामिड में उसके एक ही निर्माता का नाम “ फ़राह खुफ़ू” अंकित है.
इस विशाल निर्माण पर आश्चर्य कर लेना एक बात हुई, पर विचारक को तो तब तक सन्तोष नहीं जब तक वस्तुस्थिति की समीक्षा न हो. इस आश्चर्य के पीछे निम्नांकित प्रश्न उभरते हैं और आज के बौद्धिक दम्भ से उसका समाधान चाहते हैं.
(1) 12 टन के पत्थर बनाने के लिए खान से कम से कम 15 टन भार के पत्थर तो निकाले ही गए हैं, यदि उस समय डायनामाइट जैसे तत्व और उपकरण न थे तो इतने भारी वजन के ब्लाक खानों से निकालन कैसे सम्भव हुआ ?.
(2) यह पिरामिड काहिरा और अलेक्जेण्ड्रिया के मध्य बने हैं. गाडी व घोडॊं का प्रचलन भी सन 1600 ई. माना जाता है. फ़िर यह भारी पत्थर बिना किसी सशक्त यातायात साधन के खान से पिरामिड क्षेत्र तक कैसे ढोए गए ?.
(3) मिस्र रेगिस्थानी प्रदेश है जहाँ ताड के अतिरिक्त कोई और लकडियाँ उपल्ब्ध नहीं. इतने भारी भार के पत्थर सिवाय रोलर्स से और किसी तरह स्थान्तरित नहीं हो सकते. इतने बडॆ कार्य के लिए इतने रोलर कहाँ से आये ?. ताड वृक्ष वहाँ के निवासियों का मुख्य आहार-आभार है, वे उसे काट नहीं सकते फ़िर क्या यह रोलर समुद्री मार्ग से आयात किए गये ?. यदि ऎसा हुआ तो क्या तब जलयान नहीं थे ?.
(4) अरब विशेषज्ञों ने इन पिरामिडॊ, भूमिगत शहरी खण्डहरों और इन पिरामिडॊं के निर्माण में लगी जन-शक्ति का अनुमान करते हुए अरब की जनसंख्या 5 करोड निश्चित की है जब कि वहाँ नील डेल्टे के दाएँ-बाएँ बाजू का ही एकमात्र क्षेत्र कृषि की उपज के योग्य है. सो भी अधिकांश नील ही वहाँ पैदा की जाती है. आज से 5000 वर्ष पूर्व समूचे विश्व की आबादी 2 करोड अनुमानित की गई है. फ़िर उससे पूर्व यह 5 करोड आबादी अकेले मिस्र में कहाँ से आ गई ?.उनके भोजन की व्व्यवस्था क्या पडौसी देशों से होती थी ?.
(5) उस युग में विद्दुत नही थी, टार्च नहीं थे, जबकि पिरामिड की सैकडॊं फ़ीट लम्बी सुरंगों की विधिवत रंगाई-पुताई हुई है. मशालों से वहाँ के मजदूरों का दम घुट सकता था. दीवारें काली हो सकती थी. अतएव उनका प्रयोग कदापि न होने की बात एक स्वर से पुरातत्ववेत्ता भी स्वीकर करते हैं. फ़िर प्रकाश की व्यवस्था कैसे हुई ?.
(6) पत्थरों की इतनी अच्छी कटाई कैसे हुई कि दो पत्थर जोडने पर झिरी 1/1000 इंच से भी कम अर्थात हर पत्थर एक-दूसरे से चिपक कर बैठा हो ?.
इस युग को विज्ञान और तकनीक का युग कहते हैं, वजन उठाने वाली अच्छी से अच्छी क्रेनें, सामान ढोने के लिए यातायात के साधन, उन्नत निर्माण यंत्र, अच्छी से अच्छी इंजीनियरी जो भाखडा जैसे बाँध विनिर्मित कर सके, पर यह पिरामिड उन्नत विज्ञान के वश की बात नहीं ?. तब फ़िर यह आश्चर्यजनक रचना कैसे समभव हुई ?. एक ही उत्तर मिलेगा. तब के लोग आज के लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त, समर्थ,बुद्धिमान और हर क्षेत्र में विकसित थे. तब न समुद्री भागों से अपितु वायुमार्गों से भी विमान चलते थे, इसके पुष्ट प्रमाण हैं. भारद्वाज संहिता का “वैमानिक प्रकरण”, जिसमें विमान की विकसित तकनीक का वर्णन है, यह तो प्रमाण है ही, पुरातत्व विभाग ने वह स्थान भी खोजे हैं जो आज की अपेक्षा अधिक सुरक्षित “एरोड्रम तथा हवाई पट्टी” के रुप में प्रयुक्त होते थे.
दमिश्क की “ टौरेस आफ़ वाल बैक” जो कि छत पर बना एक सुन्दर प्लेटफ़ार्म है. यह स्थापत्य कला का भी एक आश्चर्य है इसमें 65-65 फ़ुट और 2000 टन तक के पत्थर प्रयुक्त हुए हैं. इतना वजन या तो एलेक्ट्रान शक्ति चालित क्रेन उठा सकती है या फ़िर हनुमान जैसे प्रचण्ड बलधारी महापुरुष जो सुमेरु को उठाने में भी सक्षम रहे थे. दोनों में से कोई बात हो, पहाड ऊँट के नीचे नहीं आता, ऊँट ही पहाड के नीचे आता है. आज का मनुष्य उस ऊँट की तरह है जो यह समझता है हमसे ऊँचा कोई है ही नहीं, जब वह इस तरह के पहाडॊं के समीप से गुजरता है तब कहीं दर्प चूर होता है और यह मानने को विवश होना पडता है कि आत्मिक-आध्यात्मिक, धार्मिक दृष्टि से समुन्नत होकर भौतिक उपलब्धियाँ न केवल अविकसित की जा सकती है अपितु उनका यथार्थ और मनुष्य जीवन के लिए हितकारक उपभोग भी तभी सम्भव है. अकेला विज्ञान उस शेर की तरह है जो शक्तिशाली तो है, पर उसकी नर-भक्षी नीति विश्व सभ्यता के विनाश का ही कारण बनती जा रही है.
“टेरेस आफ़ बाल बैक” के प्रति अपना विश्वास व्यक्त करते हुए रसियन विद्वान अगरेस्ट का भी अनुमान है कि निश्चित ही यह अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा था जहाँ दूसरे देशों के भी जहाज आते-जाते थे. टिहानको की कृत्रिम पहाडी छत भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है. 4784 वर्ग क्षेत्र में पूरी पहाडी को इस तरह समतल बनाया गया है कि उसमें एक सूत भी ऊँचाई-निचाई का अन्तर नहीं मिलता. टिहानको नगर सुमेरिन सभ्यता का वैसा ही विकसित अंग माना जाता है जैसे सिन्धु घाटी की “हडप्पा व मोहिन जोदडॊ”. सबसे अधिक उन्नति राजा “कुमुन्दजित” के समय हुई. “सुमेरु” से बना शब्द सुमेरियन तथा “कुयुन्दजित” से “कुमुन्दजित” दोनों ही स्पष्टतः भारतीय नाम है और इस बात के प्रमाण है कि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत विश्व शिरोमणि था. अन्य देशों को यहाँ से न केवल आत्म-विद्ध्या के साथ-साथ भवन निर्माण, कलाकारी, विमान विद्ध्या, कृषि और वाणिज्य, भाषा, साहित्य और गणित आदि पढने यहाँ संसार भर के लोग आते थे. पश्चिमी विद्वान “ग्रीक” सभ्यता को अति प्राचीन बताते हैं. इतिहास पूर्व युग में वहाँ की संख्या की दृष्टि से 10,000 सबसे बडी संख्या प्रयुक्त होती थी, इसके बाद से अनन्त शब्द प्रयुक्त होता था, जबकि कुमुदजित पहाडी पर एक गणना अंकित है जिस पर 195955200000000 संख्या अंकित है. यह संख्या किसलिए लिखी गई, किस तरह किसलिए निकाली गई है, यह तो ज्ञात नहीं, पर इतना स्पस्ट है कि इतनी बडी संख्या या तो किन्ही ग्रह-नक्षत्रों की दूरी ज्ञात करने के लिए निकाली गई होगी, तब फ़िर गणित के क्षेत्र में आज से ऊँची स्थिति का अनुमान स्वाभाविक है. भारत से जहाँ भी सभ्यता गई, यह तथ्य सर्वत्र विद्धमान है. असीरियन सम्राट असुर बनीपाल के पुस्तकालय में बहुत बढिया किस्म की मिट्टी से बनाई गई 12 टिकियों में पूरा एक ग्रंथ अंकित है. इसमें भावनाओं की सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति का प्रमाण है. इसकी प्रतिलिपि एकेडियन लिपि में “हमुराबी राजा” के सग्रंहालय में भी मिलती है. इसका अर्थ यह हुआ कि उस युग में भाषा, गणित और इतिहास की शोधें, उनका प्रकाशन भी होता था अपितु वह प्रयत्न भी किए जाते थे, जिनमें विद्ध्या का सर्वत्र प्रसार होता था. पुरातत्व की यह शोध सामग्री, यह आश्चर्यजनक निर्माण और उपलब्धियाँ निःसंदेह इस बात के प्रमाण है कि हमारे पूर्वज किसी भी क्षेत्र में हमसे कम नहीं थे. विद्धया-बुद्धि, कला-कौशल, आवास-निर्माण, विज्ञान तकनीक, शरीर- स्वास्थ्य, विमानन, वाणिज्य, कृषि आदि में उनकी उपलब्धियाँ हमारी अपेक्षा बहुत अधिक बढी-चढी थी, फ़िर भी उनका मूल ध्येय आत्मनिर्माण जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति था. आज स्थिति उल्टी है. आत्म-तत्व की शोध के लिए जब कि विराट ज्ञान उपलब्ध है तब वह भौतिक साधनों की मृग-मरीचिका में भटक गया है फ़िर भी स्वयं को सही तथा पूर्वजो को पिछडा हुआ मानने के दम्भ पर उसे तनिक भी लज्जा नहीं आती.