रहस्यमय ध्वनियाँ एक अलग ही संसार है ध्वनियों का. इनमें से कुछ तो कर्णातीत होती है तो कुछ स्थूल. इस भौतिक दुनियाँ में रहकर हम अपनी इन्द्रियों से सुन सकते हैं, किंतु कई बार आवाजें इतनी रहस्यपूर्ण हो जाती है कि लाख कोशिश करने के बावजूद हम उनके उद्गम की जानकारी का पता नहीं कर पाते और न ही इस बात की जानकारी ही मिल पाती है कि इन ध्वनियों के पीछे प्रकृति का प्रयोजन क्या है. ऎसी ही अनसुलझी आवाजें विश्व के कई स्थलों में समय-समय पर सुनी जा सकती हैं. इसमें ब्रिटेन के डार्टमर, स्काटलैण्ड के कई स्थानों एवं लाफ़ निघ के तटीय क्षेत्रों में प्रायः घटित होते देखी जा रही हैं. यहाँ एण्ट्रिम निवासी मूर्धन्य वैज्ञानिक डब्ल्यू .एस. स्मिथ द्वारा सन 1896 में इंगलैण्ड की प्रसिद्ध पत्रिका “नेचर” में प्रकाशित उनके संस्मरण उल्लेखनीय हैं. वे लिखते हैं कि इंग्लैण्ड की ओर से एक मन्त्री के पद पर उनकी नियुक्ति हुई. अनेक वर्षॊं तक वे उस पद पर कार्य करते रहे. उनका कहना है कि इस मध्य अनेकानेक अवसरों पर लाफ़ निघ नामक विशाल झील के किनारे तोप जैसी तीव्र डेसिबल की एक समय में थोडॆ-थोडॆ अन्तराल पर कई ध्वनियाँ सुनाई पडती थीं, जबकि सच्चाई यह है कि उस क्षेत्र के पास-पास कोई मिलिट्री बेस नहीं था, जिससे यह माना जा सके कि यह तोप जैसी आवाजें वहीं से उत्पन्न होती थीं. उनका अपना अनुमान था कि झील के उस पार से आवाज आती है, किंन्तु बाद में पता चला कि यह झील के अन्दर से आती है. इस बाबत उन्होंने वहाँ के निवासियों एवं मछुआरों से जानकारी लेना चाही. पर वे उसका कारण बता पाने में विफ़ल रहे. आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि भारी विस्फ़ोट के बावजूद उस झील का पानी तक नहीं उछलता है और न ही कोई तीव्र तरंग ही जल में पैदा होती दिखाई पडती है. श्री स्मित लिखते हैं कि उन्होंने वर्ष में केवल एक वर्ष में (1896) कम से कम बीस बार सुने. ऎसे ही विस्फ़ोटॊं का वर्णन बेल्जियम के विख्यात प्रकृतिविद ई. वान .डेन. ब्रोएक ने अपनी चर्चित कृति “ सिमेल एट टेरे” में किया है, जो आज भी ब्रूसेल्स के “नेचरल हिस्ट्री म्यूजियम” में सुरक्षित पडी है. इसमें उन्होंने ऎसे अनेकानेक विस्फ़ोटॊं का उल्लेख किया है, जो समय-समय पर बेल्जियम के समुद्र तट पर सुने जाते रहे है और जिनके स्त्रोत का गहन जाँच-पडताल के बावजूद भी पता न चल सका, अभी भी ऎसी तीव्र आवाजें उस क्षेत्र में यदाकदा सुनी जाती रही हैं, पर रहस्य से पर्दा अब तक नहीं उठ सका है. इसी प्रकार की गन-फ़ायर सुन्दरबन (बंगलादेश) में लम्बे काल से सुनी जाती रही हैं. गंगा नदी से कुछ पश्चिम की ओर सुन्दरबन में बारीसाल नामक गाँव है, जो मुख्य शहर ढाका से लगभग सत्तर मील दक्षिण में स्थित है. बारीसाल और गंगा के पठार में विभिन्न स्थलों कें ऎसी ध्वनियां अक्सर सुनी जाती रही हैं. सन 1896 की “नेचर” पत्रिका में इस आशय की प्रकृतिविद जी.बी.स्काट की विस्तृत रिपोर्ट छपी थी, जिसमें उन्होंने लिखा था कि जब वे सुन्दरबन होते हुए सन 1871 के दिसम्बर माह में कलकत्ता से आसाम जा रहे थे, तो उन्होंने पहली बार यह रहस्यमन ध्वनि बारीसाल में सुनी थी, और इस सम्बन्ध में उक्त गाँव के लोगों से पूछताछ की थी, पर कोई भी इसका समाधान न कर सका. हाँ, उन्होंने इतना अवश्य स्वीकारा कि इस प्रकार के अविज्ञात धमाके प्रायः यहाँ हुआ करते हैं और यह क्रम वर्षों पूर्व से चलता आ रहा है. श्री जी.बी.स्टाक ने अपनी रिपोर्ट में ब्रह्मपुत्र नदी से तीन सौ मील दूर चिलमारी गाँव में भी नदी-तट के आस-पास ऎसी ही विलक्षण गर्जनाओं का उल्लेख किया है प्रख्यात थियोसोफ़िस्ट कर्नल एच. एस, आलकाट ने अपने संस्मरण में बारीसाल के रहस्यमय विस्फ़ोटॊं एवं जी. बी. स्काट के रिपोर्ट की सत्यता की पुष्टि की है. उनके अनुसार बारीसालकी गर्जनाएं इतनी तीक्षण और कर्ण बेधी होती थीं कि मानो निकट के ही किसी सैनिक शिविर से तोप छोडी गई हो, जबकि तथ्य यह है कि वहाँ मीलों दूर तक कोई भी ऎसा शिविर नहीं था. वे लिखते हैं कि अभी भी वहाँ तोप जैसी आवाजें रहस्य के गर्भ में छिपी हुई हैं. इसी तरह की हृदयविदारल तीक्ष्ण आवाजें आस्ट्रेलिया के कई भागों में सुनी गईं हैं, जिनका कारण अब तक जाना नहीं जा सका. तत्कालीन समय के लब्धप्रतिष्ठ भौतिक विज्ञानी ए.स्टुअर्ट अपने निबन्ध “ टू एक्सपेडीशन्स इन टू दि इण्टीरियर आफ़ सदर्न आस्ट्रिलिया “ में कहते हैं, कि फ़रवरी 1829 में डार्लिग नामक नदी के तट पर वे और उनके मित्र श्री ह्यूम के साथ 7 फ़रवरी के दिन लगभग तीन बजे घूमने निकले. आकाश बिल्कुल स्वच्छ था. बादलॊ के कहीं नामोनिशान नहीं थे. अचानक तीव्र गर्जना हुई. यह न तो ज्वालामुखी के फ़टने जैसी थी और न ही किसी वृक्ष के गिरने की, वरन ध्वनि किसी बारूदी धमाके से मिलती-जुलती थी. वे लिखते हैं कि वहाँ पहुँचते ही उन्हें स्थानीय लोगों के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि इस प्रकार के प्राकृतिक विस्फ़ोट रह-रह कर कई दिनों तक होते रहते हैं. एक अन्य यात्रा के दौरान दोनों मित्रों ने उस क्षेत्र की उस अनसुलझी पहेली का रहस्य जानने का बहुतेरा प्रयास किया, पर सफ़लता की जगह, उन्हें हताशा का ही मुँह देखना पडा. आज भी वहाँ के धमाके पहेली बने हुए हैं.
कर्नल गाडविन आस्टिन ने भारत यात्रा के दौरान अपने यात्रा-विवरण में ऎसे अगणित विस्फ़ोटॊं का वर्णन किया है, जिनका गहन जाँच-पडताल के बाद भी उनके स्त्रोतों का पता न चल सका. मजेदार बात तो यह है कि वे इस बात का भी निर्णय नहीं कर सके कि उक्त ध्वनियाँ जल, थल. अथवा आकाश में हुई. “अनएक्सप्लेण्ड फ़ैक्ट्स एनिग्माज एण्ड क्यूरियोसिटिज” पुस्तक में जे. जे आस्टर के अनुभवों का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि 1970 में जब वे वायोमिंग एवं डकोटा की श्याम पहाडियों में अपने साथियों के साथ भ्रमण कर रहे थे, तो उन्हें रह-रहकर कर्ण-झिल्ली को फ़ाड देने वाले ऎसे धमाके सुनाई पडते रहे, मानो आस-पास ही भयंकर बमबारी हो रही हो. उसी दिन उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ पूरा जंगल छान डाला, किन्तु कहीं भी किसी प्रकार के विस्फ़ोट के कोई चिन्ह नहीं दिखाई पडॆ. निकटवर्ती गाँव के लोगों से इस समबन्ध में जानकारियाँ चाही गईं, तो उनका कहना था कि इस तरह की रहस्यमय आवाजें लम्बे समय से इन वनों में होती आयी है. किसी को भी इन आवाजों का रहस्य विदित नहीं है. उक्त पुस्तक के लेखक श्री रपर्ट टी. गाउल्ड एवं जे.जे. आस्कर की अपनी धारणा है कि विश्व के अनेक देशों में घटने वाली यह घटनाएं संभवतः किन्हीं प्राकृतिक कारणॊं से घटती हों, पर ऎसा क्यों होता है और उसके पीछे प्रकृति का उद्देश्य क्या है, इसका उद्घाटन होना ही चाहिए. यह सत्य है कि निरर्थक लगने वाली यह ध्वनियाँ ऎसी है नहीं. इनके पीछे प्रकृति का को-न-कोई प्रयोजन अवश्य निहित है. यह बात और है कि पदार्थ विज्ञान और हमारी स्थूल बुद्धि उस तथ्य का अनावरण नहीं कर पा रहे हैं जिसके लिए प्रकृति ऎसे कौतुक रचती रहती है. सत्यान्वेशण के लिए हमें पदार्थ से अपदार्थ, भौतिक से अभौतिक, दृष्य से अदृष्य और स्थूल से सूक्ष्म की ओर उस दिशा में अग्रसर होना पडॆगा, जिसे ऋषियों ने अध्यात्म विज्ञान के नाम पर अभिहित किया है, ऎसा होने पर ही रहस्यमय लगने वाली इन स्थूल ध्वनियों का सूक्ष्म और वास्तविक कारण हम जान सकेंगे.
प्रो. राजेश्वर आनदेव, श्री गणेश कालोनी, नरसिंहपुर रोड,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001