आँखे कुछ भी देखती हों, मस्तिस्क कुछ भी निर्धारण करता हो, पर तथ्य दूसरे ही हैं. --------------------------------------- निकटवर्ती वस्तुएँ बडी एवं महत्वपूर्व लगती हैं और दूरी का फ़ासला बढ जाने से वे वस्तुएं नगण्य जैसी लगने लगती हैं. उदाहरण के लिए ब्रह्माण्ड और उसकी सत्ता का पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होत्ता है कि अत्यन्त विशालता भी दूरस्थ होने के कारण छॊटी-सी प्रतीत होने लगती है.
पृथ्वी के निकट होने के कारण छॊटा सा चन्द्रमा भी कितना महत्वपूर्ण लगने लगता है, जबकी उस बेचारे का स्तर पृथ्वी के उपग्रह भर जितना है. खुली आँख से देखने पर विशालकाय तारे छॊटे दिखाई देते हैं और चन्द्रमा तुलनात्मक दृष्टि से उपहासास्पद आकार जितना होते हुए भी रात्रि में चमकने वाला सबसे बडा ग्रह पिण्ड प्रतीत होता है.
समस्त आकाशीय पिण्डॊं में चन्द्रमा हमारे सन्निकट है. पृथ्वी से इसकी औसत दूरी ढाई लाख मील से भी कम है. यदि 300 मील प्रति घण्टॆ की रफ़्तार से एक वायुयान शून्य में भी चल सकता हो तो हम एक माह में चन्द्रलोक तक पहुँच सकते हैं.
क्षेत्रफ़ल में भी चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी की अपेक्षा अत्यन्त छॊटा है. इसका व्यास लगभग 3160 मील है. चन्द्रमा की तुलना यदि हम पृथ्वी से करें तो 49 चन्द्रमा मिलकर एक पृथ्वी बना पाएंगे. भार की दृष्टि से पृथ्वी चन्द्रमा से 81 गुनी भारी है अर्थात तराजू के एक पडले पर पृथ्वी रखी जाए तो दूसरे पडले पर 81 चन्द्रमा रखने पर उसका कुल भार एक पृथ्वी के बराबर होगा. पृथ्वी और चन्द्रमा के पत्थरों में 5:3 का अनुपात है.
चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति अत्यन्त कम है. पत्थरों के भार से यह अन्दाज मिलता है. ऊपर से गिरने वाली वस्तु पृथ्वी पर जिस गति से गिरती है चन्द्रमा पर उसकी रफ़्तार 6 गुनी कम हो जाएगी. इसी प्रकार पृथ्वी पर कोई 1 मन वजन वाली वस्तु चन्द्रमा पर पहुँचकर पौने सात सेर की ही रह जाएगी.
सत्य केवल वही नहीं है जो अब तक जाना जा चुका है, अथवा जिसे हम जानते हैं. शक्तिशाली रेडियो, दूरबीनों के द्वारा दूरस्थ तारों के रेडियो सर्वेक्षण से उनके आकार, उत्पत्ति, विकास व विनाश चक्र में उनकी वर्तमान स्थिति, ताप्रक्रम, गुरुत्वाकर्षण आदि का पता चलता है. इन्हीं की सहायता से सौर-मण्डल के दसवें ग्रह का पता चलता है. नवें ग्रह या(प्लूटॊ) के आगे इस दसवें ग्रह का द्रव्य पृथ्वी से 300 गुना है और यह सूर्य के चारों ओर हमारे 511 वर्षों में एक परिक्रमा पूरी करता है. इस ग्रह की सबसे विचित्र विशेषता यह है कि इसकी सूर्य परिक्रमा की दिशा अन्य नौ-ग्रहों के एकदम विपरीत है.
सौर मण्डल की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोजों से पता चला है कि समस्त ग्रहों में प्लूटॊ की दूरी सर्वाधिक है. लेकिन नवीनतम अनुसंधान के अनुसर प्लूटॊ और नेपच्यून दोनो अपनी कक्षा बदलते रहते हैं. यह आगे दौड, पीछे दौड की प्रक्रिया आगामी 20 वर्षों तक निरन्तर चलती रहेगी. इसके पश्चात प्लूटॊ अपनी पूर्व स्थिति पर आ जाएगा. इन दोनों ग्रहों की इस तरह की विलक्षण गतिविधियाँ जनवरी 1969 से मार्च 1999 तक अनवरत चलती रही. इसे अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्ड की विलक्षणता का एक अद्भुत उदाहरण कहा है.,
नैपच्यून को सूर्य की अण्डाकार परिक्रमा करने में 164 वर्ष लगते हैं. ज्योतिर्विद श्री लावेल ने भविष्यवाणी की थी कि सूर्य से 4 अरब मील की दूरी पर नवाँ ग्रह भी हो सकता है, जो सूर्य की परिक्रमा 284 वर्ष में पूरी करता है. इस अपूर्ण जानकारी को देकर सन 1916 में लावेल तो दुनिया छॊडकर चले गए. इसके 14 वर्ष बाद अमेरिका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक क्लाइब टामबफ़ ने प्लूटॊ नामक नवें ग्रह को ब्रहमाण्ड से खोज निकाला.
प्लूटॊ और सूर्य के माध्य दूरी 3,66,60,00,000 मील है और 248 वर्ष में इसका परिक्रमा काल पूरा होता है. लेकिन इसका परिक्रमा पथ व्यवस्थित नजर नहीं आता.
इस दोनों नये ग्रहों के उपरान्त अब ऎसे अन्य और ग्रहों की सम्भावना अपने सौर-मण्डल में मानी जाने लगी है जो दूरी के कारण खुली आँखों से न दीखने पर भी विशालता के आधार काफ़ी बडॆ और महत्वपूर्ण हैं.
निखिल ब्रह्मा की विशालता देखते हुए अपना सूर्य एक नन्हा-सा टिमटिमाता हुआ तारा भर है. ब्रह्माण्ड में असंख्यों संसार अज्ञात तथा अनखोजे अस्तित्व में है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक जे.बी.हेल्डन ने इस कल्पनातीत ब्रह्माण्ड के बारे में कहा है-“ब्रह्माण्ड उतना ही विचित्र नहीं है, जितनी हम कल्पना कर लेते हैं, बल्कि उससे भी अति विचित्र है हम जितनी कल्पना कर सकते हैं”.
अमरीकी खगोलदर्शी शैपले ने देखा कि आकाशगंगा के रूप में दीखने वाले झुण्डॊं की पृथ्वी से दूरी 20,000 से 2,00,000 प्रकाशवर्ष ( एक प्रकाशवर्ष= एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकण्ड की चाल से 1 वर्ष में तय की गई दूरी) तक है. उसने यह भी पता लगाया कि ये झुण्ड एक विशाल घेरा बनाते हैं और उन्हें लकडी के तख्ते की तरह विभाजित करती हुई एक आकाश-गंगा गुजरती है. इस घेरे का केन्द्र आकाश-गंगा में है. यह केन्द्र सूर्य से 50,000 प्रकाशवर्ष दूर है.. इस प्रकार शैपले ने यह सिद्ध किया कि सूर्य आकाश-गंगा के केन्द्र पर नहीं है, जैसा कि हार्शेक्त और अन्य वैज्ञानिकों ने कहा था.
अन्तरिक्ष में अनेक आकाश-गंगाएँ मिलकर समूह बनाती हैं. इनको वैज्ञानिकों ने आकाश-गंगा श्रृंखलाएँ कहा है. प्रत्येक श्रूंखला में हजारों आकाश-गंगाएँ रहती हैं. कोशाकतला एक ऎसा ही विशाल आकाश-गंगा समूह है जिसमें 11,000 आकाशगंगाएँ हैं. प्रत्येक गंगा के बीच करोडॊं प्रकाशवर्ष की दूरी है.
निकटवर्ती चन्द्रमा की विशालता और ब्रह्माण्ड भर में बिखरे सूर्य तारकों की स्थिति तुच्छ जितनी दीखने के कारण एक ही है-निकटवर्ती को महत्त मिलना और दूरवर्ती के पल्ले उपेक्षा का बँधना. आँखे कुछ भी देखती हों, मस्तिस्क कुछ भी निर्धारण करता हो, पर तथ्य दूसरे ही हैं. सत्य को खोजने वाले इस रहस्य को जानते हैं कि निकटवर्ती और दूरवर्ती के महत्त्व और अस्तित्व के सम्बन्ध में किस प्रकार भ्रान्तियाँ होती रहती हैं. उपरोक्त उदाहरण एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं, कि जो निकटवर्ती है, दीख पडता है, सही हो, जरूरी नहीं है. वर्तमान मे अतिनिकट होने से उसी के लाभ सर्वोपरि प्रतीत होते हैं जबकि, भविष्य दूरवर्ती होने के कारण उपेक्षित बना रहता है. स्वार्थ साधना का प्रतिफ़ल तुरन्त मिलता है और पर्मार्थ की पारिणति कालान्तर में होती है. इसी भ्रान्ति में मनुष्य यह सोचने लगता है तात्कालिक स्वार्थ साधना में ही बुद्धिमत्ता है. तथ्य इसके विपरीत है. दूरवर्ती एवं चिरस्थायी उज्ज्वल भविष्य का महत्त्व समझने की यदि टेलिस्कोप जैसी दूरदर्शिता हस्तगत हो सके तो प्रतीत होगा कि श्रेय साधन ही महत्त्वपूर्ण एवं श्रेयस्कर है. चन्द्रमा की विशालता और आकाश-गंगा की लघुता माध्यान्तर के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्तियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं. इसी प्रकार वर्तमान में उलझे रहकर संकीर्ण स्वार्थों को ही सब कुछ मान बैठना और परम लक्ष्य की ओर ध्यान न देना अपने ढंग की अदूरदर्शिता ही है. इससे बच निकलने वाले ही सत्य तक पहुँचते और श्रेय साधने में सफ़ल होते हैं.